उत्तराखंड: अरसे बाद वन टांगिया गांवों की सुध लेने पहुंची सरकार

Written by Navnish Kumar | Published on: November 21, 2020
अरसे बाद ही सही, उत्तराखंड सरकार ने वन टांगिया गांवों की सुध लेना शुरू किया है। राजस्व व वन विभाग के अफसरों को भेजकर टांगिया गावों का सत्यापन शुरू कराया गया है लेकिन ढर्रा वही पुराना है। प्रशासन, वन विभाग के 1930-31 के अंग्रेजों के वर्किंग प्लान के पुराने नजरी-नक्शे के जरिए से सत्यापन करना चाह रहा है। 



यह भी तब, जब लगभग एक पूरी सदी (90 साल) बीत गई है। टांगिया काश्तकारों की भी पीढ़ियां बदल गई हैं। देश बदल गया है। आजाद हुए भी 74 साल हो गए हैं। नई पीढ़ी आ गई हैं। आबादी बढ़ने के साथ गावों का फैलाव बढा है। कानून बदल गए हैं। लोग भी जागरूक हुए हैं लेकिन अधिकारी 1930-31 के नक्शे उठाए घूम रहे हैं। 

इसी सब से ग्रामीणों ने सत्यापन टीम को गांवों का मौका-ए-स्थिति के आधार पर सर्वे करने की बात कहते हुए, वनाधिकार कानून के तहत अपने हाथ के बनाए नक्शे सौंपे हैं वहीं, अफसरो को ग्राम सभा की महत्ता और वनाधिकार कानून का पाठ भी पढ़ाया है। 

खास है कि उत्तराखंड सरकार ने हरिद्वार ज़िले के जंगल से लगे टांगिया गांव हरिपुर टोंगिया, कमला नगर व पुरुषोत्तम नगर टोंगिया को राजस्व का दर्जा देने की दिशा में कदम उठाया है जबकि राजाजी पार्क के अंदर के रसूलपुर, हज़ारा व टिहरा टोंगिया आदि वन टांगिया को राजस्व का दर्जा देने को प्रक्रिया की शुरुआत की है। दरअसल उत्तराखंड से लगते उप्र के सोढ़ीनगर, कालूवाला आदि चार टोंगिया गांव को दो साल पहले ही राजस्व का दर्जा मिल चुका है। उत्तराखंड में अब प्रक्रिया शुरू हो रही है। 

खैर देर आए दुरस्त आए, की तर्ज पर इसका स्वागत होना चाहिए लेकिन शासन-प्रशासन को खुले मन से इस प्रक्रिया का आगे बढ़ाना होगा ताकि लोगों को हक़-हकूक के साथ, सदियों के ऐतिहासिक अन्याय से भी मुक्ति मिलने का काम हो सके। 

बीते हफ्ते राजस्व, समाज कल्याण व वन अधिकारियों की टीम ने जिस तरह हरिपुर टांगिया आदि गांव का दौरा किया तो उनके पास 1930-31 के वर्किंग प्लान का नक्शा था कि गांव तीन हेक्टेयर में बसा है। यही नहीं, अफसरों ने ग्राम सभा को भी सर्वे/सत्यापन की सूचना नहीं दी। नतीजा इक्का दुक्का ग्रामीण ही टीम को मिल सके। बाद में 20 नवंबर को एसडीएम आदि अधिकारियों ने गांव पहुंचकर टांगिया गांव की भौगोलिक स्थिति और आबादी आदि का जायजा लिया। 

हरिपुर ग्राम वनाधिकार समिति सचिव हरिसिंह ने बताया कि टीम के सदस्यों का कहना था कि रिकॉर्ड के अनुसार गांव तीन हेक्टेयर जमीन पर बसा हैं। हरिसिंह के अनुसार, उन्होंने बताया कि वर्तमान स्थिति के अनुसार ही सर्वे/सत्यापन प्रक्रिया होनी चाहिए। गांव बसाए जाते वक्त यानि करीब एक सदी पहले स्थिति एकदम अलग थी। वर्तमान में गांव की आबादी व फैलाव कई गुणे तक हो चला है। इसी से मौका-ए-स्थिति के अनुसार ही सर्वे/सत्यापन किया जाना चाहिए। दूसरा, वनाधिकार कानून के तहत ग्राम सभा के सभी प्रस्ताव उपखण्डीय समिति में भी दर्ज होने चाहिए और सर्वे/सत्यापन से लेकर सीमांकन व दावे प्रपत्र (वनाधिकार को मान्यता) सभी प्रक्रिया वनाधिकार कानून के तहत होनी चाहिए। 



समिति सचिव हरि सिंह ने वनाधिकार कानून के तहत अपने हाथों से बनाया नजरी नक्शा भी टीम को सौंपा जिसमे गांव की वर्तमान बसावट दर्ज थी तो कानून के तहत सामुदायिक अधिकारों के तहत जल-जंगल, तालाब, सड़क, खुले मैदान व आजीविका के स्रोत के तौर पर जंगल मे अपने सामुदायिक हकों को भी दर्शाया गया था। 

अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन के संगठन सचिव मुन्नीलाल कहते हैं कि वर्तमान में हरिपुर टांगिया की आबादी 3 हज़ार को पार कर गई है तो कमला नगर व पुरुषोत्तम नगर की आबादी 2-2 हज़ार है। गांव का भी फैलाव हुआ है। दूसरा, वनाधिकार कानून के तहत तालाब-पोखर, सड़क, खुले स्थान, चारागाह व लघु वन उपज आदि आजीविका के स्रोतों के लिए वन भूमि पर सामुदायिक अधिकार भी हैं। सभी को संकलित करते हुए सर्वे/सत्यापन व सीमांकन होना चाहिए। ताकि सभी का राजस्व रिकॉर्ड में विधिवत इंद्राज दर्ज हो सके। 

टांगिया गांव राजस्व में घोषित हो सके और लोगो के अपने घर मकान हो। आजादी को महसूस ही नहीं कर सके बल्कि उसे जी भी सके। जमीन व आजीविका आदि के साथ वोट का अधिकार आदि मिल सकें और टांगिया गांव के लोग भी समाज व देश की मुख्य धारा से जुड़कर देश और प्रदेश के विकास के साथ कदमताल करते हुए आगे बढ़ सके।

खास है कि भारत में टांगियां पद्धति से जंगल लगाने की शुरुआत 1890 (उत्तर भारत मे 1920) के आसपास हुई। यूरोपीय जंगलों के सफाये के बाद बरतानिया हुकूमत को जब उस समय उद्योग-कारखाने लगाने व कच्चे माल की आपूर्ति को व्यवसायिक लकड़ी की भारी ज़रूरत पड़ी और हिन्दुस्तान के ख़त्म होते जा रहे जंगलों को देखकर चिन्ता हुई तो टांगिया पद्धति से जंगल लगवाए गए। इसका उल्लेख नैनीताल की पहली टांगियां कान्फ्रेंस के दस्तावेजों में भी मिलता है। जिनमें स्पष्ट तौर पर लिखा है, कि टांगिया पद्धति से जंगल उगाने के लिये मज़दूरों को वनों के आस-पास बसने वाले गावों से लाया जाए। इसके लिये ज्यादातर मज़दूर जिन गावों से लाए गए वहां वे मुख्यतः या तो भूमिहीन थे या फिर जमींदारों व बड़े काश्तकारों की ज़मीनों पर बेगारी करते थे और इनमें अधिकांश लोग निम्न जातियों से थे।

वृक्षारोपण की मज़दूरी की एवज़़ में उन्हें प्रति परिवार एक एकड़ भूमि दी जाती थी ताकि वह उस ज़मीन से अपने परिवार का पालन-पोषण कर सके और स्थायी रूप से वृक्षारोपण कार्य करते रहें।

उत्तर प्रदेश में टांगिया पद्धति की शुरुआत के लिये केन्द्रीय संयुक्त प्रांत की पहली वन टांगिया कान्फ्रेंस नैनीताल में ब्रिटिश शासन द्वारा 31 अगस्त से 2 सितम्बर 1920 को बुलाई गई थी, तत्पश्चात विभिन्न जिलों में इस पद्धति को लागू किया गया। उत्तर प्रदेश में गोरखपुर, महराजगंज, गौंडा, बहराईच, लखीमपुर ख़ीरी, पीलीभीत, सहारनपुर आदि में इस पद्धति को लागू किया गया तथा हरिद्वार, देहरादून, ऋषिकेश, चंपावत, खटीमा, रामनगर एवं नैनीताल क्षेत्रों में टांगिया के अलावा विभिन्न नामों से वनग्रामों को बसाया गया जो कि अब उत्तराखंड में आते हैं।

शिवालिक पहाड़ों की तलहटी पर वन विभाग द्वारा ‘सिल्वीकल्चर’ तकनीक से सागौन एवं साल के जंगल लगाने की काफी कोशिशें की गई लेकिन प्रतिकूल जलवायु न होने के कारण यह प्लांटेशन असफल रहे। उस सूरत में आसपास के गांव से गरीब तबके के दलित, पिछडों व गरीब मुस्लिमों को जनपद हरिद्वार, सहारनपुर से लाकर कई गांव बसाये गये। ग्राम हरिपुर टांगिया, कालूवाला, सोढीनगर, रसूलपुर, हजारा, टीहरा, कमला नगर, पुरुषोतम नगर, भगवतपुर आदि ऐसे ही बसाये गये गॉव हैं।

विभागीय प्लांटेशन की असफलता की पुष्टि के सबूत हमें वन विभाग के वर्किंग प्लान से भी मिलते हैं। उदाहरण के तौर पर 1923-1931 के बीच वन विभाग द्वारा हरिद्वार रेंज के पथरी जंगल में 925 एकड़ ज़मीन पर वनविभाग द्वारा 30 हज़ार रुपये लगाकर प्लांटेशन किया गया, परन्तु वह पूरी तरह से असफल हो गया। मोबस वर्किंग प्लान के तहत फिर यही जंगल टांगिया काश्तकारों से लगवाने के लिये पत्र संख्या 24 मार्च 1935, 317-106/12-35 के तहत लखनऊ में पंजीकृत किया गया तथा 2000 एकड़ भूमि पर टांगिया पद्धति से जंगल लगाया गया, जो पूरी तरह से सफल हुआ वो भी बिना किसी लागत के। 

इसका मुख्य कारण था कि जिस भूमि पर जंगल लगाया जाना होता था, उसे पहले जला कर हल चलाया जाता था व फसलों के साथ-साथ पौधों की भी परवरिश की जाती थी। लेकिन वनविभाग द्वारा इससे पहले बग़ैर ज़मीन तैयार किये ही जंगल लगाये जाते थे, जिसकी वजह से प्लांटेशन असफल रहते थे। 

उदाहरण के तौर पर जनपद हरिद्वार में पथरी क्षेत्र का जंगल दलदल से भरा था। यहां जंगल लगाने के लिये कोई भी आसानी से तैयार नहीं होता था। कमलानगर और पुरूषोत्तम नगर टांगिया गॉवों में पथरी से 35 किमी दूर भारूवाला आदि गॉवों से दलितों और कश्यपों को लाकर बसाया गया। वही 80 किमी दूर मुजफ्फरनगर तथा 40 किमी दूर लंढ़ौरा से लोगो को लाकर यहां बसाया गया। 

पुरुषोत्तम नगर के 65 लोगों एवं कमलानगर के 26 लोगों को ढाई-ढाई एकड़ रियायती भूमि दी गई। यहां पर आकर लोगों ने स्वतंत्रता जरूर महसूस की चूंकि यहां जमीनें बहुत थीं। पहले वर्ष दिए गए प्लाट पर लोग केवल फसल लिया करते थे। ऐसा करने के पीछे दो वजहें थीं, एक इससे यहां लाये गये मज़दूरों के खाने के लिये कुछ मात्रा में अनाज जुट जाता था दूसरे सौंपी गयीं खराब ज़मीनें वृक्षारोपण के लिये तैयार हो जाती थीं। इस लिये पेड़ों की बुआई अगले वर्ष ही की जाती थी।

इसी तरह देहरादून क्षेत्र में सतीवाला एवं दिलीप नगर टांगिया को 1932 में बसाया गया, जो कि डोईवाला क्षेत्र में आते हैं। ये सभी लोग सहारनपुर क्षेत्र से नदियों के कारण विस्थापित हुये थे। इसी तरह चांडी एवं बालकुमारी जैसे टांगिया को आजादी के बाद सन् 1970 में वन विभाग द्वारा बसाया गया था। बालकुमारी में 70 तथा चांडी में 60 काश्तकारों को बसाया गया जिसमें 50 फीसदी लोग दलित थे।

इन सभी जगहों पर टांगिया पद्धति लगभग एक ही समय में लागू हुई व उसका स्वरूप भी बिल्कुल एक जैसा ही था। खेती की भूमि के अलावा टांगिया गॉवों को वनविभाग द्वारा स्वास्थ्य एवं शिक्षा की सुविधा बरायनाम इनके तथाकथित विकास के लिये उपलब्ध करायी जाती थी। चॅूकि ये गॉव राजस्व ग्राम के अन्तर्गत नहीं आते थे, इसलिए इनके विकास की जिम्मेदारी वन विभाग को सौंपी गयी थी। 

वनीकरण के साथ-साथ टांगिया काश्तकारों की अन्य जिम्मेदारियां भी थीं। उन्हें जंगल के अंदर व्यवसायिक पेड़ों को काटना, सड़क बनाना, फायर लाइनों की सफाई करना, बरसातों के बाद सड़क बनाना इत्यादि के काम भी करने पड़ते थे, जिसका उन्हें कोई मेहनताना नहीं दिया जाता था।

अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन की राष्ट्रीय उप महासचिव रोमा कहती हैं कि 1980 के वन संरक्षण अधिनियम लागू होने के बाद टांगिया ग्रामीणों का वनों में काम (रोजगार) बंद हो गया था। वही वन विभाग द्वारा शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं भी खत्म कर दी गई। ऐसे में टांगिया काश्तकारों ने मजबूरी में बाहर जाकर काम ढूंढना शुरू कर दिया। दूसरी ओर, 1982 में राजाजी पार्क की घोषणा के साथ ही टांगिया गांव के विस्थापन की प्रक्रिया शुरू हो गईं। हरिपुर टांगिया को भी सुप्रीम कोर्ट की शरण लेनी पड़ी और तभी से टांगिया ग्रामीण, राजस्व गांव बनाने के लिए संघर्ष में जुटे हैं। 2006 में वनाधिकार कानून में टांगिया ग्रामीणों के वनाधिकार को मान्यता मिली और एक लंबे संघर्ष के बाद, अब आकर टांगिया गांव के राजस्व गांव बनने व वनाधिकारो को मान्यता मिलने की प्रक्रिया शुरू हुई है तो लोगों  को भी आजादी की किरण नजर आने लगी है।

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