धर्म के आधार पर भेदभाव के सिद्धांत को राजनीतिक मंजूरी देगा पश्चिम बंगाल और असम का चुनाव?

Written by Navnish Kumar | Published on: March 29, 2021
शुरूआत बांग्लादेश से... 
सभी जानते हैं कि बैरिस्टर जिन्ना और बैरिस्टर सावरकर के धर्म आधारित द्विराष्ट्र के सिद्धांतों का फेल होना ही, बांग्लादेश का निर्माण होना है। हाल ही में इस ऐतिहासिक घटना की 50वीं वर्षगांठ मनाई गई है। 26 मार्च 1971 को बांग्लादेश के पाकिस्तान से अलग होने की घोषणा, धर्म के आधार पर देश का बंटवारा करने वाले लोगों के मुंह पर झन्नाटेदार तमाचा था। वर्तमान में सत्ता संभालने वाली भारतीय जनता पार्टी और उसके मातृसंगठन आरएसएस के लिए भी यह एक सबक है। दरअसल, पाकिस्तान की निर्मिति सिर्फ और सिर्फ धर्म के आधार पर देश बांटने की थी। वही गलती आज फिर दोहराने की तैयारी की जा रही हैं जो है हिंदुओं का हिंदुस्तान।



ऐसे में ताजा विधानसभा चुनाव खास कर बंगाल और असम का चुनाव खासा अहम है, जिसके नतीजे देश के राजनीतिक भविष्य की तस्वीर को साफ करने का काम करेंगे। जी हां, पश्चिम बंगाल और असम में जो भी नतीजा आएगा वह देश की राजनीति को बदलने वाला होगा। इसी से यह सत्ता हासिल करने या बचाने भर का चुनाव नहीं है बल्कि उससे कहीं बड़ा है और इसके कई वैचारिक, सैद्धांतिक और राजनीतिक आयाम हैं। 

मसलन, यह चुनाव इस बात का नहीं है कि ममता का शासन खराब है या अच्छा है या भाजपा के शासन का मॉडल अच्छा है या खराब है। यह दो विचारधाराओं और दो राजनीतिक प्रवृत्तियों के बीच का मुकाबला है, जिसके नतीजों से देश का राजनीतिक भविष्य तय होगा। यह संघीय ढांचे और बहुदलीय लोकतंत्र की मजबूती और धर्मनिरपेक्ष राजनीति को ताकत देने का चुनाव है या फिर वन नेशन वन पार्टी के विचार वाली, बहुसंख्यक ध्रुवीकरण की राजनीति को मजबूत करने वाला है? ऐसे में देखना यही है कि वर्तमान चुनाव क्या देश में धर्म के आधार पर भेदभाव के सिद्धांत को राजनीतिक मंजूरी देने का काम करेंगे?

भारतीय जनता पार्टी दशकों से यह स्थापित करने का प्रयास कर रही है कि वह हिंदुओं की रक्षक इकलौती पार्टी है। ऐसे में पश्चिम बंगाल में, जहां 30 फीसदी मुस्लिम आबादी है वहां अगर भाजपा जीतती है तो हिंदुओं की रक्षक पार्टी होने का उसका प्रचार मजबूती पाएगा। भाजपा भले असम में सीएए को मुद्दा नहीं बना रही है पर बंगाल में यह उसका मुख्य मुद्दा है। इसलिए बीजेपी जीती तो सीएए को भी राजनीतिक वैधता प्राप्त होगी। 

वैसे परिणाम चाहे जो हो, चुनाव बाद बंगाल का बदलना तय माना जा रहा है। ममता जीतीं तो गैर-बांग्लाभाषी बिहार यूपी के उन लोगों का जीना मुहाल होगा जो मोदी-शाह की डुगडुगी बजाए हैं। ठीक विपरीत भाजपा जीती तो कश्मीर के बाद सर्वाधिक बड़ी मुस्लिम आबादी वाले असम व बंगाल में मुसलमान वह सोचने की ओर बढ़ेंगे जो सीमावर्ती इलाके में खतरनाक है। इसलिए ये विधानसभा चुनाव पूर्वोत्तर भारत, खासकर बांग्लादेश से सटी सीमा की आबोहवा के लिए घातक होने हैं। असम और बांग्लादेश दोनों में मोदी-शाह ने आर-पार की लड़ाई का जो माहौल बनाया है उससे लोगों के दिल-दिमाग में गांठें बन रही हैं फिर भले वह हिंदू हो, मुसलमान हो या फिर आदिवासी ही क्यों ना हो!। पश्चिम बंगाल और असम में चुनाव को लोकतंत्र के सियासी दंगल की तरह नहीं लड़ा जा रहा है, बल्कि पानीपत की लड़ाई का वह जंग-ए-मैदान है, जिसमें जीत-हार के साथ भावना के घात-आघात बनेंगे, यह भी तय है। 

हालांकि, बांग्ला समाज का मनोभाव और उसकी बुनावट अलग तरह की है। जिन्होंने भारत की आजादी में बांग्ला मानुष का इतिहास पढ़ा है, बोस से लेकर बांग्ला क्रांतिकारियों के बारे में पढ़ा है, बंकिम-टैगोर, विवेकानंद से लेकर महर्षि अरविंद का मतलब जानते हैं, वामपंथी रूझान और लंबे वाम राज का मर्म समझा है, बांग्ला साहित्य, सिनेमा और कला का अनुभव किया है वे बांग्ला समाज को इतना बौद्धिक दिवालिया हुआ नहीं मान सकते हैं कि मोदी-शाह की बातों का उन पर जादू बना माना जाए। तभी नहीं लगता कि पश्चिम बंगाल में भाजपा जीत रही है। फिर भी जीत जाए तो मोदी महान। हालांकि तब तो केरल व असम में भी भाजपा जीतनी चाहिए। तमिलनाडु में उसकी सहयोगी अन्नाद्रमुक की तूती बोलनी चाहिए जो कम से कम होता हुआ नहीं लग रहा। उलटे चुनाव बाद वह सियासी माहौल संभव है, जिसमें भाजपा के ही खिलाफ एकजुट राजनीति बन जाए।

मसलन यदि ममता जीतीं तो महाराष्ट्र में भाजपा विरोधी मोर्चा पुख्ता बनेगा। उद्धव-शरद पवार जोड़ी जीजान से एकजुट रहेगी। तब महाराष्ट्र भाजपा से विधायक टूटेंगे। उधर कर्नाटक में कांग्रेस-देवगौड़ा एकजुट होंगे। चुनाव बाद मोदी-शाह को बुरी तरह उत्तरप्रदेश-उत्तराखंड के चुनावों में खपना होगा। 

बहुत संभव है भाजपा की अंदरूनी राजनीति में भी कुछ हो जाए। हां, यदि भाजपा पश्चिम बंगाल नहीं जीत पाए और असम में सरकार नहीं बची या जैसे तैसे सरकार बना पाए तो भाजपा के पुराने क्षत्रप मजबूत होंगे। शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे, रमन सिंह या योगी आदित्यनाथ के लिए मौका बनेगा। अगर भाजपा बंगाल और असम नहीं जीतती है तो कई मिथक टूटेंगे। जम्मू कश्मीर के बाद सर्वाधिक मुस्लिम आबादी वाला राज्य असम है और उसके बाद बंगाल है। वहां भी अगर भाजपा हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण नहीं करा पाती है तो उसके हिंदू वोटों का एकमात्र उत्तराधिकारी होने की धारणा टूटेगी। इससे यह मिथक भी टूटेगा कि नरेंद्र मोदी के करिश्मे से भाजपा कहीं भी जीत सकती है। 

यही नहीं, पिछले कुछ समय से देश की आर्थिक हालत को लेकर जो नैरेटिव बन रहा है या जो हकीकत जाहिर हो रही है, उस पर भी नतीजों से मुहर लगेगी। अगर भाजपा हारती है तो आर्थिकी और रोजगार का मुद्दा पूरे देश में बड़ा रूप लेगा। मसला किसान आंदोलन का भी है। किसानों ने ठीक ही कहा है कि भाजपा हारी तो वह उनकी बात सुनेगी। इसलिए नतीजे किसानों के तय एजेंडे पर भी जनमत संग्रह माने जाएंगे, इसमें शायद ही किसी को कोई संशय हो।

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