मीठी चीनी-फीकी चीनी: UP के गन्ना किसानों को कैबिनेट अप्रूव्ड 'MSP' भी नहीं मिल पा रहा

Written by Navnish Kumar | Published on: March 30, 2021
'एमएसपी था एमएसपी हैं एमएसपी रहेगा', के शोर-शराबे के बीच उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड में गन्ना किसानों के साथ 'एमएसपी' के नाम पर धोखे का बड़ा खेल उजागर हुआ है। महंगाई से बढ़ती लागत के बीच उत्तर प्रदेश में चार साल से गन्ने के दाम नहीं बढ़े हैं वहीं ताजा खुलासा गन्ना किसानों को केंद्रीय कैबिनेट द्वारा तय एमएसपी (एफआरपी) के भी नहीं मिल पाने का है। बात करें तो प्रदेश की तकरीबन आधी चीनी मिलों में केंद्र द्वारा तय उचित एवं लाभकारी मूल्य (एफआरपी) तक किसान को नहीं मिल पा रहा है। यह सब भी तब है, जब इस बाबत सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ तक के स्पष्ट आदेश हैं। 


बात शुरू करने से पहले फसलों के रेट यानि एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) तय होने की प्रक्रिया को जान लीजिए। वर्तमान में देश में गेहूं व धान सहित 23 फसलों का एमएसपी तय होता है जो कृषि मंत्रालय के अधीन संस्था कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) तय करता है। गन्ने की प्रक्रिया थोड़ी अलग है। 

गन्ने में दो तरह का एमएसपी होता है। पहला, उचित एवं लाभकारी मूल्य (एफआरपी) होता है जिसे कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) की अनुशंसा पर केंद्र सरकार यानि केंद्रीय कैबिनेट तय करती है। एफआरपी (फेयर एंड रिमन्यूरेटिव प्राइस) गन्ने की मिठास यानि रिकवरी के आधार पर तय होता है। दूसरा एमएसपी, राज्य परामर्शित मूल्य (एसएपी) होता है जिसे गन्ना शोध संस्थान आदि द्वारा आंकी गई लागत और किसान व मिल प्रतिनिधियों आदि से बातचीत के आधार पर राज्य सरकार तय करती हैं। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा आदि राज्यों में यही एसएपी (स्टेट एडवाइजरी प्राइस) की व्यवस्था है।

अमूमन होता यह है कि राज्य सरकार का गन्ना मूल्य (एसएपी), केंद्र सरकार के मूल्य (एफआरपी) से ज्यादा होता है। प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत और लोकतंत्र में एक सामान्य सोच के लिहाज से भी देखें तो यही व्यवस्था होती है व होनी चाहिए लेकिन दो-तीन सालों से यह व्यवस्था उलट गई है। मसलन, गन्ने का केंद्र सरकार का रेट एफआरपी, राज्य सरकार के रेट एसएपी से भी ज्यादा हो गया है। यह अंतर भी छोटा मोटा 2-4 रुपये का नहीं हैं बल्कि कई चीनी मिलों में यह अंतर बहुत बड़ा है। 

उत्तर प्रदेश के गन्ना मंत्री सुरेश राणा के अपने सहारनपुर मंडल की ही बात करें तो मंडल की 17 में से 9 चीनी मिलों ऊन व थानाभवन दोनों शामली, शेरमऊ व देवबंद दोनों सहारनपुर तथा खतौली, खाइखेड़ी, रोहाना, बुढ़ाना व टिकौला (पांचों मुजफ्फरनगर) की चीनी मिल का एफआरपी, उत्तर प्रदेश सरकार के एसएपी से कहीं ज्यादा है।

उदाहरण के तौर पर देखें तो त्रिवेणी समूह की देवबंद मिल का एफआरपी 340.58 रुपये कुंतल हैं जबकि मुजफ्फरनगर की उत्तम समूह की खाइखेड़ी मिल का एफआरपी 347.13 रुपये कुंतल बैठता है। लेकिन प्रदेश सरकार का गन्ना मूल्य (एसएपी) 325 रुपये हैं जो किसानों को मिल रहा है। यानि इन दो फैक्ट्रियों में ही किसान को प्रति कुंतल 15 से 22 रुपये की मोटी आर्थिक चपत लग रही है। वेस्ट यूपी में ऊंची रिकवरी के चलते कई चीनी मिलों का एफआरपी 350 रुपये कुंतल से भी ज्यादा (400 रुपये) तक जाकर बैठता है।

किसान चिंतक व गन्ने के जानकार प्रीतम चौधरी कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का जज अरुण मिश्रा, इंदिरा बैनर्जी, विनित सरन, एमआर शाह व अनिरुद्ध बोस की पांच सदस्यीय संविधान पीठ का अप्रैल-2020 का फैसला आया है जिसका लब्बोलुआब यह है कि राज्य सरकार गन्ने का रेट यानि एसएपी तय कर सकती हैं लेकिन यह रेट, केंद्र सरकार के रेट यानि एफआरपी से कम नहीं हो सकता है। 

चौधरी कहते हैं कि उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड व हरियाणा में तीनों राज्यों में भाजपा की सरकार हैं जो निरंतर दावा कर रही हैं कि 'एमएसपी था एमएसपी है एमएसपी रहेगा', लेकिन हकीकत एकदम अलग है। गन्ने की बढ़ती मिठास से, मिल मालिकों के मुनाफे का स्वाद (ग्राफ) भले बढ़ जा रहा हो लेकिन एमएसपी के न मिलने से किसानों के लिए चीनी मीठी नहीं, फीकी ही साबित हो रही है।

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