सतीश डोंगरे बताते हैं कि उन्होंने कई बार वरिष्ठ अधिकारियों से कुर्सी और टेबल उपलब्ध कराने की मांग की, लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई।

भारतीय संविधान सभी नागरिकों को समानता और सम्मान का अधिकार प्रदान करता है। डॉ. भीमराव आंबेडकर ने स्पष्ट रूप से कहा था कि लोकतंत्र केवल राजनीतिक अधिकारों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि तब तक अधूरा रहेगा जब तक सामाजिक और प्रशासनिक व्यवस्था में बराबरी नहीं आएगी। लेकिन आज सरकारी दफ्तरों से सामने आने वाली तस्वीरें यह दिखाती हैं कि संवैधानिक सिद्धांतों और वास्तविकता के बीच गहरा अंतर है। ग्वालियर से आई कुछ तस्वीरों ने न केवल शासन की कमजोर व्यवस्था को उजागर किया है, बल्कि जातिगत भेदभाव की दर्दनाक सच्चाई को भी बेनकाब कर दिया है।
द मूकनायक की रिपोर्ट के अनुसार, ग्वालियर स्थित मध्यप्रदेश भवन विकास निगम में सहायक महाप्रबंधक (एजीएम) सतीश डोंगरे पिछले एक साल से बिना कुर्सी और टेबल के काम कर रहे हैं। उन्हें कार्यालय में बैठने के लिए न तो कोई चैंबर दिया गया है और न ही कोई कुर्सी-टेबल। मजबूरी में वे रोजाना चटाई बिछाकर जमीन पर बैठकर विभागीय फाइलें निपटाते हैं।
यह कार्यालय एक किराए की इमारत में चलाया जा रहा है, जहां अन्य सभी अधिकारियों को चैंबर और टेबल-कुर्सी की सुविधा मिलती है। लेकिन अनुसूचित जाति के अधिकारी सतीश डोंगरे को अब तक ये बुनियादी सुविधाएं नहीं दी गई हैं। डोंगरे का आरोप है कि उन्हें उनकी जाति के कारण अपमानित किया जा रहा है!
सतीश डोंगरे बताते हैं कि उन्होंने कई बार वरिष्ठ अधिकारियों से कुर्सी और टेबल उपलब्ध कराने की मांग की, लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई। उनका कहना है, “मैं अपना काम ईमानदारी से कर रहा हूं, लेकिन एक साल से लगातार अपमान सह रहा हूं। जब करोड़ों रुपये के प्रोजेक्ट्स के लिए बजट निकाला जा सकता है, तो एक अधिकारी के लिए एक साधारण कुर्सी-टेबल क्यों नहीं खरीदी जा सकती?”
इस पूरे मामले पर निगम के अतिरिक्त महाप्रबंधक अच्छेलाल अहिरवार का कहना है कि भोपाल मुख्यालय को इस संबंध में मांग भेजी गई है और फंड मिलने के बाद ही फर्नीचर उपलब्ध कराया जाएगा। लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर एक कुर्सी और टेबल दिलाने में एक साल क्यों लग गया?
यहां सवाल केवल टेबल-कुर्सी का नहीं है, बल्कि सरकारी व्यवस्था और सामाजिक सोच का है। यदि सभी अधिकारियों को तुरंत फर्नीचर मिल सकता है, तो एक दलित अधिकारी को क्यों नहीं? क्या यह सिर्फ लापरवाही है, या फिर सतीश डोंगरे के आरोप सही हैं कि वे जातिगत भेदभाव का शिकार हैं?
भारतीय संविधान का अनुच्छेद-14 हर नागरिक को कानून के समक्ष समानता का अधिकार प्रदान करता है, और अनुच्छेद-17 अस्पृश्यता को समाप्त करता है। इसके बावजूद जब सरकारी दफ्तरों में इस तरह की घटनाएं सामने आती हैं, तो यह न केवल संविधान के मूल्यों को आहत करता है, बल्कि सामाजिक न्याय की भावना का भी अपमान है।
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द मूकनायक की रिपोर्ट के अनुसार, ग्वालियर स्थित मध्यप्रदेश भवन विकास निगम में सहायक महाप्रबंधक (एजीएम) सतीश डोंगरे पिछले एक साल से बिना कुर्सी और टेबल के काम कर रहे हैं। उन्हें कार्यालय में बैठने के लिए न तो कोई चैंबर दिया गया है और न ही कोई कुर्सी-टेबल। मजबूरी में वे रोजाना चटाई बिछाकर जमीन पर बैठकर विभागीय फाइलें निपटाते हैं।
यह कार्यालय एक किराए की इमारत में चलाया जा रहा है, जहां अन्य सभी अधिकारियों को चैंबर और टेबल-कुर्सी की सुविधा मिलती है। लेकिन अनुसूचित जाति के अधिकारी सतीश डोंगरे को अब तक ये बुनियादी सुविधाएं नहीं दी गई हैं। डोंगरे का आरोप है कि उन्हें उनकी जाति के कारण अपमानित किया जा रहा है!
सतीश डोंगरे बताते हैं कि उन्होंने कई बार वरिष्ठ अधिकारियों से कुर्सी और टेबल उपलब्ध कराने की मांग की, लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई। उनका कहना है, “मैं अपना काम ईमानदारी से कर रहा हूं, लेकिन एक साल से लगातार अपमान सह रहा हूं। जब करोड़ों रुपये के प्रोजेक्ट्स के लिए बजट निकाला जा सकता है, तो एक अधिकारी के लिए एक साधारण कुर्सी-टेबल क्यों नहीं खरीदी जा सकती?”
इस पूरे मामले पर निगम के अतिरिक्त महाप्रबंधक अच्छेलाल अहिरवार का कहना है कि भोपाल मुख्यालय को इस संबंध में मांग भेजी गई है और फंड मिलने के बाद ही फर्नीचर उपलब्ध कराया जाएगा। लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर एक कुर्सी और टेबल दिलाने में एक साल क्यों लग गया?
यहां सवाल केवल टेबल-कुर्सी का नहीं है, बल्कि सरकारी व्यवस्था और सामाजिक सोच का है। यदि सभी अधिकारियों को तुरंत फर्नीचर मिल सकता है, तो एक दलित अधिकारी को क्यों नहीं? क्या यह सिर्फ लापरवाही है, या फिर सतीश डोंगरे के आरोप सही हैं कि वे जातिगत भेदभाव का शिकार हैं?
भारतीय संविधान का अनुच्छेद-14 हर नागरिक को कानून के समक्ष समानता का अधिकार प्रदान करता है, और अनुच्छेद-17 अस्पृश्यता को समाप्त करता है। इसके बावजूद जब सरकारी दफ्तरों में इस तरह की घटनाएं सामने आती हैं, तो यह न केवल संविधान के मूल्यों को आहत करता है, बल्कि सामाजिक न्याय की भावना का भी अपमान है।
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