केंद्र सरकार मानवीय आधार पर दोनों को वापस लाने के लिए तैयार है। सुप्रीम कोर्ट ने पूरी प्रक्रिया पर सवाल उठाए और बाकी चार लोगों की स्थिति पर अगली सुनवाई तय की।

मानवीय आधारों को नौकरशाही की कठोरता से ऊपर रखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने 4 दिसंबर को केंद्र सरकार से कहा कि सुनाली (सोनाली) खातून और उनके आठ वर्षीय बेटे सबीर को भारत वापस लाया जाए। सुनाली गर्भवती हैं। जून में दिल्ली में पहचान की जांच के दौरान दोनों को बांग्लादेश भेज दिया गया था। केंद्र ने कोर्ट में स्वीकार किया कि दोनों को मानवीय आधार पर वापस लाया जाएगा—हालांकि सरकार ने यह भी कहा कि इससे उनके पूर्व निर्णय (डिपोर्टेशन) पर आधिकारिक रुख में कोई बदलाव नहीं आएगा।
यह निर्देश केंद्र सरकार द्वारा दायर स्पेशल लीव पिटीशन (SLP) की सुनवाई के दौरान आया, जिसमें कलकत्ता हाई कोर्ट के 26–27 सितंबर के उन आदेशों को चुनौती दी गई थी, जिनमें छह लोगों—जिनमें सुनाली और उनका बेटा भी शामिल थे—को वापस लाने और उन्हें अपनी भारतीय नागरिकता साबित करने का अवसर देने का आदेश दिया गया था। यह मामला उचित प्रक्रिया, कानूनी वैधता और पहचान सत्यापन अभियानों में कमजोर समुदायों के साथ हो रहे व्यवहार पर कई चिंताजनक सवाल उठाता है।
डिपोर्टेशन अभियान में फंसा एक परिवार
यह मामला सुनाली के पिता भोडू शेख द्वारा दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका से शुरू हुआ। उन्होंने बताया कि उनका परिवार पश्चिम बंगाल का रहने वाला है, लेकिन रोज़गार की तलाश में दिल्ली आया था। शेख के अनुसार, सुनाली, उनके पति और उनके बेटे को 21 जून को गृह मंत्रालय (MHA) की 2 मई की अधिसूचना के तहत शुरू हुए पहचान–सत्यापन अभियान के दौरान हिरासत में लिया गया। पांच दिनों के भीतर परिवार को FRRO के सामने पेश किया गया और 26 जून को बांग्लादेश डिपोर्ट कर दिया गया।
सितंबर में सुनवाई के दौरान, कलकत्ता हाई कोर्ट ने इस “जल्दबाजी” पर गंभीर आपत्ति जताई। कोर्ट ने कहा कि डिपोर्टेशन निष्पक्ष सुनवाई और पर्याप्त जांच के बिना किया गया था। उसने पाया कि डिपोर्ट किए गए लोगों के दादा का नाम पश्चिम बंगाल की वोटर लिस्ट में था—जो भारतीय वंश का एक महत्वपूर्ण संकेत है। हाई कोर्ट ने यह भी देखा कि मई 2025 की MHA अधिसूचना केवल आपात स्थितियों में, उचित जांच के बाद, तत्काल डिपोर्टेशन की अनुमति देती है—और इस मामले में ये सुरक्षा उपाय “पूरी तरह अनुपस्थित” थे।
सुप्रीम कोर्ट का मानवीय दखल
हालिया सुनवाई में, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि केंद्र सरकार बातचीत के बाद सुनाली और उसके बच्चे को वापस लाने पर सहमत हुई, क्योंकि वह गर्भवती है और मां–बच्चे को अलग रखने से बचाना आवश्यक है। उन्होंने स्पष्ट किया कि:
● यह उनकी नागरिकता को स्वीकार करने का संकेत नहीं है,
● इससे कोई कानूनी उदाहरण (precedent) स्थापित नहीं होगा,
● और उनकी वापसी के बाद उचित निगरानी रखी जाएगी।
चूंकि डिपोर्टेशन औपचारिक माध्यमों से किया गया था, इसलिए मेहता ने कोर्ट से निवेदन किया कि आदेश में बांग्लादेश के साथ राजनयिक समन्वय तेजी से करने के निर्देश शामिल किए जाएं। बेंच ने इसे स्वीकार कर लिया, जिससे वापसी की प्रक्रिया बिना रुकावट शुरू हो सकेगी।
लाइव लॉ के अनुसार, कोर्ट ने टिप्पणी की: “ऐसे मामलों में कानून को इंसानियत के आगे झुकना पड़ता है। कुछ मामलों में अलग दृष्टिकोण की जरूरत होती है।”
मेडिकल और सामाजिक सहायता सुनिश्चित करने के निर्देश
सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल (पश्चिम बंगाल की ओर से) और संजय हेगड़े (भोडू शेख के लिए) के तर्कों को स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि सुनाली को बीरभूम जिले में अपने परिवार के पास रहने की अनुमति दी जाए। कोर्ट ने आगे कहा कि:
● सुनाली को मुफ़्त और पूरी मेडिकल सुविधाएं दी जाएं—जिसमें प्रसव से जुड़ी सेवाएं शामिल हों;
● उनके नाबालिग बेटे को पूर्ण सहायता और देखभाल मिले;
● केंद्र सरकार, पश्चिम बंगाल सरकार और मेडिकल अधिकारियों के बीच त्वरित समन्वय हो।
बेंच ने कहा कि चूंकि सुनाली को दिल्ली से उठाया गया था, इसलिए उन्हें पैतृक स्थान भेजने से पहले पहले दिल्ली लाया जा सकता है।
नागरिकता जांच: बायोलॉजिकल संबंध महत्वपूर्ण मुद्दा
जस्टिस बागची ने एक अहम पहलू उठाया: यदि भोडू शेख भारतीय नागरिक हैं—जैसा कि हाई कोर्ट के रिकॉर्ड से संकेत मिलता है—तो उनकी जैविक बेटी सुनाली और उसका बच्चा सबीर भी भारतीय नागरिक माने जा सकते हैं। कोर्ट ने केंद्र से नागरिकता जांच प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अनुसार करने को कहा।
अवमानना की कार्यवाही और केंद्र की चिंता
सॉलिसिटर जनरल ने बताया कि केंद्र के खिलाफ हाई कोर्ट में अवमानना याचिका लंबित है। उन्होंने सुरक्षा की मांग की। सुप्रीम कोर्ट ने औपचारिक रूप से कार्यवाही रोकने से इनकार किया, लेकिन संकेत दिया कि मामला अब सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में होने के कारण हाई कोर्ट आगे नहीं बढ़ेगा।
बाकी चार लोग: केंद्र का दावा — “वे बांग्लादेशी हैं”
सुप्रीम कोर्ट ने नोट किया कि हाई कोर्ट ने जिन छह लोगों की वापसी का आदेश दिया था, उनमें से चार अभी भी बांग्लादेश में हैं। सिब्बल ने कोर्ट से अनुरोध किया कि केंद्र उनके लिए भी निर्देश लाए।
मेहता ने इसका विरोध किया और कहा कि बाकी लोग “बांग्लादेशी नागरिक” हैं और केंद्र उनके भारतीय नागरिकता के दावों पर आपत्ति करता है।
बेंच ने केंद्र को अगली सुनवाई में विस्तृत निर्देशों के साथ उपस्थित होने को कहा।
प्रक्रियागत खामियों की पृष्ठभूमि
कलकत्ता हाई कोर्ट की आलोचना अब भी इस मामले की बड़ी पृष्ठभूमि है। कोर्ट ने कहा था कि:
● कोई पर्याप्त जांच नहीं की गई,
● सुनवाई का उचित अवसर नहीं दिया गया,
● और डिपोर्टेशन केंद्र सरकार के अपने दिशानिर्देशों के खिलाफ था।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इन खामियों पर अंतिम निर्णय नहीं दिया है, लेकिन अपने मौजूदा आदेश में उसने यह सुनिश्चित किया है कि आगे कोई और नुकसान न हो।
सीमित लेकिन महत्वपूर्ण राहत
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इसके मानवतावादी निर्देश केंद्र के कानूनी तर्कों को प्रभावित नहीं करेंगे, लेकिन इंसानियत की जरूरतों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अगली सुनवाई 12 दिसंबर को होगी, जिसमें बाकी चार लोगों की स्थिति पर भी चर्चा होगी।
फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से यह सुनिश्चित हो गया है कि एक गर्भवती महिला और उसका छोटा बच्चा अंतरराष्ट्रीय सीमा के पार असुरक्षित परिस्थितियों में नहीं छोड़े जाएंगे। यह आदेश संकेत देता है कि नागरिकता, निर्वासन और गरिमा से जुड़े मामलों में न्यायिक निगरानी अत्यंत आवश्यक है।
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यह निर्देश केंद्र सरकार द्वारा दायर स्पेशल लीव पिटीशन (SLP) की सुनवाई के दौरान आया, जिसमें कलकत्ता हाई कोर्ट के 26–27 सितंबर के उन आदेशों को चुनौती दी गई थी, जिनमें छह लोगों—जिनमें सुनाली और उनका बेटा भी शामिल थे—को वापस लाने और उन्हें अपनी भारतीय नागरिकता साबित करने का अवसर देने का आदेश दिया गया था। यह मामला उचित प्रक्रिया, कानूनी वैधता और पहचान सत्यापन अभियानों में कमजोर समुदायों के साथ हो रहे व्यवहार पर कई चिंताजनक सवाल उठाता है।
डिपोर्टेशन अभियान में फंसा एक परिवार
यह मामला सुनाली के पिता भोडू शेख द्वारा दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका से शुरू हुआ। उन्होंने बताया कि उनका परिवार पश्चिम बंगाल का रहने वाला है, लेकिन रोज़गार की तलाश में दिल्ली आया था। शेख के अनुसार, सुनाली, उनके पति और उनके बेटे को 21 जून को गृह मंत्रालय (MHA) की 2 मई की अधिसूचना के तहत शुरू हुए पहचान–सत्यापन अभियान के दौरान हिरासत में लिया गया। पांच दिनों के भीतर परिवार को FRRO के सामने पेश किया गया और 26 जून को बांग्लादेश डिपोर्ट कर दिया गया।
सितंबर में सुनवाई के दौरान, कलकत्ता हाई कोर्ट ने इस “जल्दबाजी” पर गंभीर आपत्ति जताई। कोर्ट ने कहा कि डिपोर्टेशन निष्पक्ष सुनवाई और पर्याप्त जांच के बिना किया गया था। उसने पाया कि डिपोर्ट किए गए लोगों के दादा का नाम पश्चिम बंगाल की वोटर लिस्ट में था—जो भारतीय वंश का एक महत्वपूर्ण संकेत है। हाई कोर्ट ने यह भी देखा कि मई 2025 की MHA अधिसूचना केवल आपात स्थितियों में, उचित जांच के बाद, तत्काल डिपोर्टेशन की अनुमति देती है—और इस मामले में ये सुरक्षा उपाय “पूरी तरह अनुपस्थित” थे।
सुप्रीम कोर्ट का मानवीय दखल
हालिया सुनवाई में, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि केंद्र सरकार बातचीत के बाद सुनाली और उसके बच्चे को वापस लाने पर सहमत हुई, क्योंकि वह गर्भवती है और मां–बच्चे को अलग रखने से बचाना आवश्यक है। उन्होंने स्पष्ट किया कि:
● यह उनकी नागरिकता को स्वीकार करने का संकेत नहीं है,
● इससे कोई कानूनी उदाहरण (precedent) स्थापित नहीं होगा,
● और उनकी वापसी के बाद उचित निगरानी रखी जाएगी।
चूंकि डिपोर्टेशन औपचारिक माध्यमों से किया गया था, इसलिए मेहता ने कोर्ट से निवेदन किया कि आदेश में बांग्लादेश के साथ राजनयिक समन्वय तेजी से करने के निर्देश शामिल किए जाएं। बेंच ने इसे स्वीकार कर लिया, जिससे वापसी की प्रक्रिया बिना रुकावट शुरू हो सकेगी।
लाइव लॉ के अनुसार, कोर्ट ने टिप्पणी की: “ऐसे मामलों में कानून को इंसानियत के आगे झुकना पड़ता है। कुछ मामलों में अलग दृष्टिकोण की जरूरत होती है।”
मेडिकल और सामाजिक सहायता सुनिश्चित करने के निर्देश
सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल (पश्चिम बंगाल की ओर से) और संजय हेगड़े (भोडू शेख के लिए) के तर्कों को स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि सुनाली को बीरभूम जिले में अपने परिवार के पास रहने की अनुमति दी जाए। कोर्ट ने आगे कहा कि:
● सुनाली को मुफ़्त और पूरी मेडिकल सुविधाएं दी जाएं—जिसमें प्रसव से जुड़ी सेवाएं शामिल हों;
● उनके नाबालिग बेटे को पूर्ण सहायता और देखभाल मिले;
● केंद्र सरकार, पश्चिम बंगाल सरकार और मेडिकल अधिकारियों के बीच त्वरित समन्वय हो।
बेंच ने कहा कि चूंकि सुनाली को दिल्ली से उठाया गया था, इसलिए उन्हें पैतृक स्थान भेजने से पहले पहले दिल्ली लाया जा सकता है।
नागरिकता जांच: बायोलॉजिकल संबंध महत्वपूर्ण मुद्दा
जस्टिस बागची ने एक अहम पहलू उठाया: यदि भोडू शेख भारतीय नागरिक हैं—जैसा कि हाई कोर्ट के रिकॉर्ड से संकेत मिलता है—तो उनकी जैविक बेटी सुनाली और उसका बच्चा सबीर भी भारतीय नागरिक माने जा सकते हैं। कोर्ट ने केंद्र से नागरिकता जांच प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अनुसार करने को कहा।
अवमानना की कार्यवाही और केंद्र की चिंता
सॉलिसिटर जनरल ने बताया कि केंद्र के खिलाफ हाई कोर्ट में अवमानना याचिका लंबित है। उन्होंने सुरक्षा की मांग की। सुप्रीम कोर्ट ने औपचारिक रूप से कार्यवाही रोकने से इनकार किया, लेकिन संकेत दिया कि मामला अब सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में होने के कारण हाई कोर्ट आगे नहीं बढ़ेगा।
बाकी चार लोग: केंद्र का दावा — “वे बांग्लादेशी हैं”
सुप्रीम कोर्ट ने नोट किया कि हाई कोर्ट ने जिन छह लोगों की वापसी का आदेश दिया था, उनमें से चार अभी भी बांग्लादेश में हैं। सिब्बल ने कोर्ट से अनुरोध किया कि केंद्र उनके लिए भी निर्देश लाए।
मेहता ने इसका विरोध किया और कहा कि बाकी लोग “बांग्लादेशी नागरिक” हैं और केंद्र उनके भारतीय नागरिकता के दावों पर आपत्ति करता है।
बेंच ने केंद्र को अगली सुनवाई में विस्तृत निर्देशों के साथ उपस्थित होने को कहा।
प्रक्रियागत खामियों की पृष्ठभूमि
कलकत्ता हाई कोर्ट की आलोचना अब भी इस मामले की बड़ी पृष्ठभूमि है। कोर्ट ने कहा था कि:
● कोई पर्याप्त जांच नहीं की गई,
● सुनवाई का उचित अवसर नहीं दिया गया,
● और डिपोर्टेशन केंद्र सरकार के अपने दिशानिर्देशों के खिलाफ था।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इन खामियों पर अंतिम निर्णय नहीं दिया है, लेकिन अपने मौजूदा आदेश में उसने यह सुनिश्चित किया है कि आगे कोई और नुकसान न हो।
सीमित लेकिन महत्वपूर्ण राहत
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इसके मानवतावादी निर्देश केंद्र के कानूनी तर्कों को प्रभावित नहीं करेंगे, लेकिन इंसानियत की जरूरतों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अगली सुनवाई 12 दिसंबर को होगी, जिसमें बाकी चार लोगों की स्थिति पर भी चर्चा होगी।
फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से यह सुनिश्चित हो गया है कि एक गर्भवती महिला और उसका छोटा बच्चा अंतरराष्ट्रीय सीमा के पार असुरक्षित परिस्थितियों में नहीं छोड़े जाएंगे। यह आदेश संकेत देता है कि नागरिकता, निर्वासन और गरिमा से जुड़े मामलों में न्यायिक निगरानी अत्यंत आवश्यक है।
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