कानून के दलित छात्र सोमनाथ सूर्यवंशी की कस्टडी में मौत: बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट द्वारा बरकरार रखने के बाद FIR दर्ज

Written by sabrang india | Published on: August 6, 2025
कानून के दलित छात्र की परभणी में कथित कस्टडी में हत्या के आठ महीने बाद महाराष्ट्र पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा राज्य की अपील खारिज करने और लोगों की नाराजगी व कानूनी दबाव के बाद BNS की धारा 103(1) के तहत अज्ञात अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज किया है।



35 वर्षीय कानून के दलित छात्र सोमनाथ सुर्यवंशी की कथित हिरासत में मौत के करीब आठ महीने बाद, महाराष्ट्र पुलिस ने आखिरकार परभणी के न्यू मोंढा पुलिस स्टेशन के अज्ञात पुलिसकर्मियों के खिलाफ भारतीय न्याय संहिता की धारा 103(1) (हत्या के लिए दंड) के तहत एफआईआर दर्ज की है। टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, यह एफआईआर शुक्रवार, 1 अगस्त 2025 की देर रात मोंढा पुलिस स्टेशन में दर्ज की गई। यह कार्रवाई सुप्रीम कोर्ट द्वारा 30 जुलाई को बॉम्बे हाई कोर्ट के पहले के आदेश को बरकरार रखने के बाद की गई है, जिसमें कथित हिरासत में हत्या के मामले में आपराधिक मुकदमा दर्ज करने का निर्देश दिया गया था।

सोमनाथ सुर्यवंशी को दिसंबर 2024 में गिरफ्तार किया गया था। उन पर आरोप था कि उन्होंने परभणी जिले में 11 दिसंबर को भारतीय संविधान की एक प्रतिकृति के अपमान के बाद भड़के विरोध प्रदर्शनों और दंगों में भाग लिया था। पुणे निवासी और परभणी के एक लॉ कॉलेज में पढ़ने वाले सोमनाथ को पुलिस ने हिरासत में लिया था और संक्षिप्त रिमांड के बाद उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। 15 दिसंबर को उनकी मौत हो गई और आरोप है कि यह मौत हिरासत के दौरान पुलिस द्वारा की गई कथित टॉर्चर के कारण हुई गंभीर चोटों की वजह से हुई थी।

महीनों तक अनसुनी रही मां की गुहार

सोमनाथ की मां, 60 वर्षीय विजयाबाई वेंकट सुर्यवंशी, 18 दिसंबर 2024 से अपने बेटे की मौत के लिए जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाने की मांग को लेकर कानूनी लड़ाई लड़ रही हैं। उसी दिन उन्होंने औपचारिक शिकायत दर्ज कराई थी। अपने बयान में विजयाबाई ने बताया कि उन्हें एक फोन कॉल आया, जिसमें कहा गया कि सोमनाथ की मौत “हार्ट अटैक” से हुई है। लेकिन इसके बाद जो घटनाएं घटीं, उन्होंने उनकी शंका को और गहरा कर दिया।

जब विजयाबाई परभणी के लिए रवाना हुईं तो अधिकारियों ने उन्हें बताया कि सोमनाथ का शव पहले ही औरंगाबाद के गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (GMCH) भेजा जा चुका है। रास्ते में परभणी पुलिस ने उन्हें रोक लिया और एसपी कार्यालय ले जाया गया। वहां, विजयाबाई का आरोप है कि एक वरिष्ठ अधिकारी ने उनसे कहा, "हमने तुम्हारे बेटे को नहीं मारा। उसे हार्ट अटैक आया था। हम तुम्हारी मदद कर सकते हैं। अगर तुम शव ले लेती हो, तो हम तुम्हारे किसी बेटे को पुलिस में ट्रेनिंग दिला देंगे।"

विजयाबाई ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया और औरंगाबाद के लिए रवाना हो गईं, जहां सोमनाथ का पोस्टमार्टम किया गया। अस्पताल में मौजूद सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उन्हें बताया कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में कई गंभीर चोटों के निशान पाए गए, जो हिरासत में दी गई यातना जैसे थे – यह राज्य सरकार के उस दावे को खारिज करता है जिसमें कहा गया था कि मौत किसी बीमारी के कारण “स्वाभाविक” रूप से हुई थी।

बॉम्बे हाईकोर्ट ने मानी प्रारंभिक तौर पर बर्बरता की बात

4 जुलाई 2025 को बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद पीठ ने यह स्वीकार किया कि “हिरासत में बर्बरता और संविधानिक अधिकारों के उल्लंघन के प्रारंभिक साक्ष्य मौजूद हैं।” इसके आधार पर कोर्ट ने पुलिस को एक सप्ताह के भीतर एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया। हालांकि, मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व वाली महायुति सरकार ने इस आदेश का पालन नहीं किया। इसके बजाय राज्य सरकार ने हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट ने 30 जुलाई को हाईकोर्ट के निर्देश को बरकरार रखा, यह टिप्पणी करते हुए कि एफआईआर दर्ज करना कोई विकल्प नहीं बल्कि निष्पक्ष आपराधिक जांच के लिए आवश्यक है।

द स्टेट्समेंट की रिपोर्ट के अनुसार, न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति एन. कोटिस्वर सिंह वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने स्पष्ट किया कि एफआईआर दर्ज करना दोषी ठहराने के समान नहीं है, बल्कि यह कानून के तहत निष्पक्ष जांच की शुरुआत है।





टॉर्चर के आरोप और पोस्टमार्टम नतीजे

अपनी एफआईआर में विजयाबाई ने आरोप लगाया है कि सोमनाथ को न्यू मोंढा पुलिस स्टेशन में लगातार तीन दिनों तक हिरासत में यातना दी गई थी। सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी उनके इस बयान की पुष्टि की है और बताया है कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में हड्डियों के टूटने और आंतरिक चोटों का जिक्र है, जो सीधे राज्य सरकार के पहले के दावों को खारिज करता है। सरकार ने पहले यह कहा था कि सोमनाथ को पहले से सांस लेने की समस्या थी और उनकी मौत सीने में दर्द की वजह से हुई थी।

यह दावा मुख्यमंत्री फडणवीस ने नई महायुति सरकार के शपथ ग्रहण के कुछ ही समय बाद विधान सभा में दोहराया था। उन्होंने कहा था कि सोमनाथ को “गंभीर सांस की बीमारी” थी और उनकी मौत “प्राकृतिक कारणों” से हुई थी। हालांकि, ये दावे खारिज हो गए जब पोस्टमार्टम में चोटों के सबूत सामने आए, जिनमें तेजी से लगी चोटें, टूटे हुए कंधे की हड्डियां और लगातार शारीरिक हमले के मामले सामने आए।

प्रकाश आंबेडकर का कानूनी हस्तक्षेप और राजनीतिक प्रभाव

जब वंचित बहुजन आघाड़ी (VBA) के प्रमुख और डॉ. बी.आर. आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर ने इस मामले को उठाया और खुद न्यायालयों में इस पर बहस की, तब इस केस में प्रगति हुई। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद एक प्रेस वार्ता में आंबेडकर ने कहा, “सोमनाथ ने इस देश के संविधान के लिए अपना खून बहाया। उसे इसके मूल्यों के लिए खड़े होने की वजह से मारा गया।”

उन्होंने आगे कहा कि एफआईआर महाराष्ट्र में हिरासत में हुई हिंसा की व्यापक जांच का रास्ता खोलेगी। उन्होंने कहा, “यह मामला हिरासत में हुई मौतों की जांच के लिए एक मिसाल बन सकता है। अब हम मांग कर रहे हैं कि जे.जे. अस्पताल के वे डॉक्टर, जिन्होंने कोर्ट के आदेश के बिना सेकेंडरी मेडिकल ओपिनियन जारी की, उन्हें भी आरोपी बनाया जाए। पुलिस को बचाने में डॉक्टरों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।”

आंबेडकर ने परभणी में संविधान की प्रतिकृति के अपमान के बाद की गई "कांबिंग ऑपरेशन" की वैधता पर भी सवाल उठाया, जिसमें कई दलित घरों पर छापे मारे गए और बिना उचित कानूनी प्रक्रिया के गिरफ्तारियां हुईं। उन्होंने कहा, “जो भी अधिकारी उस गैरकानूनी कार्रवाई में शामिल थे, उनकी पूरी जांच होनी चाहिए।”



आगे क्या होगा?

अब FIR भारतीय न्याय संहिता की धारा 103(1) के तहत दर्ज हुई है, जो IPC की धारा 302 (हत्या) की जगह ले चुकी है। अब विशेष जांच टीम (SIT) या न्यायिक आयोग बनाने की बात की जा रही है। एक्टिविस्ट्स और वकीलों का कहना है कि जांच महाराष्ट्र पुलिस से अलग होनी चाहिए क्योंकि पुलिस वाले ही मुख्य आरोपी हैं। इससे यह सुनिश्चित होगा कि जांच निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से पूरी हो, और दोषियों को सजा मिले।

बावजूद इसके कि हाईकोर्ट का स्पष्ट आदेश था और सुप्रीम कोर्ट ने कोई रोक नहीं लगाई, FIR दर्ज करने में देरी ने अदालत के अपमान और प्रशासन की न्यायिक आदेशों के खिलाफ जिद पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। इससे साफ होता है कि परभणी पुलिस ने 4 जुलाई से 1 अगस्त के बीच कोई कदम नहीं उठाया, जिससे उसे जानबूझकर कोर्ट के आदेश का उल्लंघन करने के आरोप में कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ सकता है।

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