डर पैदा करने वाला प्रचार वीडियो झूठी जानकारी को हथियार बनाता है, मुसलमानों को बदनाम करता है और असम के इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करता है। यह दिखाता है कि किस तरह तकनीक, राजनीति और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का खतरनाक गठजोड़ काम कर रहा है।

बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल (बीटीसी) चुनावों से पहले एक राजनीतिक रूप से तनावपूर्ण स्थिति में कदम उठाते हुए असम भाजपा इकाई के आधिकारिक एक्स हैंडल ने एआई वाली वीडियो की एक श्रृंखला जारी की। इनमें से एक वीडियो का शीर्षक "असम विदाउट बीजेपी" है, यह एक ऐसे भयावह भविष्य को दर्शाता है जहां मुसलमान कथित तौर पर राज्य के हर पहलू पर हावी हैं यानी कि जमीन पर कब्जा करते, सार्वजनिक गोमांस की दुकानें चलाते और असम के ऐतिहासिक स्थलों को इस्लामी स्थलों में बदलते हुए दिखाया गया है। वीडियो आगे बढ़ता है, जो "90% मुस्लिम आबादी" का दावा करता है और दर्शकों से "अपना वोट सोच-समझकर चुनने" की अपील करता है।
ये सब कहानी यहीं नहीं रुकी। कांग्रेस नेता गौरव गोगोई और राहुल गांधी को पाकिस्तानी झंडे की तस्वीरों के साथ दिखाया गया, जिससे विपक्षी राजनीति और राष्ट्र-विरोधी तत्वों के बीच एक खतरनाक गठबंधन का संकेत मिलता है। वीडियो में एक ही झटके में राज्य के प्रवास, पहचान और राजनीति के जटिल इतिहास को एक सरल द्विभाजन में समेटने की कोशिश की गई: भाजपा का मतलब सुरक्षा है; कांग्रेस का मतलब मुस्लिम वर्चस्व और सांस्कृतिक विनाश।
मकसद साफ था: लोगों में डर फैलाना, मुस्लिम समुदाय को बदनाम करना, और कांग्रेस-खासकर राहुल गांधी और राज्य अध्यक्ष गौरव गोगोई-को इस बनावटी गिरावट में उनका साथ देने वाला बताना।
कांग्रेस का पलटवार
सांप्रदायिक रंग दिए जाने से नाराज होकर असम कांग्रेस ने दिसपुर थाने में औपचारिक शिकायत दर्ज करवाई। यह एफआईआर असम प्रदेश कांग्रेस कमेटी (एपीसीसी) के मीडिया विभाग के अध्यक्ष बेदब्रत बोऱा द्वारा दर्ज कराई गई, जिसमें निम्नलिखित नेताओं को नामजद किया गया:
● असम बीजेपी अध्यक्ष दिलीप सैकिया
● राज्य सोशल मीडिया संयोजक शक्तिधर डेका
● बीजेपी के डिजिटल विंग के अन्य अज्ञात सदस्य
दायर की गई धाराओं में शामिल हैं:
● आपराधिक साजिश रचना
● सांप्रदायिक तनाव भड़काने की कोशिश करना
● समुदायों के बीच दुश्मनी फैलाना
● चुनाव आयोग के अधीन आदर्श आचार संहिता (एमसीसी) का उल्लंघन
कांग्रेस ने राज्य चुनाव आयोग को भी पत्र लिखा है, जिसमें मांग की गई है कि ये वीडियो हटाए जाएं, बीजेपी की आईटी सेल से जुड़े डिवाइस जब्त किए जाएं और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के तहत फोरेंसिक जांच कराई जाए।
गौरव गोगोई समेत कांग्रेस नेता ने इन वीडियो को सस्ती प्रचार सामग्री बताते हुए निंदा की: “बीजेपी आईटी सेल द्वारा बनाए गए शब्द, कार्य और तस्वीरें असमी समाज का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकतीं। असम को ऐसी राजनीति की जरूरत है जो लोगों को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाए।”
अन्य विपक्षी दल भी इस मामले को लेकर मुखर हुई हैं। एआईयूडीएफ ने इस वीडियो को असम के चुनावी माहौल को सांप्रदायिक करने की एक खतरनाक कोशिश बताया। द टेलीग्राफ की रिपोर्ट के अनुसार, AIMIM के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने इसे “घिनौना” करार दिया और कहा कि इस वीडियो में भारत में मुसलमानों की मौजूदगी को ही सरकार के लिए एक समस्या बताने की कोशिश की गई है। सिविल सोसाइटी के विशेषज्ञों ने चेतावनी दी कि इस तरह की छवि असम में लंबे समय से चले आ रहे तनाव को और गहरा सकती हैं, जो असम समझौता, एनआरसी प्रक्रिया और दशकों से चली आ रही माइग्रेशन से जुड़ी समस्याओं से पहले ही जूझ रहा है।
बीजेपी का बचाव: “अवैध प्रवासी” बनाम सांप्रदायिक निशाना
बीजेपी ने इन वीडियो को लेकर सफाई दी। राज्य सूचना मंत्री पिजुश हजारीका का कहना था कि यह अभियान केवल “अवैध प्रवासियों के कारण असम की जनसंख्या संरचना बदलने के खतरे” को उजागर करने का प्रयास था। The Print की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने कांग्रेस पर वोट बैंक बचाने के लिए “इस्लामोफोबिया” का रोना रोने का आरोप लगाया।
लेकिन वीडियो का कंटेंट इस बचाव को गलत साबित करता है। अगर चिंता केवल अवैध माइग्रेशन की होती तो फिर वीडियो में ज्यादातर मुसलमानों-टोपी पहने पुरुष, हिजाब वाली महिलाएं, इस्लामिक निशान-को क्यों दिखाया गया, जबकि असम के माइग्रेशन के जटिल वास्तविकताओं को नजरअंदाज कर दिया गया?
आंकड़े झूठ नहीं बोलते
वीडियो के संदेश की जड़ में था “90% मुस्लिम आबादी” का दावा। लेकिन ये दावा जांच पड़ताल में टिक नहीं पाता।
दावे और वास्तविकता के बीच जो अंतर है, वह दिखाता है कि कैसे इस वीडियो ने गलत सूचना को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया। यह सिर्फ राजनीतिक नारेबाजी नहीं था, बल्कि एआई की मदद से जनसांख्यिकीय हकीकत को बदलने की कोशिश थी।



गहरे खतरे
राजनीतिक प्रचार में एआई के इस्तेमाल ने एक परेशान करने वाला नया दौर शुरू कर दिया है। सामान्य फोटोशॉप से अलग, एआई से बनाए गए चित्र बहुत ही वास्तविक और प्रभावशाली होते हैं। जब ये हवाई अड्डों पर भीड़ भरे मस्जिदों या सांस्कृतिक स्थलों पर टोपी पहने हुए लोगों को दिखाते हैं, तो इन्हें असली दस्तावेजी प्रमाण समझा जा सकता है, न कि नकली तस्वीर। सच और झूठ के इस घुले-मिले रूप से असम जैसे राज्य में खतरा और भी बढ़ जाता है, जहां माइग्रेशन की चिंताएं और पहचान की राजनीति पहले से ही गहराई से मौजूद है।
कानूनी तौर पर, यह वीडियो कई गंभीर सवाल उठाता है। भारतीय आपराधिक कानून उस तरह की सामग्री को रोकता है जो नफरत भड़काए या समूहों के बीच दुश्मनी फैलाए। चुनाव आयोग चुनावों के दौरान सांप्रदायिक अपील को स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित करता है। अगर कानून और नियम सही तरीके से लागू हुए, तो जिम्मेदार लोगों को वीडियो हटाने से लेकर मुकदमेबाजी तक का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन कानूनी बातें एक तरफ, एक ज्यादा जरूरी नैतिक सवाल भी है: क्या सत्तारूढ़ पार्टियों को चुनावी रणनीति के रूप में सांप्रदायिक डर फैलाना और उसे नए-नए चालाक तकनीकों के जरिए सामान्य बनाना चाहिए?
असम का नाजुक सामाजिक ताना-बाना
असम का इतिहास इस विवाद को खास तौर पर संवेदनशील बनाता है। दशकों से यह राज्य बांग्लादेश से अनाधिकारिक तौर पर हो रहे माइग्रेशन के सवाल से जूझ रहा है, जो 1985 के असम समझौते, एनआरसी प्रक्रिया और विदेशी न्यायाधिकरणों में चल रही कानूनी लड़ाईयों तक पहुंचा है। ये मुद्दे पहले से ही समुदायों के बीच दरारें पैदा करते हैं, जिससे अक्सर शक, बहिष्कार और यहां तक कि हिंसा भी होती रहती है।
इस नाजुक माहौल में मुसलमानों के वर्चस्व की AI से बढ़ाई गई कहानी गढ़ना स्थिति को और खराब कर सकता है। यह विभिन्न समुदायों को सिर्फ एक ही छवि में सीमित कर देता है और इस सचाई को नजरअंदाज करता है कि माइग्रेशन के मामले में हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल हैं। और भी ज्यादा खतरनाक बात यह है कि यह सह-अस्तित्व को ही नामुमकिन बताता है -एक समुदाय की मौजूदगी को दूसरे समुदाय के नुकसान के रूप में पेश करता है।
भविष्य के लिए एक चेतावनी
असम बीजेपी का यह एआई वीडियो सिर्फ एक प्रचार का हथकंडा नहीं है; यह एक चेतावनी है कि किस तरह आसानी से तकनीक का इस्तेमाल लोगों के बीच दरारें पैदा करने के लिए किया जा सकता है। यह दिखाता है कि कैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस इनोवेशन से जल्दी ही मैनिपुलेशन में बदल सकता है, और कैसे सांप्रदायिक चिंताएं बड़ी समस्याओं में तब्दील हो सकती हैं।
एक तरफ, यह वीडियो उन मतदाताओं के कुछ हिस्सों को जो इस तरह के संदेशों के प्रति संवेदनशील हैं, उत्साहित कर सकता है। दूसरी ओर, यह उन समुदायों को और ज्यादा अलग-थलग कर सकता है जो नागरिकता प्रक्रियाओं और लगातार शक के कारण पहले से ही कमजोर हैं। लंबे समय में, सिर्फ चुनावी गणित नहीं बल्कि असम के नाजुक सामाजिक ताने-बाने को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ सकता है।
अगर इसे रोकने की कोशिश न की गई, तो ऐसी सामग्री भारत भर में भविष्य की चुनावी मुहिमों के लिए मिसाल बन सकती है, जहां एआई का इस्तेमाल जानकारी देने या समझाने के लिए नहीं, बल्कि समाज को बांटने के लिए किया जाएगा। यह जिम्मेदारी केवल पुलिस या चुनाव आयोग की ही नहीं है, बल्कि राजनीतिक दलों, नागरिक समाज और मीडिया प्लेटफॉर्म्स की भी है कि वे इस डर फैलाने की प्रक्रिया को रोकें।
आखिर में ये सवाल सिर्फ एक वीडियो या एक राज्य तक सीमित नहीं है। असली सवाल ये है कि भारत कैसी राजनीति सहन करने को तैयार है- ऐसी जो डर और सांप्रदायिकता पर टिकती है, या ऐसी जो असली समस्याओं का सामना करे बिना किसी पूरे समुदाय को खतरा बताए। असम, जहां हालात नाजुक हैं और इतिहास पेचीदा, वहां ऐसी राजनीति होनी चाहिए जो लोगों को जोड़े, ना कि बांटे।
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ये सब कहानी यहीं नहीं रुकी। कांग्रेस नेता गौरव गोगोई और राहुल गांधी को पाकिस्तानी झंडे की तस्वीरों के साथ दिखाया गया, जिससे विपक्षी राजनीति और राष्ट्र-विरोधी तत्वों के बीच एक खतरनाक गठबंधन का संकेत मिलता है। वीडियो में एक ही झटके में राज्य के प्रवास, पहचान और राजनीति के जटिल इतिहास को एक सरल द्विभाजन में समेटने की कोशिश की गई: भाजपा का मतलब सुरक्षा है; कांग्रेस का मतलब मुस्लिम वर्चस्व और सांस्कृतिक विनाश।
मकसद साफ था: लोगों में डर फैलाना, मुस्लिम समुदाय को बदनाम करना, और कांग्रेस-खासकर राहुल गांधी और राज्य अध्यक्ष गौरव गोगोई-को इस बनावटी गिरावट में उनका साथ देने वाला बताना।
कांग्रेस का पलटवार
सांप्रदायिक रंग दिए जाने से नाराज होकर असम कांग्रेस ने दिसपुर थाने में औपचारिक शिकायत दर्ज करवाई। यह एफआईआर असम प्रदेश कांग्रेस कमेटी (एपीसीसी) के मीडिया विभाग के अध्यक्ष बेदब्रत बोऱा द्वारा दर्ज कराई गई, जिसमें निम्नलिखित नेताओं को नामजद किया गया:
● असम बीजेपी अध्यक्ष दिलीप सैकिया
● राज्य सोशल मीडिया संयोजक शक्तिधर डेका
● बीजेपी के डिजिटल विंग के अन्य अज्ञात सदस्य
दायर की गई धाराओं में शामिल हैं:
● आपराधिक साजिश रचना
● सांप्रदायिक तनाव भड़काने की कोशिश करना
● समुदायों के बीच दुश्मनी फैलाना
● चुनाव आयोग के अधीन आदर्श आचार संहिता (एमसीसी) का उल्लंघन
कांग्रेस ने राज्य चुनाव आयोग को भी पत्र लिखा है, जिसमें मांग की गई है कि ये वीडियो हटाए जाएं, बीजेपी की आईटी सेल से जुड़े डिवाइस जब्त किए जाएं और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के तहत फोरेंसिक जांच कराई जाए।
गौरव गोगोई समेत कांग्रेस नेता ने इन वीडियो को सस्ती प्रचार सामग्री बताते हुए निंदा की: “बीजेपी आईटी सेल द्वारा बनाए गए शब्द, कार्य और तस्वीरें असमी समाज का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकतीं। असम को ऐसी राजनीति की जरूरत है जो लोगों को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाए।”
अन्य विपक्षी दल भी इस मामले को लेकर मुखर हुई हैं। एआईयूडीएफ ने इस वीडियो को असम के चुनावी माहौल को सांप्रदायिक करने की एक खतरनाक कोशिश बताया। द टेलीग्राफ की रिपोर्ट के अनुसार, AIMIM के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने इसे “घिनौना” करार दिया और कहा कि इस वीडियो में भारत में मुसलमानों की मौजूदगी को ही सरकार के लिए एक समस्या बताने की कोशिश की गई है। सिविल सोसाइटी के विशेषज्ञों ने चेतावनी दी कि इस तरह की छवि असम में लंबे समय से चले आ रहे तनाव को और गहरा सकती हैं, जो असम समझौता, एनआरसी प्रक्रिया और दशकों से चली आ रही माइग्रेशन से जुड़ी समस्याओं से पहले ही जूझ रहा है।
बीजेपी का बचाव: “अवैध प्रवासी” बनाम सांप्रदायिक निशाना
बीजेपी ने इन वीडियो को लेकर सफाई दी। राज्य सूचना मंत्री पिजुश हजारीका का कहना था कि यह अभियान केवल “अवैध प्रवासियों के कारण असम की जनसंख्या संरचना बदलने के खतरे” को उजागर करने का प्रयास था। The Print की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने कांग्रेस पर वोट बैंक बचाने के लिए “इस्लामोफोबिया” का रोना रोने का आरोप लगाया।
लेकिन वीडियो का कंटेंट इस बचाव को गलत साबित करता है। अगर चिंता केवल अवैध माइग्रेशन की होती तो फिर वीडियो में ज्यादातर मुसलमानों-टोपी पहने पुरुष, हिजाब वाली महिलाएं, इस्लामिक निशान-को क्यों दिखाया गया, जबकि असम के माइग्रेशन के जटिल वास्तविकताओं को नजरअंदाज कर दिया गया?
आंकड़े झूठ नहीं बोलते
वीडियो के संदेश की जड़ में था “90% मुस्लिम आबादी” का दावा। लेकिन ये दावा जांच पड़ताल में टिक नहीं पाता।
दावे और वास्तविकता के बीच जो अंतर है, वह दिखाता है कि कैसे इस वीडियो ने गलत सूचना को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया। यह सिर्फ राजनीतिक नारेबाजी नहीं था, बल्कि एआई की मदद से जनसांख्यिकीय हकीकत को बदलने की कोशिश थी।



गहरे खतरे
राजनीतिक प्रचार में एआई के इस्तेमाल ने एक परेशान करने वाला नया दौर शुरू कर दिया है। सामान्य फोटोशॉप से अलग, एआई से बनाए गए चित्र बहुत ही वास्तविक और प्रभावशाली होते हैं। जब ये हवाई अड्डों पर भीड़ भरे मस्जिदों या सांस्कृतिक स्थलों पर टोपी पहने हुए लोगों को दिखाते हैं, तो इन्हें असली दस्तावेजी प्रमाण समझा जा सकता है, न कि नकली तस्वीर। सच और झूठ के इस घुले-मिले रूप से असम जैसे राज्य में खतरा और भी बढ़ जाता है, जहां माइग्रेशन की चिंताएं और पहचान की राजनीति पहले से ही गहराई से मौजूद है।
कानूनी तौर पर, यह वीडियो कई गंभीर सवाल उठाता है। भारतीय आपराधिक कानून उस तरह की सामग्री को रोकता है जो नफरत भड़काए या समूहों के बीच दुश्मनी फैलाए। चुनाव आयोग चुनावों के दौरान सांप्रदायिक अपील को स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित करता है। अगर कानून और नियम सही तरीके से लागू हुए, तो जिम्मेदार लोगों को वीडियो हटाने से लेकर मुकदमेबाजी तक का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन कानूनी बातें एक तरफ, एक ज्यादा जरूरी नैतिक सवाल भी है: क्या सत्तारूढ़ पार्टियों को चुनावी रणनीति के रूप में सांप्रदायिक डर फैलाना और उसे नए-नए चालाक तकनीकों के जरिए सामान्य बनाना चाहिए?
असम का नाजुक सामाजिक ताना-बाना
असम का इतिहास इस विवाद को खास तौर पर संवेदनशील बनाता है। दशकों से यह राज्य बांग्लादेश से अनाधिकारिक तौर पर हो रहे माइग्रेशन के सवाल से जूझ रहा है, जो 1985 के असम समझौते, एनआरसी प्रक्रिया और विदेशी न्यायाधिकरणों में चल रही कानूनी लड़ाईयों तक पहुंचा है। ये मुद्दे पहले से ही समुदायों के बीच दरारें पैदा करते हैं, जिससे अक्सर शक, बहिष्कार और यहां तक कि हिंसा भी होती रहती है।
इस नाजुक माहौल में मुसलमानों के वर्चस्व की AI से बढ़ाई गई कहानी गढ़ना स्थिति को और खराब कर सकता है। यह विभिन्न समुदायों को सिर्फ एक ही छवि में सीमित कर देता है और इस सचाई को नजरअंदाज करता है कि माइग्रेशन के मामले में हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल हैं। और भी ज्यादा खतरनाक बात यह है कि यह सह-अस्तित्व को ही नामुमकिन बताता है -एक समुदाय की मौजूदगी को दूसरे समुदाय के नुकसान के रूप में पेश करता है।
भविष्य के लिए एक चेतावनी
असम बीजेपी का यह एआई वीडियो सिर्फ एक प्रचार का हथकंडा नहीं है; यह एक चेतावनी है कि किस तरह आसानी से तकनीक का इस्तेमाल लोगों के बीच दरारें पैदा करने के लिए किया जा सकता है। यह दिखाता है कि कैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस इनोवेशन से जल्दी ही मैनिपुलेशन में बदल सकता है, और कैसे सांप्रदायिक चिंताएं बड़ी समस्याओं में तब्दील हो सकती हैं।
एक तरफ, यह वीडियो उन मतदाताओं के कुछ हिस्सों को जो इस तरह के संदेशों के प्रति संवेदनशील हैं, उत्साहित कर सकता है। दूसरी ओर, यह उन समुदायों को और ज्यादा अलग-थलग कर सकता है जो नागरिकता प्रक्रियाओं और लगातार शक के कारण पहले से ही कमजोर हैं। लंबे समय में, सिर्फ चुनावी गणित नहीं बल्कि असम के नाजुक सामाजिक ताने-बाने को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ सकता है।
अगर इसे रोकने की कोशिश न की गई, तो ऐसी सामग्री भारत भर में भविष्य की चुनावी मुहिमों के लिए मिसाल बन सकती है, जहां एआई का इस्तेमाल जानकारी देने या समझाने के लिए नहीं, बल्कि समाज को बांटने के लिए किया जाएगा। यह जिम्मेदारी केवल पुलिस या चुनाव आयोग की ही नहीं है, बल्कि राजनीतिक दलों, नागरिक समाज और मीडिया प्लेटफॉर्म्स की भी है कि वे इस डर फैलाने की प्रक्रिया को रोकें।
आखिर में ये सवाल सिर्फ एक वीडियो या एक राज्य तक सीमित नहीं है। असली सवाल ये है कि भारत कैसी राजनीति सहन करने को तैयार है- ऐसी जो डर और सांप्रदायिकता पर टिकती है, या ऐसी जो असली समस्याओं का सामना करे बिना किसी पूरे समुदाय को खतरा बताए। असम, जहां हालात नाजुक हैं और इतिहास पेचीदा, वहां ऐसी राजनीति होनी चाहिए जो लोगों को जोड़े, ना कि बांटे।
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