ओडिशा: पटनायक सरकार ने जनजातियों के खिलाफ दर्ज 48 हजार से अधिक मामले वापस लिए

Written by Navnish Kumar | Published on: February 27, 2024
"ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने बुधवार को अनुसूचित जनजाति के लोगों के खिलाफ दर्ज 48,018 छोटे मामले वापस लेने का आदेश दिया। एक अधिकारी के अनुसार, अधिकतर मामले गृह, उत्पाद शुल्क और वन एवं पर्यावरण विभाग से संबंधित हैं। यही नहीं, हाल ही में ओडिशा सरकार ने आदिवासी भूमि को गैर-आदिवासियों को हस्तांतरित करने की अनुमति को भी वापस ले लिया है। राज्य सरकार के फैसले को राजनीतिक रूप से भी महत्वपूर्ण माना जा रहा है, क्योंकि यह लोकसभा और ओडिशा विधानसभा चुनावों से ठीक पहले आया है, जहां राज्य में 23 प्रतिशत आबादी जनजातियों की है।"



ओडिशा के मुख्यमंत्री कार्यालय (सीएमओ) द्वारा जारी विज्ञप्ति के अनुसार, विस्तृत जांच के बाद 48,018 मामलों को वापस लेने का निर्णय लिया गया है। इसमें बताया गया है कि इन मामलों में से 36,581 मामले उत्पाद शुल्क यानी आबकारी विभाग, 9,846 गृह विभाग और 1,591 मामले वन एवं पर्यावरण विभाग के अंतर्गत आते हैं। सीएमओ ने कहा, ‘‘इन मामलों को वापस लेने से अदालतों और न्यायिक व्यवस्था पर भी दबाव कम होगा।’’

राज्य सरकार ने आदिवासियों से जुड़े मामलों की जांच के बाद यह पाया कि आदिवासी समुदाय के लोगों के खिलाफ़ दायर मामले खींचते चले जाते हैं। जिसके कारण आदिवासियों पर मानासिक और वित्तीय बोझ बढ़ता जाता है। इसलिए राज्य सरकार ने आदिवासियों से जुड़े मामलों को वापस लेने का फैसला किया है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार आबकारी विभाग में दर्ज मामलों की बात करे तो आदिवासियों की पंरपराओं और पूजा-पाठ में शराब एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। आदिवासी त्योहारों या उत्सवों में शराब पी भी जाती है और देवी-देवताओं को चढ़ाई भी जाती है। इस लिहाज़ से आदिवासी अपने घरों में ही शराब बनाते हैं, जो कानून के नज़रिए में अवैध है।

सबसे महत्वपूर्ण वन और पर्यावरण विभाग में दर्ज मामलों को देखें तो ज्यादातर मामले वन विभाग द्वारा दर्ज किए जाते हैं। क्योंकि आदिवासी और वन विभाग के बीच जंगल के अधिकार को लेकर वर्षो से संघंर्ष चला आ रहा है। अफ़सोस की बात ये है कि वन अधिकार कानून 2006 आने के बाद भी वन विभाग आदिवासी का जंगल पर अधिकार मानने को तैयार नहीं होता है। राज्य सरकार का भारतीय वन अधिनियम-1927 के तहत दर्ज इन मामलों को वापस लेना यह सिद्ध करता है कि यह मामूली है और प्रशासन का आदिवासियों के प्रति व्यवहार का परिणाम है।

जी हां, भारतीय वन अधिनियम-1927 के तहत आदिवासियों के खिलाफ दर्ज अपराध, जो वन उपज के आंदोलन को नियंत्रित करते हैं, वापस ले लिए जाएंगे। खास है कि वन अधिकारियों ने आदिवासियों के खिलाफ संबंधित कानूनों के तहत मामले दर्ज किए हैं, जब वे घरेलू उपभोग के लिए और स्थानीय बाजारों में बिक्री के लिए लघु वन उपज (एमएफपी) एकत्र करते हैं।

वन उपज खरीद के लिए 100 करोड़ आवंटित

इन 48,000 मामलों के वापस लेने के अलावा राज्य सरकार ने ओडिशा लघु वन उपज योजना के अतंर्गत 100 करोड़ खर्च करने का फैसला किया है। इस योजना के तहत राज्य सरकार ने यह घोषणा कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य पर आदिवासियों के 60 वन उपज को खरीदेंगे। खास यह भी कि हाल ही में ओडिशा सरकार ने आदिवासी भूमि को गैर-आदिवासियों को हस्तांतरित करने की अनुमति को वापस भी लिया है।

राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण फैसला

राज्य सरकार के फैसले को राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण माना जा रहा है, क्योंकि यह लोकसभा और ओडिशा विधानसभा चुनावों से ठीक पहले आया है, जहां राज्य में 23 प्रतिशत आबादी जनजातियों की है। ये आंकड़े साफ तौर पर दर्शाते है कि ओडिशा सरकार आने वाले चुनाव के लिए आदिवासियों को लुभाने का प्रयास कर रही है। क्योंकि विधान सभा और लोकसभा दोनों की सीटों में आदिवासियों का एक बड़ा हिस्सा है। लोकसभा में ओडिशा की 21 सीटों में से 5 सीट आदिवासियों के लिए आरक्षित है और राज्यसभा में राज्य की 147 सीट में से 33 सीट आदिवासियों के लिए आरक्षित की गई है। 

राष्ट्रपति और चीफ जस्टिस ने भी किया था आह्वान

पिछले साल यानी 2023 के नवबंर महीने में संविधान दिवस के भाषण में देश के मुख्य न्यायधीश डीवाई चंद्रचूड़ की मौजूदगी में कहा था कि जेल में बंद आदिवासी ज़मानत के बाद भी छूट नहीं पाता है। उन्होंने कहा था कि ज़्यादातर आदिवासियों के पास ज़मानत का पैसा ही नहीं होता है। उन्होंने न्यायपालिका से ऐसे मामलों में ध्यान देने का आग्रह किया था। राष्ट्रपति द्रोपदी मूर्मु के आग्रह पर न्यायपालिका ने अलग अलग राज्यों की जेलों से ऐसे मामलों की एक रिपोर्ट भी मांगी थी।

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