वनाधिकार: देशभर में 38% से ज्यादा तो कर्नाटक में 2.44 लाख दावे खारिज

Written by Navnish Kumar | Published on: March 16, 2023
सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में अपने निष्कासन आदेश पर रोक लगाते हुए राज्यों से कहा था कि वे वनाधिकार दावों की अस्वीकृति की संख्या, अपनाई गई प्रक्रिया, अस्वीकृति के कारणों और यदि अनुसूचित जनजाति (एसटी) और आदिवासियों को दावों की अस्वीकृति से पहले सबूत पेश करने का मौका दिया गया था, के बारे में जानकारी प्रदान करें।  



जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा 13 मार्च को लोकसभा में पेश किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि वन अधिकार अधिनियम (FRA) 2006 के तहत 30 नवंबर, 2022 तक भूमि पर किए गए सभी दावों में से 38 प्रतिशत को खारिज कर दिया गया है। डेटा से पता चलता है कि तय समय सीमा तक एफआरए के तहत किए गए दावों के 50 प्रतिशत से थोड़ा अधिक के लिए शीर्षक वितरित किए गए थे बाकी के दावे लंबित थे।

कांग्रेस के डीन कुरियाकोस, मो जावेद, ए चेल्लाकुमार और बीजेपी के अर्जुन लाल मीणा के एक सवाल के जवाब में मंत्रालय ने कहा कि जैसा कि राज्य सरकारों द्वारा बताया गया है, अस्वीकृति के “सामान्य कारणों” में “13.12.2005 से पहले वन भूमि का गैर-कब्जा”, वन भूमि के अलावा अन्य भूमि पर किए जा रहे दावे, एक भूमि पर कई दावे, पर्याप्त दस्तावेजी साक्ष्य की कमी वगैरह शामिल है।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, आंकड़े बताते हैं कि सामुदायिक वन अधिकार (CFR) दावों में 24.42 प्रतिशत अस्वीकृति की तुलना में इस समय अवधि में 39.29 प्रतिशत व्यक्तिगत वन अधिकार (IFR) दावों को खारिज कर दिया गया था। वहीं सरकार यह कहते हुए बिहार, गोवा और हिमाचल प्रदेश के लिए सामुदायिक वन अधिकार अस्वीकृतियों की संख्या नहीं दे सकी कि क्योंकि वे या तो ‘लागू नहीं’ थे या ‘रिपोर्ट नहीं किए गए’ थे। सरकार ने असम के लिए सभी अस्वीकृति डेटा की अनुपलब्धता के लिए भी यही कहा है। आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों के अधिकारों की सुरक्षा के बारे में लोकसभा में एक अलग प्रश्न के जवाब में जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने कहा कि FRA, पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 और उचित मुआवजे का अधिकार, भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013 में पारदर्शिता जैसे कानून आदिवासियों और ओटीएफडी के अधिकारों की मजबूत सुरक्षा के लिए पहले से ही प्रदान करता है, जिसमें सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन प्रदान करना शामिल है।

एक बार फिर दावे खारिज किए जाने की बाबत यह उत्तर ऐसे समय में आया है जब राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) और पर्यावरण मंत्रालय के बीच नए वन संरक्षण नियम (Forest Conservation Rules), 2022 को लेकर टकराव है। दरअसल, एनसीएसटी ने वन संरक्षण नियम, 2022 को लेकर मुद्दा उठाया था कि यह एफआरए के तहत अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों के भूमि अधिकारों को अनिवार्य रूप से प्रभावित करेगा। साथ ही कहा था कि एफसीआर, 2022 ने गैर-वन उद्देश्यों के लिए वन भूमि के डायवर्जन से जुड़ी परियोजना के लिए स्टेज 1 मंजूरी के लिए आगे बढ़ने से पहले ग्राम सभा के माध्यम से स्थानीय लोगों की अनिवार्य सहमति की आवश्यकता वाले खंड को खत्म कर दिया है।

एनसीएसटी ने पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव को पत्र लिखकर एफसीआर, 2022 पर रोक लगाने की मांग की थी। हालांकि, भूपेंद्र यादव ने आयोग की चिंताओं को खारिज करते हुए एनसीएसटी को वापस लिखा और जोर देकर कहा कि एफसीआर, 2022 एफआरए दावों को प्रभावित नहीं करेगा। इसके बाद एनसीएसटी ने पहली बार सीधे सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा दायर सभी दस्तावेजों और एफआरए रिपोर्ट की मांग की। जिसके बाद 20 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने रजिस्ट्री को यह आदेश दिया था कि वन अधिकार अधिनियम (FRA) की संवैधानिकता को चुनौती देने वाले एक मामले में अदालत में राज्य सरकारों द्वारा प्रस्तुत सभी दस्तावेजों की प्रतियां अनुसूचित जनजाति आयोग को सौंप दी जाएं। ऐसे में आखिरकार अनुसूचित जनजाति आयोग ने अपनी विशेष शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए सुप्रीम कोर्ट से वनाधिकार अधिनियम 2006 के लागू किये जाने से जुड़े ये जरूरी दस्तावेज़ हासिल किए हैं।

कर्नाटक में 2.44 लाख से अधिक FRA दावे खारिज

कर्नाटक में, वन अधिकार अधिनियम (FRA) के तहत व्यक्तिगत वन अधिकार (IFR) और सामुदायिक वन अधिकार (CFR) के अधिकांश दावों को खारिज कर दिया गया, जिससे आदिवासी समुदाय के सदस्यों में गुस्सा पैदा हो गया, जो मैसूर और चामराजनगर आदि कई जिलों में बड़ी संख्या में हैं। आदिवासी मामलों के केंद्रीय राज्य मंत्री, बिश्वेश्वर टुडू द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, नवंबर के अंत तक, कर्नाटक में एफआरए के तहत 2,91,736 दावे प्रस्तुत किए गए थे। इनमें से 2,44,560 को इसी अवधि में खारिज कर दिया गया। वह सोमवार को लोकसभा में चार सांसदों द्वारा उठाए गए एक सवाल का जवाब दे रहे थे।

30 नवंबर तक कर्नाटक में IFR के 2,85,874 और CFR के 5,862 दावे जमा किए गए। जबकि टाइटल डीड 14,783 आईएफआर और 1,344 सीएफआर दावों को ही वितरित किए गए। राज्य में 2,40,794 आईएफआर और 3,766 सीएफआर दावों को खारिज कर दिया गया।

आंकड़ों के अनुसार, आंध्र प्रदेश में जमा किए गए 2,84,725 आवेदनों में से 2,19,803 टाइटल डीड वितरित किए गए। इसी तरह असम में 1,48,965 आवेदनों के मुकाबले 58,802 टाइटल डीड जारी किए गए। छत्तीसगढ़ में 9,22,346 दावे प्राप्त हुए और 4,91,805 टाइटल डीड जारी किए गए। जबकि गुजरात में 1,90,056 दावे प्राप्त हुए और 96,283 टाइटल डीड जारी किए गए।

मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में 6,27,513 दावे प्राप्त हुए और 2,94,585 टाइटल डीड जारी किए गए। पश्चिम बंगाल में 1,42,081 दावों के मुकाबले 45,130 टाइटल डीड जारी किए गए। महाराष्ट्र में 3,74,716 दावों के मुकाबले 45,188 टाइटल डीड जारी किए गए।

एचडी कोटे में बसवनगिरी हाडी से राज्य स्वदेशी जनजातीय फोरम के संयोजक विजय कुमार ने बताया कि आदिवासी परिवारों को तीन फॉर्म भरने के लिए जारी किए गए थे। व्यक्तिगत भूमि स्वामित्व के लिए फॉर्म ए, सामुदायिक अधिकारों के लिए फॉर्म बी और वन संसाधनों के लिए फॉर्म सी। अधिनियम के अनुसार, टोला (हाड़ी) स्तर की बैठकों में लिए गए निर्णय अंतिम होते हैं। ये बैठकें पंचायत विकास अधिकारियों द्वारा की जाती थीं। उन्होंने कहा कि अधिनियम के प्रावधानों के विपरीत, हाड़ी स्तर की बैठकों में लिए गए निर्णय को, उच्च स्तर पर खारिज कर दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप यह संकट पैदा हुआ है।

राज्य के पहले आदिवासी एमएलसी शांताराम बुदना सिद्दी ने कहा कि वह भी इस देरी के शिकार लोगों में से एक हैं। उन्होंने इसे समझते हुए टीओआई को बताया कि इस मुद्दे को कई मंचों पर उठाया गया है, और समस्या को हल करने के प्रयास किए जा रहे हैं। कहा आवेदन की अस्वीकृति एकमात्र समस्या नहीं है, आंशिक भूमि अधिकारों को मंजूरी देना भी चुनौती है। व्यक्तिगत रूप से मैं भी प्रभावित हूं। कहा कि जब राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष हर्ष चौहान ने बेंगलुरू का दौरा किया था तो हमने इसे आयोग (एनसीएसटी) के संज्ञान में लाया था। आयोग अप्रैल में एक तथ्यान्वेषी समिति भेज रहा है ताकि यह पता लगाया जा सके कि इतनी बड़ी संख्या में आवेदन क्यों खारिज किए गए?। यह समिति चामराजनगर और रामनगर का दौरा करने के साथ ही, अन्य जिलों के आदिवासी समुदाय के सदस्यों/संगठनों के साथ बातचीत करेगी।

... यानी 78 लाख से ज्यादा लोगों पर अभी भी लटकी बेदखली की तलवार!

MoTA के अनुसार, जून 2022 तक, दायर किए गए 42.76 लाख व्यक्तिगत दावों में से लगभग 38% यानी 16.33 लाख दावों को खारिज कर दिया गया था। इसी तरह, दायर किए गए 1.69 लाख सामुदायिक दावों में से 40,422 दावों को खारिज कर दिया गया था। वहीं, 2019 के बेदखली आदेश और जून 2022 के बीच के तीन वर्षों में, राज्यों में व्यक्तिगत दावों की संख्या में 1.92 लाख और सामुदायिक अधिकारों में 20,752 की वृद्धि हुई थी। विभिन्न स्तरों पर अस्वीकृत आदेशों की समीक्षा के वनवासियों के पक्ष में काम करने की उम्मीद थी। हालांकि, आधिकारिक आंकड़े कुछ और ही कहते हैं। 2019 बेदखली का आदेश लगभग 17.1 लाख व्यक्तिगत परिवारों को विस्थापित करने वाला था। अगर सुप्रीम कोर्ट अपने पिछले आदेश को बरकरार रखता है तो 16.3 लाख से अधिक परिवारों यानी 78 लाख से ज्यादा लोगों पर अभी भी बेदखली की तलवार लटकी हुई है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, भारतीय परिवार का औसत आकार 4.8 है। इसका मतलब है कि करीब 78 लाख व्यक्तियों को उनकी (स्थानीय) भूमि से बेदखल कर दिया जाएगा। एक लोकतांत्रिक राष्ट्र द्वारा जबरन बेदखली का यह एक अभूतपूर्व आंकड़ा होगा। हालांकि उस समय की गई समीक्षा प्रक्रिया के बाद, खारिज किए गए व्यक्तिगत दावों की संख्या में मामूली कमी आई हैं। यह घटकर 17.10 लाख से 16.33 लाख और सामुदायिक दावों की संख्या 45,045 से 40,422 हो गई हैं।

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