SC को सौंपे गए राज्य सरकार के हलफनामे का विश्लेषण 04, सितंबर 2019
वाइल्ड लाइफ फ़र्स्ट द्वारा वनाधिकार अधिनियम (FRA) 2006 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाले मुकदमे में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप में, छत्तीसगढ़ राज्य ने जुलाई 2019 में दायर अपने हलफनामे में न केवल वनाधिकार की मान्यता में खामियों को (पहचाना) उजागर करता है बल्कि आगे बढ़ने का रास्ता भी सुझाता है।
वनवासियों के भूमि दावों को "अस्वीकार" करने के लिए विभिन्न राज्यों द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा उठाए गए सवालों के जवाब के रूप में दायर अपने हलफनामे में, छत्तीसगढ़ राज्य ने कुछ कठोर टिप्पणियां की हैं। यह स्वीकार करने के अलावा कि "अस्वीकृति के लिए अपनाई गई प्रक्रिया वन अधिकार अधिनियम के तहत नियमों के अनुसार नहीं थी", यह भी कहा कि जब दावों को दर्ज करने या स्पष्टीकरण की आवश्यकता होती है तो वनवासियों को अधिकारियों द्वारा ठीक से सूचित तक नहीं किया जाता था। राज्य सरकार ने सभी 'अस्वीकृत' दावों की समीक्षा के लिए दो साल का समय मांगा है और कहा है कि कानून के तहत "बेदखली का सवाल ही नहीं उठता।"
6 अगस्त 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने वन अधिकार अधिनियम, 2006 के कार्यान्वयन के मामले पर अनुपालन हलफनामा दायर नहीं करने वाले राज्यों को एक पखवाड़े के भीतर ऐसा करने का निर्देश दिया। अदालत 2008 में वाइल्डलाइफ फर्स्ट बनाम यूनियन ऑफ इंडिया द्वारा एफआरए की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका का जवाब दे रही थी। फरवरी 2019 में, याचिका पर सुनवाई करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने अचानक राज्य सरकारों को "अतिक्रमण करने वालों" या "अवैध वनवासियों" को बेदखल करने का निर्देश दिया था। इस सुनवाई में, जिस ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर तक चौंकाया और जिसके कारण देशव्यापी विरोध प्रदर्शन हुए, केंद्र सरकार अनुपस्थित थी। जनजातीय मामलों के मंत्रालय (एमओटीए) ने भी इस मामले में आक्रामक रूप से हस्तक्षेप किया और व्यापक विरोध के चलते केंद्र सरकार को अदालत द्वारा आदेशित बेदखली के खिलाफ, उसी बेंच में समीक्षा के लिए जाना पड़ा और एक सप्ताह बाद बेदखली आदेश पर अस्थायी रूप से रोक लगा दी गई थी!
इसकी कार्रवाई के चार स्तंभों में, आदिवासियों और पारंपरिक वनवासियों के भूमि और आजीविका का अधिकार एक है। CJP, जो अदालतों और उसके बाहर मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों को नेविगेट करने में अपनी विशेषज्ञता के साथ इस मुद्दे पर सक्रिय रही है, और 2017 से अदालती लड़ाइयों आदि में ऑल इंडिया यूनियन ऑफ़ फ़ॉरेस्ट वर्किंग पीपल्स (AIUFWP) के साथ साझेदारी कर रहा है, इसमें कानूनी रूप से समुदाय के नेताओं के दुर्भावनापूर्ण अभियोजन के खिलाफ लड़ाई और सर्वोच्च न्यायालय में वन अधिकार अधिनियम 2006 का बचाव करना शामिल है।
फरवरी 2019 के सुप्रीम कोर्ट आदेश ने वनों में रहने वाले समुदायों के बीच खासा तनाव पैदा कर दिया था और देश के जंगलों में रह रहे आबादी के 8% हिस्से को सदमे में डूबो दिया था।इसे "असंवैधानिक" कहे जाने को लेकर, उन लोगों के भी कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा जो दशकों से वन अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे थे।
यही कारण था कि 24 जुलाई को सुनवाई की अगली तारीख तक, SC के समक्ष 19 से अधिक हस्तक्षेप आवेदन दायर हो गए थे और बहुत सारे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय निकायों ने भारत सरकार से एफआरए की रक्षा करने और वनवासियों को उनकी भूमि से बेदखल करने से रोकने का आग्रह किया था। संबंधित व्यक्तियों और संगठनों के विभिन्न समूहों द्वारा दायर, याचिकाओं में प्रत्यक्ष तौर से सभी ने वन अधिकार अधिनियम 2006 की संवैधानिक वैधता का बचाव किया कि एफआरए 2006 एक ऐतिहासिक कानून रहा है जो पारंपरिक वन निवासियों, आदिवासियों और दलितों के आजीविका अधिकारों को मान्यता प्रदान करने में एक न्यायशास्त्रीय बदलाव लाता है। 19 हस्तक्षेप याचिकाओं में एक सेवानिवृत्त नौकरशाहों और शिक्षाविदों, शरद लेले और नंदिनी सुंदर द्वारा दायर किया गया है। एक अन्य याचिका दो आदिवासी महिला नेताओं, सुकालो गोंड और निवादा राणा द्वारा दायर की गई है, जिसे AIUFWP और CJP का समर्थन प्राप्त है।
महत्वपूर्ण आदिवासी आबादी वाले 25 राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट से खारिज किए गए "17 लाख से ज्यादा दावों की समीक्षा" के लिए और समय मांगा, और इसके माध्यम से समुदायों ने वन भूमि पर, जिस पर वे पीढ़ियों से बसे हैं, अपने अधिकारों की मांग की। यही नहीं, इन सभी राज्यों ने वनाधिकार दावों को खारिज करने के अपने स्वयं के फैसलों में "प्रक्रियात्मक खामियों" का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट में अलग-अलग हलफनामे दायर किए। यह पिछले 13 वर्षों में लिए गए निर्णयों का एक संचयन था, जब से एफआरए को लागू किया जाना था।
इस पर, न्यायालय ने राज्य सरकारों के मुख्य सचिवों को उपरोक्त सभी पहलुओं को शामिल करते हुए अपना विस्तृत हलफनामा दायर करने और निम्नलिखित दस्तावेजों को रिकॉर्ड पर रखने का निर्देश दिया।
अस्वीकृति आदेश;
निपटान के लिए अपनाई गई प्रक्रिया का विवरण;
दावों को खारिज करने का मुख्य आधार क्या है।
क्या आदिवासियों को साक्ष्य प्रस्तुत करने का अवसर दिया गया था;
और यदि हाँ, तो किस हद तक।
क्या उचित आदेश पारित किए गए हैं?
अनुसूचित जनजाति वर्ग एवं अन्य परम्परागत वन निवासी श्रेणी के ऐसे लोगों, जो इन क्षेत्रों में रह रहे हैं और ऐसे व्यक्ति जिन्हें आदिवासी नहीं माना जा सकता है, का श्रेणीवार विवरण।
पारित किए गए आदेशों का रिकॉर्ड और दावों के संबंध में कार्रवाई का क्रम जो वास्तविक नहीं पाया गया है।
आदिवासियों और वनवासियों के भूमि और आजीविका अधिकारों के लिए महत्वपूर्ण इस मामले में सितंबर के महीने में विस्तृत दलीलें फिर से शुरू होने की संभावना है।
"उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया": छत्तीसगढ़
छत्तीसगढ़ राज्य ने जुलाई 2019 में दायर अपने हलफनामे में स्वीकार किया है कि सत्यापन प्रक्रिया ही दोषपूर्ण रही है। हलफनामे में कहा गया है कि विस्तृत जांच में यह पाया गया कि कई मामलों में दावेदारों को अस्वीकृति की सूचना नहीं दी गई थी, जिनके दावे खारिज/अनुशंसित नहीं थे। "इसलिए, ऐसे मामलों में नियम 2007 और एफआरए (संशोधन) नियम 2012 की धारा 12ए (3) के अनुसार उचित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए, ताकि सभी पात्र दावेदारों को स्थापित नियमों के अनुसार कवर किया जा सके।"
एफआरए अधिनियम 2006 की भावना और उसके नियमों के अनुसार प्रक्रिया का पालन किया गया, की बाबत हलफनामा कहता है, "अस्वीकृति के लिए अपनाई गई प्रक्रिया वन अधिकार नियमों के अनुसार नहीं थी और इसलिए बड़ी संख्या में मामले ग्राम सभा/उपमंडल स्तरीय समिति (एसडीएलसी)/जिला स्तरीय समिति (डीएलसी) स्तर पर अस्वीकृत हुए। उचित प्रक्रिया के अभाव में ऐसे मामलों में पारित अस्वीकृति आदेश निष्फल/अमान्य और शून्य हैं और इस प्रकार उन्हें अस्वीकृति की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है।”
त्रिस्तरीय निगरानी समिति के सवाल पर राज्य ने यह स्वीकारते हुए कहा, "कि अधिकांश मामलों में, आदिवासियों को उनके दावों की अस्वीकृति के आदेशों के साथ सूचना नहीं दी गई है। साथ ही यह भी स्पष्ट नहीं है कि क्या" त्रिस्तरीय अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (..) और अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) नियम, 2007 (..) के तहत गठित निगरानी समिति ने इन सभी पहलुओं की मॉनिटर किया है?
ग्राम स्तर पर व्यक्तिगत वन अधिकारों के दावों को प्रस्तुत करने के बाद, वन अधिकार समिति (FRA) को दावेदारों की उपस्थिति में मौके पर सत्यापन करना होता है और दावेदारों द्वारा उपलब्ध कराए गए साक्ष्यों/दस्तावेजों की जांच करनी चाहिए। जांच करने पर, जो दावे उचित या अनुचित पाए जाते हैं, उन पर ग्राम सभा की बैठक में चर्चा की जानी चाहिए और ग्राम सभा द्वारा ऐसे दावों की सिफारिश या सिफारिश न करने का प्रस्ताव पारित करके उनका निपटान किया जाना चाहिए। दावों की सिफारिश न करने की स्थिति में ऐसे दावेदारों को कारण सहित लिखित सूचना देनी चाहिए थी।
हालांकि, हलफनामे में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि "...सत्यापन के दौरान, यह पाया गया कि कई मामलों में उन दावेदारों को अस्वीकृति की सूचना नहीं दी गई थी जिनके दावों को खारिज कर दिया गया था/अनुशंसित नहीं किया गया था।"
अंत में हलफनामा स्पष्ट करता है कि राज्य ने ऐसे सभी मामलों की समीक्षा और पुनर्विचार करने का निर्णय लिया है जिनमें नियमों और प्रक्रिया के अनुपालन में कमियां पाई गई हैं।
सक्षम प्राधिकारी के प्रश्न पर जो ग्राम सभा स्तर पर एफआरसी द्वारा दावों के परीक्षण और क्षेत्र सत्यापन के द्वारा दावेदार की उपस्थिति में, ऐसे दावों को स्वीकार/अस्वीकार करता है, वह ग्राम सभा है जो अपने संकल्प के माध्यम से अनुशंसा करती है/अनुशंसा नहीं करती है और उन्हें उप-विभागीय स्तर की समिति को अग्रेषित करती है जो दावों की फिर से जांच करती है और या तो अपूर्ण पाए जाने पर ग्राम सभा को वापस भेजती है या दावों को स्वीकृत करती है और अंतिम निर्णय के लिए जिला स्तरीय समिति को भेजती है। जिला स्तरीय समिति के पास दावे को शीर्षक जारी करने/अस्वीकार करने का अंतिम अधिकार है।
इसके अलावा, यह भी नोट किया गया, "दावे की अस्वीकृति के बारे में सूचना/तर्कसंगत आदेश ग्राम सभा द्वारा लिखित रूप में दावेदारों को नहीं बताए गए थे और दावेदार द्वारा याचिका को प्राथमिकता देने के चलते बड़ी संख्या में ऐसे दावे, 2007 के नियमों के नियम 14 के तहत, एसडीएलसी को नहीं भेजे गए थे।
हलफनामे की सबसे सुखद बात यह है कि इसमें स्वीकार किया गया है कि एफआरए 2006 के तहत बेदखली की कोई प्रक्रिया नहीं है। इस अधिनियम के तहत जो दावे अपात्र पाए गए, उनमें संबंधित विभाग यानी वन विभाग और राजस्व विभाग उनके प्रासंगिक कानूनों के तहत बेदखली के लिए कार्रवाई करता है।
छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने अपने हलफनामे में अधिनियम 2006 के तहत प्राप्त सभी दावों को एसडीएलसी और उसके बाद जिला स्तर पर सिफारिश के लिए ग्राम सभा स्तर पर नए सिरे से तय करने का भी निर्देश दिया, ताकि सभी दावों को अधिनियम 2006 और नियम, 2007 के प्रावधानों के अनुसार "सख्ती के साथ" तय किया जा सके।
हलफनामे में कहा गया है कि उसने अपने सर्कुलर दिनांक 22.01.2019, 14.02.2019, 25.02.2019 और 06.06.2019 को पहले ही जिले के सभी कलेक्टरों को विस्तृत दिशा-निर्देश भी जारी कर दिया है।
राज्य सरकार ने यह भी निर्णय लिया है कि अधिनियम, 2006 के तहत प्राप्त दावों पर पुनर्विचार करते हुए जिन दावों को खारिज किया गया है, उन्हें सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाएगी और इस पर पहले चरण में विचार किया जाएगा।
'वास्तविक' अतिक्रमणकारियों का निर्धारण करना
यहां तक कि अतिक्रमण के मामलों से निपटने के लिए भी विस्तृत प्रक्रियाएं निर्धारित की गई हैं। इसके लिए कहा गया कि छत्तीसगढ़ भू-राजस्व संहिता, 1959 के अनुसार, "हलका पटवारी धारक/अतिक्रमणकारियों और ग्रामीणों की उपस्थिति में सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार भूमि अभिलेख आदि का निरीक्षण करने के बाद, प्रतिवेदन तैयार कर आगे की कार्यवाही हेतु तहसीलदार को भिजवाता है। इसके बाद शासकीय भूमि से अतिक्रमण हटाने के लिए तहसीलदार, हलका पटवारी से जांच प्रतिवेदन प्राप्त कर, प्रकरण दर्ज करता है और अतिक्रमणकर्ता को नोटिस जारी कर सुनवाई का उचित अवसर देकर न्यायालय में प्रस्तुत साक्षी एवं साक्ष्य के आधार पर उचित आदेश पारित करता है।”
हालांकि, इसने कहा कि पहले खारिज किए गए ऐसे सभी मामलों की समीक्षा की जा रही है। और इसलिए "अस्वीकृति का मुद्दा ही नहीं उठता।"
आगे बढ़ने का रास्ता
हलफनामे में एफआरए कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए राज्य द्वारा उठाए जाने वाले कुछ महत्वपूर्ण कदमों पर भी प्रकाश डाला गया है। इसमें कहा गया है कि अब तक भूमि प्राप्त नहीं कर पाने वाले सभी पात्र दावेदारों को ऐसे विलेखों का वितरण नियमानुसार यथाशीघ्र प्रत्येक पंचायत स्तर पर नि:शुल्क उपलब्ध कराया जाए। जिन ग्राम सभाओं में अब तक एफआरसी का गठन नहीं हुआ है, वहां ऐसी समितियां गठित करना सुनिश्चित किया जाएगा। इसने कहा कि एफआरए नियमों में उल्लिखित प्रत्येक साक्ष्य दस्तावेज समान रूप से महत्वपूर्ण था और इसलिए किसी विशेष दस्तावेज के लिए कोई विशेष जोर नहीं दिया जाना चाहिए। एक महत्वपूर्ण बिंदु ओटीएफडी के लिए, दावों का निर्धारण का है। जो इस बात पर जोर देता है कि 13 दिसंबर 2005 के दिन या उससे पहले उनके पास वन भूमि होने और तीन पीढ़ियों से उनकी वास्तविक आजीविका गतिविधियों के लिए वन भूमि पर रहने और निर्भर होने के साक्ष्य (तीन पीढ़ियों से उनके पास वन भूमि रखने के रिकॉर्ड के विपरीत (75 वर्ष-एक आंकड़ा जिस का एफआरए में उल्लेख नहीं किया गया है) के तथ्य को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए।
हलफनामे में डीएलसी को प्रत्येक ग्राम पंचायत स्तर पर दावा प्रस्तुत करने की प्रक्रिया शुरू करने और समीक्षा करने के साथ ही, उन कारणों को रिकॉर्ड करने, जहां कोई सामुदायिक वन अधिकार वितरित नहीं किया गया है, के लिए "जिम्मेदारी तय करने" को कहा गया है। यही नहीं, हलफनामे में अधिनियम के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए "संवेदनशीलता" दिखाने के साथ "कार्यशालाओं और प्रशिक्षण" की आवश्यकता पर भी बल दिया गया।
वाइल्ड लाइफ फ़र्स्ट द्वारा वनाधिकार अधिनियम (FRA) 2006 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाले मुकदमे में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप में, छत्तीसगढ़ राज्य ने जुलाई 2019 में दायर अपने हलफनामे में न केवल वनाधिकार की मान्यता में खामियों को (पहचाना) उजागर करता है बल्कि आगे बढ़ने का रास्ता भी सुझाता है।
वनवासियों के भूमि दावों को "अस्वीकार" करने के लिए विभिन्न राज्यों द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा उठाए गए सवालों के जवाब के रूप में दायर अपने हलफनामे में, छत्तीसगढ़ राज्य ने कुछ कठोर टिप्पणियां की हैं। यह स्वीकार करने के अलावा कि "अस्वीकृति के लिए अपनाई गई प्रक्रिया वन अधिकार अधिनियम के तहत नियमों के अनुसार नहीं थी", यह भी कहा कि जब दावों को दर्ज करने या स्पष्टीकरण की आवश्यकता होती है तो वनवासियों को अधिकारियों द्वारा ठीक से सूचित तक नहीं किया जाता था। राज्य सरकार ने सभी 'अस्वीकृत' दावों की समीक्षा के लिए दो साल का समय मांगा है और कहा है कि कानून के तहत "बेदखली का सवाल ही नहीं उठता।"
6 अगस्त 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने वन अधिकार अधिनियम, 2006 के कार्यान्वयन के मामले पर अनुपालन हलफनामा दायर नहीं करने वाले राज्यों को एक पखवाड़े के भीतर ऐसा करने का निर्देश दिया। अदालत 2008 में वाइल्डलाइफ फर्स्ट बनाम यूनियन ऑफ इंडिया द्वारा एफआरए की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका का जवाब दे रही थी। फरवरी 2019 में, याचिका पर सुनवाई करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने अचानक राज्य सरकारों को "अतिक्रमण करने वालों" या "अवैध वनवासियों" को बेदखल करने का निर्देश दिया था। इस सुनवाई में, जिस ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर तक चौंकाया और जिसके कारण देशव्यापी विरोध प्रदर्शन हुए, केंद्र सरकार अनुपस्थित थी। जनजातीय मामलों के मंत्रालय (एमओटीए) ने भी इस मामले में आक्रामक रूप से हस्तक्षेप किया और व्यापक विरोध के चलते केंद्र सरकार को अदालत द्वारा आदेशित बेदखली के खिलाफ, उसी बेंच में समीक्षा के लिए जाना पड़ा और एक सप्ताह बाद बेदखली आदेश पर अस्थायी रूप से रोक लगा दी गई थी!
इसकी कार्रवाई के चार स्तंभों में, आदिवासियों और पारंपरिक वनवासियों के भूमि और आजीविका का अधिकार एक है। CJP, जो अदालतों और उसके बाहर मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों को नेविगेट करने में अपनी विशेषज्ञता के साथ इस मुद्दे पर सक्रिय रही है, और 2017 से अदालती लड़ाइयों आदि में ऑल इंडिया यूनियन ऑफ़ फ़ॉरेस्ट वर्किंग पीपल्स (AIUFWP) के साथ साझेदारी कर रहा है, इसमें कानूनी रूप से समुदाय के नेताओं के दुर्भावनापूर्ण अभियोजन के खिलाफ लड़ाई और सर्वोच्च न्यायालय में वन अधिकार अधिनियम 2006 का बचाव करना शामिल है।
फरवरी 2019 के सुप्रीम कोर्ट आदेश ने वनों में रहने वाले समुदायों के बीच खासा तनाव पैदा कर दिया था और देश के जंगलों में रह रहे आबादी के 8% हिस्से को सदमे में डूबो दिया था।इसे "असंवैधानिक" कहे जाने को लेकर, उन लोगों के भी कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा जो दशकों से वन अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे थे।
यही कारण था कि 24 जुलाई को सुनवाई की अगली तारीख तक, SC के समक्ष 19 से अधिक हस्तक्षेप आवेदन दायर हो गए थे और बहुत सारे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय निकायों ने भारत सरकार से एफआरए की रक्षा करने और वनवासियों को उनकी भूमि से बेदखल करने से रोकने का आग्रह किया था। संबंधित व्यक्तियों और संगठनों के विभिन्न समूहों द्वारा दायर, याचिकाओं में प्रत्यक्ष तौर से सभी ने वन अधिकार अधिनियम 2006 की संवैधानिक वैधता का बचाव किया कि एफआरए 2006 एक ऐतिहासिक कानून रहा है जो पारंपरिक वन निवासियों, आदिवासियों और दलितों के आजीविका अधिकारों को मान्यता प्रदान करने में एक न्यायशास्त्रीय बदलाव लाता है। 19 हस्तक्षेप याचिकाओं में एक सेवानिवृत्त नौकरशाहों और शिक्षाविदों, शरद लेले और नंदिनी सुंदर द्वारा दायर किया गया है। एक अन्य याचिका दो आदिवासी महिला नेताओं, सुकालो गोंड और निवादा राणा द्वारा दायर की गई है, जिसे AIUFWP और CJP का समर्थन प्राप्त है।
महत्वपूर्ण आदिवासी आबादी वाले 25 राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट से खारिज किए गए "17 लाख से ज्यादा दावों की समीक्षा" के लिए और समय मांगा, और इसके माध्यम से समुदायों ने वन भूमि पर, जिस पर वे पीढ़ियों से बसे हैं, अपने अधिकारों की मांग की। यही नहीं, इन सभी राज्यों ने वनाधिकार दावों को खारिज करने के अपने स्वयं के फैसलों में "प्रक्रियात्मक खामियों" का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट में अलग-अलग हलफनामे दायर किए। यह पिछले 13 वर्षों में लिए गए निर्णयों का एक संचयन था, जब से एफआरए को लागू किया जाना था।
इस पर, न्यायालय ने राज्य सरकारों के मुख्य सचिवों को उपरोक्त सभी पहलुओं को शामिल करते हुए अपना विस्तृत हलफनामा दायर करने और निम्नलिखित दस्तावेजों को रिकॉर्ड पर रखने का निर्देश दिया।
अस्वीकृति आदेश;
निपटान के लिए अपनाई गई प्रक्रिया का विवरण;
दावों को खारिज करने का मुख्य आधार क्या है।
क्या आदिवासियों को साक्ष्य प्रस्तुत करने का अवसर दिया गया था;
और यदि हाँ, तो किस हद तक।
क्या उचित आदेश पारित किए गए हैं?
अनुसूचित जनजाति वर्ग एवं अन्य परम्परागत वन निवासी श्रेणी के ऐसे लोगों, जो इन क्षेत्रों में रह रहे हैं और ऐसे व्यक्ति जिन्हें आदिवासी नहीं माना जा सकता है, का श्रेणीवार विवरण।
पारित किए गए आदेशों का रिकॉर्ड और दावों के संबंध में कार्रवाई का क्रम जो वास्तविक नहीं पाया गया है।
आदिवासियों और वनवासियों के भूमि और आजीविका अधिकारों के लिए महत्वपूर्ण इस मामले में सितंबर के महीने में विस्तृत दलीलें फिर से शुरू होने की संभावना है।
"उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया": छत्तीसगढ़
छत्तीसगढ़ राज्य ने जुलाई 2019 में दायर अपने हलफनामे में स्वीकार किया है कि सत्यापन प्रक्रिया ही दोषपूर्ण रही है। हलफनामे में कहा गया है कि विस्तृत जांच में यह पाया गया कि कई मामलों में दावेदारों को अस्वीकृति की सूचना नहीं दी गई थी, जिनके दावे खारिज/अनुशंसित नहीं थे। "इसलिए, ऐसे मामलों में नियम 2007 और एफआरए (संशोधन) नियम 2012 की धारा 12ए (3) के अनुसार उचित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए, ताकि सभी पात्र दावेदारों को स्थापित नियमों के अनुसार कवर किया जा सके।"
एफआरए अधिनियम 2006 की भावना और उसके नियमों के अनुसार प्रक्रिया का पालन किया गया, की बाबत हलफनामा कहता है, "अस्वीकृति के लिए अपनाई गई प्रक्रिया वन अधिकार नियमों के अनुसार नहीं थी और इसलिए बड़ी संख्या में मामले ग्राम सभा/उपमंडल स्तरीय समिति (एसडीएलसी)/जिला स्तरीय समिति (डीएलसी) स्तर पर अस्वीकृत हुए। उचित प्रक्रिया के अभाव में ऐसे मामलों में पारित अस्वीकृति आदेश निष्फल/अमान्य और शून्य हैं और इस प्रकार उन्हें अस्वीकृति की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है।”
त्रिस्तरीय निगरानी समिति के सवाल पर राज्य ने यह स्वीकारते हुए कहा, "कि अधिकांश मामलों में, आदिवासियों को उनके दावों की अस्वीकृति के आदेशों के साथ सूचना नहीं दी गई है। साथ ही यह भी स्पष्ट नहीं है कि क्या" त्रिस्तरीय अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (..) और अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) नियम, 2007 (..) के तहत गठित निगरानी समिति ने इन सभी पहलुओं की मॉनिटर किया है?
ग्राम स्तर पर व्यक्तिगत वन अधिकारों के दावों को प्रस्तुत करने के बाद, वन अधिकार समिति (FRA) को दावेदारों की उपस्थिति में मौके पर सत्यापन करना होता है और दावेदारों द्वारा उपलब्ध कराए गए साक्ष्यों/दस्तावेजों की जांच करनी चाहिए। जांच करने पर, जो दावे उचित या अनुचित पाए जाते हैं, उन पर ग्राम सभा की बैठक में चर्चा की जानी चाहिए और ग्राम सभा द्वारा ऐसे दावों की सिफारिश या सिफारिश न करने का प्रस्ताव पारित करके उनका निपटान किया जाना चाहिए। दावों की सिफारिश न करने की स्थिति में ऐसे दावेदारों को कारण सहित लिखित सूचना देनी चाहिए थी।
हालांकि, हलफनामे में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि "...सत्यापन के दौरान, यह पाया गया कि कई मामलों में उन दावेदारों को अस्वीकृति की सूचना नहीं दी गई थी जिनके दावों को खारिज कर दिया गया था/अनुशंसित नहीं किया गया था।"
अंत में हलफनामा स्पष्ट करता है कि राज्य ने ऐसे सभी मामलों की समीक्षा और पुनर्विचार करने का निर्णय लिया है जिनमें नियमों और प्रक्रिया के अनुपालन में कमियां पाई गई हैं।
सक्षम प्राधिकारी के प्रश्न पर जो ग्राम सभा स्तर पर एफआरसी द्वारा दावों के परीक्षण और क्षेत्र सत्यापन के द्वारा दावेदार की उपस्थिति में, ऐसे दावों को स्वीकार/अस्वीकार करता है, वह ग्राम सभा है जो अपने संकल्प के माध्यम से अनुशंसा करती है/अनुशंसा नहीं करती है और उन्हें उप-विभागीय स्तर की समिति को अग्रेषित करती है जो दावों की फिर से जांच करती है और या तो अपूर्ण पाए जाने पर ग्राम सभा को वापस भेजती है या दावों को स्वीकृत करती है और अंतिम निर्णय के लिए जिला स्तरीय समिति को भेजती है। जिला स्तरीय समिति के पास दावे को शीर्षक जारी करने/अस्वीकार करने का अंतिम अधिकार है।
इसके अलावा, यह भी नोट किया गया, "दावे की अस्वीकृति के बारे में सूचना/तर्कसंगत आदेश ग्राम सभा द्वारा लिखित रूप में दावेदारों को नहीं बताए गए थे और दावेदार द्वारा याचिका को प्राथमिकता देने के चलते बड़ी संख्या में ऐसे दावे, 2007 के नियमों के नियम 14 के तहत, एसडीएलसी को नहीं भेजे गए थे।
हलफनामे की सबसे सुखद बात यह है कि इसमें स्वीकार किया गया है कि एफआरए 2006 के तहत बेदखली की कोई प्रक्रिया नहीं है। इस अधिनियम के तहत जो दावे अपात्र पाए गए, उनमें संबंधित विभाग यानी वन विभाग और राजस्व विभाग उनके प्रासंगिक कानूनों के तहत बेदखली के लिए कार्रवाई करता है।
छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने अपने हलफनामे में अधिनियम 2006 के तहत प्राप्त सभी दावों को एसडीएलसी और उसके बाद जिला स्तर पर सिफारिश के लिए ग्राम सभा स्तर पर नए सिरे से तय करने का भी निर्देश दिया, ताकि सभी दावों को अधिनियम 2006 और नियम, 2007 के प्रावधानों के अनुसार "सख्ती के साथ" तय किया जा सके।
हलफनामे में कहा गया है कि उसने अपने सर्कुलर दिनांक 22.01.2019, 14.02.2019, 25.02.2019 और 06.06.2019 को पहले ही जिले के सभी कलेक्टरों को विस्तृत दिशा-निर्देश भी जारी कर दिया है।
राज्य सरकार ने यह भी निर्णय लिया है कि अधिनियम, 2006 के तहत प्राप्त दावों पर पुनर्विचार करते हुए जिन दावों को खारिज किया गया है, उन्हें सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाएगी और इस पर पहले चरण में विचार किया जाएगा।
'वास्तविक' अतिक्रमणकारियों का निर्धारण करना
यहां तक कि अतिक्रमण के मामलों से निपटने के लिए भी विस्तृत प्रक्रियाएं निर्धारित की गई हैं। इसके लिए कहा गया कि छत्तीसगढ़ भू-राजस्व संहिता, 1959 के अनुसार, "हलका पटवारी धारक/अतिक्रमणकारियों और ग्रामीणों की उपस्थिति में सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार भूमि अभिलेख आदि का निरीक्षण करने के बाद, प्रतिवेदन तैयार कर आगे की कार्यवाही हेतु तहसीलदार को भिजवाता है। इसके बाद शासकीय भूमि से अतिक्रमण हटाने के लिए तहसीलदार, हलका पटवारी से जांच प्रतिवेदन प्राप्त कर, प्रकरण दर्ज करता है और अतिक्रमणकर्ता को नोटिस जारी कर सुनवाई का उचित अवसर देकर न्यायालय में प्रस्तुत साक्षी एवं साक्ष्य के आधार पर उचित आदेश पारित करता है।”
हालांकि, इसने कहा कि पहले खारिज किए गए ऐसे सभी मामलों की समीक्षा की जा रही है। और इसलिए "अस्वीकृति का मुद्दा ही नहीं उठता।"
आगे बढ़ने का रास्ता
हलफनामे में एफआरए कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए राज्य द्वारा उठाए जाने वाले कुछ महत्वपूर्ण कदमों पर भी प्रकाश डाला गया है। इसमें कहा गया है कि अब तक भूमि प्राप्त नहीं कर पाने वाले सभी पात्र दावेदारों को ऐसे विलेखों का वितरण नियमानुसार यथाशीघ्र प्रत्येक पंचायत स्तर पर नि:शुल्क उपलब्ध कराया जाए। जिन ग्राम सभाओं में अब तक एफआरसी का गठन नहीं हुआ है, वहां ऐसी समितियां गठित करना सुनिश्चित किया जाएगा। इसने कहा कि एफआरए नियमों में उल्लिखित प्रत्येक साक्ष्य दस्तावेज समान रूप से महत्वपूर्ण था और इसलिए किसी विशेष दस्तावेज के लिए कोई विशेष जोर नहीं दिया जाना चाहिए। एक महत्वपूर्ण बिंदु ओटीएफडी के लिए, दावों का निर्धारण का है। जो इस बात पर जोर देता है कि 13 दिसंबर 2005 के दिन या उससे पहले उनके पास वन भूमि होने और तीन पीढ़ियों से उनकी वास्तविक आजीविका गतिविधियों के लिए वन भूमि पर रहने और निर्भर होने के साक्ष्य (तीन पीढ़ियों से उनके पास वन भूमि रखने के रिकॉर्ड के विपरीत (75 वर्ष-एक आंकड़ा जिस का एफआरए में उल्लेख नहीं किया गया है) के तथ्य को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए।
हलफनामे में डीएलसी को प्रत्येक ग्राम पंचायत स्तर पर दावा प्रस्तुत करने की प्रक्रिया शुरू करने और समीक्षा करने के साथ ही, उन कारणों को रिकॉर्ड करने, जहां कोई सामुदायिक वन अधिकार वितरित नहीं किया गया है, के लिए "जिम्मेदारी तय करने" को कहा गया है। यही नहीं, हलफनामे में अधिनियम के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए "संवेदनशीलता" दिखाने के साथ "कार्यशालाओं और प्रशिक्षण" की आवश्यकता पर भी बल दिया गया।