भारतीय रेलवे को हमेशा से ही रेल मंत्रियों की 'जागीर' के रूप में देखा जाता रहा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह बात अब भारतीय रेलवे के मुक़ाबले प्रधानमंत्री मोदी के बारे में अधिक वास्तविक हो गई है।
पिछले साल ओडिशा के बालासोर में कोरोमंडल एक्सप्रेस और जून 2024 में पश्चिम बंगाल के उत्तरी हिस्से में रंगापानी रेलवे स्टेशन के पास सियालदाह-अगरतला कंचनजंगा एक्सप्रेस की दुर्घटना का विवाद अभी खत्म नहीं हुआ है। इस संबंध में नियमों का पालन करते हुए रेलवे सुरक्षा आयुक्त ने अपनी प्राथमिक जांच पूरी कर ली है। कोरोमंडल एक्सप्रेस दुर्घटना की सीबीआई जांच भी शुरू हुई।
यद्यपि मैंने उड़ीसा के बालासोर और पश्चिम बंगाल के रानापानी के निकट हुई रेल दुर्घटनाओं के स्थलों का दौरा नहीं किया, फिर भी दुर्घटना के बाद रेलवे में कई पुराने और नए परिचितों से बातचीत से कुछ जानकारी मिली है।
केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की जांच निश्चित रूप से दस्तावेजी सबूतों की बिना पर यह साबित करेगी कि दुर्घटना किसी विध्वंसकारी गतिविधि का नतीजा थी या किसी तकनीकी खराबी के कारण हुई थी। इससे दुर्घटना के कारणों का पता चल जाएगा।
कई रेलवे कर्मचारियों और अधिकारियों का मानना है कि भारतीय रेल और दुर्घटनाएं एक दूसरे के पर्याय बन गए हैं; बल्कि दुर्घटनाएं आज ‘सामान्य’ सी बात हो गई है और सुरक्षित यात्रा करना केवल अपवादस्वरूप और सौभाग्य की बात है। विभिन्न चर्चाओं से यह भी पता चला कि वर्तमान में ‘मोदी रेल’ और भारतीय रेल के बीच प्रतिस्पर्धा चल रही है। और भारतीय रेल जो पहले से ही बुरी हालत में थी अब ‘मोदी रेल’ से हार रही है।
आम नागरिक भी इस बात को जानते हैं कि भारतीय रेलवे को हमेशा से रेल मंत्री की जागीर के रूप में देखा जाता रहा है। लेकिन मौजूदा मंत्री अश्विनी वैष्णव इसके अपवाद हैं। हम सभी जानते हैं कि इसका कारण यह है कि भारतीय रेलवे के पास अब अलग से कोई बजट नहीं है। दूसरा, नरेंद्र मोदी सरकार ने नीतिगत निर्णय लिया है कि नई रेलगाड़ियां या ट्रैक शुरू करने से पहले, पहले चल रही परियोजनाओं को पूरा किया जाएगा।
भारतीय रेलवे के कामकाज पर करीबी से नजर रखने वाले कई लोगों ने पहले फैसले को लेकर आशंकाएं जताई हैं, जबकि दूसरे फैसले की सराहना की है। रेलवे बजट का मतलब आमतौर पर रेल मंत्री के गृह राज्य को तोहफा देना होता है। इसलिए, पहले चल रही परियोजनाओं को पूरा करने का फैसला समझदारी भरा था।
लेकिन मौजूदा सरकार की समस्या कहीं और है। सबसे पहली बात, मोदी के लिए 'प्रधानमंत्री' की पदवी ही काफी नहीं है क्योंकि यह उन्हें जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी या अटल बिहारी वाजपेयी जैसे अपने पूर्ववर्तियों से अलग नहीं करती है। उनके शासन करने के तरीके और उनके कैबिनेट सहयोगियों द्वारा उनकी प्रशंसा ने, यह कहना होगा, मोदी को 'सुपर प्राइम मिनिस्टर' बना दिया है। इसीलिए उन्हें लगता है कि अचानक लिए गए फैसले उन्हें अलग बना सकते हैं और इसलिए 'वंदे भारत' चलाने का एकदम लिया गया निर्णय इसी कड़ी में लिया गया निर्णय था।
ऐसा इसलिए है क्योंकि मोदी को एहसास हो गया है कि अगर वे पहले चल रही परियोजनाओं को पूरा करने के फैसले पर अड़े रहे, तो उन्हें ममता बनर्जी, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद जैसे पूर्व रेल मंत्रियों द्वारा घोषित परियोजनाओं का उद्घाटन करने के लिए रिबन काटते रहना होगा। फिर विशाल भारतीय रेलवे साम्राज्य में मोदी की एक भी खास परियोजना क्यों नहीं हो सकती?
इस बारे में विस्तार से बताते हुए एक अधिकारी ने नई ट्रेनों की शुरुआत की तुलना बाजार में मौजूद डिटर्जेंट से की, जो एक निश्चित समय के बाद 'सुपर', 'एक्स्ट्रा सुपर', 'एक्स्ट्रा व्हाइट', 'एक्स्ट्रा ब्राइट' जैसे नए उपसर्गों के साथ आता है। जबकि पैकेट के अंदर की सामग्री कभी नहीं बदलती है लेकिन नामों का महिमामंडन किया जाता है।
अक्टूबर 2022 में रेलवे ने करीब 130 जनरल मेल या एक्सप्रेस ट्रेनों को 'सुपरफास्ट' घोषित किया और उनके किराए में बढ़ोतरी की। हालांकि, गंतव्य तक पहुंचने के मामले में पहले की जनरल ट्रेन और नई 'सुपरफास्ट' ट्रेन में कोई अंतर नहीं है। एक रिपोर्ट के अनुसार, जनवरी से सितंबर 2022 तक इन तथाकथित 'सुपरफास्ट' ट्रेनों के चलने में कुल 24 साल यानी 2,00,10,000 घंटे से अधिक की देरी हुई। इसकी वजह पर्याप्त ट्रैक की कमी बताई जाती है। कुल 12,524 ट्रेनों में से करीब 1,000 ट्रेनें ऐसी हैं, जिन्हें नेताओं और मंत्रियों के राजनीतिक हितों को ध्यान में रखकर शुरू किया गया था।
भारतीय रेलवे में ऐसी समस्याएं नई नहीं हैं। इस संस्थान में सभी चालें गति के इर्द-गिर्द घूमती हैं, क्योंकि रेलवे जब भी समय की पाबंदी के स्वघोषित लक्ष्यों को पूरा करने में विफल होता है, तो नई ट्रेनें शुरू कर देता है।
नई ट्रेनें शुरू करना सफलता का नतीजा नहीं है। बल्कि ये विफलताओं को छिपाने की निरर्थक कोशिशें हैं। अगर ट्रेनें तय समय पर चलेंगी तो फिर तेज गति वाली ट्रेनें शुरू करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जिस देश में यात्री और मालगाड़ियां एक ही पटरी पर चलती हैं, वहां बुलेट ट्रेन या हाई-स्पीड ट्रेनें शुरू करना देशवासियों की जान को राजनीतिक स्वार्थों की बलि चढ़ाने के बराबर का मसला है।
भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) ने अपनी 2022 की रिपोर्ट में ट्रेनों की समयबद्धता को लेकर चिंता जताई थी। टर्मिनेटिंग स्टेशनों पर यह सूचकांक 2012-13 के 79 फीसदी से घटकर 2018-19 में 69.23 फीसदी रह गया। हालांकि भारतीय रेलवे समयबद्धता के मामले में तुलनात्मक रूप से कम बेंचमार्क रखता है।
सीएजी के अनुसार, "समय की पाबंदी को ट्रेन के टर्मिनेशन के आधार से मापा जाता है, जो वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाओं के अनुरूप नहीं है। पिछले दस वर्षों में केवल 3.5 फीसदी औसत गति में वृद्धि ट्रैक इंफ्रास्ट्रक्चर, रोलिंग स्टॉक और सिग्नलिंग सिस्टम के उन्नयन के बावजूद कोई उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं हुई है।"
बहुत खोजबीन के बाद भी इस लेखक को रेलवे लाइनों की वहन क्षमता के बारे में कोई अंतरराष्ट्रीय पैमाना नहीं मिल पाया है। अगर है भी तो इस मामले में भी हमारा देश पिछड़ा हुआ है, यह वैसे ही है जैसे हम 'भूख सूचकांक', 'मानव विकास सूचकांक' या 'प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक' में काफी नीचे हैं।
आज, रेल मंत्री वैष्णव रेल मंत्रालय के नाममात्र के मुखिया हैं; वास्तव में यह विभाग रेलवे बोर्ड के कॉर्पोरेट चेयरमैन-सह-मुख्य कार्यकारी अधिकारी के नेतृत्व में चल रहा है, जो सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय के निर्देश पर काम करता है। संभवतः इस तरह रेलवे का बोझ कम करके सूचना प्रौद्योगिकी और सूचना एवं प्रसारण जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों का अतिरिक्त बोझ वैष्णव के कंधों पर डाल दिया गया है। वे कोई महामानव नहीं हैं जो इतने सारे मंत्रालयों के काम समान समर्पण के साथ कर सकें।
राजनीतिक लाभ के लिए रेलवे का इस्तेमाल कोई नई बात नहीं है। 1995 में जब नरसिंह राव के प्रधानमंत्री काल में सुरेश कलमाड़ी रेल मंत्री थे, तब मंत्रालय देश भर के पत्रकारों को एक खास परियोजना का उद्घाटन कराने ले गया था। यह परियोजना तीन राज्यों - उड़ीसा, अविभाजित आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश के सीमावर्ती इलाकों के आसपास की थीं। प्रधानमंत्री को फीता काटने के लिए दिल्ली से आना था। इस पर खूब हो-हल्ला हुआ। जापानी फंड और तकनीक की मदद से पहाड़ियों को चीरते हुए रेल की पटरियां बिछाई गईं। एक रेलवे अधिकारी ने इस लेखक को बताया (जो एक एक्सक्लूसिव स्टोरी बन गई) कि प्रधानमंत्री उस क्षेत्र में आसन्न चुनाव में वोटों की खातिर एक अधूरी परियोजना का उद्घाटन कर रहे हैं। इस कदम पर जापानी आपत्ति पर रेल मंत्रालय और पीएमओ ने ध्यान नहीं दिया।
इसलिए, 29 साल बाद भी, 2024 के आम चुनाव से पहले प्रधानमंत्री द्वारा वंदे भारत ट्रेनों को हरी झंडी दिखाने के कारणों को पूरी तरह से समझा जा सकता है।
वैसे तो चार दशक पहले लोकल ट्रेनों में दैनिक यात्री के तौर पर मेरा शुरुआती अनुभव अच्छा नहीं था। कई खामियां थीं। बीच रास्ते में इंजन खराब हो जाना, नगर निगम के नलों में पानी न आना, किसी इलाके में अचानक बम विस्फोट हो जाना, गुंडों का उत्पात, रेलवे क्रॉसिंग पर गाड़ियों का तांता लग जाना, गेट बंद न होने देना, राजनीतिक दलों का सड़क जाम करना--रेल के पहिए थमने के कई कारण थे जो रेल प्रशासन के नियंत्रण से बाहर थे। लेकिन रेलवे कर्मचारियों में कौशल की कमी और उनकी लगन और ईमानदारी की कमी कभी नहीं देखी गई थी।
रेलवे में कुशलता का एक ऐसा ही उदाहरण तब देखने को मिला जब इस लेखक को मानव संसाधन की नियुक्ति में योग्यता के मानदंडों का पालन करने में बहुत अधिक सख्ती देखने को मिली। उस समय मैं एक साप्ताहिक पत्रिका में काम करता था जिसमें सभी तरह की रोजगार संबंधी खबरें छपती थीं। इस सिलसिले में मैं कोलकाता में रेलवे भर्ती बोर्ड (जिसे आरआरबी के नाम से जाना जाता है) के क्षेत्रीय कार्यालय में नियमित रूप से जाता था। मुझे रेलवे, पुलिस, सेना और अर्धसैनिक बलों में तकनीकी पदों पर नौकरी के लिए योग्यता के अलावा शारीरिक फिटनेस के मानदंडों में कोई खास अंतर नहीं दिखा।
आजकल, ऐसे पदों पर बहुत से लोगों को ठेकेदारों द्वारा नियुक्त किया जाता है। उनके पास न तो फिटनेस है, न ही कौशल और न अनुभव। ठेकेदार फर्मों का खराब वेतन ढांचा उच्च कौशल और फिटनेस वाले लोगों को आकर्षित नहीं कर सकता है।
रेलवे में परिदृश्य इतना बदल गया है कि अब कम कौशल वाले अस्थायी कर्मचारी एक से अधिक तकनीकी अनुभागों, जिसमें रखरखाव भी शामिल है, का कार्यभार संभाल रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि असामान्य घटना की स्थिति में उन पर कोई जवाबदेही तय करना मुश्किल है।
रेलवे में ठेकेदार कंपनियों का कितना दबदबा है, यह धनबाद से कुछ ही दूर गोमो में हुई घटना से पता चला। पिछले साल 29 मई को रेल ट्रैक पर काम करते समय छह मजदूरों की करंट लगने से मौत हो गई थी। ये सभी मजदूर एक ठेके वाली कंपनी में काम करते थे। हैरानी की बात यह है कि हालांकि ट्रैक पर एक निजी एजेंसी के कर्मचारी काम करते पाए गए, लेकिन जांच में पता चला कि इसके लिए रेलवे से कोई अनुमति नहीं ली गई थी।
एक और समस्या यह है कि ऑपरेशन और सिग्नलिंग विंग द्वारा एक-दूसरे पर हावी होने की होड़ और हस्तक्षेप की भावना बहुत अधिक है, जो समय की पाबंदी हासिल करने की होड़ में यात्रियों की सुरक्षा को ध्यान में नहीं रख रहे हैं। इसके अलावा, रेलवे में शीर्ष अधिकारियों की सुस्ती और रेल मंत्री को "निष्क्रिय" बनाए रखने से भारी नुकसान हुआ है। तीन लाख से अधिक पदों की बड़ी रिक्तियों और अतिरिक्त कार्यभार ने कर्मचारियों में भारी निराशा और असंतोष की भावना पैदा कर दी है।
पिछले 20-25 वर्षों में भारतीय रेलवे एक विचित्र संस्था बन गई है।
रेल मंत्रालय का कोई प्रतियोगी नहीं है, यह वस्तुतः एक एकाधिकार वाला संगठन है। और अब, प्रधानमंत्री की तस्वीरों और सेल्फी-पॉइंट के प्रदर्शन के साथ, 'मोदी रेल' ने इस पर कब्ज़ा कर लिया है। किसी के लिए यह सोचना असंभव नहीं है कि नरेंद्र मोदी ही रेल मंत्री हैं। लेकिन, अंदर का परिदृश्य अलग है। अब समय आ गया है कि देश को इस सवाल का जवाब मिले कि भारतीय रेलवे का कितना हिस्सा अभी भी सरकार का है।
लेखक, द वॉल के कार्यकारी संपादक और टाइम्स ऑफ इंडिया के पूर्व वरिष्ठ संपादक हैं। यह उनके निजी विचार हैं।
(साभार- न्यूजक्लिक, अनुवाद- महेश कुमार)
पिछले साल ओडिशा के बालासोर में कोरोमंडल एक्सप्रेस और जून 2024 में पश्चिम बंगाल के उत्तरी हिस्से में रंगापानी रेलवे स्टेशन के पास सियालदाह-अगरतला कंचनजंगा एक्सप्रेस की दुर्घटना का विवाद अभी खत्म नहीं हुआ है। इस संबंध में नियमों का पालन करते हुए रेलवे सुरक्षा आयुक्त ने अपनी प्राथमिक जांच पूरी कर ली है। कोरोमंडल एक्सप्रेस दुर्घटना की सीबीआई जांच भी शुरू हुई।
यद्यपि मैंने उड़ीसा के बालासोर और पश्चिम बंगाल के रानापानी के निकट हुई रेल दुर्घटनाओं के स्थलों का दौरा नहीं किया, फिर भी दुर्घटना के बाद रेलवे में कई पुराने और नए परिचितों से बातचीत से कुछ जानकारी मिली है।
केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की जांच निश्चित रूप से दस्तावेजी सबूतों की बिना पर यह साबित करेगी कि दुर्घटना किसी विध्वंसकारी गतिविधि का नतीजा थी या किसी तकनीकी खराबी के कारण हुई थी। इससे दुर्घटना के कारणों का पता चल जाएगा।
कई रेलवे कर्मचारियों और अधिकारियों का मानना है कि भारतीय रेल और दुर्घटनाएं एक दूसरे के पर्याय बन गए हैं; बल्कि दुर्घटनाएं आज ‘सामान्य’ सी बात हो गई है और सुरक्षित यात्रा करना केवल अपवादस्वरूप और सौभाग्य की बात है। विभिन्न चर्चाओं से यह भी पता चला कि वर्तमान में ‘मोदी रेल’ और भारतीय रेल के बीच प्रतिस्पर्धा चल रही है। और भारतीय रेल जो पहले से ही बुरी हालत में थी अब ‘मोदी रेल’ से हार रही है।
आम नागरिक भी इस बात को जानते हैं कि भारतीय रेलवे को हमेशा से रेल मंत्री की जागीर के रूप में देखा जाता रहा है। लेकिन मौजूदा मंत्री अश्विनी वैष्णव इसके अपवाद हैं। हम सभी जानते हैं कि इसका कारण यह है कि भारतीय रेलवे के पास अब अलग से कोई बजट नहीं है। दूसरा, नरेंद्र मोदी सरकार ने नीतिगत निर्णय लिया है कि नई रेलगाड़ियां या ट्रैक शुरू करने से पहले, पहले चल रही परियोजनाओं को पूरा किया जाएगा।
भारतीय रेलवे के कामकाज पर करीबी से नजर रखने वाले कई लोगों ने पहले फैसले को लेकर आशंकाएं जताई हैं, जबकि दूसरे फैसले की सराहना की है। रेलवे बजट का मतलब आमतौर पर रेल मंत्री के गृह राज्य को तोहफा देना होता है। इसलिए, पहले चल रही परियोजनाओं को पूरा करने का फैसला समझदारी भरा था।
लेकिन मौजूदा सरकार की समस्या कहीं और है। सबसे पहली बात, मोदी के लिए 'प्रधानमंत्री' की पदवी ही काफी नहीं है क्योंकि यह उन्हें जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी या अटल बिहारी वाजपेयी जैसे अपने पूर्ववर्तियों से अलग नहीं करती है। उनके शासन करने के तरीके और उनके कैबिनेट सहयोगियों द्वारा उनकी प्रशंसा ने, यह कहना होगा, मोदी को 'सुपर प्राइम मिनिस्टर' बना दिया है। इसीलिए उन्हें लगता है कि अचानक लिए गए फैसले उन्हें अलग बना सकते हैं और इसलिए 'वंदे भारत' चलाने का एकदम लिया गया निर्णय इसी कड़ी में लिया गया निर्णय था।
ऐसा इसलिए है क्योंकि मोदी को एहसास हो गया है कि अगर वे पहले चल रही परियोजनाओं को पूरा करने के फैसले पर अड़े रहे, तो उन्हें ममता बनर्जी, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद जैसे पूर्व रेल मंत्रियों द्वारा घोषित परियोजनाओं का उद्घाटन करने के लिए रिबन काटते रहना होगा। फिर विशाल भारतीय रेलवे साम्राज्य में मोदी की एक भी खास परियोजना क्यों नहीं हो सकती?
इस बारे में विस्तार से बताते हुए एक अधिकारी ने नई ट्रेनों की शुरुआत की तुलना बाजार में मौजूद डिटर्जेंट से की, जो एक निश्चित समय के बाद 'सुपर', 'एक्स्ट्रा सुपर', 'एक्स्ट्रा व्हाइट', 'एक्स्ट्रा ब्राइट' जैसे नए उपसर्गों के साथ आता है। जबकि पैकेट के अंदर की सामग्री कभी नहीं बदलती है लेकिन नामों का महिमामंडन किया जाता है।
अक्टूबर 2022 में रेलवे ने करीब 130 जनरल मेल या एक्सप्रेस ट्रेनों को 'सुपरफास्ट' घोषित किया और उनके किराए में बढ़ोतरी की। हालांकि, गंतव्य तक पहुंचने के मामले में पहले की जनरल ट्रेन और नई 'सुपरफास्ट' ट्रेन में कोई अंतर नहीं है। एक रिपोर्ट के अनुसार, जनवरी से सितंबर 2022 तक इन तथाकथित 'सुपरफास्ट' ट्रेनों के चलने में कुल 24 साल यानी 2,00,10,000 घंटे से अधिक की देरी हुई। इसकी वजह पर्याप्त ट्रैक की कमी बताई जाती है। कुल 12,524 ट्रेनों में से करीब 1,000 ट्रेनें ऐसी हैं, जिन्हें नेताओं और मंत्रियों के राजनीतिक हितों को ध्यान में रखकर शुरू किया गया था।
भारतीय रेलवे में ऐसी समस्याएं नई नहीं हैं। इस संस्थान में सभी चालें गति के इर्द-गिर्द घूमती हैं, क्योंकि रेलवे जब भी समय की पाबंदी के स्वघोषित लक्ष्यों को पूरा करने में विफल होता है, तो नई ट्रेनें शुरू कर देता है।
नई ट्रेनें शुरू करना सफलता का नतीजा नहीं है। बल्कि ये विफलताओं को छिपाने की निरर्थक कोशिशें हैं। अगर ट्रेनें तय समय पर चलेंगी तो फिर तेज गति वाली ट्रेनें शुरू करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जिस देश में यात्री और मालगाड़ियां एक ही पटरी पर चलती हैं, वहां बुलेट ट्रेन या हाई-स्पीड ट्रेनें शुरू करना देशवासियों की जान को राजनीतिक स्वार्थों की बलि चढ़ाने के बराबर का मसला है।
भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) ने अपनी 2022 की रिपोर्ट में ट्रेनों की समयबद्धता को लेकर चिंता जताई थी। टर्मिनेटिंग स्टेशनों पर यह सूचकांक 2012-13 के 79 फीसदी से घटकर 2018-19 में 69.23 फीसदी रह गया। हालांकि भारतीय रेलवे समयबद्धता के मामले में तुलनात्मक रूप से कम बेंचमार्क रखता है।
सीएजी के अनुसार, "समय की पाबंदी को ट्रेन के टर्मिनेशन के आधार से मापा जाता है, जो वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाओं के अनुरूप नहीं है। पिछले दस वर्षों में केवल 3.5 फीसदी औसत गति में वृद्धि ट्रैक इंफ्रास्ट्रक्चर, रोलिंग स्टॉक और सिग्नलिंग सिस्टम के उन्नयन के बावजूद कोई उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं हुई है।"
बहुत खोजबीन के बाद भी इस लेखक को रेलवे लाइनों की वहन क्षमता के बारे में कोई अंतरराष्ट्रीय पैमाना नहीं मिल पाया है। अगर है भी तो इस मामले में भी हमारा देश पिछड़ा हुआ है, यह वैसे ही है जैसे हम 'भूख सूचकांक', 'मानव विकास सूचकांक' या 'प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक' में काफी नीचे हैं।
आज, रेल मंत्री वैष्णव रेल मंत्रालय के नाममात्र के मुखिया हैं; वास्तव में यह विभाग रेलवे बोर्ड के कॉर्पोरेट चेयरमैन-सह-मुख्य कार्यकारी अधिकारी के नेतृत्व में चल रहा है, जो सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय के निर्देश पर काम करता है। संभवतः इस तरह रेलवे का बोझ कम करके सूचना प्रौद्योगिकी और सूचना एवं प्रसारण जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों का अतिरिक्त बोझ वैष्णव के कंधों पर डाल दिया गया है। वे कोई महामानव नहीं हैं जो इतने सारे मंत्रालयों के काम समान समर्पण के साथ कर सकें।
राजनीतिक लाभ के लिए रेलवे का इस्तेमाल कोई नई बात नहीं है। 1995 में जब नरसिंह राव के प्रधानमंत्री काल में सुरेश कलमाड़ी रेल मंत्री थे, तब मंत्रालय देश भर के पत्रकारों को एक खास परियोजना का उद्घाटन कराने ले गया था। यह परियोजना तीन राज्यों - उड़ीसा, अविभाजित आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश के सीमावर्ती इलाकों के आसपास की थीं। प्रधानमंत्री को फीता काटने के लिए दिल्ली से आना था। इस पर खूब हो-हल्ला हुआ। जापानी फंड और तकनीक की मदद से पहाड़ियों को चीरते हुए रेल की पटरियां बिछाई गईं। एक रेलवे अधिकारी ने इस लेखक को बताया (जो एक एक्सक्लूसिव स्टोरी बन गई) कि प्रधानमंत्री उस क्षेत्र में आसन्न चुनाव में वोटों की खातिर एक अधूरी परियोजना का उद्घाटन कर रहे हैं। इस कदम पर जापानी आपत्ति पर रेल मंत्रालय और पीएमओ ने ध्यान नहीं दिया।
इसलिए, 29 साल बाद भी, 2024 के आम चुनाव से पहले प्रधानमंत्री द्वारा वंदे भारत ट्रेनों को हरी झंडी दिखाने के कारणों को पूरी तरह से समझा जा सकता है।
वैसे तो चार दशक पहले लोकल ट्रेनों में दैनिक यात्री के तौर पर मेरा शुरुआती अनुभव अच्छा नहीं था। कई खामियां थीं। बीच रास्ते में इंजन खराब हो जाना, नगर निगम के नलों में पानी न आना, किसी इलाके में अचानक बम विस्फोट हो जाना, गुंडों का उत्पात, रेलवे क्रॉसिंग पर गाड़ियों का तांता लग जाना, गेट बंद न होने देना, राजनीतिक दलों का सड़क जाम करना--रेल के पहिए थमने के कई कारण थे जो रेल प्रशासन के नियंत्रण से बाहर थे। लेकिन रेलवे कर्मचारियों में कौशल की कमी और उनकी लगन और ईमानदारी की कमी कभी नहीं देखी गई थी।
रेलवे में कुशलता का एक ऐसा ही उदाहरण तब देखने को मिला जब इस लेखक को मानव संसाधन की नियुक्ति में योग्यता के मानदंडों का पालन करने में बहुत अधिक सख्ती देखने को मिली। उस समय मैं एक साप्ताहिक पत्रिका में काम करता था जिसमें सभी तरह की रोजगार संबंधी खबरें छपती थीं। इस सिलसिले में मैं कोलकाता में रेलवे भर्ती बोर्ड (जिसे आरआरबी के नाम से जाना जाता है) के क्षेत्रीय कार्यालय में नियमित रूप से जाता था। मुझे रेलवे, पुलिस, सेना और अर्धसैनिक बलों में तकनीकी पदों पर नौकरी के लिए योग्यता के अलावा शारीरिक फिटनेस के मानदंडों में कोई खास अंतर नहीं दिखा।
आजकल, ऐसे पदों पर बहुत से लोगों को ठेकेदारों द्वारा नियुक्त किया जाता है। उनके पास न तो फिटनेस है, न ही कौशल और न अनुभव। ठेकेदार फर्मों का खराब वेतन ढांचा उच्च कौशल और फिटनेस वाले लोगों को आकर्षित नहीं कर सकता है।
रेलवे में परिदृश्य इतना बदल गया है कि अब कम कौशल वाले अस्थायी कर्मचारी एक से अधिक तकनीकी अनुभागों, जिसमें रखरखाव भी शामिल है, का कार्यभार संभाल रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि असामान्य घटना की स्थिति में उन पर कोई जवाबदेही तय करना मुश्किल है।
रेलवे में ठेकेदार कंपनियों का कितना दबदबा है, यह धनबाद से कुछ ही दूर गोमो में हुई घटना से पता चला। पिछले साल 29 मई को रेल ट्रैक पर काम करते समय छह मजदूरों की करंट लगने से मौत हो गई थी। ये सभी मजदूर एक ठेके वाली कंपनी में काम करते थे। हैरानी की बात यह है कि हालांकि ट्रैक पर एक निजी एजेंसी के कर्मचारी काम करते पाए गए, लेकिन जांच में पता चला कि इसके लिए रेलवे से कोई अनुमति नहीं ली गई थी।
एक और समस्या यह है कि ऑपरेशन और सिग्नलिंग विंग द्वारा एक-दूसरे पर हावी होने की होड़ और हस्तक्षेप की भावना बहुत अधिक है, जो समय की पाबंदी हासिल करने की होड़ में यात्रियों की सुरक्षा को ध्यान में नहीं रख रहे हैं। इसके अलावा, रेलवे में शीर्ष अधिकारियों की सुस्ती और रेल मंत्री को "निष्क्रिय" बनाए रखने से भारी नुकसान हुआ है। तीन लाख से अधिक पदों की बड़ी रिक्तियों और अतिरिक्त कार्यभार ने कर्मचारियों में भारी निराशा और असंतोष की भावना पैदा कर दी है।
पिछले 20-25 वर्षों में भारतीय रेलवे एक विचित्र संस्था बन गई है।
रेल मंत्रालय का कोई प्रतियोगी नहीं है, यह वस्तुतः एक एकाधिकार वाला संगठन है। और अब, प्रधानमंत्री की तस्वीरों और सेल्फी-पॉइंट के प्रदर्शन के साथ, 'मोदी रेल' ने इस पर कब्ज़ा कर लिया है। किसी के लिए यह सोचना असंभव नहीं है कि नरेंद्र मोदी ही रेल मंत्री हैं। लेकिन, अंदर का परिदृश्य अलग है। अब समय आ गया है कि देश को इस सवाल का जवाब मिले कि भारतीय रेलवे का कितना हिस्सा अभी भी सरकार का है।
लेखक, द वॉल के कार्यकारी संपादक और टाइम्स ऑफ इंडिया के पूर्व वरिष्ठ संपादक हैं। यह उनके निजी विचार हैं।
(साभार- न्यूजक्लिक, अनुवाद- महेश कुमार)