महंगाई की मार और रोजगार की दरकार

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: April 29, 2022
देश में एक नए प्रकार की राजनीति शुरू हो चुकी है. सरकार बुलडोजर चलवा रही है. जनता धर्म के गर्व में डूबी हुई है जिसे महंगाई और बेरोजगारी परेशान नहीं कर रही है. धार्मिक गर्व में डूबी हुई जनता हिन्दू मुसलमान कर रही है और दूसरी तरफ सरकार गरीबों और बेरोजगारों के हितों को बाजार के सौदागरों को बेचने में लगी हुई है. 



मार्च 2021 से हर महीने महंगाई की दर दो अंकों में रही है. आज धार्मिक गर्व के सहारे 1999 जैसी महंगाई का मुकाबला जनता मुस्कुराते हुए कर रही है. आजकल शहर में घूमते वक़्त ऐसा नहीं लगता, ख़ासकर शादी ब्याह के इंतज़ामों को देखकर कभी नहीं लगता कि लोगों के पास पैसे की कमी है. आई टी सेक्टर में अच्छी सैलरी मिल रही है. टर्म बीमा की बिक्री बढ़ रही है. कारें बिक रही हैं. लोग बढ़ी हुई फ़ीस दे रहे हैं. थोड़े बहुत हैं जो ना-नुकर कर रहे हैं मगर बाक़ी लोग तो आराम से दे ही रहे हैं. कोई शिकायत करता नहीं दिखता कि महंगाई से टूट गए हैं. लोग परेशान हैं मगर हाय तौबा नहीं कर रहे हैं. सब्र और बहादुरी से महंगाई का मुक़ाबला कर रहे हैं. अंदाज़ लगा कर कहा जा सकता है कि महंगाई परेशान तो कर रही है लेकिन महामारी की तरह परेशान नहीं कर रही है. उदारीकरण के इन 20 वर्षों में जनता ने जो कमाया उसका बड़ा हिस्सा उनके हाथों से निकल चुका है. 

देश की बहुसंख्यक आबादी महंगाई की मार झेल रही है और सर्वाधिक आबादी वाला नौजवान देश रोजगार की तलाश करते-करते धार्मिक दंभ के आवरण में जा गिरा है. सरकार महंगाई को बढाते हुए भी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचाने वाले निर्णय ले रही है. कॉर्पोरेट पोषण का सरकारी एजेंडा अपने चरम पर है. अभी हाल ही में बिग बाजार का मामला सामने आया जिसके हजारों करोड़ के बैंक लोन की वसूली अधर में लटकी हुई है और रिलायंस रिटेल के द्वारा इस व्यवसाय को खरीदने की तैयारी हो रही है. अगर लगायी जा रही यह अटकलें सही हैं कि बिग बाजार को अम्बानी की कंपनी ने ख़रीदा है तो बिग बाजार द्वारा लिया गया लोन कितना और किसके द्वारा चुकाया जाएगा इसके बारे में भी पड़ताल होनी चाहिए. 

पत्रकार रवीश कुमार ने बिलकुल जरुरी सवाल उठाया है कि धार्मिक जुलूसों में लफंगई करते, हथियार नचाते, गालियां देते, चीखते, चिल्लाते नौजवानों के हुजूम में कितने डीपीएस या अन्य ब्रांडेड स्कूलों से निकले अंग्रेजी माध्यम के नौजवान हैं, व् कितने हिन्दी माध्यम के घिसटते नौजवान?

नवउदारवाद के जटिल समीकरणों ने जिन वर्गों की क्रय शक्ति का बेहिंसाब विस्तार किया है, जिन्हें अपने बच्चों के लिये किसी भी महंगी दर पर शिक्षा खरीदने की हैसियत है, जिनके लिये मोदी ब्रांड राजनीति मुफीद है, उनमें से कितने प्रतिशत के बच्चे इन धार्मिक जुलूसों में गाली-गलौज और मार-कुटाई करने के लिये शामिल होते हैं? महंगाई और बेरोजगारी से जो वर्ग त्राहि-त्राहि कर रहा है, सबसे अधिक उसी के नौजवान धर्म का ठेका लेकर सड़कों पर आवारागर्दी करते दिख रहे हैं.

वैसे तो, इस देश की राजनीति ही धार्मिक वैमनस्य को प्रोत्साहित कर अपनी रोटी सेंकने वाली बनती गई है और निरन्तर कुछ न कुछ विवाद, कुछ न कुछ कोलाहल होते रहते हैं, लेकिन, वर्तमान में जब भी कोलाहल बढ़ता है तो संदेह उभरता है कि कुछ न कुछ निर्धन, बेरोजगार विरोधी कदम उठने ही वाला है.

यह कमाल का दौर है, प्रोफ़ेसर, शोधार्थी, बुद्धिजीवी महंगाई सहित सामाजिक समस्याओं और उसके गंभीर परिणामों को लेकर समाज को आगाह करते रहे हैं लेकिन गर्व में डूबे लोगों को ऐसी किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है. धार्मिक मद में चूर भारत के लोगों ने यह दिखा दिया है कि महंगाई कोई समस्या नहीं है बल्कि महंगाई की बात करना भी आज गुनाह हो गया है. 

देश अजान, हनुमान चालीसा के कोलाहल में खो रहा है और सरकारी शह पर संस्थान, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वाभिमान और समृधि के खरीद-फ़रोख्त का बाजार तेज हो चला है. सरकारी सस्थान रोजगार सृजन के बजाय बाजार के खिलाडियों का चारागाह बन खोखले होते जा रहे हैं. बड़ी संख्यां में नौजवान आज रोजगार मांगने में नहीं धर्म का झंडा उठा कर दुसरे धर्म को नीचा दिखाने में ही गर्व महसूस कर रहे है. आज उनकी जिन्दगी का प्राथमिक कार्य धार्मिक जुलुस में जाकर दुसरे धर्म को अपमानित कर गर्व की अनुभूति करना है. आज नौजवानों के बड़े तबके में धार्मिक सहिष्णुता, एक दूसरे के धर्मस्थलों को इज़्ज़त की नजर से देखने का संस्कार नष्ट किया गया है उसके लिये राजनीति के खिलाड़ियों ने वर्षों से बड़े प्रयत्न किये हैं. 

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि समाज में लोग आज महंगाई बेरोजगारी जैसे समस्याओं का समाधान निकालने की बात कम करते हैं जबकि मदिर मस्जिद सहित धर्म विशेष से नफ़रत की बात उन्हें आत्म संतुष्टि की अनुभूति कराते हैं. वर्तमान हालात में महंगाई की स्थिति सरकार के काबू से बाहर जा चुकी है जबकि बेरोजगारी की बात और उससके लिए कार्य करना उनके चिंतन और सोच में ही नहीं है. यही वजह है कि बेरोजगारी को ख़त्म करने की दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया है. आज भी करोड़ों लोग रोजगार की आश लगाए बैठे हैं जिनमें महिला बेरोजगारों की स्थिति तुलनात्मक रूप से अधिक ख़राब है. 

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