ईसाईयों को किसी न किसी बहाने डराने-धमकाने की घटनाएं पिछले 11 सालों के दौरान तेजी से बढ़ी हैं और यह हिंसा भाजपा शासित राज्यों में अधिक हो रही है. स्थानीय एवं वैश्विक संस्थाओं की कई रपटों में भारत में ईसाईयों के बढ़ते उत्पीड़न पर चिंता व्यक्त की गई है.

साभार : क्रिश्चियन पोस्ट
कुछ दिन पहले (26 जुलाई 2025) दो ईसाई ननों को छत्तीसगढ़ के दुर्ग रेलवे स्टेशन पर हिरासत में लिया गया. उन पर जो आरोप लगाए गए, वे गंभीर थे जबकि मामला केवल इतना था कि उनके साथ तीन महिलाएं थीं, जो नर्स बनने का प्रशिक्षण लेना चाहती थीं. एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल, जिसमें सीपीएम की वृंदा करात भी शामिल थीं, को उनसे मिलने में बहुत कठिनाईयां पेश आईं. ननों पर मानव तस्करी एवं धर्मपरिवर्तन करवाने के आरोप लगाए गए. जहां राज्य के मुख्यमंत्री मानव तस्करी एवं धर्मपरिवर्तन के प्रयास के आरोपों पर अड़े हुए हैं, वहीं इन महिलाओं के अभिभावकों ने कहा कि उन्होंने उन्हें रोजगार के बेहतर अवसर तलाशने के लिए इन ननों के साथ जाने की इजाजत दी थी.
ईसाईयों को किसी न किसी बहाने डराने-धमकाने की घटनाएं पिछले 11 सालों के दौरान तेजी से बढ़ी हैं और यह हिंसा भाजपा शासित राज्यों में अधिक हो रही है. स्थानीय एवं वैश्विक संस्थाओं की कई रपटों में भारत में ईसाईयों के बढ़ते उत्पीड़न पर चिंता व्यक्त की गई है. प्रार्थना सभाओं पर यह आरोप लगाते हुए हमला किया जाता है कि उनका आयोजन धर्मपरिवर्तन के उद्धेश्य से हो रहा है. दूरदराज के इलाकों में रहने वाले पॉस्टरों और ननों पर हमलों और उत्पीड़न का खतरा कहीं अधिक होता है. बजरंग दल दूरदराज के इलाकों में असहाय ननों और पॉस्टरों पर कानून अपने हाथ में लेकर सीधी कार्यवाही करने में अपनी शान समझता है.
एक अन्य मसला है ईसाईयों के शवों को दफनाने का. ईसाईयों को साझा आदिवासी कब्रिस्तानों में अपने मृतकों को दफन करने से रोका जा रहा है. जैसे, 26 अप्रैल, 2024 को छत्तीसगढ़ में एक 65 वर्षीय ईसाई पुरूष की मौत एक अस्पताल में हो गई. उसके शोकग्रस्त परिवार को तब और अधिक पीड़ा झेलनी पड़ी जब स्थानीय धार्मिक उग्रपंथियों ने उसे गांव में दफनाए जाने में अवरोध खड़े कर दिए और उनसे मांग की कि वे पुनः धर्मपरिवर्तन कर हिंदू धर्म स्वीकार करें. पुलिस के संरक्षण में परिवार ने ईसाई रस्मों एवं रिवाजों के अनुरूप शव को दफनाया. गांव में शांति सुनिश्चित करने के लिए वहां लगभग 500 पुलिसकर्मियों को तैनात करना पड़ा.
ईसाईयों के एक बड़े पंथ के उत्पीड़ित नेता ने 2023 में कहा था, ‘‘हर दिन गिरजाघरों और पॉस्टरों पर चार या पांच हमले होते हैं और हर रविवार यह संख्या दुगनी होकर 10 के करीब पहुंच जाती है. इतने बुरे हालात हमने पहले कभी नहीं देखे.‘. उनके अनुसार "भारत में ईसाईयों का प्रमुख उत्पीड़क संघ परिवार है, जो हिंदू उग्रपंथियों का संगठन है. शक्तिशाली अर्धसैनिक और रणनीतिक संगठन आरएसएस, प्रमुख राजनैतिक दल भाजपा और हिंसक युवा संगठन बजरंग दल इसके भाग हैं.
दो प्रमुख संगठन - वैश्विक स्तर पर ओपन डोर्स और भारत में पर्सीक्यूशन रिलीफ – इन अत्याचारों पर नजर रखने का अमूल्य कार्य कर रहे हैं क्योंकि प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया का ज्यादातर हिस्सा या तो इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए है या सच्चाई नहीं बताता.
पर्सीक्युशन रिलीफ ने 2020 में जारी अपनी रपट में कहा ‘‘भारत में ईसाईयों के प्रति नफरत के कारण किए जाने वाले अपराधों मे 40.87 प्रतिशत की डरावनी वृद्धि हुई है...यह वृद्धि कोविड-19 महामारी का फैलाव रोकने के लिए लगाये गए तीन माह के राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के बावजूद हुई है‘‘. ओपन डोर्स, जो वैश्विक स्तर पर ईसाईयों पर हो रहे अत्याचारों पर नजर रखता है, के अनुसार भारत 'विशेष चिंता' वाले राष्ट्रों की सूची में 11वें स्थान पर है (2024).
सुधी सेल्वाराज और कैनेथ नेल्सन का कहना है कि ‘‘इस ईसाई विरोधी हिंसा...की विशेषता यह है कि यह...सीधी, संरचनात्मक और सांस्कृतिक हिंसा का मिश्रण है, जिसमें स्व-नियुक्त ठेकेदारों के हमले, पुलिस की मिलीभगत, और कानूनों के दुरूपयोग के साथ साथ यह सोच भी शामिल है कि गैर-हिन्दू अल्पसंख्यक राष्ट्र विरोधी होते हैं‘‘.
ईसाई-विरोधी हिंसा के विभिन्न स्वरूपों में बढ़ोत्तरी की व्यापक तस्वीर पिछले कुछ दशकों में अधिकाधिक स्पष्ट नजर आती गई है. ऐसा नहीं है कि यह हिंसा हाल ही में शुरू हुई हो. ज्यादातर मामलों में दूरदराज के इलाकों में यह अन्दर ही अन्दर जारी रही है. मुस्लिम विरोधी हिंसा का लंबा इतिहास रहा है और यह कई बार विकराल रूप में सामने आई है. इसने बड़े पैमाने पर लोगों का ध्यान आकर्षित किया. ईसाई विरोधी हिंसा का स्वरूप (कंधमाल हिंसा और पॉस्टर स्टेन्स को जलाए जाने की घटना को छोड़कर) अलग प्रकार का रहा है. यह चलती रहती है किंतु इसकी ओर आसानी से ध्यान नहीं जाता.
ऐसी पहली बड़ी घटना 1995 में इंदौर में हुई जब रानी मारिया की चाकुओं से गोदकर निर्ममता से हत्या कर दी गई. इसके बाद 1999 में पॉस्टर ग्राहम स्टेन्स की हत्या हुई. वे एक आस्ट्रेलियाई मिशनरी थे और ओडिशा के क्योंझर में काम कर रहे थे. वे कुष्ठ रोगियों की सेवा का काम करते थे. उन पर धर्मपरिवर्तन में शामिल होने का आरोप लगाया गया. उन पर हुए हमले का नेतृत्व बजरंग दल के दारा सिंह ने किया था, जिसने स्थानीय लोगों को उन पर हमला करने के लिए उकसाया. यह अत्यंत भयावह हमला था क्योंकि इसमें उन्हें उनके दो नाबालिग लड़कों टिपोथी और फिलिप के साथ तब जिंदा जला दिया गया था जब वे अपनी खुली जीप में सो रहे थे.
इस हमले को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने ‘दुनिया के सबसे काले कामों में से एक‘ की संज्ञा दी थी. उस समय अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए-भाजपा सरकार सत्ता में थी. वे इस नतीजे पर पहुंचे कि यह सरकार को बदनाम करने के लिए विदेशी शक्तियों द्वारा रची गई साजिश थी. बाद में वाधवा आयोग की रपट आई जिसमें यह कहा गया कि राजेन्द्र पाल उर्फ दारासिंह प्रमुख षड़यंत्रकर्ता था. वह इस समय जेल में आजीवन कारावास की सजा काट रहा है.
इसके पहले आरएसएस द्वारा स्थापित वनवासी कल्याण आश्रम यह प्रचार कर रहा था कि ईसाई मिशनरी शिक्षा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में कार्य करने का दिखावा कर रहे हैं. इस संस्था के प्रमुख आश्रम गुजरात के डांग, मध्यप्रदेश के झाबुआ और उड़ीसा के कंधमाल में स्थापित किए गए और स्वामी असीमानंद और स्वामी लक्ष्माणानंद जैसे लोगों ने अपने एजेंडे के मुताबिक प्रचार शुरू किया. इसी दौरान आदिवासियों को हिंदू सांस्कृतिक और धार्मिक प्रतीकों की ओर आकर्षित करने के लिए कई शबरी कुंभ आयोजित किए गए.
आदिवासी इलाकों में अभाव और निर्धनता की प्रतीक शबरी को एक देवी की तरह प्रचारित किया गया. इसके साथ ही भगवान हनुमान को भगवान राम के प्रति उनकी निष्ठा पर जोर देते हुए प्रस्तुत किया गया. इस धार्मिक-सांस्कृतिक परियोजना के नतीजे में इन दोनों देवी-देवताओं के कई मंदिर भी स्थापित हुए. इस प्रचार-प्रसार के शोरगुल के बीच यह बात भुला दी गई कि ईसाई धर्म भारत में कई सदियों से मौजूद है. यह धर्म भारत में सन् 52 में पहुंचा जब सेंट थामस ने मालाबार के तट पर एक चर्च की स्थापना की. ईसाई मिशनरियों के क्रियाकलाप पिछले लगभग दो सौ सालों से चल रहे हैं. इसके बावजूद देश की कुल जनसंख्या में उनका प्रतिशत केवल 2.3 है. दिलचस्प बात यह है कि जनगणना के आंकड़ों के अनुसार सन् 1971 में वे 2.6 प्रतिशत थे और आज 2.3 प्रतिशत हैं. वहीं प्रचार तंत्र यह बात फैलाने में जुटा हुआ है कि ईसाई मिशनरी बलपूर्वक, छल-कपट से और प्रलोभन देकर धर्मपरिवर्तन करवा रहे हैं. कई राज्यों में धर्मपरिवर्तन विरोधी कानून बनाए गए हैं, जिनका इस्तेमाल मिशनरी कार्यकर्ताओं को और अधिक आतंकित करने के लिए किया जा रहा है.
आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘बंच ऑफ थाट्स‘ में लिखा था कि मुस्लिम, ईसाई और कम्युनिस्ट हिंदू राष्ट्र के लिए आंतरिक खतरे हैं. शायद इसी के अनुरूप, मुस्लिम विरोधी हिंसा के बाद ईसाई विरोधी हिंसा को एजेंडा में शामिल किया गया है.
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
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कुछ दिन पहले (26 जुलाई 2025) दो ईसाई ननों को छत्तीसगढ़ के दुर्ग रेलवे स्टेशन पर हिरासत में लिया गया. उन पर जो आरोप लगाए गए, वे गंभीर थे जबकि मामला केवल इतना था कि उनके साथ तीन महिलाएं थीं, जो नर्स बनने का प्रशिक्षण लेना चाहती थीं. एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल, जिसमें सीपीएम की वृंदा करात भी शामिल थीं, को उनसे मिलने में बहुत कठिनाईयां पेश आईं. ननों पर मानव तस्करी एवं धर्मपरिवर्तन करवाने के आरोप लगाए गए. जहां राज्य के मुख्यमंत्री मानव तस्करी एवं धर्मपरिवर्तन के प्रयास के आरोपों पर अड़े हुए हैं, वहीं इन महिलाओं के अभिभावकों ने कहा कि उन्होंने उन्हें रोजगार के बेहतर अवसर तलाशने के लिए इन ननों के साथ जाने की इजाजत दी थी.
ईसाईयों को किसी न किसी बहाने डराने-धमकाने की घटनाएं पिछले 11 सालों के दौरान तेजी से बढ़ी हैं और यह हिंसा भाजपा शासित राज्यों में अधिक हो रही है. स्थानीय एवं वैश्विक संस्थाओं की कई रपटों में भारत में ईसाईयों के बढ़ते उत्पीड़न पर चिंता व्यक्त की गई है. प्रार्थना सभाओं पर यह आरोप लगाते हुए हमला किया जाता है कि उनका आयोजन धर्मपरिवर्तन के उद्धेश्य से हो रहा है. दूरदराज के इलाकों में रहने वाले पॉस्टरों और ननों पर हमलों और उत्पीड़न का खतरा कहीं अधिक होता है. बजरंग दल दूरदराज के इलाकों में असहाय ननों और पॉस्टरों पर कानून अपने हाथ में लेकर सीधी कार्यवाही करने में अपनी शान समझता है.
एक अन्य मसला है ईसाईयों के शवों को दफनाने का. ईसाईयों को साझा आदिवासी कब्रिस्तानों में अपने मृतकों को दफन करने से रोका जा रहा है. जैसे, 26 अप्रैल, 2024 को छत्तीसगढ़ में एक 65 वर्षीय ईसाई पुरूष की मौत एक अस्पताल में हो गई. उसके शोकग्रस्त परिवार को तब और अधिक पीड़ा झेलनी पड़ी जब स्थानीय धार्मिक उग्रपंथियों ने उसे गांव में दफनाए जाने में अवरोध खड़े कर दिए और उनसे मांग की कि वे पुनः धर्मपरिवर्तन कर हिंदू धर्म स्वीकार करें. पुलिस के संरक्षण में परिवार ने ईसाई रस्मों एवं रिवाजों के अनुरूप शव को दफनाया. गांव में शांति सुनिश्चित करने के लिए वहां लगभग 500 पुलिसकर्मियों को तैनात करना पड़ा.
ईसाईयों के एक बड़े पंथ के उत्पीड़ित नेता ने 2023 में कहा था, ‘‘हर दिन गिरजाघरों और पॉस्टरों पर चार या पांच हमले होते हैं और हर रविवार यह संख्या दुगनी होकर 10 के करीब पहुंच जाती है. इतने बुरे हालात हमने पहले कभी नहीं देखे.‘. उनके अनुसार "भारत में ईसाईयों का प्रमुख उत्पीड़क संघ परिवार है, जो हिंदू उग्रपंथियों का संगठन है. शक्तिशाली अर्धसैनिक और रणनीतिक संगठन आरएसएस, प्रमुख राजनैतिक दल भाजपा और हिंसक युवा संगठन बजरंग दल इसके भाग हैं.
दो प्रमुख संगठन - वैश्विक स्तर पर ओपन डोर्स और भारत में पर्सीक्यूशन रिलीफ – इन अत्याचारों पर नजर रखने का अमूल्य कार्य कर रहे हैं क्योंकि प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया का ज्यादातर हिस्सा या तो इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए है या सच्चाई नहीं बताता.
पर्सीक्युशन रिलीफ ने 2020 में जारी अपनी रपट में कहा ‘‘भारत में ईसाईयों के प्रति नफरत के कारण किए जाने वाले अपराधों मे 40.87 प्रतिशत की डरावनी वृद्धि हुई है...यह वृद्धि कोविड-19 महामारी का फैलाव रोकने के लिए लगाये गए तीन माह के राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के बावजूद हुई है‘‘. ओपन डोर्स, जो वैश्विक स्तर पर ईसाईयों पर हो रहे अत्याचारों पर नजर रखता है, के अनुसार भारत 'विशेष चिंता' वाले राष्ट्रों की सूची में 11वें स्थान पर है (2024).
सुधी सेल्वाराज और कैनेथ नेल्सन का कहना है कि ‘‘इस ईसाई विरोधी हिंसा...की विशेषता यह है कि यह...सीधी, संरचनात्मक और सांस्कृतिक हिंसा का मिश्रण है, जिसमें स्व-नियुक्त ठेकेदारों के हमले, पुलिस की मिलीभगत, और कानूनों के दुरूपयोग के साथ साथ यह सोच भी शामिल है कि गैर-हिन्दू अल्पसंख्यक राष्ट्र विरोधी होते हैं‘‘.
ईसाई-विरोधी हिंसा के विभिन्न स्वरूपों में बढ़ोत्तरी की व्यापक तस्वीर पिछले कुछ दशकों में अधिकाधिक स्पष्ट नजर आती गई है. ऐसा नहीं है कि यह हिंसा हाल ही में शुरू हुई हो. ज्यादातर मामलों में दूरदराज के इलाकों में यह अन्दर ही अन्दर जारी रही है. मुस्लिम विरोधी हिंसा का लंबा इतिहास रहा है और यह कई बार विकराल रूप में सामने आई है. इसने बड़े पैमाने पर लोगों का ध्यान आकर्षित किया. ईसाई विरोधी हिंसा का स्वरूप (कंधमाल हिंसा और पॉस्टर स्टेन्स को जलाए जाने की घटना को छोड़कर) अलग प्रकार का रहा है. यह चलती रहती है किंतु इसकी ओर आसानी से ध्यान नहीं जाता.
ऐसी पहली बड़ी घटना 1995 में इंदौर में हुई जब रानी मारिया की चाकुओं से गोदकर निर्ममता से हत्या कर दी गई. इसके बाद 1999 में पॉस्टर ग्राहम स्टेन्स की हत्या हुई. वे एक आस्ट्रेलियाई मिशनरी थे और ओडिशा के क्योंझर में काम कर रहे थे. वे कुष्ठ रोगियों की सेवा का काम करते थे. उन पर धर्मपरिवर्तन में शामिल होने का आरोप लगाया गया. उन पर हुए हमले का नेतृत्व बजरंग दल के दारा सिंह ने किया था, जिसने स्थानीय लोगों को उन पर हमला करने के लिए उकसाया. यह अत्यंत भयावह हमला था क्योंकि इसमें उन्हें उनके दो नाबालिग लड़कों टिपोथी और फिलिप के साथ तब जिंदा जला दिया गया था जब वे अपनी खुली जीप में सो रहे थे.
इस हमले को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने ‘दुनिया के सबसे काले कामों में से एक‘ की संज्ञा दी थी. उस समय अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए-भाजपा सरकार सत्ता में थी. वे इस नतीजे पर पहुंचे कि यह सरकार को बदनाम करने के लिए विदेशी शक्तियों द्वारा रची गई साजिश थी. बाद में वाधवा आयोग की रपट आई जिसमें यह कहा गया कि राजेन्द्र पाल उर्फ दारासिंह प्रमुख षड़यंत्रकर्ता था. वह इस समय जेल में आजीवन कारावास की सजा काट रहा है.
इसके पहले आरएसएस द्वारा स्थापित वनवासी कल्याण आश्रम यह प्रचार कर रहा था कि ईसाई मिशनरी शिक्षा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में कार्य करने का दिखावा कर रहे हैं. इस संस्था के प्रमुख आश्रम गुजरात के डांग, मध्यप्रदेश के झाबुआ और उड़ीसा के कंधमाल में स्थापित किए गए और स्वामी असीमानंद और स्वामी लक्ष्माणानंद जैसे लोगों ने अपने एजेंडे के मुताबिक प्रचार शुरू किया. इसी दौरान आदिवासियों को हिंदू सांस्कृतिक और धार्मिक प्रतीकों की ओर आकर्षित करने के लिए कई शबरी कुंभ आयोजित किए गए.
आदिवासी इलाकों में अभाव और निर्धनता की प्रतीक शबरी को एक देवी की तरह प्रचारित किया गया. इसके साथ ही भगवान हनुमान को भगवान राम के प्रति उनकी निष्ठा पर जोर देते हुए प्रस्तुत किया गया. इस धार्मिक-सांस्कृतिक परियोजना के नतीजे में इन दोनों देवी-देवताओं के कई मंदिर भी स्थापित हुए. इस प्रचार-प्रसार के शोरगुल के बीच यह बात भुला दी गई कि ईसाई धर्म भारत में कई सदियों से मौजूद है. यह धर्म भारत में सन् 52 में पहुंचा जब सेंट थामस ने मालाबार के तट पर एक चर्च की स्थापना की. ईसाई मिशनरियों के क्रियाकलाप पिछले लगभग दो सौ सालों से चल रहे हैं. इसके बावजूद देश की कुल जनसंख्या में उनका प्रतिशत केवल 2.3 है. दिलचस्प बात यह है कि जनगणना के आंकड़ों के अनुसार सन् 1971 में वे 2.6 प्रतिशत थे और आज 2.3 प्रतिशत हैं. वहीं प्रचार तंत्र यह बात फैलाने में जुटा हुआ है कि ईसाई मिशनरी बलपूर्वक, छल-कपट से और प्रलोभन देकर धर्मपरिवर्तन करवा रहे हैं. कई राज्यों में धर्मपरिवर्तन विरोधी कानून बनाए गए हैं, जिनका इस्तेमाल मिशनरी कार्यकर्ताओं को और अधिक आतंकित करने के लिए किया जा रहा है.
आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘बंच ऑफ थाट्स‘ में लिखा था कि मुस्लिम, ईसाई और कम्युनिस्ट हिंदू राष्ट्र के लिए आंतरिक खतरे हैं. शायद इसी के अनुरूप, मुस्लिम विरोधी हिंसा के बाद ईसाई विरोधी हिंसा को एजेंडा में शामिल किया गया है.
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
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