अदालत ने यह टिप्पणी की कि निर्धारित समयसीमा के भीतर चुनाव न कराना संविधान का सीधा उल्लंघन है।

एक अहम फैसले में राजस्थान उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को पंचायती राज संस्थाओं (PRI) के चुनावों में सीमांकन (delimitation) के नाम पर देरी करने के लिए कड़ी फटकार लगाई है और निर्देश दिया है कि आदेश की प्रति मुख्य सचिव तथा राज्य निर्वाचन आयोग को तत्काल अनुपालन के लिए भेजी जाए।
न्यायमूर्ति अनूप कुमार धंड ने यह आदेश महावीर प्रसाद गौतम सहित 17 याचिकाओं की सुनवाई के बाद दिया। अदालत ने कहा कि निर्धारित समयसीमा के भीतर चुनाव न कराना संविधान का सीधा उल्लंघन है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि स्थानीय निकाय चुनाव पिछली अवधि की समाप्ति के पांच वर्षों के भीतर कराए जाने अनिवार्य हैं और किसी भी स्थिति में उनकी अवधि छह महीने से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती।
द मूकनायक ने न्यूज एजेंसी के हवाले से लिखा, न्यायमूर्ति धंड ने कहा कि यदि राज्य सरकार समय पर चुनाव कराने में विफल रहती है, तो यह राज्य निर्वाचन आयोग की संवैधानिक जिम्मेदारी बन जाती है कि वह दखल देकर स्थानीय लोकतांत्रिक शासन को बहाल करे।
अदालत ने चेताया कि निर्वाचित स्थानीय प्रतिनिधियों की अनुपस्थिति से शासन व्यवस्था में खालीपन पैदा होती है, जो जनसेवा की गुणवत्ता और वितरण को गंभीर रूप से प्रभावित करती है। अदालत ने निलंबित पंचायत प्रशासकों के मुद्दे पर भी विचार किया। याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि निर्वाचित सरपंचों का कार्यकाल समाप्त होने के बाद, राज्य सरकार ने 16 जनवरी को एक अधिसूचना जारी कर उन्हें ही, चुनावों में हुई देरी के कारण, प्रशासक के रूप में नियुक्त कर दिया था।
हालांकि, इन सरपंचों को बिना किसी उचित जांच या सुनवाई के बाद में हटा दिया गया। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि राज्य सरकार की यह कार्रवाई संविधान, पंचायती राज अधिनियम और नगरपालिका अधिनियम का स्पष्ट उल्लंघन है।
अदालत ने माना कि उनका हटाया जाना प्रक्रियात्मक रूप से दोषपूर्ण था और आदेश दिया कि उन्हें पुनः प्रशासक के रूप में बहाल किया जाए। साथ ही अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि सरकार को आवश्यक लगे, तो वह कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन करते हुए पुनः कार्रवाई कर सकती है।
राज्य सरकार ने दलील दी कि याचिकाकर्ताओं को, उनका पांच वर्ष का कार्यकाल समाप्त होने के बाद, प्रशासक बने रहने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है और उनके खिलाफ जांच लंबित है। लेकिन अदालत ने प्रक्रियागत त्रुटियों के आधार पर याचिकाकर्ताओं के पक्ष में निर्णय दिया।
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न्यायमूर्ति अनूप कुमार धंड ने यह आदेश महावीर प्रसाद गौतम सहित 17 याचिकाओं की सुनवाई के बाद दिया। अदालत ने कहा कि निर्धारित समयसीमा के भीतर चुनाव न कराना संविधान का सीधा उल्लंघन है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि स्थानीय निकाय चुनाव पिछली अवधि की समाप्ति के पांच वर्षों के भीतर कराए जाने अनिवार्य हैं और किसी भी स्थिति में उनकी अवधि छह महीने से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती।
द मूकनायक ने न्यूज एजेंसी के हवाले से लिखा, न्यायमूर्ति धंड ने कहा कि यदि राज्य सरकार समय पर चुनाव कराने में विफल रहती है, तो यह राज्य निर्वाचन आयोग की संवैधानिक जिम्मेदारी बन जाती है कि वह दखल देकर स्थानीय लोकतांत्रिक शासन को बहाल करे।
अदालत ने चेताया कि निर्वाचित स्थानीय प्रतिनिधियों की अनुपस्थिति से शासन व्यवस्था में खालीपन पैदा होती है, जो जनसेवा की गुणवत्ता और वितरण को गंभीर रूप से प्रभावित करती है। अदालत ने निलंबित पंचायत प्रशासकों के मुद्दे पर भी विचार किया। याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि निर्वाचित सरपंचों का कार्यकाल समाप्त होने के बाद, राज्य सरकार ने 16 जनवरी को एक अधिसूचना जारी कर उन्हें ही, चुनावों में हुई देरी के कारण, प्रशासक के रूप में नियुक्त कर दिया था।
हालांकि, इन सरपंचों को बिना किसी उचित जांच या सुनवाई के बाद में हटा दिया गया। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि राज्य सरकार की यह कार्रवाई संविधान, पंचायती राज अधिनियम और नगरपालिका अधिनियम का स्पष्ट उल्लंघन है।
अदालत ने माना कि उनका हटाया जाना प्रक्रियात्मक रूप से दोषपूर्ण था और आदेश दिया कि उन्हें पुनः प्रशासक के रूप में बहाल किया जाए। साथ ही अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि सरकार को आवश्यक लगे, तो वह कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन करते हुए पुनः कार्रवाई कर सकती है।
राज्य सरकार ने दलील दी कि याचिकाकर्ताओं को, उनका पांच वर्ष का कार्यकाल समाप्त होने के बाद, प्रशासक बने रहने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है और उनके खिलाफ जांच लंबित है। लेकिन अदालत ने प्रक्रियागत त्रुटियों के आधार पर याचिकाकर्ताओं के पक्ष में निर्णय दिया।
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