वोट फॉर डेमोक्रेसी (VFD): बिहार की विवादित SIR प्रक्रिया में सांख्यिकीय, कानूनी और प्रक्रिया संबंधी अनियमितताएं पाई गईं

Written by sabrang india | Published on: August 12, 2025
वोट फॉर डेमोक्रेसी की विशेष डेटा जांच में पता चला है कि 27 दिनों की अवधि में कुछ खास दिनों में “मृत” और “स्थायी रूप से स्थानांतरित” मतदाताओं की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। इससे साबित होता है कि बड़े पैमाने पर मतदाताओं के नाम हटाए गए।



चुनाव आयोग (ECI) द्वारा बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) को लेकर एक अभूतपूर्व विवाद खड़ा हो गया है। 'वोट फॉर डेमोक्रेसी' (VFD) और कई नागरिक समाज समूहों ने इस प्रक्रिया में गंभीर कानूनी, प्रक्रियात्मक और सांख्यिकीय उल्लंघनों की चेतावनी दी है। यह पुनरीक्षण 25 जून से 26 जुलाई के बीच किया गया था, जिसमें 65 लाख मतदाताओं — जो कि बिहार के कुल 7.89 करोड़ मतदाताओं का 8.31% हैं — को "लापता", "मृत", "स्थायी रूप से स्थानांतरित" या "एक से अधिक स्थानों पर पंजीकृत" के रूप में चिह्नित किया गया है। हालांकि, इस पूरी प्रक्रिया की अपारदर्शिता और मतदाता नामों को हटाने में अचानक आए आंकड़ों की वृद्धि ने इस कवायद की विश्वसनीयता को लेकर व्यापक चिंता पैदा कर दी है।

25 जुलाई के अंत से लेकर 1 अगस्त के बाद, जब चुनाव आयोग (ECI) ने पहली मसौदा सूची जारी की, जिसमें चौंकाने वाले 65 लाख मतदाताओं को बाहर कर दिया गया, तब से 'वोट फॉर डेमोक्रेसी' (VFD) की विशेषज्ञों और कानूनी विश्लेषकों की टीम ने आयोग के आंकड़ों की गहन जांच की है। इस जांच में मतदाता नाम हटाने की अवधि में चौंकाने वाली असंगतियां सामने आई हैं।

VFD ने आज यह डेटा एक फेसबुक लाइव इवेंट के जरिए सार्वजनिक किया। पूरी रिपोर्ट और पावरपॉइंट प्रेजेंटेशन यहां देखी जा सकती है।

वोट फॉर डेमोक्रेसी: चुनाव आयोग के आंकड़ों के विश्लेषण से प्राप्त प्रमुख निष्कर्ष

1. कानूनी मान्यता से परे प्रक्रिया: "स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन" (Special Intensive Revision - SIR) शब्दावली का कोई कानूनी या वैधानिक आधार मौजूदा निर्वाचन कानूनों में नहीं है। पंजीकरण नियमावली, 1960 (Registration of Electors Rules, 1960) केवल संक्षिप्त (summary), व्यापक (intensive) या आंशिक (partial) पुनरीक्षण की अनुमति देती है। चुनाव आयोग (ECI) ने न केवल एक नया नामकरण (nomenclature) गढ़ा, बल्कि नियम 8 का उल्लंघन करते हुए गैर-मानक नामांकन फॉर्मों (non-standard enumeration forms) का इस्तेमाल किया और मतदाताओं को रसीदें या डुप्लीकेट प्रतियां प्रदान करने में विफल रहा। इस कारण मूलभूत प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों (basic procedural safeguards) से समझौता हुआ।

2. सांख्यिकीय अनियमितताएं और आंकड़ों में "हेरफेर": 14 जुलाई से 25 जुलाई के बीच, हटाए गए मतदाताओं की श्रेणियों जैसे “मृत”, “स्थायी रूप से स्थानांतरित” और “लापता” में अचानक और अत्यधिक वृद्धि दर्ज की गई, जो किसी भी तार्किक या सांख्यिकीय व्याख्या को चुनौती देती है।

• "मृत" मतदाताओं में एक दिन में अभूतपूर्व वृद्धि: सिर्फ एक दिन — 21 जुलाई से 22 जुलाई, 2025 के बीच — 2,11,462 मतदाताओं (18,66,869 – 16,55,407) को मृत घोषित किया गया है। यह आंकड़ा चौंकाने वाला है और किसी भी प्राकृतिक या सत्यापन प्रक्रिया से मेल नहीं खाता।

• एक दिन में विधानसभा स्तर पर बड़े पैमाने पर नाम हटाया जाना: इसी अवधि (21 से 22 जुलाई) में, औसतन प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में 870 मतदाताओं को मतदाता सूची से हटा दिया गया। इस एक दिन में कुल हटाए गए मतदाताओं की संख्या 2,11,462 है। क्या यह प्रक्रिया निष्पक्ष और विधिक मानकों के अनुरूप थी, या यह एक पूर्व निर्धारित योजना के तहत बड़े पैमाने पर मतदाताओं को सूची से हटाने का प्रयास था?

• "मृत" मतदाताओं में पांच दिन की तेजी: SIR प्रक्रिया के अंतिम पांच दिनों, यानी 21 जुलाई से 25 जुलाई, 2025 के बीच, चुनाव आयोग ने चमत्कारिक तरीके से मृत मतदाताओं की संख्या को 16,55,407 (21 जुलाई को) से बढ़ाकर 22 लाख (25 जुलाई को) कर दिया। इस प्रकार, इस श्रेणी में कुल हटाए गए मतदाताओं की संख्या 5,44,593 है, जो 243 विधानसभा क्षेत्रों का आंकड़ा है। इसका मतलब है कि औसतन प्रति विधानसभा क्षेत्र 2,241 मृत मतदाता हटाए गए।

• "स्थायी रूप से स्थानांतरित" मतदाताओं में तीन दिन की तेजी: “स्थायी रूप से स्थानांतरित” श्रेणी में बड़े पैमाने पर हटाने की वृद्धि इतनी ज्यादा है कि इसे आसानी से समझ पाना मुश्किल है। पिछले तीन दिनों में (243 विधानसभा क्षेत्रों में) कुल 15,24,769 मतदाता इस श्रेणी में हटाए गए हैं, जो औसतन प्रति विधानसभा क्षेत्र 6,275 मतदाता हुए। इस प्रकार, ये अंतिम तीन दिन चुनाव आयोग की बिहार SIR प्रक्रिया के लिए सबसे ज्यादा नाम हटाने वाले दिन साबित हुए, जहां हर विधानसभा क्षेत्र से औसतन 8,516 मतदाता सूची से हटा दिए गए।

• हटाए गए मतदाता, प्रोसेस किए गए फॉर्म से अधिक: यह सभी तथ्य स्पष्ट रूप से डेटा साइंस में हेरफेर (jugglery) का संकेत देते हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि “मृत” और “स्थायी रूप से स्थानांतरित” मतदाताओं की संख्या में हुई भारी वृद्धि लगभग उन्हीं घंटों में डिजिटाइज किए गए मतदाता फॉर्मों की संख्या से दोगुनी है! 23 जुलाई से 25 जुलाई के बीच, डिजिटाइज किए गए मतदाताओं की संख्या 7.17 करोड़ से बढ़कर 7.23 करोड़ हो गई। उसी अवधि में, मृत और स्थायी रूप से स्थानांतरित मतदाताओं की कुल संख्या 48 लाख से बढ़कर 57 लाख हो गई, यानी लगभग 9 लाख का इजाफा हुआ।

• “मल्टीपल रजिस्ट्रेशन” श्रेणी का गायब होना: चुनाव आयोग का एक और चमत्कार यह है कि इसी अवधि यानी 23 से 25 जुलाई के बीच “एक से ज्यादा स्थानों पर पंजीकृत” मतदाताओं की श्रेणी में एक भी मतदाता नहीं था! अवलोकन: ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग SIR प्रक्रिया के अंतिम दिनों में पहले से निर्धारित और इच्छित संख्या में मतदाता हटाने के पहले चरण को पूरा करने के लिए जल्दी में था।
ऐसी विसंगतियां, जहां हटाए गए मतदाताओं की संख्या प्राप्त फॉर्मों की संख्या से भी अधिक हो जाती है, यह संकेत देती हैं कि डेटा में संभवतः छेड़छाड़ की गई है ताकि पहले से तय किए गए नाम हटाने के लक्ष्य को पूरा किया जा सके।
   
3. नाम हटाने के डेटा में अपारदर्शिता और एकत्रीकरण: 23 जुलाई को, चुनाव आयोग ने श्रेणीवार रिपोर्टिंग को हटाकर “मर्ज्ड डेटा” प्रस्तुत करना शुरू कर दिया, जिसमें “मृत”, “स्थानांतरित” और “लापता” जैसी अलग-अलग श्रेणियों को मिलाकर एक अस्पष्ट श्रेणी बना दी गई यानी “निर्वाचक अपने पते पर नहीं पाए गए।” यह जानबूझकर किया गया डेटा धुंधलापन (intentional data obfuscation) ठीक उसी समय हुआ जब नाम हटाने के आंकड़े तेजी से बढ़ रहे थे और 27 जुलाई तक यह संख्या 65 लाख तक पहुंच गई।

4.  प्रमुख ज़िलों में असमान रूप से भारी प्रभाव: विलोपन दर ज़िलों के बीच बेहद असमान रही है। कुछ ज़िलों में यह राज्य औसत (8.31%) से कहीं अधिक दर्ज की गई, जैसे: गोपालगंज: 15.10%, पूर्णिया: 12.08%, किशनगंज: 11.82%, मधुबनी: 10.44%। ये जिले हाशिए पर मौजूद आबादी, प्रवासी मजदूरों, और अल्पसंख्यक समुदायों के लिए जाने जाते हैं। ऐसे में यह आशंका गहराती है कि नाम हटाने की यह प्रक्रिया लक्षित तरीके से मताधिकार छीनने (targeted disenfranchisement) की एक रणनीति हो सकती है।
   
6. लोकतांत्रिक और कानूनी चिंताएं: सुप्रीम कोर्ट ने 29 जुलाई को हुई सुनवाई में मसौदा मतदाता सूची की प्रकाशन प्रक्रिया पर रोक लगाने से इनकार कर दिया, लेकिन साथ ही यह चेतावनी भी दी कि अगर “बड़े पैमाने पर मतदाताओं को बाहर किए जाने” का प्रमाण सामने आया, तो न्यायालय हस्तक्षेप करेगा।

● याचिकाकर्ताओं, जिनमें ADR (Association for Democratic Reforms) भी शामिल है, ने यह मुद्दा उठाया है कि चुनाव आयोग ने नाम हटाए जाने के लिए चिह्नित किए गए मतदाताओं के नाम सार्वजनिक नहीं किए। इसके चलते, मतदाताओं को आपत्ति दर्ज करने या दावा प्रस्तुत करने का अवसर ही नहीं मिल सका।

● अब स्थिति यह हो गई है कि अपना नाम मतदाता सूची में बनाए रखने की जिम्मेदारी स्वयं मतदाता पर डाल दी गई है, जबकि संविधान के तहत यह चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है।

चुनावी लोकतंत्र पर व्यापक प्रभाव

चुनाव आयोग का दावा है कि किसी भी मतदाता का नाम हटाने से पहले उसे नोटिस दिया जाता है और सुनवाई की जाती है। हालांकि, यदि 243 विधानसभा क्षेत्रों में कुल 65 लाख मतदाताओं के नाम हटाए गए हैं, तो इसका मतलब होगा कि प्रत्येक क्षेत्र में औसतन 26,748 सुनवाई एक महीने के भीतर करनी पड़ी होंगी — यह एक प्रायोगिक रूप से असंभव कार्य है, जो यह संकेत देता है कि प्रक्रिया का पालन शायद ठीक से नहीं किया गया।

इसके अलावा, नाम हटाने के लिए इस्तेमाल की गई कई श्रेणियां, जैसे “लापता” या “स्थायी रूप से स्थानांतरित”, बेहद सब्जेक्टिव आकलन के लिए संवेदनशील हैं, खासकर इतने बड़े पैमाने और तेजी से नाम हटाने के दौरान। बीच में नाम हटाने की नई श्रेणियों को लागू करना, अचानक सांख्यिकीय वृद्धि, और विभाजित आंकड़ों का गायब होना यह संकेत देता है कि यह प्रक्रिया वास्तविक सत्यापन के बजाय पहले से तय किए गए संख्यात्मक लक्ष्यों के तहत की गईं।

पारदर्शिता और कानूनी जांच की मांग

वोट फॉर डेमोक्रेसी (VFD) और इससे जुड़े हुए विशेषज्ञ एवं शोधकर्ता चुनाव आयोग से तत्काल निम्नलिखित जानकारी जारी करने की मांग कर रहे हैं:

● हटाए गए सभी मतदाताओं की पूरी सूची, जिसमें नाम हटाने के कारण स्पष्ट रूप से बताए गए हों।
● प्रत्येक हटाए गए नाम के पीछे कानूनी रूप से आवश्यक दस्तावेजी प्रमाण।
● हर विधानसभा क्षेत्र के लिए नाम हटाने की श्रेणियों का स्पष्ट विवरण।

सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई 12 और 13 अगस्त को निर्धारित है और बिहार के चुनावी प्रक्रिया की विश्वसनीयता अब इस बात पर निर्भर करती है कि क्या नाम हटाने की ये प्रक्रिया न्यायिक जांच और सार्वजनिक पारदर्शिता में टिक पाएगी। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो यह भारत में वोट देने के अधिकार की नींव को ही कमजोर कर देगा।

वोट फॉर डेमोक्रेसी से जुड़े विशेषज्ञ: पंजाब यूनिवर्सिटी में मेडिकल साइंस के पूर्व डीन डॉ. प्यारा लाल गर्ग; फोरम फॉर इलेक्टोरल इंटिग्रिटी और सिटिज़न्स कमिशन ऑन इलेक्शन के संयोजक, पूर्व IAS अधिकारी एम.जी. देवसहायम; ओबामा प्रशासन के सलाहकार और चार दशकों से कंप्यूटर एक्सपर्ट माधव देशपांडे; तथा वोट फॉर डेमोक्रेसी के सह-संयोजक तीस्ता सीतलवाड़ और डॉल्फी डी’सूज़ा।

पावर प्वाइंट प्रस्तुति यहां भी देखी जा सकती है:


वोट फॉर डेमोक्रेसी (VFD) एक महाराष्ट्र-स्तरीय नागरिक मंच है, जो व्यक्तियों और संगठनों का गठबंधन है। इसका गठन 2023 में मतदाता पंजीकरण, मतदाता जागरूकता और नफरत-मुक्त चुनाव सुनिश्चित करने के उद्देश्य से किया गया था, जहाँ जवाबदेही और पारदर्शिता को प्रमुखता दी जाती है। तीस्ता सीतलवाड़ और डॉल्फी डी’सूज़ा इसके सह-संयोजक हैं, और इस रिपोर्ट के लिए अनेक कानूनी शोधकर्ताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अंतिम दस्तावेज़ के रूप में इसे तैयार करने में योगदान दिया।

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