हाल ही में, 9 अक्टूबर 2024 को राज्य वन्यजीव बोर्ड की स्थायी समिति ने मात्र आठ दिनों की तैयारी में इन परियोजनाओं को मंजूरी दे दी। इस बैठक में 1,070 हेक्टेयर वन भूमि के डायवर्जन की अनुमति दी गई, जो लोहे और क्वार्टजाइट जैसे खनिज भंडारों के खनन के लिए है।
महाराष्ट्र का गढ़चिरौली जिला, जो अपनी घने जंगलों की हरियाली, जैव विविधता और आदिवासी संस्कृति के लिए जाना जाता है, आज एक गंभीर पर्यावरणीय संकट के मुहाने पर खड़ा है। एटापल्ली और भामरागढ़ तहसीलों में प्रस्तावित खनन परियोजनाओं के कारण 1.23 लाख से अधिक पेड़ों के कटने का खतरा पैदा हो गया है। ये पेड़ न केवल इस क्षेत्र के पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखते हैं, बल्कि यहां रहने वाले वन्यजीवों और आदिवासी समुदायों की आजीविका का आधार भी हैं। जंगल की यह हरियाली स्थानीय जलवायु को नियंत्रित करने में मदद करती है और इसे जैव विविधता का खजाना बनाती है।
हाल ही में, 9 अक्टूबर 2024 को राज्य वन्यजीव बोर्ड की स्थायी समिति ने मात्र आठ दिनों की तैयारी में इन परियोजनाओं को मंजूरी दे दी। इस बैठक में 1,070 हेक्टेयर वन भूमि के डायवर्जन की अनुमति दी गई, जो लोहे और क्वार्टजाइट जैसे खनिज भंडारों के खनन के लिए है। यह फैसला न केवल पर्यावरणीय प्रभाव आकलन की अनदेखी करता है, बल्कि आदिवासी समुदायों के अधिकारों और उनकी संस्कृति पर भी गंभीर प्रश्न खड़े करता है।
गढ़चिरौली, जहां सागौन, बांस, तेंदू जैसे बहुमूल्य पेड़ों के अलावा दुर्लभ वन्यजीवों का घर है, इन परियोजनाओं के चलते अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। एक ओर सरकार इस क्षेत्र को विकास और औद्योगिकीकरण का केंद्र बनाने का दावा कर रही है, वहीं दूसरी ओर पर्यावरणीय नुकसान और आदिवासी जनजीवन पर इसके दुष्प्रभाव की अनदेखी कर रही है।
यह क्षेत्र घने जंगलों, दुर्लभ वन्यजीवों और जैव विविधता से समृद्ध है। यहां सागौन, बांस, तेंदू जैसे महत्वपूर्ण पेड़ों के साथ औषधीय गुणधर्म वाली वनस्पतियां पाई जाती हैं। दुर्लभ वन्यजीव जैसे तेंदुआ, भालू, नीलगाय, चीतल और पेंगोलिन इन जंगलों में निवास करते हैं। ऐसे में, इतनी बड़ी मात्रा में पेड़ों की कटाई न केवल स्थानीय पर्यावरण को, बल्कि देश की जैव विविधता को भी गंभीर नुकसान पहुंचा सकती है।
पर्यावरणीय धरोहर पर संकट
गढ़चिरौली का जंगल केवल पेड़ों का समूह भर नहीं है; यह यहां के आदिवासियों की जीवनरेखा और उनकी सांस्कृतिक पहचान का अहम हिस्सा है। यह क्षेत्र पारंपरिक कृषि, वनोपज, और स्थानीय रोजगार का मुख्य आधार है। खनन परियोजनाओं के कारण जंगलों का खत्म होना न केवल आदिवासियों के जीवन को सीधा प्रभावित करेगा, बल्कि क्षेत्र के पर्यावरणीय संतुलन को भी खतरे में डाल देगा। यह जंगल वन्यजीवों के लिए एक सुरक्षित आवास है, और यदि इसे नुकसान पहुंचता है, तो मानव-वन्यजीव संघर्ष की घटनाएं बढ़ सकती हैं।
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के एटापल्ली और भामरागढ़ तहसीलों में खनन परियोजनाओं को हाल ही में मंजूरी दी गई है। इन परियोजनाओं में लोहे और क्वार्टजाइट जैसे खनिज भंडारों की खोज और खनन शामिल है। राज्य वन्यजीव बोर्ड (एससी-एसबीडब्ल्यूएल) की स्थायी समिति ने 9 अक्टूबर 2024 को इन परियोजनाओं को मंजूरी दी। यह बैठक बेहद कम समय में, पिछले सत्र के मात्र आठ दिन बाद आयोजित की गई, और इसमें 1,070 हेक्टेयर वन भूमि को खनन के लिए डायवर्जन की स्वीकृति दी गई। यह भूमि सुरजागढ़ की पहले से सक्रिय खनन परियोजनाओं से जुड़ी है।
स्थानीय विरोध और चुनौतियां
स्थानीय आदिवासी और पर्यावरण कार्यकर्ता इन परियोजनाओं का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि खनन से उनकी आजीविका और पारंपरिक जीवनशैली पर सीधा असर पड़ेगा। गढ़चिरौली का यह इलाका नक्सल प्रभावित भी है, जिससे यहां खनन परियोजनाओं का संचालन और चुनौतीपूर्ण हो जाएगा। इसके अलावा, वन विभाग वन्यजीव संरक्षण में पहले से ही विफलताओं के आरोप झेल रहा है, जिससे खनन से जुड़े संभावित नुकसान को रोकना और मुश्किल हो सकता है।
एफआरए (वन अधिकार अधिनियम) समिति के अध्यक्ष विनायक वधाड़े ने आरोप लगाया है कि परियोजनाओं के फैसले में स्थानीय समुदाय को शामिल नहीं किया गया। उन्होंने कहा, "यह निर्णय हमारी सहमति के बिना लिया गया है। गढ़चिरौली के जंगलों को बचाना सामुदायिक अधिकारों और पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने की लड़ाई है। पेड़ों की कटाई से जलवायु परिवर्तन, कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि, और स्थानीय जलवायु पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।"
गढ़चिरौली जिला ताडोबा-अंधेरी और इंद्रावती बाघ गलियारे के भीतर आता है, जो बाघों और अन्य दुर्लभ वन्यजीवों के संरक्षण के लिए अहम है। बावजूद इसके, भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई), देहरादून द्वारा सुझाए गए शमन उपायों के आधार पर परियोजनाओं को मंजूरी दे दी गई।
यहां के अहेरी और सिरोंचा जैसे उपविभागों में दुर्लभ प्रजातियों का निवास है। इन क्षेत्रों में तेंदुआ, बाघ, भालू, चीतल, नीलगाय, पेंगोलिन, और दुर्लभ जंगली भैंसे जैसे वन्यजीव पाए जाते हैं। सिरोंचा तहसील में इंद्रावती, प्राणहिता, और गोदावरी नदियों के तट पर बसे जंगल, वन्यजीवों के लिए अनुकूल आवास हैं। लेकिन खनन परियोजनाओं से इनका आवास नष्ट हो सकता है, जिससे वन्यजीव संरक्षण और पारिस्थितिक संतुलन पर गहरा प्रभाव पड़ेगा।
गढ़चिरौली के जंगल बेशकीमती सागौन, बांस, तेंदू और औषधीय वनस्पतियों के लिए भी जाने जाते हैं। सिरोंचा उपवन संरक्षक कार्यालय के अंतर्गत आने वाले जंगलों में इन वनस्पतियों की भरमार है। कमलापूर और झिंगानूर जैसे वन क्षेत्रों में इंद्रावती नदी के किनारे दुर्लभ जंगली भैंसों का विचरण होता है।
परंतु, इन जंगलों में पेड़ों की कटाई, वन्यजीवों का शिकार और लकड़ी की तस्करी जैसी समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। दुर्भाग्यवश, सरकार और वन विभाग इन गतिविधियों को रोकने में अब तक नाकाम साबित हुए हैं।
गढ़चिरौली के जंगल सिर्फ एक भौगोलिक क्षेत्र नहीं हैं, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक और पारिस्थितिक विरासत का अभिन्न हिस्सा हैं। पर्यावरणीय विशेषज्ञों और स्थानीय समुदायों के साथ विचार-विमर्श के बिना इतनी बड़ी परियोजना पर काम शुरू करना एक गंभीर चूक होगी। विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाए रखना ही इस क्षेत्र के भविष्य को सुरक्षित कर सकता है। गढ़चिरौली की यह लड़ाई केवल स्थानीय लोगों की नहीं, बल्कि पूरे देश की सामूहिक जिम्मेदारी
खनन परियोजनाओं का आर्थिक पक्ष
प्रस्तावित खनन परियोजनाओं का मुख्य उद्देश्य गढ़चिरौली जिले में लौह अयस्क और क्वार्टजाइट जैसे खनिज संसाधनों का उपयोग करना है। इन परियोजनाओं में क्रशिंग यूनिट, स्पंज आयरन किल्न्स, बिजली संयंत्र और पेलेट प्लांट की स्थापना शामिल है। लगभग 700 करोड़ रुपये की लागत वाली यह परियोजना स्थानीय विकास को गति देने और रोजगार के अवसर प्रदान करने का दावा करती है। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का कहना है कि यह परियोजना गढ़चिरौली को महाराष्ट्र का सबसे समृद्ध जिला बना सकती है। हालांकि, इन दावों के बीच पर्यावरणीय नुकसान और सामाजिक प्रभावों की अनदेखी नहीं की जा सकती।
महाराष्ट्र के नक्सल प्रभावित गढ़चिरौली जिले में खनिज आधारित इस्पात संयंत्र स्थापित करने की योजना बनाई गई है। यह परियोजना खनिज संसाधनों के उपयोग को बढ़ावा देने के साथ-साथ रोजगार के अवसर सृजित कर जिले के समग्र विकास में योगदान देगी। परियोजना में क्रशिंग यूनिट, 100,000 मीट्रिक टन क्षमता के स्पंज आयरन किल्न्स, 15 मेगावाट का अपशिष्ट ऊष्मा और कोयला आधारित बिजली संयंत्र, तथा 1 मिलियन टीपीए क्षमता का पेलेट प्लांट स्थापित किया जाएगा। इसका मुख्य उद्देश्य जिले के खनिज संसाधनों का प्रभावी उपयोग और स्थानीय निवासियों को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रोजगार प्रदान करना है।
संयंत्र का निर्माण दो चरणों में पूरा किया जाएगा। स्पंज आयरन संयंत्र के लिए आधुनिक तकनीक का उपयोग किया जाएगा, जिसमें कच्चा माल और उत्पाद हैंडलिंग प्रणाली, विद्युत वितरण प्रणाली, और प्रदूषण नियंत्रण प्रणाली शामिल हैं। इसके साथ ही, 10 मेगावाट क्षमता का पावर प्लांट, जिसमें टर्बाइन, जेनरेटर, जल उपचार सुविधाएं और शीतलन टॉवर होंगे, स्थापित किया जाएगा। पेलेट प्लांट के लिए रोटरी भट्ठा और प्रदूषण नियंत्रण उपकरण लगाए जाएंगे।
रोजगार के अवसर और लाभ
सरकार का दावा है कि यह परियोजना स्थानीय निवासियों के लिए रोजगार के बड़े अवसर पैदा करेगी। खनन स्थल पर 300 और संयंत्र के दूसरे चरण के पूरा होने पर 800 लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार मिलेगा। इसके अतिरिक्त, परिवहन, भोजनालय और आतिथ्य जैसे क्षेत्रों में 2,000 से अधिक अप्रत्यक्ष रोजगार के अवसर सृजित होंगे। कंपनी ने भूमि अधिग्रहण के तहत प्रभावित किसानों के प्रत्येक परिवार के एक सदस्य को रोजगार देने की गारंटी दी है।
इस परियोजना को गढ़चिरौली के लौह अयस्क संसाधनों का उपयोग करते हुए नक्सल प्रभावित क्षेत्र में शांति और समृद्धि लाने का माध्यम माना जा रहा है। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने एक चुनावी रैली में कहा कि यह परियोजना गढ़चिरौली को महाराष्ट्र का सबसे खुशहाल और समृद्ध जिला बना देगी। उन्होंने वन विभाग पर आरोप लगाया कि वह विकास परियोजनाओं में बाधा डाल रहा है। गडकरी ने कहा कि कई लौह अयस्क कंपनियां गढ़चिरौली में इकाइयां स्थापित कर रही हैं, जो जिले में रोजगार और औद्योगिक विकास के नए अवसर प्रदान करेंगी।
इस परियोजना को क्षेत्रीय असमानताओं को कम करने और खनिज आधारित औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण पहल बताया जा रहा है। संयंत्र का निर्माण चार साल में पूरा किया जाएगा, और इसके माध्यम से जिले के आर्थिक विकास को गति मिलने की उम्मीद है। हालांकि, परियोजना से जुड़े पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों पर विचार किए बिना इसे लागू करना गंभीर सवाल खड़े करता है।
पर्यावरणीय संरक्षण और आर्थिक विकास के बीच संतुलन बनाना समय की मांग है। यदि इन परियोजनाओं को बिना पर्याप्त मूल्यांकन और स्थानीय समुदायों की भागीदारी के लागू किया गया, तो यह गढ़चिरौली के पर्यावरण और जनजीवन दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।
आदिवासियों ने लड़ी है लंबी लड़ाई
महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में मिश्रित आदिवासी और गैर-आदिवासी आबादी वाले छह गांवों ने वर्षों के संघर्ष के बाद कुछ साल पहले वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर) हासिल किया। इन गांवों ने इस गर्मी में सामूहिक रूप से तेंदू पत्तों की कटाई और नीलामी से 56 लाख रुपये अर्जित किए। लगभग एक हजार ग्रामीणों ने 17 दिनों के श्रम से 32 लाख रुपये कमाए। इस लाभ में से प्रति व्यक्ति औसतन 30,000 से 32,000 रुपये दिए गए। शेष राशि को छह ग्राम सभाओं ने अपने विकास कोष में रखा, जिससे सामुदायिक कार्य किए जाएंगे।
पहली बार, इन ग्रामीणों को खरीफ सीजन की तैयारी के लिए निजी ऋणदाताओं से उधार लेने की आवश्यकता नहीं पड़ी। उनके पास आगामी कृषि सीजन के लिए पर्याप्त नकदी थी। यह सफलता आदिवासी समुदायों के सामूहिक प्रयास और स्वशासन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का परिणाम है।
आदिवासी समुदायों ने स्थानीय स्वशासन का यह तरीका ऐसे समय में विकसित किया जब भारतीय राजनीति केंद्रीकरण और अधिनायकवाद की ओर बढ़ रही है। राष्ट्रीय स्तर पर यह वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के तहत लाए गए उस आर्थिक परिवर्तन का एक उदाहरण है, जो उन गांवों में देखने को मिलता है जिन्हें उनके पारंपरिक रूप से संरक्षित वनों का अधिकार मिला है।
लेकिन सवाल उठता है कि राज्य सरकारें भारत के हजारों गांवों के सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर) को स्वीकार करने की पहल क्यों नहीं कर रही हैं? भारतीय संसद द्वारा पारित सबसे प्रगतिशील कानूनों में से दो, पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम (पेसा) के 25 वर्ष और वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के 15 वर्ष पूरे हो चुके हैं। फिर भी, औपनिवेशिक मानसिकता वाले नौकरशाह इन कानूनों के कार्यान्वयन में बाधा डाल रहे हैं।
नागरिक समाज समूहों का एक अनुमान है कि एफआरए ने अपनी कुल क्षमता का केवल 15% ही हासिल किया है, क्योंकि सरकारें और प्रशासन क्षेत्र में अपना प्रभुत्व छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। विकेंद्रीकरण तभी प्रभावी हो सकता है जब लोगों को वह शक्ति और अधिकार दिए जाएं जो राज्य उन्हें देने का वादा करता है।
महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल गढ़चिरौली जिले के कई आर्थिक रूप से पिछड़े गांवों ने कड़े संघर्ष के बाद सीएफआर हासिल किया। इस यात्रा की शुरुआत उत्तरी गढ़चिरौली के एक छोटे से गांव मेंधा लेखा से हुई, जिसने 40 वर्षों तक "मावा नाते, मावा राज" (मेरा गांव, मेरा शासन) के नारे के साथ अपनी लड़ाई लड़ी। यह स्थानीय स्वशासन और सामुदायिक अधिकारों का एक आदर्श उदाहरण है।
जिन गांवों ने अपने जंगलों पर अधिकार प्राप्त कर लिया है, वे अब एक ऐसा आर्थिक परिवर्तन ला रहे हैं जिसे कोई सरकारी कार्यक्रम या अनुदान कभी नहीं ला सका। इन गांवों ने लघु वन उपज जैसे तेंदू पत्ते, बांस, फल और सब्जियों को नीलामी के माध्यम से सही मूल्य पर बेचना शुरू किया। इनकी ग्राम सभाओं ने न केवल आजीविका के बेहतर साधन जुटाए बल्कि गांवों के विकास के लिए धन भी एकत्र किया।
सामाजिक-आर्थिक बदलाव
इन प्रयासों के परिणामस्वरूप दूरदराज के गांवों में भी सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन देखने को मिला है। यह बदलाव अभूतपूर्व है और इसने अन्य राज्यों को प्रेरित किया है। महाराष्ट्र के बाद छत्तीसगढ़ ने भी इस मॉडल को अपनाना शुरू किया है। लघु वन उपज को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तंत्र के तहत लाने की योजना बनाई जा रही है, जिससे शोषण में कमी आई है और स्थानीय प्रशासन अधिक सक्रिय हुआ है।
2014 के बाद जन-अधिकारों से संबंधित संवैधानिक नीतियों में बदलाव ने आदिवासी और मूलनिवासी समुदायों के अधिकारों पर गंभीर हमले किए हैं। पूंजीपरक नीतियों ने उनके पारंपरिक अधिकारों को खत्म कर कॉरपोरेट हितों को बढ़ावा दिया है। पांचवीं अनुसूची, पेसा, एफआरए, सीएनटी एक्ट, और एसपीटी एक्ट जैसे कानून कागजों पर तो मौजूद हैं, लेकिन इन्हें प्रभावहीन बना दिया गया है।
लैंड रिकॉर्ड के डिजिटलीकरण के चलते आदिवासियों की जमीनें तेजी से पूंजीपतियों के कब्जे में जा रही हैं। रातों-रात जमीन के रिकॉर्ड में असली मालिक का नाम बदलकर किसी और का नाम दर्ज कर दिया जाता है। यह न केवल उनकी आजीविका बल्कि उनके सांस्कृतिक और सामाजिक अस्तित्व के लिए भी बड़ा खतरा है।
आदिवासी समुदायों ने अपने जंगलों और अधिकारों की रक्षा के लिए लंबी लड़ाई लड़ी है। लेकिन इस लड़ाई को केवल स्थानीय स्तर पर नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी समर्थन की आवश्यकता है। जब तक राज्य और केंद्र सरकारें सामुदायिक अधिकारों को मान्यता नहीं देतीं और उन्हें संरक्षित नहीं करतीं, तब तक आदिवासी समुदायों का संघर्ष और उनका अस्तित्व दोनों खतरे में रहेंगे।
पूंजीवादी नीतियों का खतरा
गढ़चिरौली के जंगल आदिवासी समुदायों के लिए जीवनरेखा हैं। यहां के आदिवासी अपनी आजीविका, भोजन, औषधियों और जीवन-यापन के अन्य संसाधनों के लिए पूरी तरह से इन जंगलों पर निर्भर हैं। खनन परियोजनाओं के लिए इन जंगलों की कटाई का अर्थ न केवल पर्यावरणीय संतुलन को बिगाड़ना है, बल्कि इन आदिवासी समुदायों को उनके मूल अधिकारों से वंचित करना भी है। संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों के बावजूद, इन निर्णयों में आदिवासियों की सहमति और उनकी जरूरतों को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया है।
दुनिया भर में 5,000 से अधिक प्रकार के आदिवासी समुदाय रहते हैं। भारत में, लगभग 461 आदिवासी जातियां निवास करती हैं, जो इस उपमहाद्वीप को आदिवासियों और मूलनिवासियों का सबसे पुराना निवास स्थान बनाती हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में 10.45 करोड़ आदिवासी रहते हैं, जबकि गैर-सरकारी आंकड़ों के अनुसार यह संख्या अब 14 करोड़ को पार कर चुकी है।
भारत में अधिकांश राज्यों में आदिवासी समुदायों की उल्लेखनीय उपस्थिति है। केंद्र सरकार ने आदिवासियों की आबादी को ध्यान में रखते हुए 593 अधिसूचित आदिवासी जिले घोषित किए हैं। इनमें भील जनजाति सबसे बड़ी है, जबकि गोंड जनजाति दूसरी सबसे बड़ी जनजाति है। इनके अतिरिक्त, संथाल, उरांव, मुंडा, बोडो, और मिनस जैसी जनजातियों की आबादी भी लाखों में है।
वन कानून और आदिवासी समुदाय
वन अधिकार अधिनियम, 2006 (FRA) ने वन संसाधनों पर आदिवासी समुदायों और पारंपरिक वनवासियों के अधिकारों को कानूनी मान्यता दी है। यह अधिनियम उन समुदायों की आजीविका, निवास, और सांस्कृतिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाया गया था, जो सदियों से इन जंगलों पर निर्भर रहे हैं। लेकिन हाल के वर्षों में, पूंजीवादी नीतियों ने आदिवासियों के परंपरागत अधिकारों को कमजोर किया है।
डिजिटल भूमि रिकॉर्ड प्रणाली ने आदिवासियों की जमीनों पर कब्जा करने की घटनाओं को बढ़ावा दिया है। रातों-रात भूमि रिकॉर्ड में असली मालिकों के नाम हटाकर अन्य व्यक्तियों के नाम दर्ज किए जा रहे हैं। पांचवीं अनुसूची, पेसा कानून, और एफआरए जैसे कानून कागजों पर तो मौजूद हैं, लेकिन उन्हें प्रभावी तरीके से लागू नहीं किया जा रहा है।
गढ़चिरौली जिले में खनन परियोजनाओं को मंजूरी देकर जहां आर्थिक विकास का दावा किया जा रहा है, वहीं पर्यावरण और वन्यजीवों पर गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है। यह जिला अपनी समृद्ध जैव विविधता और घने जंगलों के लिए जाना जाता है। यहां के जंगल न केवल हजारों वन्यजीवों का निवास स्थान हैं, बल्कि आदिवासी समुदायों की आजीविका और सांस्कृतिक पहचान का भी आधार हैं।
इन जंगलों में मौजूद पेड़-पौधे और वनस्पतियां स्थानीय लोगों की आर्थिक और सामाजिक संरचना का अभिन्न हिस्सा हैं। इसके अलावा, ये जंगल महाराष्ट्र के पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। खनन परियोजनाओं के लिए जंगलों की कटाई का निर्णय इन सभी पहलुओं पर गंभीर प्रभाव डालेगा।
जंगल केवल पेड़ों का समूह नहीं हैं; वे एक समग्र पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा हैं। पेड़ों की कटाई से जलवायु परिवर्तन, वायु प्रदूषण, मिट्टी के क्षरण और जल स्रोतों की कमी जैसी समस्याएं पैदा होंगी। इसके अलावा, यह कृषि पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालेगा।
इससे भी चिंताजनक बात यह है कि इतनी बड़ी और संवेदनशील परियोजना को केवल एक दिन में मंजूरी दे दी गई। बिना पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) और आदिवासी समुदायों के विचारों को सुने ऐसा निर्णय लेना शासन व्यवस्था की खामियों को उजागर करता है।
समाधान के संभावित उपाय
पर्यावरणीय प्रभाव का गहन आकलन: खनन परियोजनाओं को मंजूरी देने से पहले, उनके पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों का गहन अध्ययन आवश्यक है।
आदिवासी अधिकारों की सुरक्षा: आदिवासी समुदायों की सहमति को प्राथमिकता दी जानी चाहिए और पुनर्वास व आजीविका के वैकल्पिक साधन प्रदान किए बिना ऐसी परियोजनाएं शुरू नहीं की जानी चाहिए।
स्थानीय भागीदारी: परियोजनाओं की योजना और निर्णय प्रक्रिया में स्थानीय समुदायों और पर्यावरण विशेषज्ञों को शामिल करना चाहिए।
जंगलों का संरक्षण: खनन जैसी गतिविधियों के लिए वैकल्पिक और पर्यावरण-अनुकूल उपायों पर विचार किया जाना चाहिए।
गढ़चिरौली में एक लाख से अधिक पेड़ों को काटने और खनन परियोजनाओं को मंजूरी देना पर्यावरण और समाज के लिए एक बड़ा संकट है। यह न केवल गढ़चिरौली के जंगलों और वन्यजीवों को खतरे में डालता है, बल्कि आदिवासी समुदायों के भविष्य को भी अनिश्चित बना देता है। ऐसे में, हमारी जिम्मेदारी है कि हम इस मुद्दे पर जागरूकता फैलाएं और सरकार से इस निर्णय पर पुनर्विचार करने की मांग करें। विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है, ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए हमारी धरोहर और पर्यावरण संरक्षित रह सके।
(विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं)
महाराष्ट्र का गढ़चिरौली जिला, जो अपनी घने जंगलों की हरियाली, जैव विविधता और आदिवासी संस्कृति के लिए जाना जाता है, आज एक गंभीर पर्यावरणीय संकट के मुहाने पर खड़ा है। एटापल्ली और भामरागढ़ तहसीलों में प्रस्तावित खनन परियोजनाओं के कारण 1.23 लाख से अधिक पेड़ों के कटने का खतरा पैदा हो गया है। ये पेड़ न केवल इस क्षेत्र के पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखते हैं, बल्कि यहां रहने वाले वन्यजीवों और आदिवासी समुदायों की आजीविका का आधार भी हैं। जंगल की यह हरियाली स्थानीय जलवायु को नियंत्रित करने में मदद करती है और इसे जैव विविधता का खजाना बनाती है।
हाल ही में, 9 अक्टूबर 2024 को राज्य वन्यजीव बोर्ड की स्थायी समिति ने मात्र आठ दिनों की तैयारी में इन परियोजनाओं को मंजूरी दे दी। इस बैठक में 1,070 हेक्टेयर वन भूमि के डायवर्जन की अनुमति दी गई, जो लोहे और क्वार्टजाइट जैसे खनिज भंडारों के खनन के लिए है। यह फैसला न केवल पर्यावरणीय प्रभाव आकलन की अनदेखी करता है, बल्कि आदिवासी समुदायों के अधिकारों और उनकी संस्कृति पर भी गंभीर प्रश्न खड़े करता है।
गढ़चिरौली, जहां सागौन, बांस, तेंदू जैसे बहुमूल्य पेड़ों के अलावा दुर्लभ वन्यजीवों का घर है, इन परियोजनाओं के चलते अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। एक ओर सरकार इस क्षेत्र को विकास और औद्योगिकीकरण का केंद्र बनाने का दावा कर रही है, वहीं दूसरी ओर पर्यावरणीय नुकसान और आदिवासी जनजीवन पर इसके दुष्प्रभाव की अनदेखी कर रही है।
यह क्षेत्र घने जंगलों, दुर्लभ वन्यजीवों और जैव विविधता से समृद्ध है। यहां सागौन, बांस, तेंदू जैसे महत्वपूर्ण पेड़ों के साथ औषधीय गुणधर्म वाली वनस्पतियां पाई जाती हैं। दुर्लभ वन्यजीव जैसे तेंदुआ, भालू, नीलगाय, चीतल और पेंगोलिन इन जंगलों में निवास करते हैं। ऐसे में, इतनी बड़ी मात्रा में पेड़ों की कटाई न केवल स्थानीय पर्यावरण को, बल्कि देश की जैव विविधता को भी गंभीर नुकसान पहुंचा सकती है।
पर्यावरणीय धरोहर पर संकट
गढ़चिरौली का जंगल केवल पेड़ों का समूह भर नहीं है; यह यहां के आदिवासियों की जीवनरेखा और उनकी सांस्कृतिक पहचान का अहम हिस्सा है। यह क्षेत्र पारंपरिक कृषि, वनोपज, और स्थानीय रोजगार का मुख्य आधार है। खनन परियोजनाओं के कारण जंगलों का खत्म होना न केवल आदिवासियों के जीवन को सीधा प्रभावित करेगा, बल्कि क्षेत्र के पर्यावरणीय संतुलन को भी खतरे में डाल देगा। यह जंगल वन्यजीवों के लिए एक सुरक्षित आवास है, और यदि इसे नुकसान पहुंचता है, तो मानव-वन्यजीव संघर्ष की घटनाएं बढ़ सकती हैं।
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के एटापल्ली और भामरागढ़ तहसीलों में खनन परियोजनाओं को हाल ही में मंजूरी दी गई है। इन परियोजनाओं में लोहे और क्वार्टजाइट जैसे खनिज भंडारों की खोज और खनन शामिल है। राज्य वन्यजीव बोर्ड (एससी-एसबीडब्ल्यूएल) की स्थायी समिति ने 9 अक्टूबर 2024 को इन परियोजनाओं को मंजूरी दी। यह बैठक बेहद कम समय में, पिछले सत्र के मात्र आठ दिन बाद आयोजित की गई, और इसमें 1,070 हेक्टेयर वन भूमि को खनन के लिए डायवर्जन की स्वीकृति दी गई। यह भूमि सुरजागढ़ की पहले से सक्रिय खनन परियोजनाओं से जुड़ी है।
स्थानीय विरोध और चुनौतियां
स्थानीय आदिवासी और पर्यावरण कार्यकर्ता इन परियोजनाओं का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि खनन से उनकी आजीविका और पारंपरिक जीवनशैली पर सीधा असर पड़ेगा। गढ़चिरौली का यह इलाका नक्सल प्रभावित भी है, जिससे यहां खनन परियोजनाओं का संचालन और चुनौतीपूर्ण हो जाएगा। इसके अलावा, वन विभाग वन्यजीव संरक्षण में पहले से ही विफलताओं के आरोप झेल रहा है, जिससे खनन से जुड़े संभावित नुकसान को रोकना और मुश्किल हो सकता है।
एफआरए (वन अधिकार अधिनियम) समिति के अध्यक्ष विनायक वधाड़े ने आरोप लगाया है कि परियोजनाओं के फैसले में स्थानीय समुदाय को शामिल नहीं किया गया। उन्होंने कहा, "यह निर्णय हमारी सहमति के बिना लिया गया है। गढ़चिरौली के जंगलों को बचाना सामुदायिक अधिकारों और पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने की लड़ाई है। पेड़ों की कटाई से जलवायु परिवर्तन, कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि, और स्थानीय जलवायु पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।"
गढ़चिरौली जिला ताडोबा-अंधेरी और इंद्रावती बाघ गलियारे के भीतर आता है, जो बाघों और अन्य दुर्लभ वन्यजीवों के संरक्षण के लिए अहम है। बावजूद इसके, भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई), देहरादून द्वारा सुझाए गए शमन उपायों के आधार पर परियोजनाओं को मंजूरी दे दी गई।
यहां के अहेरी और सिरोंचा जैसे उपविभागों में दुर्लभ प्रजातियों का निवास है। इन क्षेत्रों में तेंदुआ, बाघ, भालू, चीतल, नीलगाय, पेंगोलिन, और दुर्लभ जंगली भैंसे जैसे वन्यजीव पाए जाते हैं। सिरोंचा तहसील में इंद्रावती, प्राणहिता, और गोदावरी नदियों के तट पर बसे जंगल, वन्यजीवों के लिए अनुकूल आवास हैं। लेकिन खनन परियोजनाओं से इनका आवास नष्ट हो सकता है, जिससे वन्यजीव संरक्षण और पारिस्थितिक संतुलन पर गहरा प्रभाव पड़ेगा।
गढ़चिरौली के जंगल बेशकीमती सागौन, बांस, तेंदू और औषधीय वनस्पतियों के लिए भी जाने जाते हैं। सिरोंचा उपवन संरक्षक कार्यालय के अंतर्गत आने वाले जंगलों में इन वनस्पतियों की भरमार है। कमलापूर और झिंगानूर जैसे वन क्षेत्रों में इंद्रावती नदी के किनारे दुर्लभ जंगली भैंसों का विचरण होता है।
परंतु, इन जंगलों में पेड़ों की कटाई, वन्यजीवों का शिकार और लकड़ी की तस्करी जैसी समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। दुर्भाग्यवश, सरकार और वन विभाग इन गतिविधियों को रोकने में अब तक नाकाम साबित हुए हैं।
गढ़चिरौली के जंगल सिर्फ एक भौगोलिक क्षेत्र नहीं हैं, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक और पारिस्थितिक विरासत का अभिन्न हिस्सा हैं। पर्यावरणीय विशेषज्ञों और स्थानीय समुदायों के साथ विचार-विमर्श के बिना इतनी बड़ी परियोजना पर काम शुरू करना एक गंभीर चूक होगी। विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाए रखना ही इस क्षेत्र के भविष्य को सुरक्षित कर सकता है। गढ़चिरौली की यह लड़ाई केवल स्थानीय लोगों की नहीं, बल्कि पूरे देश की सामूहिक जिम्मेदारी
खनन परियोजनाओं का आर्थिक पक्ष
प्रस्तावित खनन परियोजनाओं का मुख्य उद्देश्य गढ़चिरौली जिले में लौह अयस्क और क्वार्टजाइट जैसे खनिज संसाधनों का उपयोग करना है। इन परियोजनाओं में क्रशिंग यूनिट, स्पंज आयरन किल्न्स, बिजली संयंत्र और पेलेट प्लांट की स्थापना शामिल है। लगभग 700 करोड़ रुपये की लागत वाली यह परियोजना स्थानीय विकास को गति देने और रोजगार के अवसर प्रदान करने का दावा करती है। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का कहना है कि यह परियोजना गढ़चिरौली को महाराष्ट्र का सबसे समृद्ध जिला बना सकती है। हालांकि, इन दावों के बीच पर्यावरणीय नुकसान और सामाजिक प्रभावों की अनदेखी नहीं की जा सकती।
महाराष्ट्र के नक्सल प्रभावित गढ़चिरौली जिले में खनिज आधारित इस्पात संयंत्र स्थापित करने की योजना बनाई गई है। यह परियोजना खनिज संसाधनों के उपयोग को बढ़ावा देने के साथ-साथ रोजगार के अवसर सृजित कर जिले के समग्र विकास में योगदान देगी। परियोजना में क्रशिंग यूनिट, 100,000 मीट्रिक टन क्षमता के स्पंज आयरन किल्न्स, 15 मेगावाट का अपशिष्ट ऊष्मा और कोयला आधारित बिजली संयंत्र, तथा 1 मिलियन टीपीए क्षमता का पेलेट प्लांट स्थापित किया जाएगा। इसका मुख्य उद्देश्य जिले के खनिज संसाधनों का प्रभावी उपयोग और स्थानीय निवासियों को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रोजगार प्रदान करना है।
संयंत्र का निर्माण दो चरणों में पूरा किया जाएगा। स्पंज आयरन संयंत्र के लिए आधुनिक तकनीक का उपयोग किया जाएगा, जिसमें कच्चा माल और उत्पाद हैंडलिंग प्रणाली, विद्युत वितरण प्रणाली, और प्रदूषण नियंत्रण प्रणाली शामिल हैं। इसके साथ ही, 10 मेगावाट क्षमता का पावर प्लांट, जिसमें टर्बाइन, जेनरेटर, जल उपचार सुविधाएं और शीतलन टॉवर होंगे, स्थापित किया जाएगा। पेलेट प्लांट के लिए रोटरी भट्ठा और प्रदूषण नियंत्रण उपकरण लगाए जाएंगे।
रोजगार के अवसर और लाभ
सरकार का दावा है कि यह परियोजना स्थानीय निवासियों के लिए रोजगार के बड़े अवसर पैदा करेगी। खनन स्थल पर 300 और संयंत्र के दूसरे चरण के पूरा होने पर 800 लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार मिलेगा। इसके अतिरिक्त, परिवहन, भोजनालय और आतिथ्य जैसे क्षेत्रों में 2,000 से अधिक अप्रत्यक्ष रोजगार के अवसर सृजित होंगे। कंपनी ने भूमि अधिग्रहण के तहत प्रभावित किसानों के प्रत्येक परिवार के एक सदस्य को रोजगार देने की गारंटी दी है।
इस परियोजना को गढ़चिरौली के लौह अयस्क संसाधनों का उपयोग करते हुए नक्सल प्रभावित क्षेत्र में शांति और समृद्धि लाने का माध्यम माना जा रहा है। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने एक चुनावी रैली में कहा कि यह परियोजना गढ़चिरौली को महाराष्ट्र का सबसे खुशहाल और समृद्ध जिला बना देगी। उन्होंने वन विभाग पर आरोप लगाया कि वह विकास परियोजनाओं में बाधा डाल रहा है। गडकरी ने कहा कि कई लौह अयस्क कंपनियां गढ़चिरौली में इकाइयां स्थापित कर रही हैं, जो जिले में रोजगार और औद्योगिक विकास के नए अवसर प्रदान करेंगी।
इस परियोजना को क्षेत्रीय असमानताओं को कम करने और खनिज आधारित औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण पहल बताया जा रहा है। संयंत्र का निर्माण चार साल में पूरा किया जाएगा, और इसके माध्यम से जिले के आर्थिक विकास को गति मिलने की उम्मीद है। हालांकि, परियोजना से जुड़े पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों पर विचार किए बिना इसे लागू करना गंभीर सवाल खड़े करता है।
पर्यावरणीय संरक्षण और आर्थिक विकास के बीच संतुलन बनाना समय की मांग है। यदि इन परियोजनाओं को बिना पर्याप्त मूल्यांकन और स्थानीय समुदायों की भागीदारी के लागू किया गया, तो यह गढ़चिरौली के पर्यावरण और जनजीवन दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।
आदिवासियों ने लड़ी है लंबी लड़ाई
महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में मिश्रित आदिवासी और गैर-आदिवासी आबादी वाले छह गांवों ने वर्षों के संघर्ष के बाद कुछ साल पहले वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर) हासिल किया। इन गांवों ने इस गर्मी में सामूहिक रूप से तेंदू पत्तों की कटाई और नीलामी से 56 लाख रुपये अर्जित किए। लगभग एक हजार ग्रामीणों ने 17 दिनों के श्रम से 32 लाख रुपये कमाए। इस लाभ में से प्रति व्यक्ति औसतन 30,000 से 32,000 रुपये दिए गए। शेष राशि को छह ग्राम सभाओं ने अपने विकास कोष में रखा, जिससे सामुदायिक कार्य किए जाएंगे।
पहली बार, इन ग्रामीणों को खरीफ सीजन की तैयारी के लिए निजी ऋणदाताओं से उधार लेने की आवश्यकता नहीं पड़ी। उनके पास आगामी कृषि सीजन के लिए पर्याप्त नकदी थी। यह सफलता आदिवासी समुदायों के सामूहिक प्रयास और स्वशासन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का परिणाम है।
आदिवासी समुदायों ने स्थानीय स्वशासन का यह तरीका ऐसे समय में विकसित किया जब भारतीय राजनीति केंद्रीकरण और अधिनायकवाद की ओर बढ़ रही है। राष्ट्रीय स्तर पर यह वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के तहत लाए गए उस आर्थिक परिवर्तन का एक उदाहरण है, जो उन गांवों में देखने को मिलता है जिन्हें उनके पारंपरिक रूप से संरक्षित वनों का अधिकार मिला है।
लेकिन सवाल उठता है कि राज्य सरकारें भारत के हजारों गांवों के सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर) को स्वीकार करने की पहल क्यों नहीं कर रही हैं? भारतीय संसद द्वारा पारित सबसे प्रगतिशील कानूनों में से दो, पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम (पेसा) के 25 वर्ष और वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के 15 वर्ष पूरे हो चुके हैं। फिर भी, औपनिवेशिक मानसिकता वाले नौकरशाह इन कानूनों के कार्यान्वयन में बाधा डाल रहे हैं।
नागरिक समाज समूहों का एक अनुमान है कि एफआरए ने अपनी कुल क्षमता का केवल 15% ही हासिल किया है, क्योंकि सरकारें और प्रशासन क्षेत्र में अपना प्रभुत्व छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। विकेंद्रीकरण तभी प्रभावी हो सकता है जब लोगों को वह शक्ति और अधिकार दिए जाएं जो राज्य उन्हें देने का वादा करता है।
महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल गढ़चिरौली जिले के कई आर्थिक रूप से पिछड़े गांवों ने कड़े संघर्ष के बाद सीएफआर हासिल किया। इस यात्रा की शुरुआत उत्तरी गढ़चिरौली के एक छोटे से गांव मेंधा लेखा से हुई, जिसने 40 वर्षों तक "मावा नाते, मावा राज" (मेरा गांव, मेरा शासन) के नारे के साथ अपनी लड़ाई लड़ी। यह स्थानीय स्वशासन और सामुदायिक अधिकारों का एक आदर्श उदाहरण है।
जिन गांवों ने अपने जंगलों पर अधिकार प्राप्त कर लिया है, वे अब एक ऐसा आर्थिक परिवर्तन ला रहे हैं जिसे कोई सरकारी कार्यक्रम या अनुदान कभी नहीं ला सका। इन गांवों ने लघु वन उपज जैसे तेंदू पत्ते, बांस, फल और सब्जियों को नीलामी के माध्यम से सही मूल्य पर बेचना शुरू किया। इनकी ग्राम सभाओं ने न केवल आजीविका के बेहतर साधन जुटाए बल्कि गांवों के विकास के लिए धन भी एकत्र किया।
सामाजिक-आर्थिक बदलाव
इन प्रयासों के परिणामस्वरूप दूरदराज के गांवों में भी सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन देखने को मिला है। यह बदलाव अभूतपूर्व है और इसने अन्य राज्यों को प्रेरित किया है। महाराष्ट्र के बाद छत्तीसगढ़ ने भी इस मॉडल को अपनाना शुरू किया है। लघु वन उपज को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तंत्र के तहत लाने की योजना बनाई जा रही है, जिससे शोषण में कमी आई है और स्थानीय प्रशासन अधिक सक्रिय हुआ है।
2014 के बाद जन-अधिकारों से संबंधित संवैधानिक नीतियों में बदलाव ने आदिवासी और मूलनिवासी समुदायों के अधिकारों पर गंभीर हमले किए हैं। पूंजीपरक नीतियों ने उनके पारंपरिक अधिकारों को खत्म कर कॉरपोरेट हितों को बढ़ावा दिया है। पांचवीं अनुसूची, पेसा, एफआरए, सीएनटी एक्ट, और एसपीटी एक्ट जैसे कानून कागजों पर तो मौजूद हैं, लेकिन इन्हें प्रभावहीन बना दिया गया है।
लैंड रिकॉर्ड के डिजिटलीकरण के चलते आदिवासियों की जमीनें तेजी से पूंजीपतियों के कब्जे में जा रही हैं। रातों-रात जमीन के रिकॉर्ड में असली मालिक का नाम बदलकर किसी और का नाम दर्ज कर दिया जाता है। यह न केवल उनकी आजीविका बल्कि उनके सांस्कृतिक और सामाजिक अस्तित्व के लिए भी बड़ा खतरा है।
आदिवासी समुदायों ने अपने जंगलों और अधिकारों की रक्षा के लिए लंबी लड़ाई लड़ी है। लेकिन इस लड़ाई को केवल स्थानीय स्तर पर नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी समर्थन की आवश्यकता है। जब तक राज्य और केंद्र सरकारें सामुदायिक अधिकारों को मान्यता नहीं देतीं और उन्हें संरक्षित नहीं करतीं, तब तक आदिवासी समुदायों का संघर्ष और उनका अस्तित्व दोनों खतरे में रहेंगे।
पूंजीवादी नीतियों का खतरा
गढ़चिरौली के जंगल आदिवासी समुदायों के लिए जीवनरेखा हैं। यहां के आदिवासी अपनी आजीविका, भोजन, औषधियों और जीवन-यापन के अन्य संसाधनों के लिए पूरी तरह से इन जंगलों पर निर्भर हैं। खनन परियोजनाओं के लिए इन जंगलों की कटाई का अर्थ न केवल पर्यावरणीय संतुलन को बिगाड़ना है, बल्कि इन आदिवासी समुदायों को उनके मूल अधिकारों से वंचित करना भी है। संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों के बावजूद, इन निर्णयों में आदिवासियों की सहमति और उनकी जरूरतों को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया है।
दुनिया भर में 5,000 से अधिक प्रकार के आदिवासी समुदाय रहते हैं। भारत में, लगभग 461 आदिवासी जातियां निवास करती हैं, जो इस उपमहाद्वीप को आदिवासियों और मूलनिवासियों का सबसे पुराना निवास स्थान बनाती हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में 10.45 करोड़ आदिवासी रहते हैं, जबकि गैर-सरकारी आंकड़ों के अनुसार यह संख्या अब 14 करोड़ को पार कर चुकी है।
भारत में अधिकांश राज्यों में आदिवासी समुदायों की उल्लेखनीय उपस्थिति है। केंद्र सरकार ने आदिवासियों की आबादी को ध्यान में रखते हुए 593 अधिसूचित आदिवासी जिले घोषित किए हैं। इनमें भील जनजाति सबसे बड़ी है, जबकि गोंड जनजाति दूसरी सबसे बड़ी जनजाति है। इनके अतिरिक्त, संथाल, उरांव, मुंडा, बोडो, और मिनस जैसी जनजातियों की आबादी भी लाखों में है।
वन कानून और आदिवासी समुदाय
वन अधिकार अधिनियम, 2006 (FRA) ने वन संसाधनों पर आदिवासी समुदायों और पारंपरिक वनवासियों के अधिकारों को कानूनी मान्यता दी है। यह अधिनियम उन समुदायों की आजीविका, निवास, और सांस्कृतिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाया गया था, जो सदियों से इन जंगलों पर निर्भर रहे हैं। लेकिन हाल के वर्षों में, पूंजीवादी नीतियों ने आदिवासियों के परंपरागत अधिकारों को कमजोर किया है।
डिजिटल भूमि रिकॉर्ड प्रणाली ने आदिवासियों की जमीनों पर कब्जा करने की घटनाओं को बढ़ावा दिया है। रातों-रात भूमि रिकॉर्ड में असली मालिकों के नाम हटाकर अन्य व्यक्तियों के नाम दर्ज किए जा रहे हैं। पांचवीं अनुसूची, पेसा कानून, और एफआरए जैसे कानून कागजों पर तो मौजूद हैं, लेकिन उन्हें प्रभावी तरीके से लागू नहीं किया जा रहा है।
गढ़चिरौली जिले में खनन परियोजनाओं को मंजूरी देकर जहां आर्थिक विकास का दावा किया जा रहा है, वहीं पर्यावरण और वन्यजीवों पर गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है। यह जिला अपनी समृद्ध जैव विविधता और घने जंगलों के लिए जाना जाता है। यहां के जंगल न केवल हजारों वन्यजीवों का निवास स्थान हैं, बल्कि आदिवासी समुदायों की आजीविका और सांस्कृतिक पहचान का भी आधार हैं।
इन जंगलों में मौजूद पेड़-पौधे और वनस्पतियां स्थानीय लोगों की आर्थिक और सामाजिक संरचना का अभिन्न हिस्सा हैं। इसके अलावा, ये जंगल महाराष्ट्र के पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। खनन परियोजनाओं के लिए जंगलों की कटाई का निर्णय इन सभी पहलुओं पर गंभीर प्रभाव डालेगा।
जंगल केवल पेड़ों का समूह नहीं हैं; वे एक समग्र पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा हैं। पेड़ों की कटाई से जलवायु परिवर्तन, वायु प्रदूषण, मिट्टी के क्षरण और जल स्रोतों की कमी जैसी समस्याएं पैदा होंगी। इसके अलावा, यह कृषि पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालेगा।
इससे भी चिंताजनक बात यह है कि इतनी बड़ी और संवेदनशील परियोजना को केवल एक दिन में मंजूरी दे दी गई। बिना पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) और आदिवासी समुदायों के विचारों को सुने ऐसा निर्णय लेना शासन व्यवस्था की खामियों को उजागर करता है।
समाधान के संभावित उपाय
पर्यावरणीय प्रभाव का गहन आकलन: खनन परियोजनाओं को मंजूरी देने से पहले, उनके पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों का गहन अध्ययन आवश्यक है।
आदिवासी अधिकारों की सुरक्षा: आदिवासी समुदायों की सहमति को प्राथमिकता दी जानी चाहिए और पुनर्वास व आजीविका के वैकल्पिक साधन प्रदान किए बिना ऐसी परियोजनाएं शुरू नहीं की जानी चाहिए।
स्थानीय भागीदारी: परियोजनाओं की योजना और निर्णय प्रक्रिया में स्थानीय समुदायों और पर्यावरण विशेषज्ञों को शामिल करना चाहिए।
जंगलों का संरक्षण: खनन जैसी गतिविधियों के लिए वैकल्पिक और पर्यावरण-अनुकूल उपायों पर विचार किया जाना चाहिए।
गढ़चिरौली में एक लाख से अधिक पेड़ों को काटने और खनन परियोजनाओं को मंजूरी देना पर्यावरण और समाज के लिए एक बड़ा संकट है। यह न केवल गढ़चिरौली के जंगलों और वन्यजीवों को खतरे में डालता है, बल्कि आदिवासी समुदायों के भविष्य को भी अनिश्चित बना देता है। ऐसे में, हमारी जिम्मेदारी है कि हम इस मुद्दे पर जागरूकता फैलाएं और सरकार से इस निर्णय पर पुनर्विचार करने की मांग करें। विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है, ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए हमारी धरोहर और पर्यावरण संरक्षित रह सके।
(विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं)