पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जाट बाहुल्य गन्ना बेल्ट में पिछली बार 58 विधानसभा सीटों में से 53 पर बीजेपी ने जीत हासिल की थी। तब बसपा नंबर दो पर रही थी। लेकिन अबकी बार स्थिति पलट सकती है। इस बार सपा व रालोद का गठबंधन काफी मजबूत स्थिति में दिख रहा है।
यूपी में पहले फेज का मतदान 10 फरवरी और दूसरे फेज में 14 फरवरी को मतदान होना है। हालांकि दोनों फेज में गन्ना मुख्य मुद्दा रहेगा लेकिन पहले फेज में जाट बेल्ट में चुनाव होने से भाजपा के लिए स्थिति मुश्किलभरी होती दिख रही है। यूपी की गन्ना बेल्ट यानि पश्चिमी यूपी के इलाके में किसानों के मुद्दों पर ही वोट होने की संभावना है। 2017 के चुनाव में बीजेपी ने यहां जबरदस्त जीत हासिल की थी। तब बसपा से बीजेपी की ज्यादातर इलाकों में टक्कर हुई थी। लेकिन अबकी स्थिति पलटती दिख रही है!
पक्की खेती के नाम से मशहूर गन्ना इस चुनाव में अहम मुद्दा है। प्रदेश के करीब 50 लाख किसान, गन्ना उगाते हैं। परिवार के तौर पर देखें तो चार करोड़ लोगों की रोजी इससे जुड़ी हुई है। गन्ना किसानों का सबसे बड़ा मुद्दा बकाया का समय से भुगतान नहीं होना है। अभी भी किसानों का पिछले सत्र का हजारों करोड़ रुपये का बकाया हैं। जबकि वर्तमान पेराई सत्र भी करीब करीब आधा जा चुका है। प्रदेश में 119 चीनी मिलें हैं जिनका गणित साफ है। पहले गन्ना पहुंचाओ, बाद में दाम पाओ। गन्ना मूल्य को लेकर किसान नाराजगी जाहिर करते रहे हैं। किसानों के मुताबिक, उर्वरकों, कीटनाशकों से लेकर डीजल-बिजली व छिलाई-ढुलाई तक के दाम जिस बेतहाशा हिसाब से बढ़े हैं, उस हिसाब से बीजेपी ने गन्ना मूल्य नहीं बढ़ाया है।
हालांकि, सरकार ने इस साल गन्ने का दाम 25 रुपये प्रति क्विंटल बढ़ाया है लेकिन लागत के हिसाब से देंखे तो यह ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है। किसान कहते हैं, समय से भुगतान न होना एक बड़ी समस्या बन गई है। देरी से भुगतान पर ब्याज का कानून ठंडे बस्ते में पड़ा है। आउट सेंटरों से गैर कानूनी तौर से किसानों से गन्ना ढुलाई पर किराया काटा जा रहा है। यह हाल तब है जब 2017 विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सहारनपुर रैली में 14 दिन में भुगतान व ब्याज आदि गन्ना कानूनों के पालन का वादा किया था।
सवाल पड़ोसी पंजाब, उत्तराखंड व हरियाणा राज्य में गन्ने के दाम ज्यादा होने का भी हैं?। उत्तराखंड, हरियाणा में भी बीजेपी की ही सरकार है तो फिर ऐसे में यूपी में दाम कम क्यों है? यही नहीं, यूपी की चीनी रिकवरी भी इन राज्यों से बेहतर है। यानी हरियाणा उत्तराखंड के मुकाबले यूपी के गन्ने में मिठास (यानि चीनी) ज्यादा है। तौल के 14 दिन के भीतर गन्ना भुगतान नहीं होने का मामला रालोद-सपा गठबंधन जोर-शोर से उठा रहा है। जाहिर है, इस मसले को उठाकर वे चुनावी लाभ लेने की कोशिश में हैं। वहीं भाजपा बार-बार ये बता रही कि गन्ना किसानों को 5 वर्षों में करीब डेढ़ लाख करोड़ रुपये का भुगतान किया है। अगर भुगतान ज्यादा हुआ है तो चीनी भी तो ज्यादा बनी होगी। सपा व बसपा की सरकार के मुकाबले योगी सरकार के पांच साल में चीनी कितनी ज्यादा बनी है, का आंकड़ा सरकार नहीं दे रही है। क्यों?।
राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के राष्ट्रीय संयोजक वीएम सिंह का कहना है कि यूपी में लगभग चार करोड़ लोग गन्ने से जुड़े हैं। उनकी समस्याओं का समाधान कहां हुआ। 14 दिन में गन्ना बकाया पर ब्याज देने की लड़ाई हमने कोर्ट से जीती, लेकिन 14 दिन बाद भी हमारा भुगतान क्यों लटका है? तत्काल होना चाहिए। अब कोर्ट आदेश होने के बाद भी बहाने तलाशे जा रहे हैं कि इसे कैसे लटकाया जाए। सरकार चुनाव की अधिसूचना जारी होने का इंतजार कर रही है और उसके बाद अदालत में यह बहाना पेश करेगी कि अब तो आचार संहिता लग गई, इसका कैसे निदान करें। यह बात किसान भी समझते हैं।
गन्ना इसलिए भी बड़ा मुद्दा है क्योंकि 9 अप्रैल 2019 से कैबिनेट के पास बकाया पर ब्याज का प्रस्ताव लंबित है, जबकि कैबिनेट अन्य तमाम प्रस्ताव पर मंजूरी देती रही। किसान इस बात को समझते हैं। उन्हें बरगलाया नहीं जा सकता है। इसके अलावा एमएसपी बड़ा मुद्दा है। भले ही कृषि कानून वापस हो गया हो, लेकिन एमएसपी पर फसल का मूल्य मिलना बेहद जरूरी है। आज यह मांग पूरे देश भर से उठ रही है। जब तक गन्ना और एमएसपी जैसे मामलों का हल नहीं निकलेगा, किसानों के लिए बड़े मुद्दे खड़े रहेंगे।
इन्हीं सब मुद्दों के समाधान के वादे पर 2017 में भाजपा ने पश्चिमी यूपी में एकतरफा जीत हासिल की थी। 58 में से 53 सीट जीती थी। दूसरे नंबर पर बसपा थी। हालांकि इस साल बीजेपी ने अब तक के प्रचार में समाजवादी पार्टी को अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में पेश किया है, लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसपा भी कम नहीं है। कम से कम पिछले चुनावों में मायावती की पार्टी के प्रदर्शन को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है। हालांकि किसान आंदोलन और मायावती की अत्यंत कम सक्रियता को देंखे तो उसकी स्थिति काफी कमजोर हुई है। फिर भी कई, खासकर रिजर्व सीटों पर बसपा चौंका सकती है।
पिछले विधानसभा चुनाव में, भाजपा ने 403 में से 312 सीटों पर जीत हासिल की थी। वहीं पहले फेज वाली गन्ना बेल्ट में 58 में से 53 सीटों पर भाजपा ने अपना कब्जा जमाया था। सपा और बसपा ने दो-दो सीटें जीतीं थी, जबकि रालोद को एक सीट मिली थी। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार बसपा को जीत तो दो सीटों पर मिली थी, लेकिन वो 30 सीटों पर बीजेपी के सामने टक्कर में थी। इन सीटों पर नंबर दो पर बसपा रही थी। उसके बाद सपा 15 सीटों पर, कांग्रेस 5 और रालोद 3 पर उपविजेता रही थी। खास यह भी कि पिछली बार मुजफ्फरनगर दंगों ने इस क्षेत्र में वोटों का धुव्रीकरण किया और बीजेपी इसी मुद्दे को लेकर चुनाव में उतरती दिखी थी। परिणाम ये रहा कि अधिकांश सीटों पर भाजपा उम्मीदवार की औसत जीत का अंतर 40,000 से अधिक रहा।
इस बार पहले चरण में मुजफ्फरनगर और कैराना दोनों क्षेत्रों में मतदान होना है। इससे पहले 2012 में बसपा ने इस इलाके में सबसे ज्यादा सीटों पर जीत हासिल की थी। तब बसपा ने 20 सीटें जीती थीं। सपा 14, बीजेपी 10, रालोद 9 और कांग्रेस को 5 सीटें मिली थीं। तब भी बसपा सबसे ज्यादा सीटों पर उपविजेता थी। 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों तक, बसपा ने इस क्षेत्र में मुसलमानों और दलितों के वोट वैंक के ज्यादातर हिस्से को अपने पास रखा और मजबूत ताकत बनी रही।
इसी तरह, रालोद ने अपने जाट मतदाताओं को थामे रखा। लेकिन जब दंगे हुए तो जाट वोटों के साथ-साथ दलित वोटों का एक बड़ा हिस्सा भी बीजेपी के पास चला गया, जिसने, उसे इस इलाके में बड़ी जीत हासिल करने में मदद की। ध्रुवीकरण की बात इससे भी स्पष्ट होती है कि 2012 में इस क्षेत्र से जहां 11 मुस्लिम उम्मीदवार जीते थे, वहीं 2017 में केवल 3 को जीत नसीब हुई थी।
हालांकि किसान आंदोलन के बाद से एक बार फिर से इस इलाके की तस्वीर बदलती दिख रही है। भाजपा पिछली बार की तरह यहां मजबूत नहीं मानी जा रही है। यही कारण है कि गन्ना किसानों को सभी पार्टियां लुभाने की कोशिश कर रही हैं। हाल ही में आदित्यनाथ सरकार ने निजी नलकूपों के लिए बिजली की दरें कम कर दी हैं। वहीं सपा ने किसानों को मुफ्त बिजली व रालोद ने कर्जमाफी का वादा किया है। इसी से पहले फेज के राजनीतिक दलों के प्रदर्शन पर पूरे देश की निगाहें टिकी हैं। बस थोड़ा सा इंतजार और।
यूपी में पहले फेज का मतदान 10 फरवरी और दूसरे फेज में 14 फरवरी को मतदान होना है। हालांकि दोनों फेज में गन्ना मुख्य मुद्दा रहेगा लेकिन पहले फेज में जाट बेल्ट में चुनाव होने से भाजपा के लिए स्थिति मुश्किलभरी होती दिख रही है। यूपी की गन्ना बेल्ट यानि पश्चिमी यूपी के इलाके में किसानों के मुद्दों पर ही वोट होने की संभावना है। 2017 के चुनाव में बीजेपी ने यहां जबरदस्त जीत हासिल की थी। तब बसपा से बीजेपी की ज्यादातर इलाकों में टक्कर हुई थी। लेकिन अबकी स्थिति पलटती दिख रही है!
पक्की खेती के नाम से मशहूर गन्ना इस चुनाव में अहम मुद्दा है। प्रदेश के करीब 50 लाख किसान, गन्ना उगाते हैं। परिवार के तौर पर देखें तो चार करोड़ लोगों की रोजी इससे जुड़ी हुई है। गन्ना किसानों का सबसे बड़ा मुद्दा बकाया का समय से भुगतान नहीं होना है। अभी भी किसानों का पिछले सत्र का हजारों करोड़ रुपये का बकाया हैं। जबकि वर्तमान पेराई सत्र भी करीब करीब आधा जा चुका है। प्रदेश में 119 चीनी मिलें हैं जिनका गणित साफ है। पहले गन्ना पहुंचाओ, बाद में दाम पाओ। गन्ना मूल्य को लेकर किसान नाराजगी जाहिर करते रहे हैं। किसानों के मुताबिक, उर्वरकों, कीटनाशकों से लेकर डीजल-बिजली व छिलाई-ढुलाई तक के दाम जिस बेतहाशा हिसाब से बढ़े हैं, उस हिसाब से बीजेपी ने गन्ना मूल्य नहीं बढ़ाया है।
हालांकि, सरकार ने इस साल गन्ने का दाम 25 रुपये प्रति क्विंटल बढ़ाया है लेकिन लागत के हिसाब से देंखे तो यह ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है। किसान कहते हैं, समय से भुगतान न होना एक बड़ी समस्या बन गई है। देरी से भुगतान पर ब्याज का कानून ठंडे बस्ते में पड़ा है। आउट सेंटरों से गैर कानूनी तौर से किसानों से गन्ना ढुलाई पर किराया काटा जा रहा है। यह हाल तब है जब 2017 विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सहारनपुर रैली में 14 दिन में भुगतान व ब्याज आदि गन्ना कानूनों के पालन का वादा किया था।
सवाल पड़ोसी पंजाब, उत्तराखंड व हरियाणा राज्य में गन्ने के दाम ज्यादा होने का भी हैं?। उत्तराखंड, हरियाणा में भी बीजेपी की ही सरकार है तो फिर ऐसे में यूपी में दाम कम क्यों है? यही नहीं, यूपी की चीनी रिकवरी भी इन राज्यों से बेहतर है। यानी हरियाणा उत्तराखंड के मुकाबले यूपी के गन्ने में मिठास (यानि चीनी) ज्यादा है। तौल के 14 दिन के भीतर गन्ना भुगतान नहीं होने का मामला रालोद-सपा गठबंधन जोर-शोर से उठा रहा है। जाहिर है, इस मसले को उठाकर वे चुनावी लाभ लेने की कोशिश में हैं। वहीं भाजपा बार-बार ये बता रही कि गन्ना किसानों को 5 वर्षों में करीब डेढ़ लाख करोड़ रुपये का भुगतान किया है। अगर भुगतान ज्यादा हुआ है तो चीनी भी तो ज्यादा बनी होगी। सपा व बसपा की सरकार के मुकाबले योगी सरकार के पांच साल में चीनी कितनी ज्यादा बनी है, का आंकड़ा सरकार नहीं दे रही है। क्यों?।
राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के राष्ट्रीय संयोजक वीएम सिंह का कहना है कि यूपी में लगभग चार करोड़ लोग गन्ने से जुड़े हैं। उनकी समस्याओं का समाधान कहां हुआ। 14 दिन में गन्ना बकाया पर ब्याज देने की लड़ाई हमने कोर्ट से जीती, लेकिन 14 दिन बाद भी हमारा भुगतान क्यों लटका है? तत्काल होना चाहिए। अब कोर्ट आदेश होने के बाद भी बहाने तलाशे जा रहे हैं कि इसे कैसे लटकाया जाए। सरकार चुनाव की अधिसूचना जारी होने का इंतजार कर रही है और उसके बाद अदालत में यह बहाना पेश करेगी कि अब तो आचार संहिता लग गई, इसका कैसे निदान करें। यह बात किसान भी समझते हैं।
गन्ना इसलिए भी बड़ा मुद्दा है क्योंकि 9 अप्रैल 2019 से कैबिनेट के पास बकाया पर ब्याज का प्रस्ताव लंबित है, जबकि कैबिनेट अन्य तमाम प्रस्ताव पर मंजूरी देती रही। किसान इस बात को समझते हैं। उन्हें बरगलाया नहीं जा सकता है। इसके अलावा एमएसपी बड़ा मुद्दा है। भले ही कृषि कानून वापस हो गया हो, लेकिन एमएसपी पर फसल का मूल्य मिलना बेहद जरूरी है। आज यह मांग पूरे देश भर से उठ रही है। जब तक गन्ना और एमएसपी जैसे मामलों का हल नहीं निकलेगा, किसानों के लिए बड़े मुद्दे खड़े रहेंगे।
इन्हीं सब मुद्दों के समाधान के वादे पर 2017 में भाजपा ने पश्चिमी यूपी में एकतरफा जीत हासिल की थी। 58 में से 53 सीट जीती थी। दूसरे नंबर पर बसपा थी। हालांकि इस साल बीजेपी ने अब तक के प्रचार में समाजवादी पार्टी को अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में पेश किया है, लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसपा भी कम नहीं है। कम से कम पिछले चुनावों में मायावती की पार्टी के प्रदर्शन को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है। हालांकि किसान आंदोलन और मायावती की अत्यंत कम सक्रियता को देंखे तो उसकी स्थिति काफी कमजोर हुई है। फिर भी कई, खासकर रिजर्व सीटों पर बसपा चौंका सकती है।
पिछले विधानसभा चुनाव में, भाजपा ने 403 में से 312 सीटों पर जीत हासिल की थी। वहीं पहले फेज वाली गन्ना बेल्ट में 58 में से 53 सीटों पर भाजपा ने अपना कब्जा जमाया था। सपा और बसपा ने दो-दो सीटें जीतीं थी, जबकि रालोद को एक सीट मिली थी। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार बसपा को जीत तो दो सीटों पर मिली थी, लेकिन वो 30 सीटों पर बीजेपी के सामने टक्कर में थी। इन सीटों पर नंबर दो पर बसपा रही थी। उसके बाद सपा 15 सीटों पर, कांग्रेस 5 और रालोद 3 पर उपविजेता रही थी। खास यह भी कि पिछली बार मुजफ्फरनगर दंगों ने इस क्षेत्र में वोटों का धुव्रीकरण किया और बीजेपी इसी मुद्दे को लेकर चुनाव में उतरती दिखी थी। परिणाम ये रहा कि अधिकांश सीटों पर भाजपा उम्मीदवार की औसत जीत का अंतर 40,000 से अधिक रहा।
इस बार पहले चरण में मुजफ्फरनगर और कैराना दोनों क्षेत्रों में मतदान होना है। इससे पहले 2012 में बसपा ने इस इलाके में सबसे ज्यादा सीटों पर जीत हासिल की थी। तब बसपा ने 20 सीटें जीती थीं। सपा 14, बीजेपी 10, रालोद 9 और कांग्रेस को 5 सीटें मिली थीं। तब भी बसपा सबसे ज्यादा सीटों पर उपविजेता थी। 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों तक, बसपा ने इस क्षेत्र में मुसलमानों और दलितों के वोट वैंक के ज्यादातर हिस्से को अपने पास रखा और मजबूत ताकत बनी रही।
इसी तरह, रालोद ने अपने जाट मतदाताओं को थामे रखा। लेकिन जब दंगे हुए तो जाट वोटों के साथ-साथ दलित वोटों का एक बड़ा हिस्सा भी बीजेपी के पास चला गया, जिसने, उसे इस इलाके में बड़ी जीत हासिल करने में मदद की। ध्रुवीकरण की बात इससे भी स्पष्ट होती है कि 2012 में इस क्षेत्र से जहां 11 मुस्लिम उम्मीदवार जीते थे, वहीं 2017 में केवल 3 को जीत नसीब हुई थी।
हालांकि किसान आंदोलन के बाद से एक बार फिर से इस इलाके की तस्वीर बदलती दिख रही है। भाजपा पिछली बार की तरह यहां मजबूत नहीं मानी जा रही है। यही कारण है कि गन्ना किसानों को सभी पार्टियां लुभाने की कोशिश कर रही हैं। हाल ही में आदित्यनाथ सरकार ने निजी नलकूपों के लिए बिजली की दरें कम कर दी हैं। वहीं सपा ने किसानों को मुफ्त बिजली व रालोद ने कर्जमाफी का वादा किया है। इसी से पहले फेज के राजनीतिक दलों के प्रदर्शन पर पूरे देश की निगाहें टिकी हैं। बस थोड़ा सा इंतजार और।
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