"अधिसूचित वन भूमि पर निवास और कब्जे के दावे के मामले में सुप्रीम कोर्ट (SC) ने महत्वपूर्ण फैसला दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि अधिसूचित वन भूमि पर कब्जे और निवास का दावा सिर्फ आदिवासी समुदाय या मान्यता प्राप्त वनवासी समुदायों (एससी-एसटी) अथवा पिछड़ों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि हर उस व्यक्ति को है जिसका दावा वैध है।"
कोर्ट ने कहा कि वन अधिनियम की धारा 4 के तहत अधिसूचित किसी भी भूमि पर कब्जा प्राप्त करने का अधिकार केवल आदिवासी समुदायों और अन्य वनवासी समुदायों तक ही सीमित नहीं है बल्कि ये अधिकार निवास और मूल कब्जे की तारीख आदि के प्रमाण पर भी आधारित है। कोर्ट ने फैसले में कहा कि वन समुदायों में केवल मान्यता प्राप्त आदिवासी (एससी-एसटी) और अन्य पिछड़े समुदायों के लोग ही शामिल नहीं हैं। बल्कि वन भूमि पर रहने वाले अन्य समूह भी वन समुदायों में शामिल माने जाएंगे। वनाधिकार कानून की तरह सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को भी दूरगामी परिणामों वाला माना जा रहा है।
जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने फैसले में कहा, वन समुदायों में केवल मान्यता प्राप्त आदिवासी और अन्य पिछड़े समुदायों के लोग ही शामिल नहीं हैं, बल्कि उक्त भूमि में रहने वाले अन्य समूह भी शामिल हैं। ये अन्य समूह को कुछ सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक कारणों से कानून के तहत वनवासी समुदाय के रूप में मान्यता नहीं मिलती है, जबकि वे भी वन समुदायों का एक अभिन्न अंग हैं और उनके कामकाज के लिए आवश्यक हैं। शीर्ष अदालत ने आगे यह भी कहा, ऐसे भी कई उदाहरण हो सकते हैं कि लोग पैतृक रूप से वनवासी रहे हों, लेकिन दस्तावेज के अभाव में वे इसे साबित नहीं कर पाते हैं। पीठ ने कहा, यह वन अधिकारी ही है जिसके पास मामले की मेरिट में जाने और निवासियों के दावों पर निर्णय लेने की शक्ति है। पीठ ने कहा, यह निर्णय देते समय अदालत ने प्रत्येक दावे के गुण-दोष (मेरिट) पर ध्यान नहीं दिया बल्कि दावों की सुनवाई के लिए केवल एक उचित मंच प्रदान किया।
सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि आदिवासियों और पिछड़े समुदाय के अलावा अन्य समूह/लोग भी वनवासी समुदायों के अभिन्न अंग हैं, जिन्हें आमतौर पर इस रूप में मान्यता नहीं दी जाती है। साथ ही, शीर्ष अदालत ने यह भी माना कि सक्षम अथॉरिटी की ओर से सुनवाई के बिना किसी को भी भूमि के कब्जे का पर्याप्त अधिकार नहीं दिया जा सकता है या अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला दूरगामी परिणामों वाला
अमर उजाला और दैनिक जागरण आदि स्थानीय मीडिया में छपी खबरों के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में अपने ही 37 साल पुराने वनवासी सेवा आश्रम मामले में दिये फैसले को स्पष्ट करते हुए कहा है कि अगर उस फैसले की संकीर्ण व्याख्या कर लाभ को कुछ निश्चित मान्यता प्राप्त वन समुदायों तक सीमित किया जाता है तो इससे कई अन्य समुदायों को बहुत अधिक नुकसान होगा। कोर्ट ने कहा है कि इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि वनवासी मामले में दिया गया फैसला केवल सक्षम प्राधिकारी द्वारा सुनवाई का अधिकार देता है और अगर ऐसा प्राधिकारी किसी दावे को खारिज कर देता है तो वह दावा उस जमीन के लिए अस्तित्व में नहीं रहता।
कोर्ट ने कहा कि वन अधिनियम की धारा 4 के तहत अधिसूचित किसी भी भूमि पर कब्जा प्राप्त करने का अधिकार केवल आदिवासी समुदायों और अन्य वनवासी समुदायों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि ये अधिकार निवास, मूल कब्जे की तारीख आदि के प्रमाण पर भी आधारित है। अगर उस भूमि पर निवास का अधिकार केवल कुछ समुदायों तक ही सीमित नहीं है, तो फिर दावों पर सुनवाई का अधिकार सीमित कैसे हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला दूरगामी परिणामों वाला है।
न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी और न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने पांच जुलाई को उत्तर प्रदेश में सोनभद्र में अधिसूचित वन भूमि पर कब्जे और दावे से संबंधी हरि प्रकाश शुक्ला की याचिका स्वीकारते हुए यह फैसला दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट का 4 फरवरी 2013 का आदेश रद कर दिया है। साथ ही उत्तर प्रदेश सरकार की सभी दलीलें खारिज कर दीं हैं।
कोर्ट ने फैसले में कहा है कि यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि वन समुदायों में केवल मान्यता प्राप्त आदिवासी और अन्य पिछड़े समुदायों के लोग शामिल नहीं हैं, बल्कि उस भूमि पर रहने वाले अन्य समूह भी शामिल हैं। ये अन्य समूह, जिन्हें विभिन्न सामाजिक - राजनैतिक एवं आर्थिक कारणों से कानून के तहत वनवासी समुदाय के रूप में मान्यता नहीं मिली, भी उस वनवासी समुदाय का अभिन्न अंग हैं और उस वन समुदाय और उनके कामकाज के लिए आवश्यक हैं। कोर्ट ने कहा कि इसके अलावा और भी कई उदाहरण हो सकते हैं कि लोगों के पूर्वज वनवासी रहे हों हालांकि दस्तावेजों की कमी के कारण वे इसे साबित करने में सक्षम न हों। पीठ ने कहा कि वह इस तथ्य से अवगत हैं कि अपीलकर्ता पिछड़े समुदाय से नहीं हैं और न ही वे ऐसा होने का दावा करते हैं।
याचिकाकर्ता जमीन पर दावा नहीं कर सकता: SC
पीठ ने कहा कि वह अपनी बात को दोहराते हुए कहते हैं कि इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि वनवासी मामले में दिया गया फैसला केवल सक्षम प्राधिकारी द्वारा सुनवाई का अधिकार देता है और अगर ऐसा प्राधिकारी किसी दावे को खारिज कर देता है तो वह दावा उस जमीन के लिए अस्तित्व में नहीं रहता। कोर्ट ने कहा कि उक्त जमीन पर कब्जे का दावा करने का अधिकार सभी को दिया जाना चाहिए और सक्षम प्राधिकारी सुनवाई के दौरान कब्जा प्रदान या अस्वीकार कर सकता है। इसका मतलब है कि सुनवाई का अधिकार सभी को है और स्वामित्व का अधिकार उन्हीं के पास होता है जिनका दावा वैध होता है।
इस मामले में उत्तर प्रदेश सरकार ने कहा था कि वन भूमि पर कब्जे और अधिकार का दावा करने वाला व्यक्ति एससी-एसटी या ओबीसी वर्ग का नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने वनवासी आश्रम मामले में वन भूमि पर दावे का अधिकार एससी एसटी व ओबीसी को दिया है। ऐसे में याचिकाकर्ता हरि प्रकाश शुक्ला उस फैसले को आधार बनाते हुए जमीन पर दावा नहीं कर सकता।
क्या था पूरा मामला
मामले में याचिकाकर्ता हरि प्रकाश शुक्ला का कहना था कि वह उस अधिसूचित वन भूमि का भूमिदार है और जमीन उसके कब्जे में है। कहा था कि 1952 में उस समय के जमींदार ने उसके हक में जमीन का स्थाई पट्टा किया था और वह उस जमीन पर खेती करता है। सरकार ने वन अधिनियम में जो जमीन संरक्षित वन अधिसूचित की है उसमें उसकी जमीन भी आती है। याचिकाकर्ता ने वनवासी सेवा आश्रम जजमेंट को आधार बनाकर फारेस्ट सेटेलमेंट आफीसर के समक्ष जमीन पर दावा दाखिल किया। दोनों पक्षों को सुनने के बाद सेटलमेंट आफीसर ने याचिकाकर्ता की ओर से पेश की गई 1385 फसली से पहले से भूमि पर कब्जे के प्रमाण को देखते हुए उसका दावा स्वीकार कर लिया।
सरकार ने आदेश के खिलाफ अपील की लेकिन एडीजे ने अपील खारिज कर दी। अपील खारिज होने के बाद याचिकाकर्ता ने आदेश लागू करने की अर्जी दी जिसे एडीजे ने स्वीकार कर लिया। वन विभाग ने पुनर्विचार याचिका डाली लेकिन वो भी खारिज हो गई। सब कुछ खारिज होने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार के वन विभाग ने हाईकोर्ट में रिट याचिका दाखिल की और हाईकोर्ट ने 4 फरवरी 2013 को रिट याचिका स्वीकार कर ली जिसके खिलाफ याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट आया था।
सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत से विस्तृत सुनवाई के बाद मामला तय होने के बाद हाईकोर्ट द्वारा रिट स्वीकार करते हुए दूसरा निष्कर्ष निकाले जाने को गलत माना। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निचली अदालत द्वारा साक्ष्यों के आधार पर तय किये गए मामले को हाईकोर्ट को विरले केस में पलटना चाहिए।
वन भूमि से बेदखल करने का निर्देश
जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने फैसले में कहा, वन समुदायों में केवल मान्यता प्राप्त आदिवासी और अन्य पिछड़े समुदायों के लोग ही शामिल नहीं हैं, बल्कि उक्त भूमि में रहने वाले अन्य समूह भी शामिल हैं। ये अन्य समूह को कुछ सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक कारणों से कानून के तहत वनवासी समुदाय के रूप में मान्यता नहीं मिलती है, जबकि वे भी वन समुदायों का एक अभिन्न अंग हैं और उनके कामकाज के लिए आवश्यक हैं। शीर्ष अदालत ने आगे यह भी कहा, ऐसे भी कई उदाहरण हो सकते हैं कि लोग पैतृक रूप से वनवासी रहे हों, लेकिन दस्तावेज के अभाव में वे इसे साबित नहीं कर पाते हैं।
पीठ ने 4 फरवरी 2013 के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ हरि प्रकाश शुक्ला और अन्य की ओर से दायर अपील को स्वीकार कर लिया, जिसमें अपीलकर्ताओं को वन भूमि से बेदखल करने का निर्देश दिया गया था। शीर्ष अदालत ने कहा कि चूंकि अपीलकर्ता पिछड़े समुदाय से नहीं हैं और न ही वे ऐसा होने का दावा करते हैं, लेकिन अगर 1986 में दिए गए एक फैसले की व्याख्या केवल कुछ मान्यता प्राप्त वन समुदायों को लाभ पहुंचाने के संकीर्ण तरीके से की जाती है तो इससे कई अन्य समुदायों को बहुत नुकसान होगा।
अधिसूचित भूमि पर वैध दावा करने वालों को विस्तार से सुना जाए
पीठ ने कहा, यह वन अधिकारी ही है जिसके पास मामले की मेरिट में जाने और निवासियों के दावों पर निर्णय लेने की शक्ति है। पीठ ने कहा, यह निर्णय देते समय अदालत ने प्रत्येक दावे के गुण-दोष(मेरिट) पर ध्यान नहीं दिया बल्कि दावों की सुनवाई के लिए केवल एक उचित मंच प्रदान किया। हमारी राय में इस तरह के निर्णय का उद्देश्य ठोस मुद्दे को आगे बढ़ाना है और यह सुनिश्चित करना कि अधिसूचित भूमि पर वैध दावा करने वाले प्रत्येक पक्ष को विस्तार से सुना जाए और स्थानीय निवासियों को बेदखल करने की कोई मनमानी शक्ति राज्य को नहीं दी जाए। पीठ ने कहा, स्वामित्व का अधिकार उन लोगों को मिलना चाहिए जिनके पास वैध दावा हो।
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जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने फैसले में कहा, वन समुदायों में केवल मान्यता प्राप्त आदिवासी और अन्य पिछड़े समुदायों के लोग ही शामिल नहीं हैं, बल्कि उक्त भूमि में रहने वाले अन्य समूह भी शामिल हैं। ये अन्य समूह को कुछ सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक कारणों से कानून के तहत वनवासी समुदाय के रूप में मान्यता नहीं मिलती है, जबकि वे भी वन समुदायों का एक अभिन्न अंग हैं और उनके कामकाज के लिए आवश्यक हैं। शीर्ष अदालत ने आगे यह भी कहा, ऐसे भी कई उदाहरण हो सकते हैं कि लोग पैतृक रूप से वनवासी रहे हों, लेकिन दस्तावेज के अभाव में वे इसे साबित नहीं कर पाते हैं। पीठ ने कहा, यह वन अधिकारी ही है जिसके पास मामले की मेरिट में जाने और निवासियों के दावों पर निर्णय लेने की शक्ति है। पीठ ने कहा, यह निर्णय देते समय अदालत ने प्रत्येक दावे के गुण-दोष (मेरिट) पर ध्यान नहीं दिया बल्कि दावों की सुनवाई के लिए केवल एक उचित मंच प्रदान किया।
सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि आदिवासियों और पिछड़े समुदाय के अलावा अन्य समूह/लोग भी वनवासी समुदायों के अभिन्न अंग हैं, जिन्हें आमतौर पर इस रूप में मान्यता नहीं दी जाती है। साथ ही, शीर्ष अदालत ने यह भी माना कि सक्षम अथॉरिटी की ओर से सुनवाई के बिना किसी को भी भूमि के कब्जे का पर्याप्त अधिकार नहीं दिया जा सकता है या अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला दूरगामी परिणामों वाला
अमर उजाला और दैनिक जागरण आदि स्थानीय मीडिया में छपी खबरों के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में अपने ही 37 साल पुराने वनवासी सेवा आश्रम मामले में दिये फैसले को स्पष्ट करते हुए कहा है कि अगर उस फैसले की संकीर्ण व्याख्या कर लाभ को कुछ निश्चित मान्यता प्राप्त वन समुदायों तक सीमित किया जाता है तो इससे कई अन्य समुदायों को बहुत अधिक नुकसान होगा। कोर्ट ने कहा है कि इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि वनवासी मामले में दिया गया फैसला केवल सक्षम प्राधिकारी द्वारा सुनवाई का अधिकार देता है और अगर ऐसा प्राधिकारी किसी दावे को खारिज कर देता है तो वह दावा उस जमीन के लिए अस्तित्व में नहीं रहता।
कोर्ट ने कहा कि वन अधिनियम की धारा 4 के तहत अधिसूचित किसी भी भूमि पर कब्जा प्राप्त करने का अधिकार केवल आदिवासी समुदायों और अन्य वनवासी समुदायों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि ये अधिकार निवास, मूल कब्जे की तारीख आदि के प्रमाण पर भी आधारित है। अगर उस भूमि पर निवास का अधिकार केवल कुछ समुदायों तक ही सीमित नहीं है, तो फिर दावों पर सुनवाई का अधिकार सीमित कैसे हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला दूरगामी परिणामों वाला है।
न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी और न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने पांच जुलाई को उत्तर प्रदेश में सोनभद्र में अधिसूचित वन भूमि पर कब्जे और दावे से संबंधी हरि प्रकाश शुक्ला की याचिका स्वीकारते हुए यह फैसला दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट का 4 फरवरी 2013 का आदेश रद कर दिया है। साथ ही उत्तर प्रदेश सरकार की सभी दलीलें खारिज कर दीं हैं।
कोर्ट ने फैसले में कहा है कि यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि वन समुदायों में केवल मान्यता प्राप्त आदिवासी और अन्य पिछड़े समुदायों के लोग शामिल नहीं हैं, बल्कि उस भूमि पर रहने वाले अन्य समूह भी शामिल हैं। ये अन्य समूह, जिन्हें विभिन्न सामाजिक - राजनैतिक एवं आर्थिक कारणों से कानून के तहत वनवासी समुदाय के रूप में मान्यता नहीं मिली, भी उस वनवासी समुदाय का अभिन्न अंग हैं और उस वन समुदाय और उनके कामकाज के लिए आवश्यक हैं। कोर्ट ने कहा कि इसके अलावा और भी कई उदाहरण हो सकते हैं कि लोगों के पूर्वज वनवासी रहे हों हालांकि दस्तावेजों की कमी के कारण वे इसे साबित करने में सक्षम न हों। पीठ ने कहा कि वह इस तथ्य से अवगत हैं कि अपीलकर्ता पिछड़े समुदाय से नहीं हैं और न ही वे ऐसा होने का दावा करते हैं।
याचिकाकर्ता जमीन पर दावा नहीं कर सकता: SC
पीठ ने कहा कि वह अपनी बात को दोहराते हुए कहते हैं कि इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि वनवासी मामले में दिया गया फैसला केवल सक्षम प्राधिकारी द्वारा सुनवाई का अधिकार देता है और अगर ऐसा प्राधिकारी किसी दावे को खारिज कर देता है तो वह दावा उस जमीन के लिए अस्तित्व में नहीं रहता। कोर्ट ने कहा कि उक्त जमीन पर कब्जे का दावा करने का अधिकार सभी को दिया जाना चाहिए और सक्षम प्राधिकारी सुनवाई के दौरान कब्जा प्रदान या अस्वीकार कर सकता है। इसका मतलब है कि सुनवाई का अधिकार सभी को है और स्वामित्व का अधिकार उन्हीं के पास होता है जिनका दावा वैध होता है।
इस मामले में उत्तर प्रदेश सरकार ने कहा था कि वन भूमि पर कब्जे और अधिकार का दावा करने वाला व्यक्ति एससी-एसटी या ओबीसी वर्ग का नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने वनवासी आश्रम मामले में वन भूमि पर दावे का अधिकार एससी एसटी व ओबीसी को दिया है। ऐसे में याचिकाकर्ता हरि प्रकाश शुक्ला उस फैसले को आधार बनाते हुए जमीन पर दावा नहीं कर सकता।
क्या था पूरा मामला
मामले में याचिकाकर्ता हरि प्रकाश शुक्ला का कहना था कि वह उस अधिसूचित वन भूमि का भूमिदार है और जमीन उसके कब्जे में है। कहा था कि 1952 में उस समय के जमींदार ने उसके हक में जमीन का स्थाई पट्टा किया था और वह उस जमीन पर खेती करता है। सरकार ने वन अधिनियम में जो जमीन संरक्षित वन अधिसूचित की है उसमें उसकी जमीन भी आती है। याचिकाकर्ता ने वनवासी सेवा आश्रम जजमेंट को आधार बनाकर फारेस्ट सेटेलमेंट आफीसर के समक्ष जमीन पर दावा दाखिल किया। दोनों पक्षों को सुनने के बाद सेटलमेंट आफीसर ने याचिकाकर्ता की ओर से पेश की गई 1385 फसली से पहले से भूमि पर कब्जे के प्रमाण को देखते हुए उसका दावा स्वीकार कर लिया।
सरकार ने आदेश के खिलाफ अपील की लेकिन एडीजे ने अपील खारिज कर दी। अपील खारिज होने के बाद याचिकाकर्ता ने आदेश लागू करने की अर्जी दी जिसे एडीजे ने स्वीकार कर लिया। वन विभाग ने पुनर्विचार याचिका डाली लेकिन वो भी खारिज हो गई। सब कुछ खारिज होने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार के वन विभाग ने हाईकोर्ट में रिट याचिका दाखिल की और हाईकोर्ट ने 4 फरवरी 2013 को रिट याचिका स्वीकार कर ली जिसके खिलाफ याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट आया था।
सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत से विस्तृत सुनवाई के बाद मामला तय होने के बाद हाईकोर्ट द्वारा रिट स्वीकार करते हुए दूसरा निष्कर्ष निकाले जाने को गलत माना। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निचली अदालत द्वारा साक्ष्यों के आधार पर तय किये गए मामले को हाईकोर्ट को विरले केस में पलटना चाहिए।
वन भूमि से बेदखल करने का निर्देश
जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने फैसले में कहा, वन समुदायों में केवल मान्यता प्राप्त आदिवासी और अन्य पिछड़े समुदायों के लोग ही शामिल नहीं हैं, बल्कि उक्त भूमि में रहने वाले अन्य समूह भी शामिल हैं। ये अन्य समूह को कुछ सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक कारणों से कानून के तहत वनवासी समुदाय के रूप में मान्यता नहीं मिलती है, जबकि वे भी वन समुदायों का एक अभिन्न अंग हैं और उनके कामकाज के लिए आवश्यक हैं। शीर्ष अदालत ने आगे यह भी कहा, ऐसे भी कई उदाहरण हो सकते हैं कि लोग पैतृक रूप से वनवासी रहे हों, लेकिन दस्तावेज के अभाव में वे इसे साबित नहीं कर पाते हैं।
पीठ ने 4 फरवरी 2013 के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ हरि प्रकाश शुक्ला और अन्य की ओर से दायर अपील को स्वीकार कर लिया, जिसमें अपीलकर्ताओं को वन भूमि से बेदखल करने का निर्देश दिया गया था। शीर्ष अदालत ने कहा कि चूंकि अपीलकर्ता पिछड़े समुदाय से नहीं हैं और न ही वे ऐसा होने का दावा करते हैं, लेकिन अगर 1986 में दिए गए एक फैसले की व्याख्या केवल कुछ मान्यता प्राप्त वन समुदायों को लाभ पहुंचाने के संकीर्ण तरीके से की जाती है तो इससे कई अन्य समुदायों को बहुत नुकसान होगा।
अधिसूचित भूमि पर वैध दावा करने वालों को विस्तार से सुना जाए
पीठ ने कहा, यह वन अधिकारी ही है जिसके पास मामले की मेरिट में जाने और निवासियों के दावों पर निर्णय लेने की शक्ति है। पीठ ने कहा, यह निर्णय देते समय अदालत ने प्रत्येक दावे के गुण-दोष(मेरिट) पर ध्यान नहीं दिया बल्कि दावों की सुनवाई के लिए केवल एक उचित मंच प्रदान किया। हमारी राय में इस तरह के निर्णय का उद्देश्य ठोस मुद्दे को आगे बढ़ाना है और यह सुनिश्चित करना कि अधिसूचित भूमि पर वैध दावा करने वाले प्रत्येक पक्ष को विस्तार से सुना जाए और स्थानीय निवासियों को बेदखल करने की कोई मनमानी शक्ति राज्य को नहीं दी जाए। पीठ ने कहा, स्वामित्व का अधिकार उन लोगों को मिलना चाहिए जिनके पास वैध दावा हो।
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