यह कहना, महज खुद को तसल्ली देने जैसा होगा कि देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वास्तव में यह नहीं कहा कि मूल्य वृद्धि ने गरीबों से ज्यादा अमीरों को प्रभावित किया है। दरअसल उनकी तस्वीर और बयान के साथ वायरल हुए इस ट्वीट के खासा नुकसानदेह साबित होने के चलते, पीआईबी (सरकारी जन सूचना ब्यूरो) के फैक्ट चेक (तथ्य-जांच) विंग द्वारा इसे (ट्वीट को) फर्जी खबर घोषित किया गया था।
लेकिन क्या ऐसा था? सोशल मीडिया पर एक अन्य पोस्ट में वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों के विभाग द्वारा अप्रैल 2022 में प्रकाशित मासिक आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा गया है, "उपभोग पैटर्न के साक्ष्य बताते हैं कि भारत में मुद्रास्फीति (महंगाई) का उच्च आय वाले वर्ग वाले समूहों की तुलना में, निम्न-आय वर्ग वाले समूहों पर कम प्रभाव पड़ा है"। लिहाजा निश्चित रूप से मुद्रास्फीति के प्रभाव के बारे में यह विचित्र और कठोर दृष्टिकोण सीतारमण द्वारा चलाए जा रहे मंत्रालय की जड़ों में समाया हुआ है। ऐसे में उन्होंने यह (ट्वीट) कहा था या नहीं, अपने आप में महत्वहीन हो जाता है। उनका मंत्रालय निश्चित रूप से इस पर विश्वास करता है।
कीमतें ऐसे समय में बढ़ रही हैं जब रोजगार, आजीविका के अवसर और आय में गिरावट आ रही है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी द्वारा किए गए सर्वेक्षणों के हालिया निष्कर्ष सतर्क करने और चौंकाने वाली वास्तविकता को उजागर करते हैं कि 17 प्रतिशत परिवारों की औसत मासिक आय 2020-21 में सिर्फ 8,600 रुपये थी। करीब 62 फीसदी परिवारों की औसत कमाई महज 14,400 रुपये महीना थी। इतनी कम आय के साथ, आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि का प्रभाव खौफनाक (सदमा पहुंचाने वाला) है।
लेकिन गरीबों की पीड़ा से बेखबर होने के लिए वित्त मंत्री को दोष क्यों दें? वह अपने नेताओं का अनुसरण करती हैं जो उनसे कई कदम आगे हैं। यूक्रेन युद्ध के कारण विश्व स्तर पर गेहूं की कमी का लाभ उठाते हुए, सरकार ने जानबूझकर किसानों से इसकी खरीद बंद कर दी। एमएसपी को कम रखा और बड़े व्यापारियों को एमएसपी की तुलना में थोड़ी सी अधिक कीमत देकर किसानों से सीधे खरीद की अनुमति दी। और निर्यात के माध्यम से मोहने का काम किया। लेकिन चूंकि देश खासकर पंजाब में मौसम की प्रतिकूल स्थितियों के कारण गेहूं का उत्पादन अब तक के सबसे निचले स्तर पर था, लिहाजा शॉर्टेज (कमी) हो गई।
विश्व स्तर पर ऊंचे दामों पर दूसरे देशों को गेहूं बेचने को शायद ही दुनिया को खिलाने वाला कहा जाता हो लेकिन हमारे प्रधानमंत्री की पीआर क्षमताएं ऐसी हैं कि हाल ही में यूरोप की अपनी यात्रा पर उत्साही अनिवासी भारतीयों की भीड़ को संबोधित करते हुए, घोषणा कर डाली कि जहां भी खाने को लेकर मानवीय संकट है, भारत उनको खिलाने को तैयार है। इसके लिए कदम उठाएगा। उन्होंने सद्भाव दर्शाते हुए कहा कि यह सब उनके पूर्ववर्तियों के निराशाजनक रिकॉर्ड के बावजूद संभव हुआ। इस बीच भारत में गेहूं की कमी के कारण खुदरा कीमतों में भारी वृद्धि और सार्वजनिक वितरण प्रणाली में 55 लाख टन की आपूर्ति में कटौती हुई। दुनिया को खिलाना तो दूर, सरकार को जल्दबाजी में अपने कदम पीछे खींचने पड़े और गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगाना पड़ा, जबकि गेहूं के आटे की कीमत ऊंची बनी हुई हैं, जिससे परिवारों को अपने आहार के एक अनिवार्य हिस्से में कटौती करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।
गेंहू कांड, सरकार की घोर निष्ठुरता का ताजा उदाहरण है। वहीं, 14.2 किलो रसोई गैस सिलेंडर की कीमतों में एक साल में 480 रुपये की रिकॉर्ड वृद्धि से सिलेंडर की कीमतें 1,000 रुपये को पार कर जाना, बहुप्रचारित उज्ज्वला योजना का भी मजाक है। इस सरकार के दरबारियों का सबसे गुप्त रहस्य यह है कि पिछले दो साल से सरकार द्वारा गैस सिलेंडर की सब्सिडी बंद की हुई है। आदिवासी समुदायों जैसे सबसे कमजोर वर्गों को भी नहीं बख्शा गया है। 2022-2023 के बजट में विशेष जनजातीय (एसटीसी) मद में, आदिवासी परिवारों को गैस सिलेंडर के प्रावधान के लिए सब्सिडी 1,064 करोड़ रुपये से घटाकर महज 172 करोड़ रुपये कर दी गई हैं। यह सब भी ग्रामीण महिलाओं को ईंधन संग्रह की कड़ी मेहनत से बचाने की कीमत पर किया जा रहा है। अब भला इस कीमत पर गैस सिलेंडर कौन खरीद सकता है?
अब यह समझने के लिए किसी को अर्थशास्त्री होने की जरूरत नहीं है कि पेट्रोलियम उत्पादों पर उपकर (सेस) में भारी वृद्धि ने, उनकी कीमतों को दुनिया में सबसे उच्च स्तर पर पहुंचा दिया है। जो, मुद्रास्फीति (महंगाई) बढ़ाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण चालक (ड्राइवर) का काम कर रहा है। पिछले चार वर्षों में पेट्रोल और डीजल पर उपकर और करों के माध्यम से सरकार, अपने राजस्व को औसतन 1.5 लाख करोड़ रुपये प्रति वर्ष तक बढ़ा रही है। यही नहीं, इस उपकर मार्ग का दूसरा उपयोग यह है कि सरकार इस उपकर राजस्व को राज्यों के साथ साझा नहीं करता है। अगर सरकार महंगाई के असर को लेकर जरा भी परेशान होती तो वह पेट्रोल और डीजल पर सेस और टैक्स के भारी बोझ को उलट देती। यानी कम कर देती। लेकिन सरकार को गरीबों की नहीं, बल्कि वोटों की चिंता है, जो सरकार बनाती है। राज्य विधान सभाओं के हालिया चुनावों से पहले 137 दिनों के लिए, सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर कीमतों में बढ़ोतरी को होल्ड पर (रोके) रखा। और नतीजों के कुछ दिन बाद, मतदाताओं को विशेष उपहार के तौर पर लगभग हर दिन कीमतों में बढ़ोतरी की गई।
एक अन्य कारक/कारण बड़ी कंपनियों को मनमाना, जो वो चाहती है, चार्ज करने के लिए दिया गया लाइसेंस है। दूसरा, आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को नियंत्रित करने के लिए सरकार ने कानून के प्रति अपनी जो नापसंदगी दिखाई और हकीकत में दो साल पहले संसद के माध्यम से पारित कानून के नए संस्करण में कीमतों में 50% तक की बढ़ोतरी को वैध कर दिया। यह किसानों का संघर्ष था जिसने आवश्यक वस्तु मूल्य नियंत्रण कानून को कमजोर करने सहित कानूनों को निरस्त करने के लिए मजबूर किया। लेकिन जब इसकी सबसे ज्यादा जरूरत पड़ी है तो सरकार ने कार्रवाई करने से इनकार कर दिया है। खाद्य तेलों का उदाहरण लें, जिनकी कीमतों में अभूतपूर्व वृद्धि देखी गई है। और लोगों के कष्टों से गुजरने के बीच, कुछ ने भारी मुनाफा कमाया है। एक हालिया रिपोर्ट से पता चलता है कि गौतम अडानी की कंपनी, अदानी विल्मर ने अपने राजस्व में 46% की वृद्धि की है, वो भी मुख्यत: खाद्य तेलों की बिक्री से और खाद्य तेल उद्योग के 20% हिस्से पर कब्जा कर लिया। इसके कर पूर्व लाभ में 40 प्रतिशत का उछाल देखा गया। यह सरकार की दरियादिली है कि आवश्यक वस्तुओं के संवेदनशील क्षेत्र में एकाधिकार (मोनोपॉली) के विकास की अनुमति दी गई और फिर कीमतों में असीमित वृद्धि की अनुमति दी जाती है। जो भी लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाला एक कारक है।
इसे कमजोर करने के लाख प्रयासों के बावजूद, भारत में एक मजबूत सार्वजनिक वितरण प्रणाली है। जब खुले बाजार में आवश्यक वस्तुओं के दाम अधिक होते हैं, तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से सरकारी हस्तक्षेप कीमतों को कम करने के साथ-साथ लोगों को राहत देने का एक महत्वपूर्ण जरिया होता है। पीडीएस में नियंत्रित कीमतों पर और अधिक वस्तुओं को शामिल करने की तत्काल आवश्यकता है जो किया जा सकता है। केरल इसका एक उदाहरण है।
केरल में कई दशक पहले जब कम्युनिस्ट नेता ईके नयनार मुख्यमंत्री थे, सरकार द्वारा संचालित उचित मूल्य की दुकानों के नेटवर्क जिसे "मावेली स्टोर" कहा जाता है, की एक व्यवस्था शुरू की गई थी। अब पूरे राज्य में ऐसे लगभग 1,630 स्टोर हैं। जो सभी राशन कार्डधारकों को, 13 आवश्यक वस्तुएं खुले बाजार से काफी कम कीमत पर बेचते हैं। पिछले 6 साल से इनकी कीमतें स्थिर बनी हुई हैं। कल, मैं एक पार्टी कार्यक्रम में भाग लेने के लिए कन्नूर जिले में थी तो जिस गाँव में मैं जा रही थी वहाँ सड़क पर एक दुकान के सामने से गुज़री, जो विशेष रूप से व्यस्त लग रहा था। मुझे बताया गया कि यह एक "मावेली स्टोर" है। जिज्ञासवश, मैं अंदर गई और पहली चीज़ जो मैंने देखी वह एक प्राइस लिस्ट (मूल्य सूची) थी।
यह सब सरकारी हस्तक्षेप, सब्सिडी और लोगों के कल्याण के लिए सरकार की चिंता के कारण ही संभव हो सका है। यही केरल मॉडल है।
जब भाजपा विपक्ष में थी, तो संसद के रिकॉर्ड से देखा जा सकता है, तत्कालीन यूपीए सरकार के खिलाफ जो मुख्य आरोप लगाए जाते थे, उनमें से एक यह था कि यह मूल्य वृद्धि के लिए जिम्मेदार है। दिसंबर 2009 में संसदीय कार्यवाही की प्रेस रिपोर्टों में उल्लेख किया गया है कि कैसे भाजपा नेता संसद के दोनों सदनों में चिल्लाते थे: "महंगाई को रोक दो, वर्ना गद्दी छोड़ दो (कीमतों को नियंत्रित करें या सरकार छोड़ों" संयोग से यह नारा वामपंथियों से उधार लिया गया था लेकिन आज, जब कीमतें बढ़ रही हैं, सत्ताधारी शासन के नेता एक मूक चुप्पी साधे हैं। इसके बजाय, वे उल्टे अपने गढ़े हुए विभाजनकारी नारों से लोगों का ध्यान भटकाने का भरसक प्रयास कर रहे हैं।
(यह आर्टिकल एनडीटीवी अंग्रेजी से नवनीश कुमार द्वारा सबरंग हिंदी के लिए अनुवादित किया गया है।)
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लेकिन क्या ऐसा था? सोशल मीडिया पर एक अन्य पोस्ट में वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों के विभाग द्वारा अप्रैल 2022 में प्रकाशित मासिक आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा गया है, "उपभोग पैटर्न के साक्ष्य बताते हैं कि भारत में मुद्रास्फीति (महंगाई) का उच्च आय वाले वर्ग वाले समूहों की तुलना में, निम्न-आय वर्ग वाले समूहों पर कम प्रभाव पड़ा है"। लिहाजा निश्चित रूप से मुद्रास्फीति के प्रभाव के बारे में यह विचित्र और कठोर दृष्टिकोण सीतारमण द्वारा चलाए जा रहे मंत्रालय की जड़ों में समाया हुआ है। ऐसे में उन्होंने यह (ट्वीट) कहा था या नहीं, अपने आप में महत्वहीन हो जाता है। उनका मंत्रालय निश्चित रूप से इस पर विश्वास करता है।
कीमतें ऐसे समय में बढ़ रही हैं जब रोजगार, आजीविका के अवसर और आय में गिरावट आ रही है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी द्वारा किए गए सर्वेक्षणों के हालिया निष्कर्ष सतर्क करने और चौंकाने वाली वास्तविकता को उजागर करते हैं कि 17 प्रतिशत परिवारों की औसत मासिक आय 2020-21 में सिर्फ 8,600 रुपये थी। करीब 62 फीसदी परिवारों की औसत कमाई महज 14,400 रुपये महीना थी। इतनी कम आय के साथ, आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि का प्रभाव खौफनाक (सदमा पहुंचाने वाला) है।
लेकिन गरीबों की पीड़ा से बेखबर होने के लिए वित्त मंत्री को दोष क्यों दें? वह अपने नेताओं का अनुसरण करती हैं जो उनसे कई कदम आगे हैं। यूक्रेन युद्ध के कारण विश्व स्तर पर गेहूं की कमी का लाभ उठाते हुए, सरकार ने जानबूझकर किसानों से इसकी खरीद बंद कर दी। एमएसपी को कम रखा और बड़े व्यापारियों को एमएसपी की तुलना में थोड़ी सी अधिक कीमत देकर किसानों से सीधे खरीद की अनुमति दी। और निर्यात के माध्यम से मोहने का काम किया। लेकिन चूंकि देश खासकर पंजाब में मौसम की प्रतिकूल स्थितियों के कारण गेहूं का उत्पादन अब तक के सबसे निचले स्तर पर था, लिहाजा शॉर्टेज (कमी) हो गई।
विश्व स्तर पर ऊंचे दामों पर दूसरे देशों को गेहूं बेचने को शायद ही दुनिया को खिलाने वाला कहा जाता हो लेकिन हमारे प्रधानमंत्री की पीआर क्षमताएं ऐसी हैं कि हाल ही में यूरोप की अपनी यात्रा पर उत्साही अनिवासी भारतीयों की भीड़ को संबोधित करते हुए, घोषणा कर डाली कि जहां भी खाने को लेकर मानवीय संकट है, भारत उनको खिलाने को तैयार है। इसके लिए कदम उठाएगा। उन्होंने सद्भाव दर्शाते हुए कहा कि यह सब उनके पूर्ववर्तियों के निराशाजनक रिकॉर्ड के बावजूद संभव हुआ। इस बीच भारत में गेहूं की कमी के कारण खुदरा कीमतों में भारी वृद्धि और सार्वजनिक वितरण प्रणाली में 55 लाख टन की आपूर्ति में कटौती हुई। दुनिया को खिलाना तो दूर, सरकार को जल्दबाजी में अपने कदम पीछे खींचने पड़े और गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगाना पड़ा, जबकि गेहूं के आटे की कीमत ऊंची बनी हुई हैं, जिससे परिवारों को अपने आहार के एक अनिवार्य हिस्से में कटौती करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।
गेंहू कांड, सरकार की घोर निष्ठुरता का ताजा उदाहरण है। वहीं, 14.2 किलो रसोई गैस सिलेंडर की कीमतों में एक साल में 480 रुपये की रिकॉर्ड वृद्धि से सिलेंडर की कीमतें 1,000 रुपये को पार कर जाना, बहुप्रचारित उज्ज्वला योजना का भी मजाक है। इस सरकार के दरबारियों का सबसे गुप्त रहस्य यह है कि पिछले दो साल से सरकार द्वारा गैस सिलेंडर की सब्सिडी बंद की हुई है। आदिवासी समुदायों जैसे सबसे कमजोर वर्गों को भी नहीं बख्शा गया है। 2022-2023 के बजट में विशेष जनजातीय (एसटीसी) मद में, आदिवासी परिवारों को गैस सिलेंडर के प्रावधान के लिए सब्सिडी 1,064 करोड़ रुपये से घटाकर महज 172 करोड़ रुपये कर दी गई हैं। यह सब भी ग्रामीण महिलाओं को ईंधन संग्रह की कड़ी मेहनत से बचाने की कीमत पर किया जा रहा है। अब भला इस कीमत पर गैस सिलेंडर कौन खरीद सकता है?
अब यह समझने के लिए किसी को अर्थशास्त्री होने की जरूरत नहीं है कि पेट्रोलियम उत्पादों पर उपकर (सेस) में भारी वृद्धि ने, उनकी कीमतों को दुनिया में सबसे उच्च स्तर पर पहुंचा दिया है। जो, मुद्रास्फीति (महंगाई) बढ़ाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण चालक (ड्राइवर) का काम कर रहा है। पिछले चार वर्षों में पेट्रोल और डीजल पर उपकर और करों के माध्यम से सरकार, अपने राजस्व को औसतन 1.5 लाख करोड़ रुपये प्रति वर्ष तक बढ़ा रही है। यही नहीं, इस उपकर मार्ग का दूसरा उपयोग यह है कि सरकार इस उपकर राजस्व को राज्यों के साथ साझा नहीं करता है। अगर सरकार महंगाई के असर को लेकर जरा भी परेशान होती तो वह पेट्रोल और डीजल पर सेस और टैक्स के भारी बोझ को उलट देती। यानी कम कर देती। लेकिन सरकार को गरीबों की नहीं, बल्कि वोटों की चिंता है, जो सरकार बनाती है। राज्य विधान सभाओं के हालिया चुनावों से पहले 137 दिनों के लिए, सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर कीमतों में बढ़ोतरी को होल्ड पर (रोके) रखा। और नतीजों के कुछ दिन बाद, मतदाताओं को विशेष उपहार के तौर पर लगभग हर दिन कीमतों में बढ़ोतरी की गई।
एक अन्य कारक/कारण बड़ी कंपनियों को मनमाना, जो वो चाहती है, चार्ज करने के लिए दिया गया लाइसेंस है। दूसरा, आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को नियंत्रित करने के लिए सरकार ने कानून के प्रति अपनी जो नापसंदगी दिखाई और हकीकत में दो साल पहले संसद के माध्यम से पारित कानून के नए संस्करण में कीमतों में 50% तक की बढ़ोतरी को वैध कर दिया। यह किसानों का संघर्ष था जिसने आवश्यक वस्तु मूल्य नियंत्रण कानून को कमजोर करने सहित कानूनों को निरस्त करने के लिए मजबूर किया। लेकिन जब इसकी सबसे ज्यादा जरूरत पड़ी है तो सरकार ने कार्रवाई करने से इनकार कर दिया है। खाद्य तेलों का उदाहरण लें, जिनकी कीमतों में अभूतपूर्व वृद्धि देखी गई है। और लोगों के कष्टों से गुजरने के बीच, कुछ ने भारी मुनाफा कमाया है। एक हालिया रिपोर्ट से पता चलता है कि गौतम अडानी की कंपनी, अदानी विल्मर ने अपने राजस्व में 46% की वृद्धि की है, वो भी मुख्यत: खाद्य तेलों की बिक्री से और खाद्य तेल उद्योग के 20% हिस्से पर कब्जा कर लिया। इसके कर पूर्व लाभ में 40 प्रतिशत का उछाल देखा गया। यह सरकार की दरियादिली है कि आवश्यक वस्तुओं के संवेदनशील क्षेत्र में एकाधिकार (मोनोपॉली) के विकास की अनुमति दी गई और फिर कीमतों में असीमित वृद्धि की अनुमति दी जाती है। जो भी लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाला एक कारक है।
इसे कमजोर करने के लाख प्रयासों के बावजूद, भारत में एक मजबूत सार्वजनिक वितरण प्रणाली है। जब खुले बाजार में आवश्यक वस्तुओं के दाम अधिक होते हैं, तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से सरकारी हस्तक्षेप कीमतों को कम करने के साथ-साथ लोगों को राहत देने का एक महत्वपूर्ण जरिया होता है। पीडीएस में नियंत्रित कीमतों पर और अधिक वस्तुओं को शामिल करने की तत्काल आवश्यकता है जो किया जा सकता है। केरल इसका एक उदाहरण है।
केरल में कई दशक पहले जब कम्युनिस्ट नेता ईके नयनार मुख्यमंत्री थे, सरकार द्वारा संचालित उचित मूल्य की दुकानों के नेटवर्क जिसे "मावेली स्टोर" कहा जाता है, की एक व्यवस्था शुरू की गई थी। अब पूरे राज्य में ऐसे लगभग 1,630 स्टोर हैं। जो सभी राशन कार्डधारकों को, 13 आवश्यक वस्तुएं खुले बाजार से काफी कम कीमत पर बेचते हैं। पिछले 6 साल से इनकी कीमतें स्थिर बनी हुई हैं। कल, मैं एक पार्टी कार्यक्रम में भाग लेने के लिए कन्नूर जिले में थी तो जिस गाँव में मैं जा रही थी वहाँ सड़क पर एक दुकान के सामने से गुज़री, जो विशेष रूप से व्यस्त लग रहा था। मुझे बताया गया कि यह एक "मावेली स्टोर" है। जिज्ञासवश, मैं अंदर गई और पहली चीज़ जो मैंने देखी वह एक प्राइस लिस्ट (मूल्य सूची) थी।
यह सब सरकारी हस्तक्षेप, सब्सिडी और लोगों के कल्याण के लिए सरकार की चिंता के कारण ही संभव हो सका है। यही केरल मॉडल है।
जब भाजपा विपक्ष में थी, तो संसद के रिकॉर्ड से देखा जा सकता है, तत्कालीन यूपीए सरकार के खिलाफ जो मुख्य आरोप लगाए जाते थे, उनमें से एक यह था कि यह मूल्य वृद्धि के लिए जिम्मेदार है। दिसंबर 2009 में संसदीय कार्यवाही की प्रेस रिपोर्टों में उल्लेख किया गया है कि कैसे भाजपा नेता संसद के दोनों सदनों में चिल्लाते थे: "महंगाई को रोक दो, वर्ना गद्दी छोड़ दो (कीमतों को नियंत्रित करें या सरकार छोड़ों" संयोग से यह नारा वामपंथियों से उधार लिया गया था लेकिन आज, जब कीमतें बढ़ रही हैं, सत्ताधारी शासन के नेता एक मूक चुप्पी साधे हैं। इसके बजाय, वे उल्टे अपने गढ़े हुए विभाजनकारी नारों से लोगों का ध्यान भटकाने का भरसक प्रयास कर रहे हैं।
(यह आर्टिकल एनडीटीवी अंग्रेजी से नवनीश कुमार द्वारा सबरंग हिंदी के लिए अनुवादित किया गया है।)
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