मालेगांव केस में अपील नहीं करेगी महाराष्ट्र सरकार: आरटीआई में खुलासा

Written by sabrang india | Published on: August 8, 2025
मालेगांव विस्फोट मामले में हिंदुत्ववादी संगठनों से जुड़े आरोपियों के बरी होने के बावजूद, महाराष्ट्र सरकार बॉम्बे हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के लिए इच्छुक नहीं है। वहीं हाल ही में 2006 के मुंबई ट्रेन ब्लास्ट में मुस्लिम आरोपियों के बरी होने पर सरकार ने तुरंत सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था।


साभार : मनी कंट्रोल

मालेगांव विस्फोट मामले में सात आरोपियों को बरी किए जाने के बाद महाराष्ट्र सरकार की ओर से अब तक उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करने की कोई योजना नहीं बनाई गई है। यह जानकारी कानून और न्याय विभाग ने सूचना के अधिकार (RTI) के तहत पूछे गए सवाल के जवाब में दी है।

दिलचस्प बात यह है कि 2006 के मुंबई लोकल ट्रेन धमाकों के आरोपियों (जो सभी मुस्लिम थे) को जब हाईकोर्ट ने बरी किया, तो महाराष्ट्र सरकार ने उस फैसले के खिलाफ तुरंत सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का निर्णय लिया था।

द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने तो पूरा फैसला पढ़े बिना ही हैरानी जताते हुए सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का निर्देश दे दिया था। फैसले के ठीक बाद, 21 जुलाई को मीडिया से बातचीत के दौरान फडणवीस ने कहा था, "यह फैसला हमारे लिए चौंकाने वाला है, क्योंकि निचली अदालत ने यह निर्णय एटीएस की गहन जांच और प्रस्तुत किए गए साक्ष्यों के आधार पर दिया था। हालांकि मैंने पूरा आदेश अभी नहीं पढ़ा है, लेकिन मैंने तत्काल हमारे वकीलों से संपर्क किया है और उन्हें इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने के निर्देश दिए हैं।"

वहीं दूसरी ओर, मालेगांव विस्फोट मामले में फैसला आए कई दिन बीत चुके हैं, लेकिन महाराष्ट्र सरकार अब तक उसे चुनौती देने की कोई तैयारी करती नहीं दिख रही है। इसके विपरीत, सरकार के मुखिया की प्रतिक्रियाएं इस तरह से उत्साहपूर्ण रही हैं, मानो यह उनकी किसी तरह की जीत हो।

कानूनन, सरकार इस फैसले के खिलाफ तीन महीने के भीतर अपील कर सकती है। अब देखने की बात यह होगी कि जब अब तक अपील करने की कोई योजना सामने नहीं आई है, तो क्या आगे चलकर वह सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएगी?

31 जुलाई 2025 को मुंबई की विशेष एनआईए (राष्ट्रीय जांच एजेंसी) कोर्ट ने मालेगांव बम विस्फोट मामले में सभी सात आरोपियों को बरी कर दिया। इन आरोपियों में पूर्व भाजपा सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर और लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित भी शामिल हैं।

29 सितंबर 2008 को महाराष्ट्र के मालेगांव में हुए बम विस्फोट में छह लोगों की मौत हो गई थी, जबकि करीब 100 लोग घायल हुए थे। यह घटना उस समय हुई थी जब रमजान का महीना चल रहा था।

आरटीआई में क्या पूछा गया?

आरटीआई एक्टिविस्ट अजय बसुदेव बोस द्वारा द वायर हिंदी को उपलब्ध कराए गए दस्तावेज के अनुसार, उन्होंने 1 अगस्त 2025 को एक आरटीआई आवेदन दायर कर महाराष्ट्र सरकार से यह पूछा था कि क्या वह मालेगांव बम विस्फोट मामले में सात आरोपियों के बरी होने के फैसले को बॉम्बे हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की योजना बना रही है?

5 अगस्त 2025 को महाराष्ट्र सरकार के कानून एवं न्याय विभाग के सार्वजनिक सूचना अधिकारी लकेश आर. कनाडे ने बताया कि विभाग के रिकॉर्ड के अनुसार, लोक अभियोजक कार्यालय को अब तक इस मामले में अपील दायर करने का कोई प्रस्ताव प्राप्त नहीं हुआ है।

पत्र में लिखा, इस शाखा में उपलब्ध रिकॉर्ड के अनुसार, संबंधित लोक अभियोजक कार्यालय से माननीय बॉम्बे उच्च न्यायालय या माननीय सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करने के संबंध में अब तक कोई प्रस्ताव इस शाखा को प्राप्त नहीं हुआ है।

आरटीआई आवेदन का यह जवाब महाराष्ट्र और केंद्र सरकार की मंशा की अभिव्यक्ति मालूम पड़ती है। आरोपियों के बरी होने पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने उत्साह व्यक्त करते हुए लिखा था, ‘आतंकवाद भगवा न कभी था, ना है, ना कभी रहेगा! #MalegaonVerdict’

संयोगवश इस फैसले से ठीक एक दिन पहले, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में बहस के दौरान कहा था, ‘मैं दुनिया के सामने गर्व से कहता हूं कि हिंदू कभी आतंकवादी नहीं हो सकते।

ध्यान देने वाली बात यह है कि साल 2008 में महाराष्ट्र एटीएस द्वारा मालेगांव विस्फोट की जांच के दौरान ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आया था। इसका मुख्य कारण यह था कि शुरुआती जांच में हिंदुत्ववादी संगठनों की ओर संकेत मिल रहा था। जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ी, एटीएस को ऐसे सुराग मिले जिनमें हिंदुत्ववादी संगठनों से जुड़े कार्यकर्ताओं के नाम सामने आए। इसके चलते ‘भगवा आतंक’ का मुद्दा राजनीतिक और वैचारिक विवाद का केंद्र बन गया।

सरकार का दोहरा रूख?

मालेगांव विस्फोट मामले में भाजपा सरकार अभी तक अपील करने की तैयारी नहीं कर रही है, लेकिन यह ऐसा पहला मामला नहीं है।

साल 2007 में भारत-पाकिस्तान के बीच चलने वाली समझौता एक्सप्रेस ट्रेन में हुए विस्फोट में 68 लोगों की मौत हो गई थी। इस बम धमाके के मामले में स्वामी असीमानंद सहित कई लोगों को गिरफ्तार किया गया था, लेकिन सबूतों के अभाव में साल 2019 में अदालत ने असीमानंद और अन्य तीन आरोपियों को बरी कर दिया। मालेगांव बम विस्फोट मामले की तरह, इस मामले में भी केंद्र सरकार ने फैसले को उच्च न्यायालय में चुनौती न देने का फैसला किया।

कुछ ऐसा ही हैदराबाद के ऐतिहासिक मक्का मस्जिद धमाके के मामले में भी हुआ था। 18 मई 2007 को मक्का मस्जिद परिसर में एक इम्प्रोवाइज़्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस (IED) से हमला किया गया था, जिसमें 9 लोग मारे गए और कई दर्जन घायल हुए। इस मामले में स्वामी असीमानंद सहित 11 अन्य आरोपियों को नामजद किया गया था। लेकिन मालेगांव विस्फोट और समझौता एक्सप्रेस विस्फोट की तरह, अप्रैल 2018 में एनआईए की विशेष अदालत ने नामजद आरोपियों- देवेंद्र गुप्ता, लोकेश शर्मा, भरत मोहन लाल रेटेश्वर, राजेंद्र चौधरी और नबा कुमार सरकार उर्फ स्वामी असीमानंद-को बरी कर दिया। एनआईए ने इस फैसले को भी किसी उच्च न्यायालय में चुनौती नहीं दी।

हालांकि, भाजपा सरकार का यह रूख सभी मामलों में नहीं है।

रिपोर्ट के अनुसार, मालेगांव बम विस्फोट मामले के फैसले से ठीक 10 दिन पहले, 21 जुलाई 2025 को बॉम्बे हाईकोर्ट ने 2006 के मुंबई सीरियल ट्रेन विस्फोट मामले में सभी 12 आरोपियों को बरी कर दिया था। इसके खिलाफ महाराष्ट्र सरकार ने 72 घंटे के भीतर, यानी 23 जुलाई को, सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। सर्वोच्च न्यायालय ने बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी, हालांकि सरकार ने यह भी स्पष्ट किया कि वह आरोपियों को फिर जेल में नहीं देखना चाहती।

ध्यान देने वाली बात यह है कि इस मामले में बरी किए गए सभी आरोपी मुस्लिम थे, जबकि मालेगांव विस्फोट, समझौता एक्सप्रेस विस्फोट और मक्का मस्जिद विस्फोट मामलों में नामजद सभी आरोपी हिंदू थे, जिनमें से अधिकतर कट्टरपंथी हिंदुत्ववादी संगठनों से जुड़े थे।

मालेगांव विस्फोट में क्यों बरी हुए आरोपी?

मालेगांव विस्फोट मामले में साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित के साथ-साथ रिटायर्ड मेजर रमेश उपाध्याय, अजय राहिरकर, सुधाकर चतुर्वेदी, समीर कुलकर्णी और सुधाकर द्विवेदी को सभी आरोपों से मुक्त करते हुए विशेष न्यायाधीश एके लाहोटी ने कहा कि ‘अभियोजन पक्ष आरोप साबित करने के लिए निर्णायक सबूत प्रस्तुत करने में विफल रहा।’

अभियोजन पक्ष की ओर से जांच एजेंसी एनआईए के सरकारी वकील पेश हुए थे।

जस्टिस एके लाहोटी ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 120-B, 153-A, 302, 307, 326, 324, 427; गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 की धारा 16 और 18; और विस्फोटक पदार्थ अधिनियम, 1908 की धारा 3, 4, 5 और 6 के तहत लगे सभी आरोपों से अभियुक्तों को मुक्त कर दिया.

बार एंड बेंच को अनुसार अदालत ने कहा, ‘रिकॉर्ड पर उपलब्ध समस्त साक्ष्यों के गहन मूल्यांकन के बाद, मेरा यह स्पष्ट मत है कि अभियोजन पक्ष विश्वसनीय, ठोस और कानूनी रूप से मान्य साक्ष्य प्रस्तुत करने में असफल रहा है। अभियोजन पक्ष के गवाहों की गवाही में गंभीर विरोधाभास और असंगतियां हैं। ऐसे विरोधाभास अभियोजन की विश्वसनीयता को कमजोर करते हैं और आरोपियों को संदेह से परे दोषी सिद्ध नहीं कर पाते।’

मालेगांव विस्फोट: सरकार, एनआईए और तारीख

साल 2008 में हुए विस्फोट के समय केंद्र में यूपीए सरकार और महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की सरकार थी। राज्य सरकार ने जांच की जिम्मेदारी एंटी टेररिज्म स्क्वॉड (एटीएस) को सौंपी। 20 जनवरी 2009 को, एटीएस ने कुल 14 लोगों के खिलाफ अपनी अंतिम चार्जशीट में अन्य धाराओं के साथ-साथ ‘मकोका’ की भी धाराएं लगाईं।

साल 2011 में केस एनआईए को सौंपने से पहले, एटीएस ने दो चार्जशीट दाखिल की थीं।

फिर साल 2014 आया, जब केंद्र और राज्य दोनों में सत्ता में बदलाव हुआ। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए ने केंद्र की कमान संभाली, वहीं महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा की गठबंधन सरकार बनी।

साल 2015 में, कुछ ही महीने बाद, इंडियन एक्सप्रेस ने सरकारी वकील रोहिणी सालियन का एक इंटरव्यू प्रकाशित किया। इसमें उन्होंने दावा किया, ‘पिछले साल मुझे एनआईए के एक अधिकारी का फोन आया, जिन्होंने कहा कि वे मुझसे मिलना चाहते हैं क्योंकि फोन पर बात करना नहीं चाहते था। जब हम मिले, तो उन्होंने बताया कि ऊपर से संदेश आया है कि मुझे नरम रुख अपनाना चाहिए।’ सालियन के इस बयान से यह मतलब निकाला गया कि सरकार ने एनआईए के जरिए उनसे आरोपियों के प्रति ‘नरम’ रुख अपनाने का आग्रह किया था।

सालियन ने तब अधिकारी का नाम नहीं बताया था लेकिन यह जरूर कहा कि ‘वे नाखुश थे क्योंकि मकोका में बरकरार रखा गया था।’

इस इंटरव्यू के तीन महीने बाद, सालियन ने खुलासा किया कि वह व्यक्ति एनआईए के (तत्कालीन) अधीक्षक सुहास वारके थे, जिन्होंने 2008 के मालेगांव विस्फोट मामले में आरोपियों के प्रति ‘नरम रुख’ अपनाने को कहा था। यह एनडीए के सत्ता में आने के बाद हुआ था।

अब मई 2016 की बात करें, जब एनआईए ने एक पूरक आरोप पत्र दाखिल किया और मकोका कानून के तहत लगाए गए आरोपों को पूरी तरह हटा दिया। इतना ही नहीं, जांच एजेंसी ने कहा कि प्रज्ञा ठाकुर और पांच अन्य के खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं मिले हैं, इसलिए ‘इनके खिलाफ अभियोजन चलाना उचित नहीं होगा।

चार्जशीट दाखिल होने के बाद कोर्ट ने मकोका के आरोप हटा दिए थे, लेकिन प्रज्ञा ठाकुर और अन्य छह आरोपियों को दोषमुक्त नहीं किया गया था। इस चार्जशीट के बाद, रोहिणी सालियन ने कहा था कि मालेगांव विस्फोट मामले में एनआईए ने आरोपियों की ढाल की तरह काम किया है।

अब इस मामले में सभी अभियुक्तों के बरी होने के निर्णय पर टिप्पणी करते हुए सालियन कहा है, यह तो पता ही था कि ऐसा होगा। अगर आप ठोस सबूत ही पेश नहीं करेंगे तो और क्या उम्मीद की जा सकती है? मैं वो अभियोजक नहीं हूं, जिसने आखिर तक अदालत में सबूत पेश किए। मैं 2017 से ही केस से बाहर थी, और उससे पहले मैंने ढेर सारे सबूत पेश किए थे और सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें सही ठहराया था. वे सब (सबूत) कहां गायब हो गए?

मिड-डे से बातचीत में रोहिणी सालियन ने बताया कि जब मामला एनआईए को सौंपा गया, तो एजेंसी ने पहले से दायर चार्जशीट पर आगे बढ़ने की बजाय फिर जांच करने का फैसला किया। एजेंसी के अनुसार, पहले के सबूत झूठे थे। सालियन ने आरोप लगाया कि इससे मामले में देरी हुई और विसंगतियां उत्पन्न हुईं।

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