वनाधिकार 2006: देश में 50% दावों के निपटान के मुकाबले उत्तराखंड में 16 सालों से प्रगति लगभग शून्य

Written by Navnish Kumar | Published on: March 1, 2023
वनाधिकार कानून को लागू हुए 16 साल से ज्यादा हो गए है लेकिन देश भर में 50 प्रतिशत (वनाधिकार) दावों के निपटान के सापेक्ष उत्तराखंड में प्रगति लगभग शून्य है। दो ढाई माह पहले दिसंबर 2022 में सरकार के जनजातीय मंत्रालय द्वारा राज्यसभा में पेश किए आंकड़ों के अनुसार, वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत देश भर में 50 फीसदी दावों को मंजूर करते हुए निपटारा कर लिया गया है। हालांकि उच्च जनजातीय आबादी वाले महाराष्ट्र, राजस्थान और मध्य प्रदेश में व्यक्तिगत वनाधिकारों के लिए अनुमोदन दर 50 प्रतिशत से कम है। लेकिन 64 प्रतिशत वन क्षेत्र वाले उत्तराखंड में स्थिति बहुत गंभीर है। यहां व्यक्तिगत और सामुदायिक वन अधिकार दावों के निपटान की प्रगति लगभग शून्य है।



आलम यह है कि लाखों आदिवासी, अनुसूचित जाति-जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी सालों से वनाधिकार (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 के तहत अपने दावों के निपटाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन सफलता नहीं मिल सकी है। एकमात्र पिथौरागढ़ जनपद में 'राजी' जनजाति के 45 व्यक्तिगत दावों को मान्यता प्रदान किए जाने की बात सामने आई है। कथित तौर पर 'राजी' जनजाति के पुराने पट्टों को पुनः दिए जाने की बात है लेकिन आरोप है कि इस सब के लिए वनाधिकार कानून के तहत निर्धारित प्रक्रिया अमल में नहीं लाई गई है। यही नहीं, सामुदायिक दावों के नाम पर उत्तरकाशी में किसी एक तालाब पर ही हक दिए जाने की बात कही जा रही है। प्रदेश के 200 वन गावों के करीब 10 हजार से ज्यादा व्यक्तिगत व 500 के लगभग सामुदायिक दावे सालों से मान्यता की बाट जोह रहे हैं। घुमंतु वन गुर्जर समुदाय के दावे भी उपखंडीय समिति स्तर पर ही लंबित पड़े हैं।

उत्तराखंड के पशुपालक समुदाय के अधिकारों की आवाज उठाने वाले वन गुज्जर आदिवासी युवा संगठन के संस्थापक अमीर हमजा कहते हैं कि उनके समुदाय के हजारों दावे आज भी उपखंडीय स्तरीय समिति में ही लंबित पड़े हैं। हजारों की संख्या में व्यक्तिगत व करीब 2 दर्जन सामुदायिक दावे फाइल किए हुए हैं लेकिन अभी कोई पास नहीं हुआ है। सामुदायिक दावों में जरूर उत्तरकाशी में एक दावे को मान्यता प्रदान की गई है। हमजा बताते है कि अगर अधिकार मिल जाते हैं, तो वन गुर्जरों को जंगलों और उनके संसाधनों तक पहुंच बनाने की अनुमति मिल जाएगी। ये घुमंतू समुदाय पीढ़ियों से जंगलों और उनसे मिलने वाले संसाधनों पर निर्भर रहा है। हमजा ने दुखी मन से कहा, "चार साल बाद भी हमारे दावे उपखंडीय स्तर की समिति के पास लंबित हैं।" 

वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) ऐतिहासिक कानून है जो वन में रहने वाले आदिवासी समुदायों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के वन संसाधनों के अधिकारों को मान्यता देता है, जिन पर ये समुदाय आजीविका, आवास और अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक जरूरतों के लिए निर्भर रहे हैं। यह कानून वनवासियों को वन संसाधनों तक पहुंचने और उनका इस्तेमाल करने का अधिकार देता है। यह वह काम है जिसे वह परंपरागत रूप से करते आए हैं। इसके अलावा ये कानून वनों की रक्षा, संरक्षण एंव प्रबंधन और वनवासियों को गैरकानूनी बेदखली से बचाते हैं। लेकिन केंद्रीय कानून के लागू होने के 16 साल बाद भी इसका कार्यान्वयन बेहद बुरी स्थिति में है। 16 साल से ज्यादा हो गए हैं और आदिवासी समुदायों को अभी भी जंगलों पर उनके पारंपरिक अधिकार नहीं दिए जा रहे हैं। 

आधिकारिक आंकड़ों में स्थिति साफ नजर आती है। ढाई माह पहले 14 दिसंबर, 2022 को राज्यसभा में जनजातीय मामलों के मंत्रालय की तरफ से पेश किए गए डाटा से पता चलता है कि राष्ट्रीय स्तर पर, जून 2022 तक अधिनियम के तहत दायर कुल दावों में से 50% का निपटारा हो चुका है। जबकि उत्तराखंड में 2006 में कानून के लागू होने के बाद से महज राजी जनजाति के 45 व्यक्तिगत वन अधिकार (IFR) और एक सामुदायिक वन अधिकार (CFR) के दावे का निपटारा किया गया है, जो देश में सबसे कम है। आधिकारिक आंकड़ों से पता चलता है कि हिमालयी राज्य में आईएफआर के 10 हजार और सीएफआर के 500 से ज्यादा दावे दायर किए गए हैं। 

वन पंचायत संघर्ष मोर्चा के संयोजक तरुण जोशी ने कहा "सीएफआर के जिस एकमात्र दावे को स्वीकार किया गया है वह उत्तरकाशी के डूंडा के चौंडियात गांव का है। इसे 2012 में दायर किया गया था, लेकिन मंजूरी 2016 में मिल पाई। राज्य सरकार डेटाबेस को शायद ही अपडेट करती हो। जिस सीएफआर दावे का निपटारा किया गया है वह एक तालाब का इस्तेमाल करने की मंजूरी को लेकर था।" हालांकि कई अन्य राज्यों में भी स्थिति बेहतर नहीं है लेकिन उत्तराखंड में तो अभी शुरुआत ही नहीं हो पाई है। पिथौरागढ़ में 'राजी' जनजाति के 45 पुराने पट्टों को पुनः दिए जाने की बात जरूर है लेकिन इस सब के लिए वनाधिकार कानून के तहत निर्धारित प्रक्रिया अमल में नहीं लाई गई है। तरुण के अनुसार, प्रदेश के 200 वन गावों के 10 हजार से ज्यादा व्यक्तिगत व 500 के लगभग सामुदायिक दावे, सालों से मान्यता की बाट जोह रहे हैं।

वन पंचायत संघर्ष मोर्चा, उत्तराखंड के संयोजक तरुण जोशी राज्य में एफआरए के खराब कार्यान्वयन के लिए "राज्य वन विभाग के रवैये में कमी" को जिम्मेदार ठहराते हैं। जोशी ने कहा, हरिद्वार जिले में "कॉर्बेट नेशनल पार्क के वन गुर्जर समुदाय के 43 परिवारों द्वारा दायर एक सीएफआर दावे में सभी दस्तावेज दिए गए थे और डीएलसी स्तर पर उसे स्वीकृत भी मिल गई थी। लेकिन इसके बावजूद वन विभाग ने प्रक्रिया को रोकने के लिए एक उच्च न्यायालय का आदेश प्राप्त कर लिया। हमें शीर्ष अदालत से स्टे मिल गया है, लेकिन नौकरशाही की चुनौतियां बनी हुई हैं।" उन्होंने बताया कि वन गुर्जरों की लगभग 150 बस्तियों में वन पंचायत का अधिकार नहीं है। वह बताते हैं, "उन्होंने वन पंचायतों के लिए संयुक्त वन प्रबंधन समितियों के दिशानिर्देशों को लागू करने की कोशिश की है, लेकिन लोगों की इसके प्रति नाराजगी और विरोध ऐसा नहीं होने देगा।" वन पंचायतें या ग्राम वन परिषदें वनों के सतत प्रबंधन के लिए गठित स्वायत्त निकाय हैं। पहली वन पंचायत 1992 में पहाड़ी राज्य में स्थापित की गई थी। उत्तराखंड में 6,000 से ज्यादा वन पंचायत राजस्व कानून के तहत मान्यता प्राप्त हैं जो लगभग 4,05,000 हेक्टेयर वनों की देखभाल करती हैं।

अन्य राज्यों में क्या है वनाधिकार की स्थिति?

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार देंखे तो उच्च जनजातीय आबादी वाले महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश में एफआरए के तहत व्यक्तिगत वनाधिकारों के लिए अनुमोदन दर क्रमशः 45.5 प्रतिशत, 50.14 प्रतिशत, 46.78 प्रतिशत और 45.55 प्रतिशत है। दूसरी ओर, छत्तीसगढ़ ने एफआरए 2006 के तहत सबसे ज्यादा सीएफआर दावों का निपटान किया है। 871,457 आईएफआर दावों में से 446,041 (51.18 %) को मंजूरी दी गई है। इसी तरह से 50,889 सीएफआर दावों में से 45,764 (89.9 प्रतिशत) स्वीकृत किए गए हैं।

छत्तीसगढ़ सीएफआर कार्यान्वयन में सबसे आगे 

छत्तीसगढ़ ने टाइगर रिजर्व (धमतरी में सीतानदी-उदंती) में सामुदायिक वन संसाधन अधिकार (CFRR) को मान्यता देने और "एकल महिला को IFR उपाधियों का वितरण" करने के संदर्भ में बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत किया है। राज्य में सीएफआर के साथ साथ आईएफआर में "लगभग 21,000 एकल महिला वन अधिकारों को भी मान्यता दी गई है। राज्य सरकार ने महिला लाभार्थियों के लिए एक अलग रिकॉर्ड बनाए रखा है। छत्तीसगढ़ सरकार ने वन विभाग के जमीनी कर्मचारियों के लिए एक मॉड्यूल तैयार किया था। इसमें हाशिए के समुदायों जैसे महिलाओं, देहाती समुदाय, आदि के लिए अलग-अलग खाका तैयार किया गया था लेकिन दुर्भाग्य से यह एक और भारी दस्तावेज बनकर रह गया है।" मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार स्वतंत्र वनाधिकार शोधकर्ता तुषार दास इस बात से सहमत हैं कि राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ-साथ बेहतर समर्थित नागरिक समाजों के प्रयासों के कारण छत्तीसगढ़ की एफआरए मान्यता अपेक्षाकृत बेहतर है।

वहीं, झारखंड वन अधिकार मंच के संयोजक सुधीर पाल के अनुसार, झारखंड में, व्यक्तिगत वन अधिकार दावों का केवल 55.9 प्रतिशत और 2,57,154.83 एकड़ वन क्षेत्र पर सामुदायिक वन अधिकारों के 56.4 प्रतिशत दावों का निपटान किया गया है। जबकि उड़ीसा में 72 प्रतिशत दावों का निपटारा किया जा चुका है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थान की प्रमुख सलाहकार श्वेता मिश्रा ने कहा, " जून 2022 तक, ओडिशा में दायर 628,000 आइएफआर और 15,282 सीएफआर दावों में से क्रमशः 452,000 (72.02%) और 7,624 (49.88%) को मंजूरी दी गई है। राज्य के नयागढ़ में गैर-आदिवासी गांवों को भी सीएफआर प्राप्त हुआ था।

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