जम्मू-कश्मीर में पुस्तकों पर प्रतिबंध: लेखक, नागरिक समाज और राजनीतिक दलों ने किया विरोध

Written by sabrang india | Published on: August 9, 2025
जम्मू-कश्मीर प्रशासन द्वारा 25 पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद, प्रमुख नागरिक समाज कार्यकर्ता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थक और विभिन्न राजनीतिक दलों ने इस निर्णय का विरोध किया और केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासन से इस प्रतिबंध को वापस लेने का आग्रह किया।


साभार : सोशल मीडिया एक्स

जम्मू-कश्मीर प्रशासन द्वारा 25 पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाए जाने के एक दिन बाद, प्रमुख नागरिक समाज कार्यकर्ताओं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थकों और विभिन्न राजनीतिक दलों ने इस निर्णय का विरोध किया और केंद्र शासित प्रदेश की प्रशासनिक इकाई से इस प्रतिबंध को हटाने की मांग की।

द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, किताबों को प्रतिबंधित करने के प्रशासनिक कदम को ‘असहमति का दमन’, ‘तानाशाही’ और ‘लोकतांत्रिक आवाज़ों का गला घोंटना’ करार देते हुए विरोध करने वाले तमाम लोगों ने भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार से राज्य का दर्जा बहाल कर ‘जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकारों के हनन को रोकने’ का भी आह्वान किया।

हालांकि, इसी बीच गुरुवार 7 अगस्त को जम्मू-कश्मीर पुलिस ने राजधानी श्रीनगर समेत कश्मीर घाटी के कई इलाकों में पुस्तक विक्रेताओं की दुकानों पर छापेमारी शुरू कर दी, ताकि प्रतिबंधित साहित्य की पहचान कर उसे जब्त किया जा सके और प्रतिबंध संबंधी आदेश को लागू किया जा सके।

प्रशासन का कहना है कि प्रतिबंधित साहित्य झूठे नैरेटिव को बढ़ावा देता है, साथ ही यह अलगाववादी विचारधाराओं को प्रोत्साहित करता है और भारत की संप्रभुता व एकता के लिए खतरा पैदा करता है।

इस संबंध में श्रीनगर जिला पुलिस के प्रवक्ता ने कहा कि यह कार्रवाई विध्वंसकारी एवं राष्ट्र-विरोधी सामग्री के खिलाफ व्यापक अभियान का हिस्सा है, जो क्षेत्र में शांति भंग कर सकती है या राष्ट्रीय एकता को क्षति पहुंचा सकती है। उन्होंने बताया कि तलाशी की प्रक्रिया शांतिपूर्ण ढंग से पूरी की गई और इसमें सभी कानूनी प्रक्रियाओं का पालन किया गया।

ज्ञात हो कि किताबों के संबंध में यह प्रतिबंध आदेश मंगलवार को जम्मू-कश्मीर के गृह विभाग द्वारा जारी किया गया, जो सीधे उपराज्यपाल मनोज सिन्हा को रिपोर्ट करता है।

‘पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाना ‘हमारी संस्कृति और लोकतंत्र की अवधारणा के विरुद्ध है’

इस विषय में प्रतिक्रिया देते हुए डेविड देवदास, जिनकी पुस्तक ‘इन सर्च ऑफ अ फ्यूचर - द स्टोरी ऑफ कश्मीर’ प्रतिबंधित पुस्तकों की सूची में शामिल है, ने कहा कि पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाना हमारी संस्कृति और लोकतांत्रिक मूल्यों की अवधारणा के खिलाफ है।

द वायर से बातचीत में उन्होंने कहा कि इतिहास ने बार-बार यह दर्शाया है कि पुस्तकों को जलाना या उन पर प्रतिबंध लगाना सभ्यताओं की प्रगति में बाधा उत्पन्न करता है।

देवदास ने कहा कि उनकी पुस्तक पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की शांति पहल और कश्मीर समस्या के समाधान के लिए उठाए गए कदमों का पुरज़ोर समर्थन करती है।

उन्होंने आगे कहा कि निरंतर संघर्ष से लाभ उठाने वाले स्वार्थी तत्वों ने हमेशा इस पुस्तक से द्वेष रखा है। यह उन लोगों के लिए असहज करने वाली है जो सभ्यताओं के टकराव के एजेंडे का समर्थन करते हैं। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि वे पुस्तकें, जिन्होंने सत्य को उजागर किया है, संघर्ष की साज़िशों और विदेशी शक्तियों की रणनीतियों को बेनकाब किया है और शांति की दिशा में योगदान दिया है-उन्हीं को निशाना बनाया जा रहा है।

प्रशासन के इस निर्णय का विरोध करते हुए चिंतित नागरिकों के एक अनौपचारिक समूह ‘फोरम फॉर ह्यूमन राइट्स’ ने कहा कि यह कदम असहमति की आवाज को सेंसरशिप के जरिए दबाने का एक और उदाहरण है। उन्होंने यह भी कहा कि यह प्रवृत्ति पूरे भारत में फैल चुकी है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में यह विशेष रूप से गंभीर रूप से सामने आई है, विशेषकर 2019 में राज्य के विभाजन और केंद्र शासित प्रदेश में परिवर्तन के बाद।

उल्लेखनीय है कि पुस्तकों पर प्रतिबंध से संबंधित अधिसूचना अनुच्छेद 370 के हटाए जाने की पांचवीं वर्षगांठ के दिन जारी की गई। फोरम का मानना है कि यह कदम जम्मू-कश्मीर में नागरिक अधिकारों के निरंतर दमन का प्रतीक है। संगठन ने इस निर्णय के खिलाफ चेतावनी भी जारी की है।

फोरम ने एक बयान जारी करते हुए कहा कि यह अधिसूचना, जिसके बाद जम्मू-कश्मीर में पुस्तकों की दुकानों पर छापे मारे गए हैं, इस बात का स्पष्ट संकेत है कि लोगों पर बढ़ता दमन हमारे संदेहों को सही साबित करता है। हमें इस बात का भी डर है कि भविष्य में जब्त की गई किताबें अपने पास रखना भी अपराध माना जाएगा। उन्होंने कहा कि पुलिस की छापेमारी और आपत्तिजनक साहित्य रखने के आरोपों का दुरुपयोग पहले से ही कठोर यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम) और पीएसए (सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम) के तहत मामलों में किया जा रहा है। यह अधिसूचना इस कुप्रथा को कानूनी रूप दे रही है और इसे तत्काल वापस लिया जाना चाहिए।

‘ये प्रतिबंध अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर क्रूर हमला है’

वहीं, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने इस प्रतिबंध को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक और क्रूर हमला बताया है।

एक बयान में पार्टी के पोलित ब्यूरो ने उपराज्यपाल सिन्हा पर भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करने और भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का आक्रामक हनन करने का आरोप लगाया है।

पार्टी ने एक बयान में कहा है, ‘अलगाववाद और आतंकवाद को बढ़ावा देने के बहाने, उनके प्रशासन ने कश्मीर के इतिहास और वर्तमान मुद्दों की गहराई को उजागर करने वाली 25 पुस्तकों पर प्रतिबंध लगा दिया है। माकपा इन प्रतिबंधित पुस्तकों पर लगी रोक को तुरंत हटाने की मांग करती है।’

पार्टी ने जम्मू-कश्मीर के राज्य का दर्जा बहाल करने की भी मांग की। बयान में कहा गया कि निर्वाचित सरकार को पूर्ण प्रशासनिक अधिकार दिए जाने चाहिए। केवल ऐसे उपायों से ही जम्मू-कश्मीर के लोगों का विश्वास फिर से हासिल किया जा सकता है।

इस मुद्दे पर नागरिक अधिकार कार्यकर्ता और फ्री स्पीच कलेक्टिव की सह-संस्थापक गीता शेषु ने कहा कि जम्मू-कश्मीर प्रशासन द्वारा प्रतिबंधित की गई पुस्तकें प्रमुख शिक्षाविदों, शोधकर्ताओं और पत्रकारों द्वारा लिखित हैं, जो कथित तौर पर कश्मीर संघर्ष का एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक विश्लेषण प्रस्तुत करती हैं।

शेषु ने सोशल मीडिया एक्स पर एक पोस्ट में कहा, ‘यह बेतुकी हरकतें खत्म होने का नाम नहीं ले रही हैं। पुलिस स्टेशनरी की दुकानों और स्कूल-कॉलेज की किताबों की दुकानों में शिक्षाविदों, शोधकर्ताओं और पत्रकारों की किताबें खोज रही है। जल्द ही शिक्षा ही एक ‘कट्टरपंथी’ गतिविधि बन जाएगी, और प्रोपगैंडा का बोलबाला होगा।’

‘प्रतिबंध ने जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की स्थिति को लेकर चिंताएं पैदा की दीं’

वहीं, सत्तारूढ़ नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) ने भी इस फैसले का विरोध करते हुए कहा है कि इस प्रतिबंध ने जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की स्थिति को लेकर गंभीर चिंताएं उत्पन्न कर दी हैं।

एनसी प्रवक्ता इमरान नबी डार ने कहा, ‘यदि यह साबित हो कि इन किताबों ने हिंसा भड़काई है या आतंकवाद का समर्थन किया है, तो सरकार का उन पर प्रतिबंध लगाना उचित है। लेकिन एजी नूरानी जैसे सम्मानित लेखकों की गहन शोध और आलोचनात्मक कृतियों पर प्रतिबंध लगाना गंभीर चिंताएं उत्पन्न करता है।’

जानकारी के अनुसार, प्रतिबंधित पुस्तकों की सूची में भारतीय संवैधानिक विशेषज्ञ और बुद्धिजीवी एजी नूरानी की बहुप्रशंसित पुस्तक ‘द कश्मीर डिस्प्यूट’, ब्रिटिश लेखिका एवं इतिहासकार विक्टोरिया स्कोफील्ड की ‘कश्मीर इन कॉन्फ्लिक्ट - इंडिया, पाकिस्तान एंड द अनएंडिंग वॉर’, बुकर पुरस्कार विजेता अरुंधति रॉय की ‘आजादी’, और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर सुमंत्र बोस की ‘कंटेस्टेड लैंड्स’ शामिल हैं।

इतिहासकार विक्टोरिया स्कोफ़ील्ड ने द टेलीग्राफ को बताया कि गृह विभाग द्वारा उनकी पुस्तक और अन्य पुस्तकों पर लगाए गए ‘झूठे नैरेटिव को बढ़ावा देने’ और ‘आतंकवाद का महिमामंडन’ करने के आरोप ‘पूरी तरह से झूठे’ हैं। उन्होंने कहा कि यह प्रतिबंध भारत के लोकतंत्र के लिए एक ‘काला दिन’ है।

उन्होंने लंदन स्थित एक अखबार को बताया, ‘मेरा मानना है कि भारत के उदारवाद की खासियत यह थी कि यह किताब इतने वर्षों तक प्रचलन में बनी रही। दुख की बात है कि यह ताजा घटनाक्रम किताब पर नहीं, बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर असर डाल रहा है, जो धीरे-धीरे कम होती जा रही है।

द वायर से बात करते हुए विपक्षी पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता वाहिद पारा ने कहा कि किताबों पर प्रतिबंध का इस्तेमाल ‘न केवल इतिहास और बौद्धिक विविधता को मिटाने के लिए सत्तावादी नियंत्रण के एक हथियार के रूप में किया गया है, बल्कि यह आने वाले समय में और भी तीव्र दमन का संकेत है।’

पारा ने आगे कहा कि यह प्रवृत्ति जर्मनी के मामले में स्पष्ट रूप से देखी गई थी। जिस तरह कश्मीर में लोकतांत्रिक आवाजों, विचारों, अभिव्यक्ति और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की मूलभूत आजादियों को दबाया जा रहा है, उससे आक्रोश और अलगाव गहराने की संभावना है। उन्होंने कहा कि विचारों का मुकाबला केवल विचारों से होना चाहिए, सेंसरशिप से नहीं। विचारों को दबाया नहीं जा सकता; बल्कि सेंसरशिप उन्हें और अधिक प्रासंगिक बना देती है।

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