"आरएलडी से गठबंधन के बावजूद वेस्ट यूपी में भाजपा बुरी तरह हारी है। सहारनपुर मंडल में तो सूपड़ा ही साफ हो गया है। मंडल की तीनों लोकसभा सीटों सहारनपुर, मुजफ्फरनगर और कैराना पर इंडिया गठबंधन के प्रत्याशियों ने बड़ी जीत दर्ज कर सभी को चौंकाया है। दरअसल, दंगों के बाद से इस क्षेत्र में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण इतना मजबूत था कि सभी मुद्दों पर हावी हो चला था। 2014 और 2019 के चुनाव, बीजेपी इसी हवा में जीत गई थी लेकिन इस बार किसान आंदोलन ने ध्रुवीकरण के रथ को रोक दिया है तो वहीं महंगाई, बेरोजगारी, किसान मजदूर की समस्याओं आदि को लेकर लोगों की गोलबंदी, तानाशाही पर भारी पड़ी है। सबसे अहम इन चुनावों में दलित मुस्लिम और पिछड़ों के बीच एक नई सामाजिक एकता बनती दिखी है।
दंगों के बाद से ही वेस्ट यूपी की धरती भाजपा के लिए राजनीति की सबसे मुफीद पिच बनी थी। लेकिन इस बार किसान आंदोलन ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मदमस्त घोड़े को गर्दन से पकड़कर रोकने का काम किया है तो मुस्लिम वोटों में विभाजन न होने तथा दलितों के एक हिस्से का इंडिया गठबंधन के प्रत्याशियों के पाले में जाने का नतीजा है भाजपा की करारी हार। यही नहीं पिछड़ों के साथ जाट- राजपूत आदि बिरादरियों में समर्थन ने गठबंधन को मजबूती देने का काम किया। आलम यह रहा कि वेस्ट यूपी में बीजेपी से गठबंधन के चलते किसानों खासकर जाटों ने आरएलडी तक से परहेज किया। और मुज़फ्फरनगर लोकसभा में इंडिया गठबंधन से सपा प्रत्याशी हरेंद्र मलिक, कैराना से सपा प्रत्याशी इकरा हसन और सहारनपुर में कांग्रेस प्रत्याशी इमरान मसूद को जीताकर साझी विरासत को मजबूती देने का काम किया। हालांकि इसमें हरेंद्र मलिक और इमरान मसूद की जुझारू छवि भी काम आई लेकिन जीत ने इन दोनों नेताओं को राजनीतिक संजीवनी देने का काम किया है, इसमें भी शायद ही किसी को कोई शक ओ सुबहा रहा हो। मुजफ्फरनगर में हरेंद्र मलिक की जुझारू छवि, भाजपा की बांटने वाली राजनीति पर भारी पड़ी तो सहारनपुर में इमरान मसूद अपनी मुस्लिम नेता होने की सांप्रदायिक इमेज से छुटकारा पाने में कामयाब हुए हैं। जबकि सबसे अहम कैराना से नौजवान मुस्लिम महिला इकरा हसन की जीत से नई पीढ़ी को राजनीति में आने का हौसला मिलने का बड़ा काम हुआ है।
लब्बोलुआब यही है कि इस चुनाव में सांप्रदायिक राजनीति की प्रयोगशाला के चलते सबसे ज्यादा हॉट सीट कैराना, मुज़फ्फरनगर और सहारनपुर मानी जा रही थी। यही कारण है कि रालोद के साथ गठबंधन होने के बावजूद इन तीनों सीटों का भाजपा के हाथ से निकल जाना अभी भी बहुतों की समझ से परे है। इससे भी खास बात यह है कि इस दफा जिस तरह से यूपी में लोगों ने धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति को ठुकराया है और तानाशाही के खिलाफ दलित मुस्लिम, पिछड़ों की गोलबंदी हुई है, उसने सब साफ कर दिया है कि लोग सरकार के कहे अनकहे कामों और उनके परिणामों पर बाखूबी बारीक नजर रखे हुए हैं।
तीनों लोकसभा सीटों पर हारी भाजपा
मुज़फ्फरनगर की सीट पहले से ही कमजोर नजर आ रही थी। यही कारण था कि इस सीट को मजबूती देने के लिए हाईकमान ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह, रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी के साथ ही केंद्रीय और यूपी सरकार के मंत्रियों की सभाएं कराई थी। इतना ही नहीं पार्टी के मजबूत नेताओं कार्यकर्ताओं की भी जिम्मेदारी लगाई गई थी, लेकिन हाईकमान द्वारा लगाई गई सभी जुगत उस समय फेल हो गई, जब गठबंधन प्रत्याशी सपा के राष्ट्रीय महासचिव हरेंद्र मलिक ने भाजपा प्रत्याशी डॉ. संजीव बालियान को करारी शिकस्त दे दी। चुनाव परिणाम में भाजपा का ऐसा ही हाल कैराना सीट पर हुआ। कैराना में भाजपा से प्रदीप चौधरी को मैदान में यह सोचकर उतारा गया था, कि वह सपा की प्रत्याशी इकरा हसन को बुरी तरह से हराएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इकरा हसन तथा उनके परिवार की मतदाताओं में पकड़ काम आई तो दलित, मुस्लिम, जाट, राजपूत और गुर्जर के समर्थन से इकरा हसन ने बड़े अंतर से भाजपा प्रत्याशी और मौजूदा सांसद प्रदीप कुमार को हराकर जीत हासिल की। ऐसा ही कुछ सहारनपुर में देखने को मिला। सहारनपुर में भाजपा प्रत्याशी राघव लखनपाल के सामने कांग्रेस से इमरान मसूद मैदान में थे, जबकि बसपा से माजिद अली थे। कांग्रेस के इमरान मसूद ने दो मुस्लिम प्रत्याशी होने के बावजूद भाजपा को करारी शिकस्त देकर अपना परचम लहराया। इस तरह से मंडल सहारनपुर में तीनों लोकसभा सीटों पर रालोद के साथ गठबंधन होने के बावजूद भी भाजपा जीत दर्ज नहीं करा पाई है। मंडल में भाजपा 2014 में तीनों सीट जीती थी तो 2019 में कैराना व मुज़फ्फरनगर दो सीटें जीती थी, लेकिन सहारनपुर की सीट बसपा ने जीत ली थी। इस बार तीनों सीटों पर गठबंधन काबिज हो गया है।
राजपूत- दलित फैक्टर ने किया काम
भाजपा की करारी हार के पीछे दलित और राजपूत फैक्टर सबसे अहम रहा। सम्राट मिहिर भोज विवाद में भाजपा के कई नेताओं के एक पक्ष में खड़े होने ने राजपूतों को उकसाने का काम किया। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि राजपूत मतों की वजह से ही भाजपा हारी है, जनता ही नाराज है। गुर्जर, सैनी आदि जातियों में भी भले कम ही सही लेकिन बंटवारा होने का काम हुआ है। यही नहीं, किसान आंदोलन के असर के चलते संभावित ध्रुवीकरण की संभावनाओं को जन्म लेने से पहले ही खत्म कर देने का काम हुआ। यही नहीं, संविधान और संवैधानिक संस्थानों पर बढ़े हमलों के चलते दलित वर्ग में भी खासी नाराजगी थी। इसके बावजूद दलितों का कोर वोट बसपा को ही गया लेकिन एक हिस्से ने भाजपा को हराने के लिए गठबंधन का साथ दिया। नतीजा सबके सामने है। भाजपा बुरी तरह धराशाई हुई है कि अमूमन हर जिले में समीक्षा को लेकर सर फुट्टेवल जारी है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हार के बाद भाजपा में सर फुट्टेवल जोरों पर
पश्चिम की ज्यादातर सीटों पर भाजपा की हार से पार्टी में सर फुट्टेवल भी जोरों पर है। कैराना में पार्टी के गुर्जर दावेदारों की एक लंबी फेहरिस्त थी जो टिकट नहीं मिलने से निष्क्रिय नजर आए तो रही सही कसर राजपूत और दलित वोटों ने पूरी कर दी। सहारनपुर में भी भाजपा में टिकट के दावेदारों की अंदरूनी खींचतान में नेता और कार्यकर्ता उदासीन नजर आए। आलम यह रहा कि सबसे बड़ी कैडर वाली पार्टी, वोटरों को घर से निकाल पाने में ही फेल हो गई। कई जगह पार्टी के बस्ते तक नहीं लग पाए तो खुद भाजपा सांसद के बूथ तक पर सन्नाटा पसरा रहा। नतीजा पहले चुनाव जितनी भी वोट नहीं मिल सकी तो वही शहर विस क्षेत्र तक में भाजपा हार गई। अब चुनाव में काम न करने वाले नेताओं के साथ पार्टी भितरघातियों को तलाश रही है। जबकि मुजफ्फरनगर में तो कबीना मंत्री की हार को लेकर भाजपा नेता खुलकर एक दूसरे के खिलाफ सड़कों पर आ गए हैं।
वेस्ट यूपी ही नहीं, प्रदेश में ही बीजेपी को इस आम चुनाव में अच्छा खासा नुकसान हुआ है। बीजेपी कुल 80 में से सिर्फ़ 35 सीटें ही जीत पाई है। यही नहीं, 2019 में बीजेपी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 26 सीटों में से जहां 18 सीटें जीती थीं, वहीं इस बार यह संख्या घटकर 12 पर आ गई।
सहारनपुर मुजफ्फरनगर आदि सीटों पर पार्टी को पिछले चुनाव जितनी भी वोट नहीं मिल पाई है। मुजफ्फरनगर में 2019 में संजीव बालियान को 5 लाख 73 हजार 780 वोट पड़े थे, जो इस बार घटकर 4 लाख 46 हजार 49 रह गए हैं। यानी पिछली बार के मुकाबले इस बार उन्हें करीब 1 लाख 27 हजार वोट कम पड़े हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन के चलते भी लोगों में संजीव बालियान के प्रति गुस्सा दिखाई दिया। किसान आंदोलन के समय कई गांवों ने संजीव बालियान का बहिष्कार किया था।
संजीव बालियान की हार पर बीजेपी में मचा घमासान
वेस्ट यूपी में पार्टी के ख़राब प्रदर्शन ने सिर्फ अंदरूनी कलह को ही नहीं बल्कि जाट बनाम ठाकुर या गुर्जर बनाम ठाकुर की बहस को भी तेज़ कर दिया है। मुजफ्फरनगर में संजीव बालियान ने अपनी हार के लिए, बिना नाम लिए अपनी ही पार्टी के एक नेता को 'जयचंद', 'विभीषण' और 'शिखंडी' तक बता दिया है। इलाके की राजनीति पर नज़र रखने वाले जानकारों का कहना है कि उनका इशारा सरधना के पूर्व विधायक और बीजेपी नेता संगीत सोम की तरफ़ है। संगीत सोम भी संजीव बालियान पर हमलावर हैं। वे न सिर्फ़ संजीव बालियान बल्कि राष्ट्रीय लोकदल की भूमिका पर भी सवाल उठा रहे हैं।
हारने के एक हफ़्ते बाद संजीव बालियान ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी। जिसमें उन्होंने अपनी हार के तीन प्रमुख कारण गिनाए, जिसमें एक को लेकर पार्टी में लड़ाई शुरू हो गई है। संगीत सोम का नाम लिए बिना उन्होंने कहा, "शिखंडी ने छिपकर वार किया। जयचंदों का कुछ नहीं हो सकता।" बालियान ने कहा, "सपा प्रत्याशी को लोकसभा चुनाव लड़वाया। लोकसभा चुनाव में जो जयचंद की भूमिका में रहे, उनके ख़िलाफ़ पार्टी कार्रवाई करेगी।" संजीव बालियान के आरोपों के बाद संगीत सोम ने भी प्रेस कॉन्फ्रेंस की और मुज़फ़्फ़रनगर सीट पर हार के लिए संजीव बालियान को ही जिम्मेदार ठहराया।
संगीत सोम ने कहा कि विपरीत परिस्थितियों में भी सरधना विधानसभा के लोगों ने समाजवादी पार्टी की टक्कर में वोट डाले हैं। उन्होंने कहा, "मुज़फ़्फ़रनगर और खतौली ऐसी विधानसभा हैं जहां विपरीत परिस्थितियों में भी बीजेपी 30-40 हजार वोट के अंतर से जीतती है, लेकिन इस बार मुज़फ़्फ़रनगर में ये अंतर करीब 800 वोटों का और खतौली में करीब 2 हजार वोट का ही रहा है।" जबकि, "चरथावल और बुढ़ाना विधानसभा बालियान जी का घर हैं। ये दोनों क्यों हारे? उन्हें चिंतन मनन करना चाहिए… बुढ़ाना के सोरम गांव को बालियान जी अपना घर मानते हैं। यहां बड़े बड़े नेताओं ने सभाएं की, उसके बाद भी यहां हार हुई… मेरी जिम्मेदारी सरधना की थी, वहां लोगों ने बहुत अच्छा वोट दिया है।" वहीं, एक सवाल के जवाब में संगीत सोम ने कहा, "मुझे नहीं लगता है कि आरएलडी के आने से बीजेपी को फ़ायदा हुआ है। जो सीटें हम जीत रहे थे हम उन्हें भी हार गए।"
अगर संगीत सोम की सरधना विधानसभा की बात करें तो 2019 में बालियान को यहां 1 लाख 17 हज़ार 530 वोट मिले थे, वहीं, इस बार उन्हें 80 हज़ार 781 वोट मिले हैं। यानी पिछले बार की तुलना में उन्हें 36 हज़ार 749 वोट कम पड़े हैं। वहीं, संजीव बालियान की हार का अंतर करीब 24 हज़ार है। अगर अकेली सरधना विधानसभा में उन्हें पिछली बार जितना वोट मिलता तो वे आसानी से चुनाव जीत सकते थे। हालांकि दूसरी विधानसभा क्षेत्रों में भी उनका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है।
नेताओं की आपसी लड़ाई से पार्टी को नुक़सान
पश्चिमी यूपी में संजीव बालियान और संगीत सोम ने इसे जाट बनाम ठाकुर की लड़ाई बना दिया, जिससे ना सिर्फ़ बीजेपी को मुज़फ़्फ़रनगर बल्कि कई सीटों पर नुक़सान उठाना पड़ा। साल 2019 में बीजेपी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 26 सीटों में से जहां 18 सीटें जीती थीं, वहीं इस बार यह संख्या घटकर 12 पर आ गई। इसके उलट समाजवादी पार्टी जहां 4 सीटों पर थी, वह बढ़कर 10 पर पहुंच गई। चुनावी नतीजों के आंकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय लोकदल को दो सीटों पर जीत ज़रूर मिली लेकिन उसका फ़ायदा बीजेपी को नहीं हुआ।
Related:
दंगों के बाद से ही वेस्ट यूपी की धरती भाजपा के लिए राजनीति की सबसे मुफीद पिच बनी थी। लेकिन इस बार किसान आंदोलन ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मदमस्त घोड़े को गर्दन से पकड़कर रोकने का काम किया है तो मुस्लिम वोटों में विभाजन न होने तथा दलितों के एक हिस्से का इंडिया गठबंधन के प्रत्याशियों के पाले में जाने का नतीजा है भाजपा की करारी हार। यही नहीं पिछड़ों के साथ जाट- राजपूत आदि बिरादरियों में समर्थन ने गठबंधन को मजबूती देने का काम किया। आलम यह रहा कि वेस्ट यूपी में बीजेपी से गठबंधन के चलते किसानों खासकर जाटों ने आरएलडी तक से परहेज किया। और मुज़फ्फरनगर लोकसभा में इंडिया गठबंधन से सपा प्रत्याशी हरेंद्र मलिक, कैराना से सपा प्रत्याशी इकरा हसन और सहारनपुर में कांग्रेस प्रत्याशी इमरान मसूद को जीताकर साझी विरासत को मजबूती देने का काम किया। हालांकि इसमें हरेंद्र मलिक और इमरान मसूद की जुझारू छवि भी काम आई लेकिन जीत ने इन दोनों नेताओं को राजनीतिक संजीवनी देने का काम किया है, इसमें भी शायद ही किसी को कोई शक ओ सुबहा रहा हो। मुजफ्फरनगर में हरेंद्र मलिक की जुझारू छवि, भाजपा की बांटने वाली राजनीति पर भारी पड़ी तो सहारनपुर में इमरान मसूद अपनी मुस्लिम नेता होने की सांप्रदायिक इमेज से छुटकारा पाने में कामयाब हुए हैं। जबकि सबसे अहम कैराना से नौजवान मुस्लिम महिला इकरा हसन की जीत से नई पीढ़ी को राजनीति में आने का हौसला मिलने का बड़ा काम हुआ है।
लब्बोलुआब यही है कि इस चुनाव में सांप्रदायिक राजनीति की प्रयोगशाला के चलते सबसे ज्यादा हॉट सीट कैराना, मुज़फ्फरनगर और सहारनपुर मानी जा रही थी। यही कारण है कि रालोद के साथ गठबंधन होने के बावजूद इन तीनों सीटों का भाजपा के हाथ से निकल जाना अभी भी बहुतों की समझ से परे है। इससे भी खास बात यह है कि इस दफा जिस तरह से यूपी में लोगों ने धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति को ठुकराया है और तानाशाही के खिलाफ दलित मुस्लिम, पिछड़ों की गोलबंदी हुई है, उसने सब साफ कर दिया है कि लोग सरकार के कहे अनकहे कामों और उनके परिणामों पर बाखूबी बारीक नजर रखे हुए हैं।
तीनों लोकसभा सीटों पर हारी भाजपा
मुज़फ्फरनगर की सीट पहले से ही कमजोर नजर आ रही थी। यही कारण था कि इस सीट को मजबूती देने के लिए हाईकमान ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह, रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी के साथ ही केंद्रीय और यूपी सरकार के मंत्रियों की सभाएं कराई थी। इतना ही नहीं पार्टी के मजबूत नेताओं कार्यकर्ताओं की भी जिम्मेदारी लगाई गई थी, लेकिन हाईकमान द्वारा लगाई गई सभी जुगत उस समय फेल हो गई, जब गठबंधन प्रत्याशी सपा के राष्ट्रीय महासचिव हरेंद्र मलिक ने भाजपा प्रत्याशी डॉ. संजीव बालियान को करारी शिकस्त दे दी। चुनाव परिणाम में भाजपा का ऐसा ही हाल कैराना सीट पर हुआ। कैराना में भाजपा से प्रदीप चौधरी को मैदान में यह सोचकर उतारा गया था, कि वह सपा की प्रत्याशी इकरा हसन को बुरी तरह से हराएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इकरा हसन तथा उनके परिवार की मतदाताओं में पकड़ काम आई तो दलित, मुस्लिम, जाट, राजपूत और गुर्जर के समर्थन से इकरा हसन ने बड़े अंतर से भाजपा प्रत्याशी और मौजूदा सांसद प्रदीप कुमार को हराकर जीत हासिल की। ऐसा ही कुछ सहारनपुर में देखने को मिला। सहारनपुर में भाजपा प्रत्याशी राघव लखनपाल के सामने कांग्रेस से इमरान मसूद मैदान में थे, जबकि बसपा से माजिद अली थे। कांग्रेस के इमरान मसूद ने दो मुस्लिम प्रत्याशी होने के बावजूद भाजपा को करारी शिकस्त देकर अपना परचम लहराया। इस तरह से मंडल सहारनपुर में तीनों लोकसभा सीटों पर रालोद के साथ गठबंधन होने के बावजूद भी भाजपा जीत दर्ज नहीं करा पाई है। मंडल में भाजपा 2014 में तीनों सीट जीती थी तो 2019 में कैराना व मुज़फ्फरनगर दो सीटें जीती थी, लेकिन सहारनपुर की सीट बसपा ने जीत ली थी। इस बार तीनों सीटों पर गठबंधन काबिज हो गया है।
राजपूत- दलित फैक्टर ने किया काम
भाजपा की करारी हार के पीछे दलित और राजपूत फैक्टर सबसे अहम रहा। सम्राट मिहिर भोज विवाद में भाजपा के कई नेताओं के एक पक्ष में खड़े होने ने राजपूतों को उकसाने का काम किया। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि राजपूत मतों की वजह से ही भाजपा हारी है, जनता ही नाराज है। गुर्जर, सैनी आदि जातियों में भी भले कम ही सही लेकिन बंटवारा होने का काम हुआ है। यही नहीं, किसान आंदोलन के असर के चलते संभावित ध्रुवीकरण की संभावनाओं को जन्म लेने से पहले ही खत्म कर देने का काम हुआ। यही नहीं, संविधान और संवैधानिक संस्थानों पर बढ़े हमलों के चलते दलित वर्ग में भी खासी नाराजगी थी। इसके बावजूद दलितों का कोर वोट बसपा को ही गया लेकिन एक हिस्से ने भाजपा को हराने के लिए गठबंधन का साथ दिया। नतीजा सबके सामने है। भाजपा बुरी तरह धराशाई हुई है कि अमूमन हर जिले में समीक्षा को लेकर सर फुट्टेवल जारी है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हार के बाद भाजपा में सर फुट्टेवल जोरों पर
पश्चिम की ज्यादातर सीटों पर भाजपा की हार से पार्टी में सर फुट्टेवल भी जोरों पर है। कैराना में पार्टी के गुर्जर दावेदारों की एक लंबी फेहरिस्त थी जो टिकट नहीं मिलने से निष्क्रिय नजर आए तो रही सही कसर राजपूत और दलित वोटों ने पूरी कर दी। सहारनपुर में भी भाजपा में टिकट के दावेदारों की अंदरूनी खींचतान में नेता और कार्यकर्ता उदासीन नजर आए। आलम यह रहा कि सबसे बड़ी कैडर वाली पार्टी, वोटरों को घर से निकाल पाने में ही फेल हो गई। कई जगह पार्टी के बस्ते तक नहीं लग पाए तो खुद भाजपा सांसद के बूथ तक पर सन्नाटा पसरा रहा। नतीजा पहले चुनाव जितनी भी वोट नहीं मिल सकी तो वही शहर विस क्षेत्र तक में भाजपा हार गई। अब चुनाव में काम न करने वाले नेताओं के साथ पार्टी भितरघातियों को तलाश रही है। जबकि मुजफ्फरनगर में तो कबीना मंत्री की हार को लेकर भाजपा नेता खुलकर एक दूसरे के खिलाफ सड़कों पर आ गए हैं।
वेस्ट यूपी ही नहीं, प्रदेश में ही बीजेपी को इस आम चुनाव में अच्छा खासा नुकसान हुआ है। बीजेपी कुल 80 में से सिर्फ़ 35 सीटें ही जीत पाई है। यही नहीं, 2019 में बीजेपी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 26 सीटों में से जहां 18 सीटें जीती थीं, वहीं इस बार यह संख्या घटकर 12 पर आ गई।
सहारनपुर मुजफ्फरनगर आदि सीटों पर पार्टी को पिछले चुनाव जितनी भी वोट नहीं मिल पाई है। मुजफ्फरनगर में 2019 में संजीव बालियान को 5 लाख 73 हजार 780 वोट पड़े थे, जो इस बार घटकर 4 लाख 46 हजार 49 रह गए हैं। यानी पिछली बार के मुकाबले इस बार उन्हें करीब 1 लाख 27 हजार वोट कम पड़े हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन के चलते भी लोगों में संजीव बालियान के प्रति गुस्सा दिखाई दिया। किसान आंदोलन के समय कई गांवों ने संजीव बालियान का बहिष्कार किया था।
संजीव बालियान की हार पर बीजेपी में मचा घमासान
वेस्ट यूपी में पार्टी के ख़राब प्रदर्शन ने सिर्फ अंदरूनी कलह को ही नहीं बल्कि जाट बनाम ठाकुर या गुर्जर बनाम ठाकुर की बहस को भी तेज़ कर दिया है। मुजफ्फरनगर में संजीव बालियान ने अपनी हार के लिए, बिना नाम लिए अपनी ही पार्टी के एक नेता को 'जयचंद', 'विभीषण' और 'शिखंडी' तक बता दिया है। इलाके की राजनीति पर नज़र रखने वाले जानकारों का कहना है कि उनका इशारा सरधना के पूर्व विधायक और बीजेपी नेता संगीत सोम की तरफ़ है। संगीत सोम भी संजीव बालियान पर हमलावर हैं। वे न सिर्फ़ संजीव बालियान बल्कि राष्ट्रीय लोकदल की भूमिका पर भी सवाल उठा रहे हैं।
हारने के एक हफ़्ते बाद संजीव बालियान ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी। जिसमें उन्होंने अपनी हार के तीन प्रमुख कारण गिनाए, जिसमें एक को लेकर पार्टी में लड़ाई शुरू हो गई है। संगीत सोम का नाम लिए बिना उन्होंने कहा, "शिखंडी ने छिपकर वार किया। जयचंदों का कुछ नहीं हो सकता।" बालियान ने कहा, "सपा प्रत्याशी को लोकसभा चुनाव लड़वाया। लोकसभा चुनाव में जो जयचंद की भूमिका में रहे, उनके ख़िलाफ़ पार्टी कार्रवाई करेगी।" संजीव बालियान के आरोपों के बाद संगीत सोम ने भी प्रेस कॉन्फ्रेंस की और मुज़फ़्फ़रनगर सीट पर हार के लिए संजीव बालियान को ही जिम्मेदार ठहराया।
संगीत सोम ने कहा कि विपरीत परिस्थितियों में भी सरधना विधानसभा के लोगों ने समाजवादी पार्टी की टक्कर में वोट डाले हैं। उन्होंने कहा, "मुज़फ़्फ़रनगर और खतौली ऐसी विधानसभा हैं जहां विपरीत परिस्थितियों में भी बीजेपी 30-40 हजार वोट के अंतर से जीतती है, लेकिन इस बार मुज़फ़्फ़रनगर में ये अंतर करीब 800 वोटों का और खतौली में करीब 2 हजार वोट का ही रहा है।" जबकि, "चरथावल और बुढ़ाना विधानसभा बालियान जी का घर हैं। ये दोनों क्यों हारे? उन्हें चिंतन मनन करना चाहिए… बुढ़ाना के सोरम गांव को बालियान जी अपना घर मानते हैं। यहां बड़े बड़े नेताओं ने सभाएं की, उसके बाद भी यहां हार हुई… मेरी जिम्मेदारी सरधना की थी, वहां लोगों ने बहुत अच्छा वोट दिया है।" वहीं, एक सवाल के जवाब में संगीत सोम ने कहा, "मुझे नहीं लगता है कि आरएलडी के आने से बीजेपी को फ़ायदा हुआ है। जो सीटें हम जीत रहे थे हम उन्हें भी हार गए।"
अगर संगीत सोम की सरधना विधानसभा की बात करें तो 2019 में बालियान को यहां 1 लाख 17 हज़ार 530 वोट मिले थे, वहीं, इस बार उन्हें 80 हज़ार 781 वोट मिले हैं। यानी पिछले बार की तुलना में उन्हें 36 हज़ार 749 वोट कम पड़े हैं। वहीं, संजीव बालियान की हार का अंतर करीब 24 हज़ार है। अगर अकेली सरधना विधानसभा में उन्हें पिछली बार जितना वोट मिलता तो वे आसानी से चुनाव जीत सकते थे। हालांकि दूसरी विधानसभा क्षेत्रों में भी उनका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है।
नेताओं की आपसी लड़ाई से पार्टी को नुक़सान
पश्चिमी यूपी में संजीव बालियान और संगीत सोम ने इसे जाट बनाम ठाकुर की लड़ाई बना दिया, जिससे ना सिर्फ़ बीजेपी को मुज़फ़्फ़रनगर बल्कि कई सीटों पर नुक़सान उठाना पड़ा। साल 2019 में बीजेपी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 26 सीटों में से जहां 18 सीटें जीती थीं, वहीं इस बार यह संख्या घटकर 12 पर आ गई। इसके उलट समाजवादी पार्टी जहां 4 सीटों पर थी, वह बढ़कर 10 पर पहुंच गई। चुनावी नतीजों के आंकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय लोकदल को दो सीटों पर जीत ज़रूर मिली लेकिन उसका फ़ायदा बीजेपी को नहीं हुआ।
Related: