बुकर पुरस्कार विजेता बानू मुश्ताक द्वारा ऐतिहासिक मैसूरु दशहरा उत्सव का उद्घाटन करने के कर्नाटक सरकार के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका को संविधान की प्रस्तावना का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया।

सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार, 19 सितंबर को बुकर पुरस्कार विजेता बानू मुश्ताक द्वारा ऐतिहासिक मैसूरु दशहरा उत्सव का उद्घाटन किए जाने के राज्य सरकार के निर्णय को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर दिया।
इस दौरान अदालत ने याचिकाकर्ता को संविधान की प्रस्तावना की याद दिलाते हुए कहा कि इसमें धर्मनिरपेक्षता, विचार और विश्वास की स्वतंत्रता, साथ ही समानता और बंधुत्व जैसे आदर्शों को राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक सिद्धांतों के रूप में स्वीकार किया गया है।
द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, याचिका को खारिज करते हुए जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने बेंगलुरु के याचिकाकर्ता एच.एस. गौरव से यह पूछा कि क्या उन्होंने भारतीय संविधान की प्रस्तावना पढ़ी है।
जस्टिस विक्रम नाथ ने याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता पी.बी. सुरेश से पूछा, “संविधान की प्रस्तावना क्या है?”
इस संबंध में वरिष्ठ अधिवक्ता पी.बी. सुरेश ने अदालत को बताया कि 22 सितंबर को चामुंडेश्वरी मंदिर में होने वाले दशहरा उत्सव के उद्घाटन में दो पहलू शामिल हैं -पहला, ‘फीता काटना’, जो एक धर्मनिरपेक्ष गतिविधि है और दूसरा, मंदिर की देवी के समक्ष उद्घाटन पूजा, जो मूलतः एक हिंदू धार्मिक और आध्यात्मिक क्रिया है।
इस उद्घाटन पूजा में देवी चामुंडेश्वरी के गर्भगृह के समक्ष दीप प्रज्वलित करना तथा देवी को फूल, फल, कुमकुम, हल्दी और अन्य पारंपरिक वस्तुएं अर्पित करना शामिल होता है।
वकील ने तर्क दिया कि बानू मुश्ताक को आमंत्रित किया जाना राज्य का एक पूरी तरह से राजनीतिक रूप से प्रेरित निर्णय है। उन्होंने सवाल उठाया कि बानू मुश्ताक को एक धार्मिक समारोह में भाग लेने के लिए क्यों बाध्य किया जा रहा है।
याचिका में यह तर्क दिया गया कि देवी की पूजा किसी हिंदू गणमान्य व्यक्ति द्वारा कराई जानी चाहिए, क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 25 (धार्मिक स्वतंत्रता) के तहत संरक्षित एक आवश्यक धार्मिक प्रथा का हिस्सा है।
याचिका में यह भी तर्क दिया गया कि कर्नाटक उच्च न्यायालय ने 15 सितंबर को मामला खारिज करते समय इस तथ्य पर गौर नहीं किया कि “बानू मुश्ताक मुस्लिम समुदाय से हैं और इस कारण वह गैर-हिंदू हैं। ऐसे में वह देवी के समक्ष धार्मिक अनुष्ठान नहीं कर सकतीं, क्योंकि यह स्थापित हिंदू धार्मिक और अनुष्ठानिक प्रथाओं के खिलाफ है।”
इस पर जस्टिस नाथ ने कहा कि यह आयोजन कर्नाटक राज्य द्वारा आयोजित किया गया है। राज्य धर्मनिरपेक्ष है और ‘उसका अपना कोई धर्म नहीं है’, जैसा कि 1994 में एम. इस्माइल फ़ारूक़ी मामले में संविधान पीठ ने अयोध्या अधिनियम की वैधता पर अपने फैसले में कहा था।
जस्टिस नाथ ने जोर देते हुए कहा, “यह एक राज्य स्तरीय आयोजन है, कोई निजी कार्यक्रम नहीं… राज्य किसी भी धर्म-ए, बी या सी-में भेदभाव नहीं कर सकता।”
अदालत ने याचिकाकर्ता की उस मांग को खारिज कर दिया जिसमें राज्य सरकार को निर्देश दिया जाए कि बानू मुश्ताक पूजा में भाग नहीं लेंगी।
कर्नाटक सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने याचिका खारिज करने के लिए अदालत द्वारा दिए गए तर्कों की सराहना की।
मालूम हो कि इससे पहले कर्नाटक उच्च न्यायालय ने 15 सितंबर को राज्य सरकार के इस निर्णय में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया था।
द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि याचिकाकर्ताओं के कानूनी या संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करने का कोई कारण नहीं है यदि किसी अन्य धर्म के व्यक्ति को उद्घाटन के लिए आमंत्रित किया जाता है।
हाईकोर्ट के इसी फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी।
गौरतलब है कि केशवानंद भारती और एस.आर. बोम्मई के फैसलों में सर्वोच्च न्यायालय ने धर्मनिरपेक्षता को संविधान की ‘मूलभूत विशेषता’ के रूप में स्थापित किया था।
इसी प्रकार, आरसी पौड्याल फैसले में न्यायालय ने यह उल्लेख किया था कि 1976 में 42वें संविधान संशोधन से पहले संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द शामिल नहीं था। हालांकि, धर्मनिरपेक्षता का मतलब अनिवार्य रूप से सभी धर्मों के लोगों के साथ समान और बिना किसी भेदभाव के व्यवहार करने की राष्ट्र की प्रतिबद्धता से है।
न्यायालय ने डॉ. बलराम सिंह बनाम भारत संघ मामले में 2024 के आदेश में स्पष्ट रूप से कहा था कि सभी धर्मों के प्रति राज्य का तटस्थ रवैया उसे उन दृष्टिकोणों और प्रथाओं को समाप्त करने के लिए हस्तक्षेप करने से नहीं रोकता जो धर्म से उत्पन्न या उससे जुड़े हैं और जो विकास और समानता के अधिकार में बाधा डालते हैं।
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इस दौरान अदालत ने याचिकाकर्ता को संविधान की प्रस्तावना की याद दिलाते हुए कहा कि इसमें धर्मनिरपेक्षता, विचार और विश्वास की स्वतंत्रता, साथ ही समानता और बंधुत्व जैसे आदर्शों को राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक सिद्धांतों के रूप में स्वीकार किया गया है।
द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, याचिका को खारिज करते हुए जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने बेंगलुरु के याचिकाकर्ता एच.एस. गौरव से यह पूछा कि क्या उन्होंने भारतीय संविधान की प्रस्तावना पढ़ी है।
जस्टिस विक्रम नाथ ने याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता पी.बी. सुरेश से पूछा, “संविधान की प्रस्तावना क्या है?”
इस संबंध में वरिष्ठ अधिवक्ता पी.बी. सुरेश ने अदालत को बताया कि 22 सितंबर को चामुंडेश्वरी मंदिर में होने वाले दशहरा उत्सव के उद्घाटन में दो पहलू शामिल हैं -पहला, ‘फीता काटना’, जो एक धर्मनिरपेक्ष गतिविधि है और दूसरा, मंदिर की देवी के समक्ष उद्घाटन पूजा, जो मूलतः एक हिंदू धार्मिक और आध्यात्मिक क्रिया है।
इस उद्घाटन पूजा में देवी चामुंडेश्वरी के गर्भगृह के समक्ष दीप प्रज्वलित करना तथा देवी को फूल, फल, कुमकुम, हल्दी और अन्य पारंपरिक वस्तुएं अर्पित करना शामिल होता है।
वकील ने तर्क दिया कि बानू मुश्ताक को आमंत्रित किया जाना राज्य का एक पूरी तरह से राजनीतिक रूप से प्रेरित निर्णय है। उन्होंने सवाल उठाया कि बानू मुश्ताक को एक धार्मिक समारोह में भाग लेने के लिए क्यों बाध्य किया जा रहा है।
याचिका में यह तर्क दिया गया कि देवी की पूजा किसी हिंदू गणमान्य व्यक्ति द्वारा कराई जानी चाहिए, क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 25 (धार्मिक स्वतंत्रता) के तहत संरक्षित एक आवश्यक धार्मिक प्रथा का हिस्सा है।
याचिका में यह भी तर्क दिया गया कि कर्नाटक उच्च न्यायालय ने 15 सितंबर को मामला खारिज करते समय इस तथ्य पर गौर नहीं किया कि “बानू मुश्ताक मुस्लिम समुदाय से हैं और इस कारण वह गैर-हिंदू हैं। ऐसे में वह देवी के समक्ष धार्मिक अनुष्ठान नहीं कर सकतीं, क्योंकि यह स्थापित हिंदू धार्मिक और अनुष्ठानिक प्रथाओं के खिलाफ है।”
इस पर जस्टिस नाथ ने कहा कि यह आयोजन कर्नाटक राज्य द्वारा आयोजित किया गया है। राज्य धर्मनिरपेक्ष है और ‘उसका अपना कोई धर्म नहीं है’, जैसा कि 1994 में एम. इस्माइल फ़ारूक़ी मामले में संविधान पीठ ने अयोध्या अधिनियम की वैधता पर अपने फैसले में कहा था।
जस्टिस नाथ ने जोर देते हुए कहा, “यह एक राज्य स्तरीय आयोजन है, कोई निजी कार्यक्रम नहीं… राज्य किसी भी धर्म-ए, बी या सी-में भेदभाव नहीं कर सकता।”
अदालत ने याचिकाकर्ता की उस मांग को खारिज कर दिया जिसमें राज्य सरकार को निर्देश दिया जाए कि बानू मुश्ताक पूजा में भाग नहीं लेंगी।
कर्नाटक सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने याचिका खारिज करने के लिए अदालत द्वारा दिए गए तर्कों की सराहना की।
मालूम हो कि इससे पहले कर्नाटक उच्च न्यायालय ने 15 सितंबर को राज्य सरकार के इस निर्णय में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया था।
द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि याचिकाकर्ताओं के कानूनी या संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करने का कोई कारण नहीं है यदि किसी अन्य धर्म के व्यक्ति को उद्घाटन के लिए आमंत्रित किया जाता है।
हाईकोर्ट के इसी फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी।
गौरतलब है कि केशवानंद भारती और एस.आर. बोम्मई के फैसलों में सर्वोच्च न्यायालय ने धर्मनिरपेक्षता को संविधान की ‘मूलभूत विशेषता’ के रूप में स्थापित किया था।
इसी प्रकार, आरसी पौड्याल फैसले में न्यायालय ने यह उल्लेख किया था कि 1976 में 42वें संविधान संशोधन से पहले संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द शामिल नहीं था। हालांकि, धर्मनिरपेक्षता का मतलब अनिवार्य रूप से सभी धर्मों के लोगों के साथ समान और बिना किसी भेदभाव के व्यवहार करने की राष्ट्र की प्रतिबद्धता से है।
न्यायालय ने डॉ. बलराम सिंह बनाम भारत संघ मामले में 2024 के आदेश में स्पष्ट रूप से कहा था कि सभी धर्मों के प्रति राज्य का तटस्थ रवैया उसे उन दृष्टिकोणों और प्रथाओं को समाप्त करने के लिए हस्तक्षेप करने से नहीं रोकता जो धर्म से उत्पन्न या उससे जुड़े हैं और जो विकास और समानता के अधिकार में बाधा डालते हैं।
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