नोटबंदी एक बोगस फ़ैसला था। अर्थव्यवस्था को दांव पर लगा कर जनता के मनोविज्ञान से खेला गया। उसी समय समझ आ गया था कि यह अर्थव्यवस्था के इतिहास का सबसे बोगस फ़ैसलों में से एक है लेकिन फिर खेल खेला गया। कहा गया कि दूरगामी परिणाम होंगे। तीन साल बाद उन दूरगामियों का पता नहीं है।
अब विश्लेषणों में झाँसा दिया जा रहा है कि सरकार ने जो सुधार किए हैं उनका नतीजा आने में वक्त लगेगा। फिर दूरगामी वाली बूटी पिला रहे हैं सब। ये कौन सा सुधार है जो पहले अर्थव्यवस्था को ज़ीरो की तरफ़ ले जाता है। और वहाँ से ऊपर आने का ख़्वाब दिखाता है। साढ़े पाँच साल जुमले ठेलने में ही बीत गए। इसका नुक़सान एक पीढ़ी को हो गया। जो घर बैठा वो कितना पीछे चला गया। सरकार के पास आर्थिक मोर्चे पर नौटंकी करने के अलावा कुछ नहीं। पता है लोग बजट पर बात करेंगे तो वित्त मंत्री को लाल कपड़े में लिपटा हुआ बजट देकर भेज देती है ताकि चर्चा बजट पर न होकर परंपरा के शुभ-अशुभ मान्यताओं पर बहस होने लगे। उन्हें लक्ष्मी बना कर पेश किया गया जबकि साफ़ समझ आ रहा है कि वे भारत की अर्थव्यवस्था को जे एन यू समझ रहीं हैं। जो मन में आए बोल दो लोग ताली बजा देंगे।
जीडीपी का हाल बुरा है। कभी न कभी तो ठीक सब हो जाता है लेकिन हर तिमाही की रिपोर्ट बता रही है कि इनसे संभल नहीं रहा है। पिछली छह तिमाही यानि 18 महीने से अर्थव्यवस्था गिरती जा रही है। इस मंदी का लाभ उठा कर कारपोरेट ने अपने लिए टैक्स फ़्री जैसा ही मेला लूट लिया। कारपोरेट टैक्स कम हो गया। कहा गया कि इससे निवेश के लिए पैसा आएगा। ज़्यादातर कंपनियों के बैलेंसशीट घाटा दिखा रहे हैं। उनकी क़र्ज़ चुकाने की क्षमता कमज़ोर हो गई है।
अब आप सोचिए कि जिस देश में मैन्यूफ़ैक्चरिंग ज़ीरो हो जाए वहाँ रोज़गार की कितनी बुरी हालत होगी। सरकार को डेटा देना चाहिए कि छोटी बड़ी कितनी फैक्ट्रियां बंद हुई हैं। गुजरात, तमिलनाडू, पंजाब और महाराष्ट्र से पता चल जाएगा। खेती और मछली पालन में विकास दर आधी हो गई है। शहरों के कारख़ाने से बेकार हुए तो गाँवों में भी काम नहीं मिलता होगा। जो नौकरी में हैं उनकी हालत भी मुश्किल है। कोई बढ़ोत्तरी नहीं है। तनाव ज़्यादा है।
चैनलों पर जब जीडीपी के आँकड़े को लेकर बहस नहीं होगी। कोई उन बंद पड़े कारख़ानों की तरफ़ कैमरा नहीं भेजेगा जहां मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया खंडहर बने पड़े हैं। आप सभी को दूरगामी का सपना दिखाया जा रहा है। एक मज़बूत नेता और एक मज़बूत सरकार जैसे बोगस स्लोगनों का हश्र आप देख रहे हैं। कभी न कभी तो कुछ भी ठीक हो जाता है लेकिन साढ़े पाँच साल में एक भी सेक्टर ऐसा नहीं है जो
इनकी नीतियों से बुलंद हुआ हो या जिसमें बुलंदी आई हो।
अब विश्लेषणों में झाँसा दिया जा रहा है कि सरकार ने जो सुधार किए हैं उनका नतीजा आने में वक्त लगेगा। फिर दूरगामी वाली बूटी पिला रहे हैं सब। ये कौन सा सुधार है जो पहले अर्थव्यवस्था को ज़ीरो की तरफ़ ले जाता है। और वहाँ से ऊपर आने का ख़्वाब दिखाता है। साढ़े पाँच साल जुमले ठेलने में ही बीत गए। इसका नुक़सान एक पीढ़ी को हो गया। जो घर बैठा वो कितना पीछे चला गया। सरकार के पास आर्थिक मोर्चे पर नौटंकी करने के अलावा कुछ नहीं। पता है लोग बजट पर बात करेंगे तो वित्त मंत्री को लाल कपड़े में लिपटा हुआ बजट देकर भेज देती है ताकि चर्चा बजट पर न होकर परंपरा के शुभ-अशुभ मान्यताओं पर बहस होने लगे। उन्हें लक्ष्मी बना कर पेश किया गया जबकि साफ़ समझ आ रहा है कि वे भारत की अर्थव्यवस्था को जे एन यू समझ रहीं हैं। जो मन में आए बोल दो लोग ताली बजा देंगे।
जीडीपी का हाल बुरा है। कभी न कभी तो ठीक सब हो जाता है लेकिन हर तिमाही की रिपोर्ट बता रही है कि इनसे संभल नहीं रहा है। पिछली छह तिमाही यानि 18 महीने से अर्थव्यवस्था गिरती जा रही है। इस मंदी का लाभ उठा कर कारपोरेट ने अपने लिए टैक्स फ़्री जैसा ही मेला लूट लिया। कारपोरेट टैक्स कम हो गया। कहा गया कि इससे निवेश के लिए पैसा आएगा। ज़्यादातर कंपनियों के बैलेंसशीट घाटा दिखा रहे हैं। उनकी क़र्ज़ चुकाने की क्षमता कमज़ोर हो गई है।
अब आप सोचिए कि जिस देश में मैन्यूफ़ैक्चरिंग ज़ीरो हो जाए वहाँ रोज़गार की कितनी बुरी हालत होगी। सरकार को डेटा देना चाहिए कि छोटी बड़ी कितनी फैक्ट्रियां बंद हुई हैं। गुजरात, तमिलनाडू, पंजाब और महाराष्ट्र से पता चल जाएगा। खेती और मछली पालन में विकास दर आधी हो गई है। शहरों के कारख़ाने से बेकार हुए तो गाँवों में भी काम नहीं मिलता होगा। जो नौकरी में हैं उनकी हालत भी मुश्किल है। कोई बढ़ोत्तरी नहीं है। तनाव ज़्यादा है।
चैनलों पर जब जीडीपी के आँकड़े को लेकर बहस नहीं होगी। कोई उन बंद पड़े कारख़ानों की तरफ़ कैमरा नहीं भेजेगा जहां मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया खंडहर बने पड़े हैं। आप सभी को दूरगामी का सपना दिखाया जा रहा है। एक मज़बूत नेता और एक मज़बूत सरकार जैसे बोगस स्लोगनों का हश्र आप देख रहे हैं। कभी न कभी तो कुछ भी ठीक हो जाता है लेकिन साढ़े पाँच साल में एक भी सेक्टर ऐसा नहीं है जो
इनकी नीतियों से बुलंद हुआ हो या जिसमें बुलंदी आई हो।