कल एक विचित्र बात हो गयी, जिसे हम भारतीय परिपेक्ष्य में देखें तो शायद विचित्र नहीं कहा जा सकता। एक ऑटो रिक्शे वाला और एक कार वाला एक दूसरे का कॉलर पकड़े झगड़ रहे थे। वे बीच-बीच में एक दूसरे की माँ बहन को गालियां भी दे देते। मैं हैरान सा उनकी गालियों को सुनता रहा और उनके झगड़ने की विचित्र कला से प्रभावित होते हुए बस यही सोच रहा था कि कब ये एक दूसरे के ऊपर हाथ छोड़ेंगे। मगर मैं निराश हुआ। वे लड़े नहीं बस एक दूसरे की माँ बहन को खुद के ईजाद की हुई गालियों से नवाज़ते रहे।
करीब जाकर मामला समझ मे आया कि कार वाले ने गलती से ऑटो को ठोकर मार दी और ऑटो की हेडलाइट टूट गयी। जिसके कारण वे एक दूसरे को पीटने की कोशिश में लगे हैं पर हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। हालांकि ऑटो के टूटे कांच को देखकर कोई भी कह सकता था कि नुकसान सौ दो सौ से ज्यादा का नहीं हुआ है पर उन दोनों के द्वारा खड़े किये गए हंगामें और गालियों की बौछार से ऐसा प्रतीत होता था कि संसद में किसी बड़े घोटाले पर बहस छिड़ी है और 'पक्ष और विपक्ष' एक दूसरे को फाड़कर खा जाएंगे पर कानून ने उनके हाथ बांध रखे हैं।
भीड़ के समझाने पर मामला शांत हुआ और समझौते पर आ गया। तय हुआ कि कार वाला ऑटो वाले को पांच सौ रुपये दे दे और मामला रफा-दफा करे। कार वाला मान गया और बोला- अपना पेटीएम नंबर बताइए -!!
"मैं पेटीएम उपयोग नहीं करता।"
"फिर अपना खाता नंबर बताइए, मैं उसमें पैसे भेज देता हूँ।"
"देखिए, मुझे खाता नंबर याद नहीं है। तुम कैश दे दो।"
"कैश नहीं है मेरे पास।"
"मैं तो कैश ही लूंगा।"
"अच्छा आधार नंबर बताइए मैं उसके सहारे खाते में पैसे भेज देता हूँ।"
" देखो, मैं भाड़े से लेकर रिक्शा चलाता हूँ। यहाँ मेरा कोई खाता नहीं है। गांव में है। और आधार कार्ड अभी बन नहीं पाया है। क्या है कि मेरा कोई स्थायी घर नहीं है। आप मुझे कैश दे दो। मैं बिलकुल पढ़ा लिखा नहीं हूँ, मुझे ये नेट ,पेटीएम, आधार, वगैरह बिलकुल समझ मे नहीं आते।"
इतना सुनकर कार वाला बेहोश होते-होते बचा। शायद उसे नोटबंदी के वे दिन याद आ गए जब खाते में पैसे होते हुए भी वह पैसे के लिए दर दर भटका होगा।
मैं सोच में पड़ गया। पिछले साल के दिन आंख के सामने घूमने लगे कि कैसे एक परिवार के पास रुपये होते हुए भी हॉस्पिटल ने उसकी बीमार बच्ची को भर्ती इसलिए नहीं किया कि नोटें चलन से बाहर हो गयी थीं और बच्ची मर गयी। बूढ़े से लेकर बीमार तक लाइन में व्यर्थ का समय गंवा रहे थे।
मैं सोचता हूँ, मनुष्य की आवश्यक आवश्यकताएं क्या हैं !! समझ मे आता है कि भोजन, वस्त्र, और मकान, फिर उसके बाद बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा। यह देश के प्रत्येक नागरिक की मूलभूत आवश्यकताएँ हैं। जबतक देश के प्रत्येक नागरिक को ये मूल चींजें नहीं मिलती, आगे की सोचना बेमानी सी लगती है। गांव के पिछड़े पन को छोड़ दीजिए, यदि शहरों या महानगरों में ही निगाह दौड़ाएं तो पाएंगे कि आधे से ज्यादा आबादी को ठीक ढंग से मोबाइल चलाना भी नहीं आता। पता नहीं कितने ऐसे रिक्शे वाले, भाजी वाले, घरों में काम करने वाली औरतें हैं जिन्हें मोबाइल में नंबर डायल करना भी नहीं आता। ऐसे में इन्हें कैशलेश बनाने की सोचना किसी मूर्खता से कम नहीं है।
तरक्की जरूरी है पर हर चीज का एक क्रम होता है। बच्चा पहले खड़े होना सीखता है वह पैदा होने के चार महीनें बाद दौड़ने नहीं लगता। पर हम विचित्र देश मे रहते हैं। हम विचित्र लोगों को चुनकर पार्लियामेंट में भेजते हैं जो तीन महीनें के बच्चे को दौड़ाना चाहते हैं। वह नहीं दौड़ता तो हाथ पकड़कर घसीटना चाहते हैं। बच्चा घायल हो जाता है, भूख से मर जाता है, संसद और सांसद को फर्क नहीं पड़ता। सांसद पार्लियामेंट से निकलकर फार्च्यूनर में बैठ घर की ओर बढ़ जाता है। कितने सांसद विधायक होंगे जिन्हें नेट बैंकिंग नहीं आती, बारकोड स्कैन करना नहीं आता पर कैशलेश इंडिया का सपोर्ट करते हैं। उनका काम तो PA महोदय देखते हैं।
समस्याएं हजार पड़ी हैं, उनपर सरकार का जोर क्यों नहीं होता। जितना जोर कैशलेश पर दिया है क्या जातिवाद खत्म करने पर नहीं दे सकते थे !! भुखमरी, घूसखोरी ,बेरोजगारी, खत्म करने पर नहीं दे सकते थे। सीवर साफ करते करते सैकड़ों हर साल मरते हैं उसपर जोर क्यों नहीं देती सरकार !! दे तो सकती थी पर इन सब से वोट बंट जाने का खतरा भी तो रहता है।
वह दिन भी आएगा जब दरोगा कार्ड से स्वाइप करके घूस लेगा। दूल्हा दहेज के पैसे पेटीएम कोड स्कैन करके लेगा। बच्चे मर रहे होंगे, कहीं भूख से, कहीं ठंडी से सिकुड़कर तो कहीं ऑक्सीजन की कमी से। पर देश कैशलेस हो चुका होगा।