नफरत आरक्षण से या दलितों से

Written by विद्या भूषण रावत | Published on: July 10, 2017
मंडल कमीशन की रिपोर्ट को संसद में स्वीकार करने के बाद दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में आरक्षण विरोधी आन्दोलन में जो बाते सामने आई वो भारत के जातीय स्वरूप और उसके अन्दर निहित घृणा को दर्शाते हैं. मंडल अन्दोलन के २७ वर्ष बाद भी भारत का दम्भी जातिवादी समाज बदला नहीं है और घृणा की उसी आग में जल रहा है जो वी पी सिंह की घोषणा के समय में थी. मेरी समझ में नहीं आया के ये आन्दोलन का वैचारिक है या मात्र दलित पिछडो को सत्ता में भागीदारी से दूर रखने के लिए छिपे षड्यंत्र में है ? क्या भारत का प्रभुत्वादी वर्ग वाकई में आरक्षण का विरोधी है ? मेरा मानना है बिलकुल नहीं क्योंकि अगर ये आरक्षण का विरोधी होता तो प्रभुत्व के कारण जो आरक्षण सदियों से ले रहे हैं उसका लाभ नहीं ले पाते .

Dalit reservations
Image: Tehelka

मंडल के उन दिनों में दिल्ली विश्विद्यालय और देश के मध्यवर्गीय हिन्दुओ के इलाको में ‘पढ़े-लिखे’ छात्र बड़ी ‘मासूमियत’ के साथ लाल बत्ती के पास में खड़े होकर या तो झाड़ू लगाते या जूता पोलिश करते और उनके इर्द गिर्द एक हैण्ड मेड पोस्टर होता जिसमे लिखा होता ‘ मेरिट का हश्र’ . अक्सर ऐसी तस्वीर पेश की जाती जैसे आरक्षण के कारण से मेरिट का बहुत नुक्सान हो रहा है और जूता पालिश करने वाले या झाड़ू लगाने वाले की कोई मेरिट नहीं होती . भद्र परिवारो के माँ बाप टिपण्णी कर रहे थे के कैसे उनके बच्चो की नौकरिया १०% वाले लोग ले जा रहे हैं . अरुण शौरी जैसे लोगो ने तो इसके खिलाफ जंग ही छेड़ दी.

अभी कुछ दिनों पूर्व मैं उत्तराखंड के एक छोटे से कसबे में था . गर्मियों में अपने साथियो के साथ हम एक चिंतन शिविर करते हैं . जिस स्कूल में हमारा कार्यक्रम था वही पर स्थानीय बच्चो के लिए आई आई टी और अन्य इंजीनियरिंग परीक्षाओं में पहुचने के लिए एक सज्जन ने आई आई टी दिल्ली के कुछ छात्रो को आमंत्रित किया हुआ था . ये छात्र करीब ४० स्थानीय छात्रो को विज्ञानं , गणित और अन्य सम्बंधित विषयो की ट्रेनिंग दे रहे थे . पहले कुछ दिन तो हमारी कोई बात नहीं हुई लेकिन अंतिम दिन शाम के वक़्त जब हम लोग आपस में बैठे थे तो एक छात्र आकर हमारे पास बैठे . हमने उनसे परिचय पुछा तो उसने बताया के वो आई आई टी दिल्ली के दुसरे वर्ष का छात्र है . हमने उनसे बच्चो की प्रगति के बारे में पुछा और उन्हें नेक काम के लिए बधाई दी . मैंने आई आई टी  में दलित छात्रो के साथ हो रहे भेदभाव के बारे में पूछा तो उसने बताया के इस वर्ष गलती से आई आई टी के दलित छात्रो को कैंपस में अलग अलग कर दिया, उसके पीछे कोई साजिश नहीं थी अपितु ये गलती से हो गया .

हमने उस छात्र से एक सवाल पूछ दिया के वह बताये के भारत के तकनीक और व्यासायिक पाठ्यक्रमो वाले संस्थान क्यों सबसे ज्यादा अवैज्ञानिक छात्र पैदा कर रहे हैं . सवाल थोडा टेढ़ा था लेकिन सीधे झटके वाला था . हमने कहा के सोशल साइंसेज और पोलिटिकल साइंस के छात्र, यानि हुमैनिटीज़ के छात्र ज्यादा वैज्ञानिक सोच और सामाजिक न्याय के पक्षधर हैं . वो कुछ सकपकाया. उसने पहले जे एन यू का मजाक उड़ाया और कहा वहा छत्र नहीं नेतागिरी होती है वो भी देशद्रोही किस्म की . हमने कहा के वो नरेन्द्र मोदी सरकार की अभी तक की पांच उपलब्धिया गिना दे . नोट्बंदी से लेकर विश्विद्यालयो में उनके हस्तक्षेप हो या जी एस टी, भारत की विदेश निति हो या रक्षा निति , कहा पर सफल है . हमने कहा इसरो के वैज्ञानिक नारियल फोड़ कर अपने कार्यक्रम का उद्घाटन करते हैं तो क्या ये अनैतिक नहीं है . मेरे साथी धीरज वाल्मीकि ने सवाल किया के क्या वह भगवान में विश्वास करते हैं तो उन्होंने कहा हाँ. धीरज ने पूछा के वह बताये के हनुमान जी ने सूरज को कैसे उगल दिया या वह लंका कैसे गए . हमने उन्हें पुछा के क्या वह दीनदयाल बत्रा के नये इतिहास पर चलेंगे जो कहेगा के भारत में पुष्पक विमान की खोज हो चुकी थी और हमने बड़े बड़े मिसाइल पहले ही बना दिए थे . आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए लेकिन आई आई टी दिल्ली का छात्र भारत की प्राचीन ताकत को कह रहा था . मैंने उससे पूछा के तुमने गलीलियो की कहानी पढ़ी, एडिसन को मानते हों  या नहीं . अगर गैलेक्सी ओर सोलर सिस्टम पर चर्चा होगी तो गलीलियो को पढोगे या नहीं . यदि तुम्हारे पास सब कुछ था तो दुनिया में दुसरे देशो से उधार क्यों लेते हो .

मेरिट की बात आई . उसका दर्द उभर आया . मैंने कहा आज आई आई टी में दलित ओ बी सी वर्गों के छात्र टॉप कर रहे हैं और सीधे मेरिट पे आ रहे हैं . फिर उसको थोडा पूना पैक्ट की कहानी सुनाई . मैंने कहा दलितों ने कभी आरक्षण नहीं माँगा . वो थोडा खुश हुआ . मैंने कहा , दलितों ने सत्ता में भागीदारी मांगी और डॉ आंबेडकर समानुपातिक अवसर मांग रहे थे  जिसे वर्षो बाद श्री कांशीराम ने अपने प्रसिद्ध वक्तव्य ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी ‘ में कहा . मैने उसे बताया के जब हम स्वराज की बात करते हैं तो इसका क्या मतलब था . क्या भारत ने अंग्रेजो को इसलिए भगाया के उनमे मेरिट कम थी या इसलिए के उन्हें अपना राज चाहिए था . यदि हमें अपना राज चाहिए था तो इसके क्या मतलब हैं ? इसके मायने है हमारी प्रशासनिक व्यवस्था में देश के सभी हिस्सों और सभी तबको की आनुपातिक भागीदारी  और आरक्षण उसको लागु करने का एक साधन है . मैं उससे कहा के वह जनसँख्या के आंकड़े देखे और बताये किसकी कितनी आबादी है .दलित १७%, ओ बी सी ५५%, मुस्लिम १४%, आदिवासी ८%, अन्य अल्पसंख्यक ५ और ये सारा मिलकर लगभग ९४% होता है . अब इन तबको की सत्ता में भागीदारी बताओ . अब तक इनसे कितने प्रधानमंत्री, कितने कैबिनेट सेक्रेटरी, कितने सचिव, कितने पुलिस अधिकारी, कितने डॉक्टर निकले . क्या हमारे देश का विकास ९४% लोगो की सत्ता में भागीदारी के बिना होगा .

पर मेरिट तो चाहिए, वह बोला .

बाबा साहेब डॉ आंबेडकर से बड़ी मेरिट वाला कोई था इस देश में, मैंने बोला, आरक्षण का मतलब मेरिट का खात्मा नहीं है . जो भी डॉक्टर बनने हेतु एम् बी बी एस की परीक्षा में जाएगा वो न्यनतम क्वालिफिकेशन तो पूर्ण करेगा . क्या कोई छात्र जो विज्ञानं नहीं पढ़ा हो , या उसके लिए न्यूनतम योग्यता नहीं रखता , डॉक्टर या आई आई टी में जाएगा . और ये गैप बहुत बड़ा नहीं है और आने वाले दिनों में वो भी ख़त्म हो जाएगा लेकिन क्या मेरिट मापने का हमारे देश में सही तरीका है ? वो बेचारा चुप था . मैंने टीना डाभी से लेकर अन्य लोगो की कहानी सुनाई फिर उसे यूपीएससी के पहले इंटरव्यू में कैसे एक दलित छात्र से भेदभाव कर उसे पीछे खदेड़ दिया गया था जबकि लिखित परीशा में उसने टॉप किया था . हमने कहाँ के ये कहा तक उचित है के उत्तर भारत के हिंदी बोलने वाले सवर्ण ही  मेरिटोरियस हैं और वो ‘देश’ का प्रतिनिधित्व करते हैं . आखिर बांग्लादेश, सूडान , ईरान, अफ़ग़ानिस्तान में भी तो लोग अपने लोगो को रखते होंगे . यदि मेरिट ही हमारा मूल है तो मैं आज भी कहता हूँ ब्रिटिश अधिकारियो के पास हमसे ज्यादा मेरिट थी.. उनके बनाये हुए संस्थान आज भी देश में काम कर रहे हैं .

दुर्भाग्य इस बात का है के मेरिट जहा खरीदी जा सकती है उसका कोई विरोध नहीं होता क्योंकि इसे खरीदने वाले अधिकांश लोग किन जाति बिरादरियो से आते हैं ये भी समझना पड़ेगा. करोडो रुपैये की घूस देकर मेडिकल कालेजो या इंजीनियरिंग कालेजो  में दाखिला लेना क्या मेरिट का अपमान नहीं है लेकिन आज तक देश के मेरिट धारियों ने इसके विरुद्ध प्रदर्शन नहीं किया, न ही उनके माँ बाप कहीं उधाहरण देते के १० प्रतिशत वाले घूस देकर मेरिट का अपमान कर, मात्र पैसे के दम पर डाक्टर बन रहे हैं ? तब कोई नहीं कहता के उनके बच्चे का हक़ मारा जा रहा है जब एक एवरेज छात्र मोटी रकम देकर बंगलौर या मणिपाल के बड़े संस्थानों में जाता है .

सदियों से समाज ने जातियों के काम का जो आरक्षण किया है उसके विरुद्ध आवाज क्यों नहीं उठाई जाती. आखिर मंदिरों, मठो के पुज्रारी और महंत एक ही जाति के क्यों ? कभी सोचा के मलमूत्र साफ करने सफाई मजदूर क्या वाकई में पेशा है या एक जाति के लिए आरक्षण ? क्या कभी बाल्मीकि समुदाय को छोड़ किसी भी दूसरी जाति से मल उठाने वाला व्यक्ति दिखाई दिया ? आखिर क्यों नहीं हम इस आरक्षण के विरुद्ध आवाज उठाते . लेकिन उसको सही साबित करने वाले भी मिलेंगे . कहेंगे, ब्राह्मण तो ज्ञान के आधार पे है जैसे के किसी दूसरे के पास ज्ञान था ही नहीं . बाबा साहेब आंबेडकर कहते थे के ज्ञान का दावा करने वाले हिन्दुओ के पास अपने बड़े धर्म ग्रन्थ लिखने के लिए लोग नहीं थे . महाभारत का ज्ञान व्यास ( शुद्र) ने दिया और रामायण का महर्षि वाल्मीकि ने और आज़ादी के बाद जिस सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ की हमको जरुरत थी, यानि के भारत का संविधान, वो बाबा साहेब आंबेडकर की दें है . मेरिट उस वक़्त कहाँ गयी ?

दुखद बात यह है मेरिट शब्द का इस्तेमाल इस देश में जातियों की चौधराहट को बनाये रखने के लिए किया गया .कभी यह नहीं बताया गया के इस देश में रहने वाले ९५% से अधिक लोगो का माल ५% से कम लोगो ने उड़ा रखा है और अब लोकतंत्र के इस कलयुग में जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी साझीदारी का सिद्धांत चलता है . यहाँ द्रोणाचार्य जैसे जातिवादी गुरु रोल मॉडल नहीं हो सकते जहाँ आप हर एक एकलव्य का अंगूठा मांगे ताके आपकी वर्णव्यस्था की झूठी मेरिट बरक़रार रहे . यहाँ कोई शम्बूक अब मरने को तैयार नहीं के मार खा खा के वह भजन करता रहे. ये युग चेतना का भी है जो हमारे महापुरुषों के संघर्ष से तैयार हुआ है . बुद्ध से लेकर आंबेडकर तक चेतना की जो मशाल भारत में जली है उसे अब बुझा पाना मुश्किल है इसलिए रोहित वेमुला ने संघर्ष किया क्योंकि एकलव्य की तरह वो अंगूठा काटने को तैयार नहीं था . लेकिन दुखद है के आज के विश्विद्यालयो और शैक्षणिक संस्थानों की हालत बहुत ख़राब है और वहा पर जातिवादी शक्तियों का बहुत दबदबा है .

क्या हमारे देश में योग्यता मापने का आधार वाकई मेरिट आधारित है या जाति आधारित . यदि ऐसा होता तो अर्जुन को सर्व्श्रेस्थ धनुर्धर नहीं कहा जाता और गुरूजी एकलव्य को आशीर्वाद देते. आज हमारी सिविल सर्विसेज को हम हर मर्ज़ की दवा समझते हैं. अभी आई आई टी, इंजीनियरिंग और मेडिकल की धाराओं के लोग बहुत बड़ी संख्या में यहाँ आ रहे हैं . मुझे ये समझ नहीं आया के ५ वर्ष मेडिकल अथवा इंजीनियरिंग की ट्रेनिंग के बाद जिसमे सरकार और देश का इतना पैसा लगता है कोई व्यक्ति क्यों उसे छोड़ता है और जब वो ऐसा करता है तो क्या ये देश के साथ धोखा नहीं है आखिर आई आई टी या अन्य संसथान सरकार की सब्सिडी पर चलते हैं और ये केवल दलितों के लिए नहीं होती अपितु सभी छात्रो के लिए है . जब हम स्नातक स्तर से ही तकनीक परिशाओ की तैय्यारो करते हैं तो फिर अचानक सिविल सेवाओं में आने का क्या मतलब ? बताते है के वे ‘देश’ की ‘सेवा’  करना चाहते है . इस देश में जहाँ अच्छे डाक्टरों की इतनी कमी है हम क्यों नहीं उस व्यवसाय में जुड़े रहना चाहते है .

असल में सामंती सोच और सत्ता से चिपट के काम करने के प्रवर्ती ने यहाँ पर न केवल बौद्धिकता को मारा है अपितु कोई नयी सोच को पनपने नहीं दिया . हम केवल सत्ता चाहते है . सिविल सर्विसेज में कोई सेवा के लिए नहीं जाता अपितु शासक बनने के लिए जाता है और क्योंकि हमें ‘शासन’ करना है इसलिए हम वर्षो की अपनी मेहनत को छोड़कर उस तरफ जाते हैं जहाँ हम नहीं जाना चाहते . आखिर प्रशसनिक सेवाओं के लिए आई आई टी और मेडिकल परीक्षाओं की क्या जरुरत ? आज जे एन यू से मास्टर्स के छात्र निकल रहे हैं . एक छात्र जो जीवन भर विज्ञानं या गणित पढ़ा वह अंत में सिविल्स में आने के लिए रट्टा मार कर निकाल लेता है और उसके लिए इतिहास या मनोविज्ञान जैसे विषय लेता है यानी प्रतियोगिता में निकलने के लिए वह हर वो तिकड़म अपनाता है जिससे वहां भी निकल जाए . एक प्रश्न यह के आप गणित विषय या विज्ञानं में टोपर रहे हों तो इसका ये मतलब के आप को सामाजिक और राजनैतिक विषयो की भी उतनी ही समझ हो ? भारत की सिविल सेवाए ब्रिटिश प्रोडक्ट हैं जो आपको जनता से दूर करते हैं . सेवा करने के लिए एक विशेष प्रकार की शाही नौकरी की जरुरत नहीं होती . जब तक हमारी समझ में ये नहीं आता हम केवल इन सेवाओं में जाने वाले लोगो की आरती उतारते रहेंगे और देश में न कोई नयी सोच आएगी, न नया साहित्य और न नयी शोध. मेरिट के इस प्रकार के सार्वभौम विशेषज्ञ इसी देश में हो सकते हैं . आज देश में अच्छे डॉक्टर्स ओर इंजिनियरो की आवश्यकता है लेकिन वो कैसे होगा जब उसकी लार आई ए एस बनने की और लगी है . क्या हमारे माँ बाप या हम हमें क्या बनना है इसका फैसला पहले ही नहीं कर सकते ? इस सोच में कौन से मेरिट है जो हमें हमारी विशेषज्ञता वाली जगह में न जाकर दुसरी जगह जाने को मजबूर करती है ?

आरक्षण का विरोध करने वाले ईमानदारी से उसका विरोध करे तब भी कोई बात नहीं लेकिन वो अन्य आरक्षणों के लिए विरोध नहीं करते . आखिर नौकरियों में आरक्षण केवल दलितों या पिछडो या आदिवासियों के लिए तो नही . इसमें हर एक राज्य में दुनियाभर के और भी कोटा है जो लोग चुपचाप इस्तेमाल करते हैं . आरक्षण के प्रबल विरोधी किरण बेदी की बेटी को नार्थईस्ट के कोटे से मेडिकल में क्वालीफाई करवाया गया क्योंकि बेदी उस वक़्त उत्तरपूर्व में काम कर रही थी . उत्तर पूर्व के छात्रो के लिए कुछ आरक्षण है जिसका लाभ किरण बेदी ने अपनी बेटी को दिलवाया . दूसरी बात यह है आज हर एक जाति अपने लिए आरक्षण मांग रही है . जाट, राजपूत, गुजरात के पटेल,इत्यादि और इसको जन-भूझकर भड़काया जा रहा है. कई लोग कहते हैं के आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए . सवाल यह है के ५०% सीटे अभी भी अनारक्षित है . सरकार अपने सारे प्रयोग वहा कर सकती है . अगर ५०% अनारक्षित सीटो पर जिनको हम जनरल कहते है आर्थिक आधार पर आरक्षण कर दिया जाए तो आरक्षण विरोधियो के पास को आधार नहीं बचता . उसी पचास फीसद में सबको आरक्षण दे दो तो उसका आधार समानुपातिक हो जायेगा और वही भारत की सबसे बड़ी आवश्यकता है . क्या ये शर्म की बात नहीं है १४% भारतीय मुसलमानों का प्रतिनिधित्व हमारे प्रशाशन और सेवाओं में बहुत कम है या ना के बराबर है . भारत का नागरिक होने के नाते किसी भी समाज का प्रतिनिधत्व न होना बहुत खतरनाक है . अभी भी बहुत से लोग प्रशासनिक सेवाओं या जूनियर सेवाओं में भी नहीं है . जैसे मुशाहार, बाल्मीकि, डॉम, बांसफोर, कोल, बोक्सा, थारू, भील जैसी जातीया हमारे शासन-प्रशासन में कही नहीं है . बाल्मीकि या स्वच्छकार समाज के लोग अधिकांशतः सफाई पेशे में है जैसे ये उनका जन्मसिद्ध अधिकार है और कही पर भी प्रशासनिक सेवाओं में उनकी भागीदारी बिलकुल नहीं के बराबर है . क्या ऐसी त्रुटियों को हल  नहीं करना चाहिए .

अगर भारत में जाति की समझ रखनी हो तो मीडिया और बम्बई की दलाल स्ट्रीट का सर्वे कर लीजिये . मीडिया में ब्राह्मणों का एक छत्र राज है हालाँकि अब दूसरी सवर्ण जातिया भी है लेकिन दलित पिछड़ा आदिवासियों की भागीदारी बिलकुल नगण्य है लेकिन बम्बई के स्टॉक एक्सचेंज में भारत की केवल एक प्रकार की बिरादरियो का कब्ज़ा है और ये हैं मारवाड़ी, जैन , बनिया, और  सिन्धी. बाकी थोडा बहुत बचा खुचा खत्री पंजाबी हो सकते है . अब प्रश्न ये है के क्या दूसरी जातीय लिखने पढने और व्यसाय का काम नहीं कर सकती . हमको बताया जाता है के ये सब इन लोगो ने मेहनत से किया है और बिना आरक्षण के लेकिन क्या हम नहीं जानते के ये एक जातिगत पेशा है . आखिर रिलायंस इंडस्ट्रीज का मालिक मुकेश अम्बानी का बेटा या बेटी बनेगी क्योंकि वो तो खानदानी धंधा है और उसमे मेरिट की जरुरत नहीं है. लाखो मेरिट वाले लोग उनके मातहत काम करेंगे लेकिन वो एक शब्द नहीं बोलेंगे . कहा पर मेरिट को उठाना है और कहाँ नहीं ये मेरिट वाले लोग अच्छे से जानते है . अमिताभ बच्चन की बेटे में कौन से मेरिट है ? अगर वो किसी आम इंसान का बेटा होता तो क्या उसे सिनेमा में काम मिलता ? खुद अमिताभ को इंदिरा गाँधी की सिफारिश पर काम मिला ये बात दूसरी है के उन्होंने अपने काम से सिद्ध किया के उनमे योग्यता है . इसका मतलब यह के मेरिट अवसर का नाम है . अमिताभ को पहले कई बार बाहर कर दिया गया लेकिन इंदिरा गाँधी के कहने पर खवाजा अहमद अब्बास ने मौका दिया तो उन्होंने अपनी योग्यता साबित कर दी , अवसर का भरपूर लाभ लिया . क्या ये अवसर भारत की ९५%  आबादी को नहीं मिलना चाहिए .

मेरिट अपने कार्य को ईमानदारी और कार्यकुशलता से करने का नाम है . एक कुम्हार जिस घड़े को बनाता है या जिस बेहतरीन तरीके से मछुआरा नदी या समुद्र से मछली मारता है या आदिवासी अपने इलाको के पर्यावरण को बचा के रखता है वो उनकी मेरिट है . इस गलत फ़हमी में मत रहिये के दो चार अंग्रेजी के शब्द या टाई लगाकर मेरिट आ जाति है . हमारे माँ-बाप दादाओं को अन्रेजी नहीं आती रही थी ( कुछ को आती भी रही होगी ) लेकिन इसका मतलब नहीं के उन्हें ज्ञान नहीं था या उनमे योग्यता नहीं थी . मेरिट को आंकने के इस भ्रस्ट ब्राह्मणवादी सोच से हमें बाहर निकलना पड़ेगा . प्राचीन काल में जो भी आजीवक समाज था वो मेहनतकश था और उसने नयी शिल्प, नयी तौर तरीके निकाले .हड़प्पा से  लेकर मोहन जुदारो और अजंताएलोरा से लेकर अन्य स्थानों तक हमारी मेरिट ही है जो हम आज देख रहे है . ज्ञान और प्रेम का जो भंडार कबीर और रैदास में मिलेगा वो कहाँ है .मेरिट हर व्यक्ति में आ सकती है जिसे अवसर मिले और हम चाहेंगे के आज़ाद भारत में सभी को समान अवसर मिले ताकि ये वाकई में प्रबुद्ध भारत बन सके जो बाबा साहेब आंबेडकर का आंबेडकर का सपना था ताकि यहाँ पर  समानता, बंधुत्व और स्वतंत्रा की स्थापना हो सके .
 
 

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