"वनाधिकार कानून-2006 को लागू हुए 16 साल हो गए हैं लेकिन आज तक देश में वन भूमि पर अधिकार के 50% दावों को ही मान्यता (टाइटल/मालिकाना हक) प्रदान की जा सकी है। यही नहीं, जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा राज्यसभा में पेश किए गए आंकड़े बताते हैं कि सामुदायिक दावों की तुलना में व्यक्तिगत दावों में अस्वीकृति (रिजेक्शन) या लंबितता (पेंडेंसी) की दर अधिक है।"
जनजातीय मामलों के केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा ने संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान बुधवार को राज्यसभा में यह जानकारी दी। मुंडा ने खुलासा किया कि वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत, अनुसूचित जनजाति समुदायों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों को इस साल जून माह तक वन भूमि पर किए गए कुल दावों में से 50% को ही मान्यता यानी मालिकाना हक (अधिकार पत्र/टाइटल) प्रदान किया जा सका है।
आंकड़ों से पता चलता है कि वन भूमि (व्यक्तिगत और सामुदायिक दोनों) पर मालिकाना हक के लिए कुल 44.46 लाख दावे किए गए हैं, जिसके सापेक्ष 22.35 लाख दावों को मालिकाना अधिकार पत्र (टाइटल) जारी किए गए हैं। जनजातीय मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा ने माकपा सदस्य एलामारम करीम के एक सवाल के जवाब में बुधवार को राज्यसभा में यह आंकड़ा पेश किया। उन्होंने उच्च सदन में जोर देकर कहा कि उनकी सरकार आदिवासियों और आदिवासी समुदायों के भूमि अधिकारों को हल करने के लिए प्रतिबद्ध है।
बाद में एक विधेयक पर चर्चा के दौरान, मुंडा ने कहा कि भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार वास्तव में पिछली कांग्रेस सरकारों की त्रुटियों को सुधार रही है, "जिनके शासन में, औद्योगिक क्रांति की आड़ में आदिवासियों की जमीनें छीन ली गई थी"। उन्होंने कहा कि सरकार वन भूमि पर अधिक से अधिक सामुदायिक (भूमि) दावों को प्रदान करने और तेजी लाने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है।
"द हिंदू" की एक रिपोर्ट के अनुसार, माकपा सदस्य एलामारम करीम के प्रश्न का उत्तर देते हुए, केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा ने आंकड़े रखते हुए बताया कि व्यक्तिगत दावों में लंबितता और अस्वीकृति की दर ज्यादा है। वन अधिकार अधिनियम 2006 (FRA) के तहत वन भूमि पर कुल प्राप्त 42.76 लाख व्यक्तिगत दावों में से 21.33 लाख दावेदारों को टाइटल (अधिकार पत्र) जारी किए गए हैं। जबकि इसकी तुलना में, कुल 1.69 लाख सामुदायिक दावों में से 1.02 लाख मामलों में टाइटल (अधिकार पत्र) जारी किए जा चुके हैं।
कई राज्यों में दावों और वितरित टाइटल में भारी अंतर
केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा द्वारा प्रस्तुत किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि कुछ राज्यों में दावों की संख्या और वितरित शीर्षकों की संख्या के बीच दूसरों की तुलना में बड़ा अंतर था। उदाहरण के लिए, बिहार में 8,000 से अधिक व्यक्तिगत दावों के विरुद्ध केवल 121 शीर्षक वितरित किए गए हैं। जबकि उत्तराखंड में, वन भूमि पर 3,000 से अधिक सामुदायिक दावों के खिलाफ सिर्फ एक शीर्षक वितरित किया गया है। तमिलनाडु में, 33,700 से अधिक व्यक्तिगत दावों के मुकाबले सिर्फ 8,144 खिताब दिए गए थे और पश्चिम बंगाल में, 10,000 से अधिक सामुदायिक दावों के विरुद्ध केवल 686 शीर्षक वितरित किए गए थे।
राज्य की सरकारें जवाबदेह: मुंडा
वनाधिकार कानून के तहत भूमि दावों को स्वीकृति प्रदान के संबंध में केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा ने कहा कि हालांकि FRA (एफआरए) के कार्यान्वयन के लिए संबंधित राज्य और केंद्र शासित प्रदेश की सरकारें जिम्मेदार हैं, उसके बावजूद जनजातीय मामलों का मंत्रालय अधिनियम का "कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है।" उन्होंने आगे कहा कि इसके लिए बैठकें और सम्मेलन आयोजित करने के अलावा, मंत्रालय समय-समय पर राज्यों को परामर्श और दिशानिर्देश जारी करता रहता है।
आंध्र प्रदेश, ओडिशा, त्रिपुरा, केरल व छत्तीसगढ़ का रिकॉर्ड अच्छा तो बिहार और उत्तराखंड का खराब
पिछले मानसून सत्र में भी लोकसभा में यह मामला उठा था। तब केंद्रीय राज्य मंत्री बिशेश्वर टुडू ने एक लिखित उत्तर में बताया था कि आंकड़ों के अनुसार, 31 मार्च तक किए गए दावों के सापेक्ष मालिकाना हक प्रदान करने वाले राज्यों की सूची में आंध्र प्रदेश सबसे ऊपर था। आंध्र ने राज्य में किए गए दावों का 77 प्रतिशत यानी 2.12 लाख टाइटल दिए हैं। ओडिशा, त्रिपुरा, केरल, झारखंड, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे अन्य राज्यों ने भी बड़ी संख्या में भूमि टाइटल प्रदान किए हैं।
मानसून सत्र के आंकड़े
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, "केंद्रीय राज्य मंत्री बिशेश्वर टुडू ने एक लिखित उत्तर में बताया था कि, कुल 44.29 लाख दावे दायर किए गए हैं और 22.34 लाख शीर्षक (21.32 लाख व्यक्तिगत और 1.02 लाख सामुदायिक दावों सहित) वितरित किए गए हैं। वितरित शीर्षकों का सबसे कम प्रतिशत गोवा (दावों का 1.47%), बिहार (1.5%) और उत्तराखंड (2.7%) में है।
खास है कि "अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के प्रावधानों के तहत, वन भूमि और वन संसाधनों का उपयोग करने के लिए अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों के बीच पात्र व्यक्तियों और समुदाय के अधिकारों को मान्यता दी जाती है। 2006 के वन अधिकार अधिनियम में स्व-खेती और निवास के अधिकार शामिल हैं, जिन्हें व्यक्तिगत अधिकार माना जाता है, जबकि चराई, मछली पकड़ना, जंगल में जल निकायों तक पहुंच, पारंपरिक मौसमी संसाधनों तक पहुंच व वन संसाधनों के प्रबंधन आदि को सामुदायिक अधिकार माना जाता है।
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आंकड़ों से पता चलता है कि वन भूमि (व्यक्तिगत और सामुदायिक दोनों) पर मालिकाना हक के लिए कुल 44.46 लाख दावे किए गए हैं, जिसके सापेक्ष 22.35 लाख दावों को मालिकाना अधिकार पत्र (टाइटल) जारी किए गए हैं। जनजातीय मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा ने माकपा सदस्य एलामारम करीम के एक सवाल के जवाब में बुधवार को राज्यसभा में यह आंकड़ा पेश किया। उन्होंने उच्च सदन में जोर देकर कहा कि उनकी सरकार आदिवासियों और आदिवासी समुदायों के भूमि अधिकारों को हल करने के लिए प्रतिबद्ध है।
बाद में एक विधेयक पर चर्चा के दौरान, मुंडा ने कहा कि भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार वास्तव में पिछली कांग्रेस सरकारों की त्रुटियों को सुधार रही है, "जिनके शासन में, औद्योगिक क्रांति की आड़ में आदिवासियों की जमीनें छीन ली गई थी"। उन्होंने कहा कि सरकार वन भूमि पर अधिक से अधिक सामुदायिक (भूमि) दावों को प्रदान करने और तेजी लाने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है।
"द हिंदू" की एक रिपोर्ट के अनुसार, माकपा सदस्य एलामारम करीम के प्रश्न का उत्तर देते हुए, केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा ने आंकड़े रखते हुए बताया कि व्यक्तिगत दावों में लंबितता और अस्वीकृति की दर ज्यादा है। वन अधिकार अधिनियम 2006 (FRA) के तहत वन भूमि पर कुल प्राप्त 42.76 लाख व्यक्तिगत दावों में से 21.33 लाख दावेदारों को टाइटल (अधिकार पत्र) जारी किए गए हैं। जबकि इसकी तुलना में, कुल 1.69 लाख सामुदायिक दावों में से 1.02 लाख मामलों में टाइटल (अधिकार पत्र) जारी किए जा चुके हैं।
कई राज्यों में दावों और वितरित टाइटल में भारी अंतर
केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा द्वारा प्रस्तुत किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि कुछ राज्यों में दावों की संख्या और वितरित शीर्षकों की संख्या के बीच दूसरों की तुलना में बड़ा अंतर था। उदाहरण के लिए, बिहार में 8,000 से अधिक व्यक्तिगत दावों के विरुद्ध केवल 121 शीर्षक वितरित किए गए हैं। जबकि उत्तराखंड में, वन भूमि पर 3,000 से अधिक सामुदायिक दावों के खिलाफ सिर्फ एक शीर्षक वितरित किया गया है। तमिलनाडु में, 33,700 से अधिक व्यक्तिगत दावों के मुकाबले सिर्फ 8,144 खिताब दिए गए थे और पश्चिम बंगाल में, 10,000 से अधिक सामुदायिक दावों के विरुद्ध केवल 686 शीर्षक वितरित किए गए थे।
राज्य की सरकारें जवाबदेह: मुंडा
वनाधिकार कानून के तहत भूमि दावों को स्वीकृति प्रदान के संबंध में केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा ने कहा कि हालांकि FRA (एफआरए) के कार्यान्वयन के लिए संबंधित राज्य और केंद्र शासित प्रदेश की सरकारें जिम्मेदार हैं, उसके बावजूद जनजातीय मामलों का मंत्रालय अधिनियम का "कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है।" उन्होंने आगे कहा कि इसके लिए बैठकें और सम्मेलन आयोजित करने के अलावा, मंत्रालय समय-समय पर राज्यों को परामर्श और दिशानिर्देश जारी करता रहता है।
आंध्र प्रदेश, ओडिशा, त्रिपुरा, केरल व छत्तीसगढ़ का रिकॉर्ड अच्छा तो बिहार और उत्तराखंड का खराब
पिछले मानसून सत्र में भी लोकसभा में यह मामला उठा था। तब केंद्रीय राज्य मंत्री बिशेश्वर टुडू ने एक लिखित उत्तर में बताया था कि आंकड़ों के अनुसार, 31 मार्च तक किए गए दावों के सापेक्ष मालिकाना हक प्रदान करने वाले राज्यों की सूची में आंध्र प्रदेश सबसे ऊपर था। आंध्र ने राज्य में किए गए दावों का 77 प्रतिशत यानी 2.12 लाख टाइटल दिए हैं। ओडिशा, त्रिपुरा, केरल, झारखंड, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे अन्य राज्यों ने भी बड़ी संख्या में भूमि टाइटल प्रदान किए हैं।
मानसून सत्र के आंकड़े
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, "केंद्रीय राज्य मंत्री बिशेश्वर टुडू ने एक लिखित उत्तर में बताया था कि, कुल 44.29 लाख दावे दायर किए गए हैं और 22.34 लाख शीर्षक (21.32 लाख व्यक्तिगत और 1.02 लाख सामुदायिक दावों सहित) वितरित किए गए हैं। वितरित शीर्षकों का सबसे कम प्रतिशत गोवा (दावों का 1.47%), बिहार (1.5%) और उत्तराखंड (2.7%) में है।
खास है कि "अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के प्रावधानों के तहत, वन भूमि और वन संसाधनों का उपयोग करने के लिए अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों के बीच पात्र व्यक्तियों और समुदाय के अधिकारों को मान्यता दी जाती है। 2006 के वन अधिकार अधिनियम में स्व-खेती और निवास के अधिकार शामिल हैं, जिन्हें व्यक्तिगत अधिकार माना जाता है, जबकि चराई, मछली पकड़ना, जंगल में जल निकायों तक पहुंच, पारंपरिक मौसमी संसाधनों तक पहुंच व वन संसाधनों के प्रबंधन आदि को सामुदायिक अधिकार माना जाता है।
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