उत्तराखंड के उलट, उत्तर प्रदेश में 40 से ज्यादा वनटांगिया गांवों को राजस्व (गांव) का दरजा दिया जा चुका हैं। सहारनपुर ज़िले की बात करें तो यहां कालूवाला, भगवतपुर व सोढ़ीनगर तीन वनटोंगिया गांव को राजस्व का दर्जा मिले डेढ़ साल से भी ज्यादा का समय हो गया है। लेकिन धरातल पर यह दर्जा कागज़ों तक में ही महदूद होकर रह गया है। ज्यादातर ग्रामीणों को वनाधिकार पत्र नहीं मिल सके हैं और न ही राजस्व गांव होने का कोई लाभ मिल सका है। बिजली, सड़क, स्कूल व अस्पताल जैसी मूलभूत सुविधाओं तक से लोग वंचित हैं। हालांकि कुछ (करीब 20%) लोगों को रिहायश व कृषि भूमि के व्यक्तिगत अधिकार-पत्र मिले हैं लेकिन राजस्व रिकॉर्ड में इंद्राज न हो पाने के चलते, धरातल पर इन्हें भी कोई लाभ मिलता नहीं दिख रहा है।
सवाल उठता हैं कि आखिर राजस्व गांव का यह कैसा दर्जा हैं?। अधिकार पत्र हैं लेकिन अधिकार कोई नहीं हैं। राजस्व का दर्जा है लेकिन सड़क, बिजली आदि की मूलभूत बुनियादी सुविधाएं नदारद हैं। इसी सब से वन अधिकार अधिनियम-2006 के धरातल पर क्रियान्वयन को लेकर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार भी कटघरे में है।
वनाधिकार कानून में साफ है कि टांगिया गांव, राजस्व घोषित हो। लोगों के अपने घर मकान हो। जमीन व आजीविका का अधिकार हो ताकि गुमनामी और नाइंसाफी के अंधेरों में खोए टोंगिया ग्रामीण, न सिर्फ आजादी को महसूस कर सके बल्कि उसे जी भी सके और समाज व देश की मुख्य धारा से जुड़कर देश और प्रदेश के विकास के साथ कदमताल करते हुए आगे बढ़ सके।
उप्र के सहारनपुर के घाड़ क्षेत्र में बसे चार टांगिया गांव कालूवाला, सोढ़ीनगर, भगवतपुर और बुड्ढाबन हैं। अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के नेतृत्व में टोंगिया काश्तकारों के लंबे आंदोलन का ही परिणाम हैं कि गांव को राजस्व का दरजा मिला है। वहीं, कुछेक (करीब 20 प्रतिशत) लोगों को ही सही, आखिरकार वनाधिकार कानून के तहत अधिकार-पत्र भी दे दिये गये हैं। शिवालिक वन प्रभाग में बसे कालूवाला टांगिया के काश्तकारों को सबसे बाद में 6 जून-18 को जिला समाज कल्याण अधिकारी, प्रभागीय वन अधिकारी व उप जिलाधिकारी बेहट की उपस्थिति में रिहायश व काश्त की जमीन के अधिकार पत्र दिये गये हैं परन्तु जिन करीब 80% लोगों के दावे निरस्त कर दिए गए है, उनका निराकरण अभी नहीं हो सका है। हालांकि, सामुदायिक अधिकार अभी भी दूर की कौड़ी बना हुआ है।
खास है कि कालुवाला, सोढ़ीनगर व भगवतपुर को जुलाई-19 में राजस्व का दर्जा भी दे दिया गया हैं। बुड्ढाबन पहले से ही राजस्व से जुड़ा हुआ है। लेकिन यह दर्जा कागजों में ही कैद होकर रह गया है-।
टांगिया ग्रामीणों वेदप्रकाश, हरि सिंह, शेरसिंह, प्रवेश कुमार आदि राजस्व के दर्जे पर सवाल उठाते हैं कि जब तक तहसील के रिकॉर्ड में यह दर्ज न हो तब तक उन्हें मिले अधिकार पत्रों का भी कोई औचित्य नहीं रह जाता हैं। टांगिया ग्रामीणों का कहना है कि अव्वल तो ज्यादातर लोगों के ग्राम सभा से पास दावों को गैर कानूनी तरीके से खारिज कर दिया गया है। दूसरा, जिन लोगों को अधिकार-पत्र मिले भी हैं, उनका भी नाम राजस्व अभिलेखों में दर्ज न हो पाने के चलते उन्हें भी कोई लाभ नहीं मिल पा रहा है।
टांगिया काश्तकार कृष्ण लाल कहते हैं कि उन्हें अधिकार पत्र मिल गया है लेकिन राजस्व अभिलेखों में उसका 'इंद्राज' न हो पाने के चलते प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि आदि योजनाओं तक का भी लाभ नहीं मिल पा रहा है। कालूवाला जहानपुर के पूर्व प्रधान बताते हैं कि पिछले दिनों टोंगिया गांव के एक लड़के की दुखद मृत्यु हो गई थी लेकिन राजस्व अभिलेख में नाम न होने से कृषक दुर्घटना बीमा योजना का भी लाभ परिवार को नहीं मिल सका हैं। यही नहीं, ग्रामीणों का कहना हैं कि खेतो में सिंचाई को बिजली आदि कनेक्शन व फसली ऋण तक नहीं मिल पा रहा हैं। अब ऐसा राजस्व का दरजा भला किस काम का हैं।
अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन की ओर से 14 फरवरी को कालूवाला टोंगिया में वनटांगिया ग्रामीणों और वन गुर्जर समुदाय को वन भूमि पर वनाधिकार कानून के तहत सामुदायिक दावे फार्म भरने को प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन किया गया। बताया कि वनाधिकार कानून, ग्राम सभा क्षेत्र में स्थित तालाब-पोखर, सड़क, खुले स्थान, चारागाह आदि के साथ आजीविका के लिए लघु वन उपज पर सामुहिक हक प्रदान करता हैं। इसी से कार्यक्रम में यूनियन के संगठन सचिव मुन्नीलाल व वनाधिकार एक्सपर्ट अनिता एडवोकेट द्वारा गांव-वार सामुदायिक दावे भरने की प्रक्रिया ग्रामीणों को समझाई गईं और जल्द ही ग्राम सभा के नजरी नक्शा, लघु वन उपज आदि वन संपत्तियों को सूचीबद्ध कर, वर्किंग प्लान आदि के साथ सामुदायिक दावा फार्म भरने व एसडीएम की अध्यक्षता वाली उपखण्डीय समिति के समक्ष प्रस्तुत करने पर सहमति बनी। साथ ही निरस्त दावे फ़ार्मो के निस्तारण में देरी पर चिंता जताई गई।
खास हैं कि वनाधिकार कानून 2006 के तहत खुशहालीपुर में करीब 10% तथा कालूवाला व भगवतपुर में करीब 25% लोगों को ही अधिकार पत्र दिए जा सके हैं। बाकी लोगों के दावे वनों पर निर्भर न होने जैसे बेतुके तर्कों के आधार पर अवैध तरीके से निरस्त कर दिए गए हैं। सभी उपखंडीय समिति के पास आपत्ति दर्ज करा रहे हैं।
ऑल इंडिया यूनियन ऑफ़ फ़ॉरेस्ट वर्किंग पीपल (AIUFWP) की राष्ट्रीय उप महासचिव रोमा कहती हैं कि वनाधिकार कानून के तहत तालाब-पोखर, सड़क, खुले स्थान, चारागाह व लघु वन उपज आदि आजीविका के स्रोतों के लिए वन भूमि पर सामुदायिक अधिकार भी हैं। सभी को संकलित करते हुए सर्वे/सत्यापन व सीमांकन होना चाहिए। पताकि सभी का राजस्व रिकॉर्ड में विधिवत इंद्राज दर्ज हो सके। वही जिन लोगों के दावे निरस्त किए गए हैं उन्हें स्वीकृत कर अधिकार पत्र दिए जाएं।
अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय महासचिव अशोक चौधरी कहते हैं कि राजस्व के आधे अधूरे दर्जे का कोई मतलब नहीं है, संपूर्ण दर्जा मिलना चाहिए। बाकी चीजों को तो छोड़िए, वन विभाग अभी भी लोगों को लैंटाना घास तक नहीं काटने दे रहा है। इसका क्या मतलब है। दूसरा, तहसील रिकॉर्ड में इंद्राज के बिना राजस्व दर्जा कैसा है। चौधरी, इसके लिए प्रशासनिक अधिकारियों को कानून की बाबत अधूरी जानकारी और संवेदनशील न होने को ज़िम्मेवार ठहराते हैं।
चौधरी कहते हैं कि अधिकारी, वनाधिकार कानून का अनुपालन भूमि आवंटन (पट्टा वितरण) प्रक्रिया की तरह करा रहे हैं। जबकि वन अधिकार अधिनियम, वन भूमि पर लोगों के (व्यक्तिगत व सामुदायिक) अधिकारों को मान्यता देने का 'विशेष' कानून है। इसमें ग्राम सभा का रोल सर्वाधिक अहम व निर्णायक होता है।
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सवाल उठता हैं कि आखिर राजस्व गांव का यह कैसा दर्जा हैं?। अधिकार पत्र हैं लेकिन अधिकार कोई नहीं हैं। राजस्व का दर्जा है लेकिन सड़क, बिजली आदि की मूलभूत बुनियादी सुविधाएं नदारद हैं। इसी सब से वन अधिकार अधिनियम-2006 के धरातल पर क्रियान्वयन को लेकर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार भी कटघरे में है।
वनाधिकार कानून में साफ है कि टांगिया गांव, राजस्व घोषित हो। लोगों के अपने घर मकान हो। जमीन व आजीविका का अधिकार हो ताकि गुमनामी और नाइंसाफी के अंधेरों में खोए टोंगिया ग्रामीण, न सिर्फ आजादी को महसूस कर सके बल्कि उसे जी भी सके और समाज व देश की मुख्य धारा से जुड़कर देश और प्रदेश के विकास के साथ कदमताल करते हुए आगे बढ़ सके।
उप्र के सहारनपुर के घाड़ क्षेत्र में बसे चार टांगिया गांव कालूवाला, सोढ़ीनगर, भगवतपुर और बुड्ढाबन हैं। अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के नेतृत्व में टोंगिया काश्तकारों के लंबे आंदोलन का ही परिणाम हैं कि गांव को राजस्व का दरजा मिला है। वहीं, कुछेक (करीब 20 प्रतिशत) लोगों को ही सही, आखिरकार वनाधिकार कानून के तहत अधिकार-पत्र भी दे दिये गये हैं। शिवालिक वन प्रभाग में बसे कालूवाला टांगिया के काश्तकारों को सबसे बाद में 6 जून-18 को जिला समाज कल्याण अधिकारी, प्रभागीय वन अधिकारी व उप जिलाधिकारी बेहट की उपस्थिति में रिहायश व काश्त की जमीन के अधिकार पत्र दिये गये हैं परन्तु जिन करीब 80% लोगों के दावे निरस्त कर दिए गए है, उनका निराकरण अभी नहीं हो सका है। हालांकि, सामुदायिक अधिकार अभी भी दूर की कौड़ी बना हुआ है।
खास है कि कालुवाला, सोढ़ीनगर व भगवतपुर को जुलाई-19 में राजस्व का दर्जा भी दे दिया गया हैं। बुड्ढाबन पहले से ही राजस्व से जुड़ा हुआ है। लेकिन यह दर्जा कागजों में ही कैद होकर रह गया है-।
टांगिया ग्रामीणों वेदप्रकाश, हरि सिंह, शेरसिंह, प्रवेश कुमार आदि राजस्व के दर्जे पर सवाल उठाते हैं कि जब तक तहसील के रिकॉर्ड में यह दर्ज न हो तब तक उन्हें मिले अधिकार पत्रों का भी कोई औचित्य नहीं रह जाता हैं। टांगिया ग्रामीणों का कहना है कि अव्वल तो ज्यादातर लोगों के ग्राम सभा से पास दावों को गैर कानूनी तरीके से खारिज कर दिया गया है। दूसरा, जिन लोगों को अधिकार-पत्र मिले भी हैं, उनका भी नाम राजस्व अभिलेखों में दर्ज न हो पाने के चलते उन्हें भी कोई लाभ नहीं मिल पा रहा है।
टांगिया काश्तकार कृष्ण लाल कहते हैं कि उन्हें अधिकार पत्र मिल गया है लेकिन राजस्व अभिलेखों में उसका 'इंद्राज' न हो पाने के चलते प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि आदि योजनाओं तक का भी लाभ नहीं मिल पा रहा है। कालूवाला जहानपुर के पूर्व प्रधान बताते हैं कि पिछले दिनों टोंगिया गांव के एक लड़के की दुखद मृत्यु हो गई थी लेकिन राजस्व अभिलेख में नाम न होने से कृषक दुर्घटना बीमा योजना का भी लाभ परिवार को नहीं मिल सका हैं। यही नहीं, ग्रामीणों का कहना हैं कि खेतो में सिंचाई को बिजली आदि कनेक्शन व फसली ऋण तक नहीं मिल पा रहा हैं। अब ऐसा राजस्व का दरजा भला किस काम का हैं।
अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन की ओर से 14 फरवरी को कालूवाला टोंगिया में वनटांगिया ग्रामीणों और वन गुर्जर समुदाय को वन भूमि पर वनाधिकार कानून के तहत सामुदायिक दावे फार्म भरने को प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन किया गया। बताया कि वनाधिकार कानून, ग्राम सभा क्षेत्र में स्थित तालाब-पोखर, सड़क, खुले स्थान, चारागाह आदि के साथ आजीविका के लिए लघु वन उपज पर सामुहिक हक प्रदान करता हैं। इसी से कार्यक्रम में यूनियन के संगठन सचिव मुन्नीलाल व वनाधिकार एक्सपर्ट अनिता एडवोकेट द्वारा गांव-वार सामुदायिक दावे भरने की प्रक्रिया ग्रामीणों को समझाई गईं और जल्द ही ग्राम सभा के नजरी नक्शा, लघु वन उपज आदि वन संपत्तियों को सूचीबद्ध कर, वर्किंग प्लान आदि के साथ सामुदायिक दावा फार्म भरने व एसडीएम की अध्यक्षता वाली उपखण्डीय समिति के समक्ष प्रस्तुत करने पर सहमति बनी। साथ ही निरस्त दावे फ़ार्मो के निस्तारण में देरी पर चिंता जताई गई।
खास हैं कि वनाधिकार कानून 2006 के तहत खुशहालीपुर में करीब 10% तथा कालूवाला व भगवतपुर में करीब 25% लोगों को ही अधिकार पत्र दिए जा सके हैं। बाकी लोगों के दावे वनों पर निर्भर न होने जैसे बेतुके तर्कों के आधार पर अवैध तरीके से निरस्त कर दिए गए हैं। सभी उपखंडीय समिति के पास आपत्ति दर्ज करा रहे हैं।
ऑल इंडिया यूनियन ऑफ़ फ़ॉरेस्ट वर्किंग पीपल (AIUFWP) की राष्ट्रीय उप महासचिव रोमा कहती हैं कि वनाधिकार कानून के तहत तालाब-पोखर, सड़क, खुले स्थान, चारागाह व लघु वन उपज आदि आजीविका के स्रोतों के लिए वन भूमि पर सामुदायिक अधिकार भी हैं। सभी को संकलित करते हुए सर्वे/सत्यापन व सीमांकन होना चाहिए। पताकि सभी का राजस्व रिकॉर्ड में विधिवत इंद्राज दर्ज हो सके। वही जिन लोगों के दावे निरस्त किए गए हैं उन्हें स्वीकृत कर अधिकार पत्र दिए जाएं।
अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय महासचिव अशोक चौधरी कहते हैं कि राजस्व के आधे अधूरे दर्जे का कोई मतलब नहीं है, संपूर्ण दर्जा मिलना चाहिए। बाकी चीजों को तो छोड़िए, वन विभाग अभी भी लोगों को लैंटाना घास तक नहीं काटने दे रहा है। इसका क्या मतलब है। दूसरा, तहसील रिकॉर्ड में इंद्राज के बिना राजस्व दर्जा कैसा है। चौधरी, इसके लिए प्रशासनिक अधिकारियों को कानून की बाबत अधूरी जानकारी और संवेदनशील न होने को ज़िम्मेवार ठहराते हैं।
चौधरी कहते हैं कि अधिकारी, वनाधिकार कानून का अनुपालन भूमि आवंटन (पट्टा वितरण) प्रक्रिया की तरह करा रहे हैं। जबकि वन अधिकार अधिनियम, वन भूमि पर लोगों के (व्यक्तिगत व सामुदायिक) अधिकारों को मान्यता देने का 'विशेष' कानून है। इसमें ग्राम सभा का रोल सर्वाधिक अहम व निर्णायक होता है।
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