बड़ा सवाल: गन्ने में बढ़ती मिठास के बावजूद किसानों के जीवन से क्यों दूर नहीं हो रही कडुवाहट?

Written by Navnish Kumar | Published on: March 3, 2021
गन्ने को कल्पवृक्ष यूं ही नहीं कहा जाता। गन्ने से चीनी के साथ शीरा, एथनॉल, खोई (बैगास), मैली (प्रेसमड), बिजली (को-जनरेशन) के साथ ग्रीनरी (कार्बन क्रेडिट) व पशुओं के लिए चारा आदि छत्तीसों तरह के सह-उत्पाद बनते हैं। यहां तक कि मिल की चिमनियों से उड़ने वाली छाई भी एक सह-उत्पाद हो चला है। कुछ लोगो का तो यहां तक मानना है कि चीनी मिलों के लिए चीनी, अब मुख्य उत्पाद नहीं रही है बल्कि एथनॉल मुख्य उत्पाद का स्थान लेता जा रहा है। 



उत्तर प्रदेश में चीनी की बात करें तो यहां गन्ने की मिठास दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। आलम यह है कि वेस्ट यूपी, जो ''लो रिकवरी जोन'' में आता था, में अब गन्ने की रिकवरी (गन्ने में चीनी की मात्रा) खासी बढ़ गई है। कभी 8.5 से 9.0% तक औसत रिकवरी वाले वेस्ट यूपी में अब 11 से 12% तक रिकवरी हो चली है। कई चीनी मिलों में रिकवरी 13 से 14% तक भी है। यानि गन्ने में मिठास खासी बढ़ी है लेकिन बढ़ती मिठास, किसानों के जीवन में घुली कडुवाहट को दूर नहीं कर पा रही है तो क्यों? कारण दिनोंदिन बढ़ती लागत है तो भाव का 4 साल से वहीं के वहीं रुके रहना है। एक पैसे की बढ़ोत्तरी नहीं हुई है।

लिहाजा उत्तर प्रदेश में किसानों के लिए गन्ने की खेती दिनोंदिन घाटे का सबब बनती जा रही है। बेतहाशा बढ़ती महंगाई से लागत आसमान पर है। महंगे डीजल व बिजली आदि से चार साल में लागत में 30 से 40% की बढ़ोत्तरी हो गई है लेकिन 4 साल से गन्ने के रेट में एक पैसे की बढ़ोत्तरी नहीं हो सकी है। ऊपर से साल-साल भर भुगतान नहीं होता है। ऐसे में किसानों के जीवन में कडुवाहट कम हो भी तो कैसे? 

यह सब भी तब है जब कानूनी तौर से गन्ना पूरी तरह सुरक्षित फसल है। 14 दिन में भुगतान का कानून है। अन्यथा की स्थिति में 15% ब्याज देय होता है। यही नहीं, 2004 के नोटिफिकेशन के अनुसार किसी भी तरह की बकाएदार चीनी मिल किसान से गन्ना ढुलाई की एवज में किराया कटौती नहीं कर सकती है। लेकिन यह सभी (गन्ना) कानून, कागजों तक में ही सीमित होकर रह गए हैं। साल-साल भर भुगतान नहीं होता है और उसके बावजूद कोई फैक्ट्री ब्याज नहीं दे रही है। यानी बकाएदार हैं लेकिन सभी चीनी मिलें बाह्य क्रय केंद्रों से गन्ना ढुलाई की एवज में गैर कानूनी तरीके से किराया कटौती कर रही हैं। 

कारण सरकारों का किसानों की बजाय, चीनी मिलों के साथ खड़ा होना है। वर्तमान में देखें तो केंद्र व राज्य में भाजपा की सरकार है और 2017 विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान, खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सहारनपुर की धरती से किसानों को वादा किया था कि 14 दिन में गन्ने का भुगतान होगा और अन्यथा की स्थिति में ब्याज दिलाया जाएगा। पर यह वादा भी एक बड़ा जुमला ही साबित हुआ। 

अब देखिए पिछले साल तक का भुगतान रुका है। यह हाल तब है जब गन्ना मंत्री सुरेश राणा खुद भी वेस्ट यूपी (शामली) से ही आते हैं। लेकिन 'मीठा मीठा गप, कडुवा कडुवा थू' की तर्ज पर वह भी आंकड़ों की कलाबाजियों से किसानों को भरमाते ही ज्यादा दिखते हैं। 

मसलन गन्ना मंत्री सुरेश राणा कहते हैं कि हमने 1.22 लाख करोड़ (अपने 4 साल के कार्यकाल में) भुगतान कराया जो सपा-बसपा के कार्यकाल से ज्यादा है। गन्ने का रकबा 8 लाख हेक्टेयर बढ़ाया। बंद चीनी मिल चलवाईं तथा 243 खांडसारी लाइसेंस दिए। सल्फर-लेस चीनी का उत्पादन बढ़ाया तो रिकॉर्ड एथनॉल भी बनाया। अब यह तमामतर आंकड़े और दावे अपने आप में कितने सही कितने गलत, इसे एकबारगी छोड़ भी दें तो भी क्या, 4 साल से गन्ना भाव न बढ़ाए जाने व किसानों का सालों साल हजारों करोड़ का भुगतान न हो पाने जैसे सवालों का यह जवाब हो सकता है। 

दरअसल, गन्ना मंत्री से मुख्यमंत्री तक व ब्लॉक स्तर के नेता से प्रान्त व राष्ट्रीय स्तर के भाजपा नेता, रोजाना इस तरह के आंकड़ों को गिनाने भर का ही काम कर रहे हैं। लेकिन सवाल वहीं का वहीं हैं कि लागत बढ़ रही हैं तो गन्ना भाव क्यों नहीं बढ़ाया गया? क्या किसानों को गन्ने का लाभकारी मूल्य और समय पर भुगतान सुनिश्चित हो सका है? यदि नहीं, तो फिर किसान की आय बढ़ी या घट गई है, इसका अंदाजा भी बखूबी लगाया जा सकता है। 

दरअसल गन्ने रूपी कल्पवृक्ष को उगाने वाला गन्ना किसान वो निरीह उत्पादनकर्ता है जिसे 'ना' तो अपने उत्पादन का मूल्य तय करने का अधिकार है और ना ही भुगतान मिलने की गारंटी है। यही नहीं, किसान ही है जिसे अपना उत्पादन खुद ढोकर क्रेता तक ले जाना पड़ता है। रही-सही कसर मंहगाई से लागत बढ़ने और 4 साल से गन्ने का भाव न बढ़ाए जाने ने पूरी कर दी है। ऐसे में सवाल, किसान को होने वाले हासिल का भी है। कहावत भी है कि कृषि में बहुत पैसा है पर खेत में नहीं है। शायद यही सब कारण हैं जो किसान आंदोलन को भी मजबूती प्रदान कर रहा है। 

खास है कि इस पेराई सत्र में भी सामान्य प्रजाति के गन्ने का मूल्य ₹315 और अगेती प्रजाति का ₹325 निर्धारित किया गया है। अस्वीकृत प्रजाति का गन्ना मूल्य ₹310 रखा गया है। बता दें कि 2017 में सत्ता में आने के बाद भाजपा सरकार ने पहले साल गन्ने के मूल्य में ₹10 की वृद्धि की थी लेकिन तब से अब तक गन्ना मूल्य में कोई वृद्धि नहीं की गई है। पड़ोसी राज्य हरियाणा में भी भाजपा की ही सरकार है लेकिन वहां बिजली फ्री होने के साथ गन्ना मूल्य 350 रुपये कुंतल निर्धारित है। 

खास यह भी है कि उत्तर प्रदेश (यूपी) देश का सर्वाधिक गन्ना उत्पादक राज्य है। देश में गन्ने के कुल रकबे का 51 फीसद एवं उत्पादन का 50 और चीनी उत्पादन का 38 फीसद यूपी में होता है। देश में कुल 520 चीनी मिलों से 119 यूपी में हैं। करीब 48 लाख गन्ना किसान, मिलों को अपने गन्ने की आपूर्ति करते हैं। यहां का चीनी उद्योग लाखों लोगों को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से रोजगार देता है। 

यही नहीं, पश्च‍िमी यूपी की सियासत का मुख्य आधार भी गन्ना है। चुनावी साल में गन्ने का दाम न बढ़ाने के योगी सरकार के कदम ने पश्च‍िमी यूपी का राजनीतिक माहौल गर्म कर दिया है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव कहते हैं, “गन्ना किसान कितनी बदहाली में जी रहा है इससे स्पष्ट है कि इस समय चीनी मिलों पर प्रतिदिन 2 करोड़ रूपया बकाया हो रहा है। 14 दिन के बाद किसान की अवशेष राशि बकाया श्रेणी में आ जाती है। हजारों करोड़ का बकाया है। वहीं गन्ने का मूल्य न बढ़ाए जाने से भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) अध्यक्ष नरेश टिकैत योगी सरकार से खफा है। नरेश टिकैत कहते हैं, “जो सरकार किसानों की आय दोगुना करने का दावा करती है वही 4 साल से गन्ने का मूल्य नहीं बढ़ाती है। ऐसे में सरकार की कथनी और करनी में अंतर साफ हो जाता है।

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