किसान आंदोलन: क्या मोदी चूक गए या बीजेपी की अंदरूनी राजनीति का शिकार हो गए हैं?

Written by Navnish Kumar | Published on: December 28, 2020
पीएम मोदी ने खुद संभाल ली किसान आंदोलन को भोथरा करने की कमान!



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह अटल जी की जयंती पर किसान आंदोलन को भोथरा करने की कमान सीधे अपने हाथों में थाम ली है। पीएम ने न सिर्फ भड़ास निकालने वाला लंबा भाषण दिया बल्कि किसान आंदोलन को बेमतलब का 'इवेंट' और सेल्फी प्वाइंट तक बता डाला। यही नहीं, खुद सीधे मोर्चा संभालने के साथ ही जिस तरह उन्होंने अपने सभी मंत्रियों और नेताओं (राज्य के भी) तक को पूरे देश में उनके संबोधन को खुद मौजूद रहकर लोगों (किसानों) को सुनाने को लगाया, उससे उनकी, किसानों को झुठलाने की वृहद प्लानिंग का ही परिचय नहीं मिलता हैं बल्कि संकेत इससे कहीं बहुत आगे का इशारा करते हैं। 

लेकिन क्या खुद सीधे सामने आने को लेकर मोदी से चूक हुई? या वह गुजराती लॉबी के वर्चस्व को लेकर बीजेपी के असंतुष्टों की अंदरखाने की राजनीति का शिकार हो गए हैं?

हालांकि, राजनीतिक तौर से अभी उन्हें दूर-दूर तक कोई खतरा नहीं दिखता है लेकिन उनके लंबे भाषण व उसे सुनाने को सारे मंत्रियों को लगा देने के निहितार्थ काफी गहरे हैं। सवाल वही कि क्या उनके रणनीतिक सलाहकारों ने उन्हें भरमाया या उनका खुद का भ्रम और अहंकार उन पर इतना हावी हो गया है कि उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा है और उन्होंने किसानों से निपटने को सीधे कमान अपने हाथ ले ली है।

राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले लोकेश सलारपुरी इसके पीछे भाजपा की अंदरूनी राजनीति होने की ओर इशारा करते हैं। सलारपुरी का मानना है कि भाजपा में भी अंदरखाने उथल पुथल मची हुई है। मोदी शाह की गुजराती जोड़ी के आगे ज्यादातर नेता भारी कुंठा में हैं। वहीं, पार्टी में नौकरशाहों और जी-हजूरों का जिस तरह बोलबाला बढ़ा है, वह भी चिढ़ाने वाला है। 

सलारपुरी लम्बी चौड़ी फेसबुक पोस्ट लिखते हुए कहते हैं कि भाजपा की अंदरूनी राजनीति के शातिर खिलाड़ियों ने पीएम को इतनी चालाकी के साथ घेरा जिसे पीएम समझ ही नहीं पाए! दरअसल किसान मूवमेंट को लेकर कोई भी भाजपाई बिल्ली के गले में घण्टी बांधने को तैयार नहीं था! इस कार्य को करने के लिए पीएम को बरगलाकर, बहला-फुसलाकर या कैसे भी तैयार किया गया! और पीएम ने किसानों के मूवमेंट को भोथरा करने की कमान अपने हाथ में ले ही ली!।  किसान लॉबी कितनी ताक़तवर है इसका अंदाजा 'पीएम' को बिल्कुल नहीं है! इन्हें अभी के राजनीतिक जीवन मे खुद के द्वारा की गई चालाकियों पर ही यक़ीन है, इनके अनुसार इनसे बड़ा ज्ञाता और पॉलिटिशियन कोई नहीं है!। कुल मिलाकर अब इनको शायद एक ऐसी अंधी लड़ाई के मैदान में धकेल दिया गया है जिसके परिणाम या तो पीएम के लिए घातक होंगे या देश के लिए बेहद ख़तरनाक परिणाम होंगे!। किसान अपने अस्तित्व (सर्वाइवल) की लड़ाई लड़ रहा है, पीएम अंहकार की !। अंततः देश बहुत ख़तरनाक रास्ते की ओर फिसलता जा रहा है !! ईश्वर मेरे देश को बुरी नज़र से बचा...।।

वैसे भी सरकारी कर्मचारियों के लिए वेतन आयोग है! विधायकों और सांसदों को तो खुद ही अपने वेतन बढ़ाने का अधिकार है! उद्योगपति अपने उत्पादनों के दाम खुद तय करके एमआरपी फिक्स करते हैं!! तो किसानों ने ऐसा कौन सा गुनाह किया हुआ है कि उसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को भी दुर्लभ बनाया जा रहा है। एमएसपी यानि न्यूनतम दाम। एमआरपी यानी अधिकतम दाम। तो क्या ये देश इतना ग़रीब कर दिया वर्तमान सरकार ने कि अब भारत किसान के लिए उसकी फसल का न्यूनतम मूल्य भी नहीं चुका सकता? अगर ऐसा है तो हटाओ ऐसी पत्थरदिल सरकार को जो अपने ही देश के अन्नदाता को बर्बाद करना चाहती है। 

नए कृषि सुधार कानूनों पर ‘अटल’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कमान हाथ में ले लेने के मास्टर स्ट्रोक के बाद, आंदोलनकारी किसानों के बीच ‘वार्ता’ और 'हा'-'ना’ के बीच उलझन और बढ़ गई है। हाल में मोदी के नए संसद भवन के शिलान्यास के दौरान ही, 'बड़बोले' अमिताभ कांत द्वारा देश में लोकतंत्र को लेकर दिया गया बयान भी इसी उलझन को दर्शाता हैं। यहीं कारण हैं कि मोदी, वार्ता की बजाय कच्छ और गुरुद्वारा (रकाबगंज) जाने जैसे प्रतीकों और ऑनलाइन संबोधनों के साथ गोदी मीडिया और अपने नेताओं के बदनामी वाले तौर-तरीकों से ही आंदोलन को साधना चाहते हैं। किसान भी इसे भांप रहे हैं और यही कारण है कि सरकार के नए पत्र का जवाब जल्दबाजी में देने से परहेज किया गया। 

किसान आंदोलन से निपटना मोदी सरकार के लिए परीक्षा की घड़ी है। मोदी, अब अन्ना आंदोलन के दबाव में मनमोहन सिंह सरकार की तरह, अपने पांव पीछे खींचते हैं या फिर किसानों के विरोध को दबाकर अपने तथाकथित 'कृषि' सुधारों को आगे बढ़ाते हैं। उनके फैसले से उनकी ही नहीं भाजपा, संघ व देश की राजनीति की भी आगे की दिशा-दशा तय होगी।

दिल्ली में किसानों के धरने ने नरेंद्र मोदी को उससे भी आत्मघाती मुकाम पर ला खड़ा किया है जैसे मनमोहन सिंह अन्ना आंदोलन के समय में आ खड़े हुए थे? भारत, मोदी से इस सवाल के जवाब का इंतजार कर रहा है। यह जवाब भारत की राजनीति अर्थ नीति, और आगे चलकर चुनावी राजनीति की भी दिशा तय करेगा।

जानकारों के अनुसार, मोदी की यह शिकायत रही है कि उन्हें एक आर्थिक सुधारक के तौर कोई श्रेय नहीं दिया जा रहा है। उन्होंने दिवालिया कानून बनाया, जीएसटी लागू किया, सरकारी बैंकों को मजबूती दी, विदेशी निवेश को आसान बनाया, आदि-आदि लेकिन इन सबके बावजूद लोग खासकर प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री उन्हें आर्थिक सुधारक नहीं मानते। इसमें शक नहीं है कि इन सुधारों के लिए उन्होंने भारी राजनीतिक चुनौतियों का सामना किया, लेकिन इनमें से ज्यादातर सुधार, खासकर जीएसटी, खराब पूर्व-तैयारी और क्रियान्वयन के कारण अपना मकसद पूरा नहीं कर पाए। उल्टे अचानक की गई नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था की रफ्तार पर ब्रेक लगा दिया। अर्थव्यवस्था सुस्त हो गई और भारत की वृद्धि दर ऋणात्मक हो गई। आइएमएफ के अक्तूबर के अनुमान के मुताबिक, भारत के प्रति व्यक्ति जीडीपी का आंकड़ा बांग्लादेश के इस आंकड़े के नीचे पहुंच जाएगा।

हालांकि मोदी लोकप्रियता के साथ वाकपटुता में भी मनमोहन सिंह से कहीं बहुत आगे हैं। अब मोदी इससे किस तरह निबटेंगे? कदम वापस खींचने का लोभ तो तगड़ा होगा। वह विधेयकों को टाल सकते हैं, वापस ले सकते हैं, संसद की प्रवर समिति में भेज सकते हैं, किसानों को बहलाकर कुछ मोहलत हासिल कर सकते हैं।

ऐसा भी नहीं है कि मोदी-शाह को कदम वापस खींचना नहीं आता। ऐसा उन्होंने इतने ही साहसी भूमि अधिग्रहण विधेयक के मामले में “सूट बूट की सरकार’ वाले हमले से परेशान होकर किया ही था। तो एक बार फिर ‘चतुराई से पीछे हटने’ में क्या बुरा है? लेकिन ऐसा होगा तो यह अनर्थ होगा, अन्ना आंदोलन ने मनमोहन सिंह का जो अनर्थ किया था उससे भी बुरा होगा। ‘मजबूत’ नेता और मजबूत सरकार का नारा मोदी की ब्रांड छवि का आधार रहा है। भूमि अधिग्रहण विधेयक से वे अपने शुरुआती दौर में पीछे हटे थे। राज्यसभा में बहुमत न होना बहाना था लेकिन एक बार फिर कदम वापस खींचने से उनकी ‘मजबूत’ छवि बिखर जाएगी और विपक्ष उनकी कमजोरी ताड़ लेगा। लेकिन देश की राजधानी को किसानों ने घेर रखा हो, यह भी उनकी खराब छवि ही प्रस्तुत कर रहा है।

अब भले मोदी, आंदोलन के दौरान ठंड में मारे जा चुके 41 किसानों के प्रति संवेदना और अफसोस का एक शब्द भी न बोलें लेकिन मोदी, किसान आंदोलन को उस तरह उखाड़ कर वापस नहीं भेज सकते जैसा शाहीन बाग के साथ किया था। लेकिन उन्हें ज्यादा समय तक डटे भी नहीं रहने दे सकते। मोदी ने थोड़ा-भी सरेंडर किया कि कमान छूटी। क्योंकि, तब श्रम सुधारों का विरोध करने वाले राजधानी को घेरने आ जाएंगे। इसलिए, मोदी इस चुनौती के जवाब में जो कदम उठाते हैं वह उनकी और राष्ट्रीय राजनीति की आगे की दिशा तय करेगी। बहुत हद तक 29 दिसंबर की किसानों से वार्ता में यह साफ हो जाएगा।

उधर, कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने देश में 31 दिनों से जारी किसान आंदोलन का एक बार फिर से समर्थन किया है। राहुल गांधी ने ट्वीट करते हुए कहा कि सरकार को नए कृषि कानूनों का विरोध करने वाले किसानों की बात सुननी होगी। राहुल गांधी ने किसानों के विरोध का एक वीडियो पोस्ट किया और लिखा- मिट्टी का कण-कण गूंज रहा है, सरकार को सुनना पड़ेगा, सरकार को (किसानों को) सुनना होगा।

मिट्टी का कण-कण गूंज रहा है,
सरकार को सुनना पड़ेगा। 



ऐसे में सवाल घूम फिरकर फिर वहीं हैं कि क्या मोदी अपने वैश्विक लीडर  होने के भ्रम, अहंकार और चाटुकार सलाहकारों के कहे में फंस गए हैं या वह भाजपा की गुजरात विरोधी लॉबी की अंदरूनी साजिश का शिकार हो गए हैं?। इसका खुलासा तो देर सबेर होगा ही, लेकिन इससे सब से ज्यादा खुश उनकी अपनी ही पार्टी के लोग होंगे, इसमें भी शायद ही किसी को कोई शक-ओ-सुबहा हो।

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