भारत के दलितों-बहुजनों के खिलाफ जो अन्याय अत्याचार हुआ है, जो हो रहा है और जो आगे भी कुछ समय तक जारी रहेगा उसके लिए जो लोग जिम्मेदार हैं उनमे बहुत हद तक बहुजनों के हितैषी भी जिम्मेदार हैं. यह एक विचित्र और कठोर वक्तव्य है. लेकिन अनुभव बतलाता है कि यह सच बात है. आइये इसे समझने की कोशिश करें.
बहुजनों के हितैषियों के नाम पर हम जिन लोगों को पाते हैं वे दलितों-बहुजनों को सिर्फ एक विक्टिम की तरह देखते आये हैं. विशेष रूप से अगर हम जनजातीय या ट्राइबल मित्रों की बात करें तो उन्हें तो बिलकुल ही विक्टिम की तरह देखा जाता है. अधिकाँश दलित, शूद्र (ओबीसी) और शेड्यूल्ड ट्राइब्स (आदिवासी) को ही नहीं बल्कि महिलाओं को भी विक्टिम की तरह देखा जाता है.
नारीवाद ने आजकल स्त्री की गरिमा और स्वतन्त्रता का जो झंडा बुलंद किया है उसमे एक गहरी प्रतीति रही है जिसे हमने अब तक दलित-बहुजन आन्दोलन के सन्दर्भ में न सिर्फ नजरअंदाज किया है बल्कि कई बार प्रयासपूर्वक अदृश्य बनाये रखा है. नारीवादी आंदोलनों ने शेष विश्व और भारत में भी नारी के विक्टिम होने की बात को अपनी सैद्धांतिकी में काफी लंबे समय तक बनाये रखा, इससे सहानुभूति और संवेदना का निर्माण हुआ. लेकिन कुछ दशकों के बाद इस “विक्टिम के विलाप” से नारीवाद ने अपने को आजाद करने का प्रयास किया और वह अभी तक जारी है.
स्त्री की अपनी अस्मिता, उसका अपना व्यक्तित्व और उसके अपने सपनों को मान्यता देते हुए नारीवादी आन्दोलन जिस तरह से बढ़ा उसने स्त्री को विक्टिम की तरह नहीं बल्कि अपनी पहचान को रचने वाली समर्थ और स्वतंत्र इकाई के रूप में खड़ा किया. इसका परिणाम अब दुनिया भर में नजर आता है.
इसके उलट दलित-बहुजन आंदोलनों में दलितों बहुजनों के अपने नेतृत्व और हितैषी (गैर-बहुजन) नेतृत्व ने अभी तक क्या किया है? अनुभव यह बताता है कि ऐसे अधिकांश नेताओं चिंतकों साहित्यकारों ने दलित-बहुजन समाज को विक्टिम होने के विलाप से अभी तक आजाद नहीं होने दिया है. साहित्य ने जिस तरह का पीड़ा और भेदभाव का चित्रण दिया है, कहानियों उपन्यासों और कविताओं ने शोषण और दमन का जो रेखाचित्र उभारा है उसमे विलाप और यह क्रंदन इतना मुखर होकर उभरता रहा है कि दलित-बहुजन साहित्य का मतलब ही विलाप का साहित्य हो गया है.
यह विलाप–साहित्य मूल रूप से गैर दलित-बहुजन साहित्यकारों की कलम से निकला और चूँकि वे अपनी अधिकतम ताकत लगाकर “हितैषी या सहानुभूतिपूर्ण मित्र” ही हो सकते थे - पीड़ा के या समाधान के प्रयासों के सहभागी नहीं - इसलिए उन्होंने दलितों-ओबीसी-आदिवासियों का विलाप बहुत नए नए ढंग से उजागर करना शुरू किया. यही ट्रेंड स्वयं दलित बहुजन साहित्यकारों में भी आ गया और अभी भी जारी है. इस तरह भीतर और बाहर दोनों तरफ से साहित्यकार और विचारक मित्र दलित-बहुजनों को विक्टिम बनाकर उनके विलाप का लेखा जोखा बनाये जा रहे हैं.
बहुत हद तक यह एक सुरक्षित चुनाव भी है. इस सुरक्षा की जरूरत किसे पहले थी? यह जानना बहुत जरुरी है. सबसे पहले इस सुरक्षा की जरूरत गैर-बहुजन लेखकों को ही थी. सवर्ण समाज से आने वाले साहित्यकारों को अपने स्वयं के घर और समाज में जिस विरोध का सामना करना होता था उस विरोध ने बहुत हद तक विलाप चित्रण को एक सुरक्षित स्ट्रेटेजी बनाये रखा. दलित-बहुजन शोषण का चित्रण करते जाना और उससे निकलने के उपायों का कोई अनुमान न देना या ऐसी किसी मुक्ति की संभावना का कोई उल्लेख न करना – यह साहित्य का सामान्य क्रम बन गया. हालाँकि स्वय दलित-बहुजन समाज के अपने कई पुरोधाओं ने क्रांतिकारी प्रस्तावनाएँ दी हैं और पीड़ा के चित्रण से आगे जाकर समाधान की यांत्रिकी भी दी है. लेकिन उसे बहुत आसानी से सवर्ण और बहुजन साहित्यकारों ने भुलाए रखा.
कबीर और ज्योतिबा फुले यहाँ उल्लेखनीय हैं. वे दोनों बहुत हद तक एक सीधी भाषा में तोड़फोड़ और बदलाव की बात करते हैं. ज्योतिबा के स्वर में तो नवनिर्माण का मार्ग भी मिलता है जिसे बहुत अर्थों में डॉ. अंबेडकर विकसित करते और अमल में लाते हैं. लेकिन हमारा साहित्य कबीर और फूले के साथ जो दुर्व्यवहार करता है वह बड़ा मजेदार है. कबीर को सगुण-निर्गुण की बहस और भक्ति-अध्यात्म इत्यादि से बाहर नहीं निकलने दिया जाता. वहीं फूले का जितना भी उल्लेख होता है उसमे वे शिक्षा के प्रयासों तक समेट दिए जाते हैं. कबीर और फूले दोनों में एक पुराने शोषक धर्म के खंडन और नयी संभावनाओं के रोडमेप का जो इशारा मिलता है उस इशारे की बात नहीं की जाती है.
सवर्ण तबके के लिए यह इशारा छुपाया जाना जरूरी है. फूले कबीर की ही तरह अन्य क्रांतिकारी हैं जो न सिर्फ खंडन कर रहे हैं बल्कि नवनिर्माण का पूरा फ्रेमवर्क दे रहे हैं, वे दलितों- बहुजनों को विक्टिम नहीं बल्कि चेंजमेकर की तरह खड़ा कर रहे हैं. लेकिन दुर्भाग्य से अधिकांश गैर-बहुजन और बहुजन साहित्यकार भी जो विलाप के चित्रण को संभावित समाधान के अनुमान से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं – उन्होंने अभी भी यह दलितों- बहुजनों को विक्टिम होने से अधिक और किसी चीज के लायक नहीं समझा है.
जैसे नारीवाद के वैश्विक आन्दोलन ने स्त्री को विक्टिम से आगे ले जाकर स्वयं निर्मात्री होने का मार्ग दिया उसी तरह क्या दलित-बहुजनों को भी विक्टिम-हुड की सदी गली लेकिन सुरक्षित राजनीती से निकाला जा सकता है? यह कितना आसान या कठिन है यह कहना मुश्किल है लेकिन इतना जरुर कहना होगा कि अब यह आवश्यक है. लेकिन दलितों-बहुजनों को विक्टिम बनाये रखने में किसे लाभ होता है? और दलितों-बहुजनों को अपनी संस्कृति धर्म और इतिहास सहित भविष्य का निर्माता बनने से कौन और क्यों रोकना चाहते हैं? ये एक भयानक प्रश्न है जो अब सभी दलितों, शूद्रों आदिवासियों को बार बार पूछना चाहिए.
जब तक दलित, शूद्र और आदिवासी अपनी पीड़ा और विलाप के गीत गाते हैं तब तक सभी इनसे सहानुभूति रखते हैं लेकिन जैसे ही ये अपने इतिहास और संस्कृति की घोषणा करने निकलते हैं तो तकलीफ शुरू हो जाती है. यह असल में एक छुपे हुए षड्यंत्र के उजागर होने का संकेत है. अधिकांश विचारकों और साहित्यकारों में यह प्रवृत्ति है कि वे इस देश के तथाकथित मुख्यधारा के या अल्पसंख्यकों की संस्कृति और धर्मों को संरक्षित करने प्रचारित करने के अधिकार को समर्थन देते हैं. साथ ही वे यह भी बताते जाते हैं कि भाषा संस्कृति, सांस्कृतिक चिन्ह, रीती रिवाज और जीवन व्यवहार को बचाए-बनाये रखना क्यों जरुरी है.
लेकिन जब बात आती है दलितों-बहुजनों की अपनी संस्कृति और धर्म को उजागर करने और प्रचारित करने की तो अधिकाँश साहित्यकार विचारक मित्र असहज होने लगते हैं. तब बहुत अधिकांश मौकों पर वे यह भूल जाते हैं कि संस्कृति और धर्म जिस तरह तथाकथित मुख्यधारा के और अल्पसंख्यकों के लिए जरुरी हैं उसी तरह ये बहुजन बहुसंख्यकों के लिए भी आवश्यक हैं.
यह एक भयानक विरोधाभास है जिसे उजागर करके चुनौती दी जानी चाहिए.
कोई भी समाज सिर्फ विलाप करके सहानुभूति इकट्ठी करके बाहरी समर्थन से अपनी आजादी नहीं हासिल कर सकता. जो समाज स्वयं समर्थ, आजाद और आत्मनिर्भर होना चाहता है उसे अपनी संस्कृति और धर्म को मजबूत बनाकर ही ऐसा करना होता है.
संस्कृति और धर्म के मुद्दे पर भारत के अधिकांश साहित्यिक मित्र एक नकारात्मक मुद्रा में आ जाते हैं और नास्तिकता को एकमात्र शुभ की तरह प्रचारित करते हुए संस्कृति और धर्म की विराट शक्ति को शोषक सवर्ण तबके को सौंप देते हैं. वह शोषक वर्ग नास्तिकता के प्रचार से बिलकुल भी चिंतित नहीं होता. इसे बोलीवुड फिल्मों में भी देखा जा सकता है. जो फिल्मे मजदूर मालिक संघर्ष पर बनी हैं वे बड़ी आसानी से चलती हैं किसी को कोई दिक्कत नहीं होती. लेकिन जो फ़िल्में जातीय हिंसा और दमन पर बनती हैं उन्हें दबाया जाता है. इससे साफ़ होता है कि सवर्ण शोषक वर्ग को क्या पसंद है और क्या नहीं.
अगर दलित-बहुजन तबका विलाप में ही उलझा रहेगा तो वह पर-निर्भर ही रहेगा. जो भी तबका अपनी संस्कृति और अपने धर्म की घोषणा नहीं कर पाता वह कमजोर और शोषित होगा. साहित्यिक मित्रों के लिए यह बात अधिक आकर्षक नहीं होगी क्योंकि साहित्य को यथास्थिति के चित्रण का टूल माना जाता है. साहित्य से समाधान देने की अपेक्षा नहीं की जा सकती, या ठीक से कहें तो सवर्ण साहित्य से समाधान की उम्मीद नहीं की जा सकती. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बहुजन खेमे से आने वाले साहित्यकार भी समाधान के अनुमान से स्वयं भी उदासीन हो जाएँ.
भारतीय दलित-बहुजन साहित्यिक मित्रों को समाजशास्त्र और मानवशास्त्र का थोड़ा अध्ययन करना चाहिए. साहित्यिक उड़ान में बहुत सी कल्पनाएँ करने की जो सुविधा उन्हें मिलती है वह उन्हें अक्सर एक परीलोक में ले जाती है जहां विश्व के अन्य देशों में हुई क्रांतियों की जय-जयकार गूंज रही है. इस परीलोक से गुजरते हुए वे जिस संघर्ष की सफलता की धुन सुनते हैं वह उन्हें सिखाती है कि किस तरह गरीब और अमीर तबके के बीच युद्ध हुआ और गरीबों ने अमीरों की दासता से आजादी पा ली.
भारत में लौटकर ये मित्र अधिकांश मौकों पर इसी धुन को बजाना जारी रखते हैं. ये मित्र यह भूल जाते हैं कि गरीबी अमीरी का संघर्ष जो कि गरीब और अमीर दोनों के एक ही धर्म और एक ही संस्कृति के वारिस होने की प्रष्ठभूमि में हुआ था उस संघर्ष को भारत में अनेक धर्मों सम्प्रदायों और संस्कृतियों के बड़े घमासान में सीधे सीधे लागू करना मुश्किल है. पश्चिम में बहुत हद तक अमीर गरीब एक ही धर्म और सम्प्रदाय के थे, उनकी साझा संस्कृति और देवालय थे जहां वे एक से नैतिक आग्रहों और प्रस्तावनाओं से संचालित होते थे. इसीलिये वहां क्रांति या सुधार की प्रस्तावनाएँ एक ही समय में समाज के अनेकों स्तरों पर एकसाथ फ़ैल सकीं. वहां भारत की तरह सामाजिक स्तरों के एयर-टाईट कम्पार्टमेंट नहीं थे. इसीलिये सांस्कृतिक अंतर और धार्मिक अंतर की बात किये बिना सीधे सीधे गरीब अमीर की बात उठानी आसान थी.
लेकिन हमारे मित्र यही फार्मूला भारत में भी आजमाना चाहते हैं. हालाँकि उसकी असफलता बहुत हद तक उजागर हो चुकी है लेकिन फिर भी उस फार्मूले का सम्मोहन कम नहीं होता. यह सम्मोहन पुनः उसी सुरक्षा के साथ जुडा हुआ है जिसका अनुष्ठान सवर्ण साहित्यकार स्वयं अपने घर परिवार और समाज में सुरक्षित होने के लिए करते आये हैं. वे विलाप का चित्रण बहुत गंभीरता से करेंगे लेकिन इस विलाप के खात्मे के लिए विदेशी इलाज बतायेंगे जो कि यहाँ संभव ही नहीं है.
इसी परिपाटी को कई दलित-बहुजन मित्र भी अपनाए हुए हैं. वे बहुत गहराई में अभी भी बहुजन-गैर बहुजन संघर्ष को अमीर-गरीब का संघर्ष मानकर चलते हैं. वे इसे भिन्न संस्कृतियों और धर्मों के संघर्ष की तरह नहीं देख पाते. उनकी मान्यता में यह बात भी शामिल है कि ये बहुजन और गैर-बहुजन दोनों एक ही संस्कृति और एक ही धर्म के अनिवार्य वारिस हैं. बस इन दोनों मान्यताओं के कारण ही वे स्वय दलित-बहुजन होते हुए भी फुले-अम्बेडकरी विचारधारा से दूर निकलकर स्वयं अपने समाज से मुंह मोड़ लेते हैं और समाधान की बजाय विलाप के चित्रण में ही लगे रहते हैं.
इसीलिये ऐसा विलाप प्रधान साहित्य अब आम जनता द्वारा पसंद नहीं किया जाता. दलितों-बहुजनों के जीवन में भी विलाप है और उन्हें साहित्य में भी वही परोसा जाता है. ये एक अन्य तरह का अन्याय है. इसी कारण दलित-बहुजन खेमे के बीच से फुले-अंबेडकरवादी क्रान्तिदृष्टि उभरने लगी है जो विलाप के चित्रण वाले साहित्य से नहीं बल्कि ठोस राजनीति, संविधानिक और समाजशास्त्रीय समझ से आकार ले रही है. बहुजन संस्कृति, बहुजनों के अपने धर्म. अपने स्वयं के कृषि और उर्वरता से जुड़े कर्मकांड, गीत नृत्य उत्सव, सांस्कृतिक प्रतीक और स्पिरिचुआलिटी भी अब पूरी ताकत के साथ उभर रही है. इस उभार के बारे में प्रति “गरीब अमीर” फ्रेमवर्क वाले साहित्यिक मित्र क्या सोचते हैं यह वे ही जानें लेकिन स्वयं बहुजन तबका अपनी संस्कृति और धर्मों को लेकर अब आगे बढ़ने लगा है.
दलितों ओबीसी में बौद्ध धर्म का आन्दोलन चल निकला है अन्य अनेक राज्यों में जनजातीय समाज के अपने धर्मों और संस्कृति के बारे में बड़े पैमाने पर आन्दोलन चल निकले हैं और वे सभी अपनी अलग संस्कृति और धर्म की घोषणा की तैयारी कर रहे हैं. अब तक भारत के एकीकरण के जो प्रयास हुए हैं वे कमजोरों और शोषितों के एकीकरण के प्रयास थे जिसमे सभी शोषित जन शोषकों की मर्जी से इकट्ठे होने को बाध्य थे. अब निकट भविष्य में जो एकीकरण होगा वह समर्थ समुदायों का स्वैच्छिक एकीकरण और संवाद होगा जिससे न सिर्फ वे समुदाय स्वयं सबल होंगे बल्कि भारत में एक वास्तविक लोकतंत्र निर्मित होगा.
मेरी नजर में यह एक बहुत बड़ी क्रान्ति है जिसकी जड़ें भारत की अपनी जमीन में है. यह क्रांति जरुर सफल होगी और इससे न सिर्फ भारत के शोषण सवर्ण वर्ग के शोषण का निर्णायक रूप से खात्मा होगा बल्कि यही वर्ग भविष्य में बहुजनों में अवशोषित होकर पहले से अधिक सभ्य भी बन सकेगा.
बहुजनों के हितैषियों के नाम पर हम जिन लोगों को पाते हैं वे दलितों-बहुजनों को सिर्फ एक विक्टिम की तरह देखते आये हैं. विशेष रूप से अगर हम जनजातीय या ट्राइबल मित्रों की बात करें तो उन्हें तो बिलकुल ही विक्टिम की तरह देखा जाता है. अधिकाँश दलित, शूद्र (ओबीसी) और शेड्यूल्ड ट्राइब्स (आदिवासी) को ही नहीं बल्कि महिलाओं को भी विक्टिम की तरह देखा जाता है.
नारीवाद ने आजकल स्त्री की गरिमा और स्वतन्त्रता का जो झंडा बुलंद किया है उसमे एक गहरी प्रतीति रही है जिसे हमने अब तक दलित-बहुजन आन्दोलन के सन्दर्भ में न सिर्फ नजरअंदाज किया है बल्कि कई बार प्रयासपूर्वक अदृश्य बनाये रखा है. नारीवादी आंदोलनों ने शेष विश्व और भारत में भी नारी के विक्टिम होने की बात को अपनी सैद्धांतिकी में काफी लंबे समय तक बनाये रखा, इससे सहानुभूति और संवेदना का निर्माण हुआ. लेकिन कुछ दशकों के बाद इस “विक्टिम के विलाप” से नारीवाद ने अपने को आजाद करने का प्रयास किया और वह अभी तक जारी है.
स्त्री की अपनी अस्मिता, उसका अपना व्यक्तित्व और उसके अपने सपनों को मान्यता देते हुए नारीवादी आन्दोलन जिस तरह से बढ़ा उसने स्त्री को विक्टिम की तरह नहीं बल्कि अपनी पहचान को रचने वाली समर्थ और स्वतंत्र इकाई के रूप में खड़ा किया. इसका परिणाम अब दुनिया भर में नजर आता है.
इसके उलट दलित-बहुजन आंदोलनों में दलितों बहुजनों के अपने नेतृत्व और हितैषी (गैर-बहुजन) नेतृत्व ने अभी तक क्या किया है? अनुभव यह बताता है कि ऐसे अधिकांश नेताओं चिंतकों साहित्यकारों ने दलित-बहुजन समाज को विक्टिम होने के विलाप से अभी तक आजाद नहीं होने दिया है. साहित्य ने जिस तरह का पीड़ा और भेदभाव का चित्रण दिया है, कहानियों उपन्यासों और कविताओं ने शोषण और दमन का जो रेखाचित्र उभारा है उसमे विलाप और यह क्रंदन इतना मुखर होकर उभरता रहा है कि दलित-बहुजन साहित्य का मतलब ही विलाप का साहित्य हो गया है.
यह विलाप–साहित्य मूल रूप से गैर दलित-बहुजन साहित्यकारों की कलम से निकला और चूँकि वे अपनी अधिकतम ताकत लगाकर “हितैषी या सहानुभूतिपूर्ण मित्र” ही हो सकते थे - पीड़ा के या समाधान के प्रयासों के सहभागी नहीं - इसलिए उन्होंने दलितों-ओबीसी-आदिवासियों का विलाप बहुत नए नए ढंग से उजागर करना शुरू किया. यही ट्रेंड स्वयं दलित बहुजन साहित्यकारों में भी आ गया और अभी भी जारी है. इस तरह भीतर और बाहर दोनों तरफ से साहित्यकार और विचारक मित्र दलित-बहुजनों को विक्टिम बनाकर उनके विलाप का लेखा जोखा बनाये जा रहे हैं.
बहुत हद तक यह एक सुरक्षित चुनाव भी है. इस सुरक्षा की जरूरत किसे पहले थी? यह जानना बहुत जरुरी है. सबसे पहले इस सुरक्षा की जरूरत गैर-बहुजन लेखकों को ही थी. सवर्ण समाज से आने वाले साहित्यकारों को अपने स्वयं के घर और समाज में जिस विरोध का सामना करना होता था उस विरोध ने बहुत हद तक विलाप चित्रण को एक सुरक्षित स्ट्रेटेजी बनाये रखा. दलित-बहुजन शोषण का चित्रण करते जाना और उससे निकलने के उपायों का कोई अनुमान न देना या ऐसी किसी मुक्ति की संभावना का कोई उल्लेख न करना – यह साहित्य का सामान्य क्रम बन गया. हालाँकि स्वय दलित-बहुजन समाज के अपने कई पुरोधाओं ने क्रांतिकारी प्रस्तावनाएँ दी हैं और पीड़ा के चित्रण से आगे जाकर समाधान की यांत्रिकी भी दी है. लेकिन उसे बहुत आसानी से सवर्ण और बहुजन साहित्यकारों ने भुलाए रखा.
कबीर और ज्योतिबा फुले यहाँ उल्लेखनीय हैं. वे दोनों बहुत हद तक एक सीधी भाषा में तोड़फोड़ और बदलाव की बात करते हैं. ज्योतिबा के स्वर में तो नवनिर्माण का मार्ग भी मिलता है जिसे बहुत अर्थों में डॉ. अंबेडकर विकसित करते और अमल में लाते हैं. लेकिन हमारा साहित्य कबीर और फूले के साथ जो दुर्व्यवहार करता है वह बड़ा मजेदार है. कबीर को सगुण-निर्गुण की बहस और भक्ति-अध्यात्म इत्यादि से बाहर नहीं निकलने दिया जाता. वहीं फूले का जितना भी उल्लेख होता है उसमे वे शिक्षा के प्रयासों तक समेट दिए जाते हैं. कबीर और फूले दोनों में एक पुराने शोषक धर्म के खंडन और नयी संभावनाओं के रोडमेप का जो इशारा मिलता है उस इशारे की बात नहीं की जाती है.
सवर्ण तबके के लिए यह इशारा छुपाया जाना जरूरी है. फूले कबीर की ही तरह अन्य क्रांतिकारी हैं जो न सिर्फ खंडन कर रहे हैं बल्कि नवनिर्माण का पूरा फ्रेमवर्क दे रहे हैं, वे दलितों- बहुजनों को विक्टिम नहीं बल्कि चेंजमेकर की तरह खड़ा कर रहे हैं. लेकिन दुर्भाग्य से अधिकांश गैर-बहुजन और बहुजन साहित्यकार भी जो विलाप के चित्रण को संभावित समाधान के अनुमान से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं – उन्होंने अभी भी यह दलितों- बहुजनों को विक्टिम होने से अधिक और किसी चीज के लायक नहीं समझा है.
जैसे नारीवाद के वैश्विक आन्दोलन ने स्त्री को विक्टिम से आगे ले जाकर स्वयं निर्मात्री होने का मार्ग दिया उसी तरह क्या दलित-बहुजनों को भी विक्टिम-हुड की सदी गली लेकिन सुरक्षित राजनीती से निकाला जा सकता है? यह कितना आसान या कठिन है यह कहना मुश्किल है लेकिन इतना जरुर कहना होगा कि अब यह आवश्यक है. लेकिन दलितों-बहुजनों को विक्टिम बनाये रखने में किसे लाभ होता है? और दलितों-बहुजनों को अपनी संस्कृति धर्म और इतिहास सहित भविष्य का निर्माता बनने से कौन और क्यों रोकना चाहते हैं? ये एक भयानक प्रश्न है जो अब सभी दलितों, शूद्रों आदिवासियों को बार बार पूछना चाहिए.
जब तक दलित, शूद्र और आदिवासी अपनी पीड़ा और विलाप के गीत गाते हैं तब तक सभी इनसे सहानुभूति रखते हैं लेकिन जैसे ही ये अपने इतिहास और संस्कृति की घोषणा करने निकलते हैं तो तकलीफ शुरू हो जाती है. यह असल में एक छुपे हुए षड्यंत्र के उजागर होने का संकेत है. अधिकांश विचारकों और साहित्यकारों में यह प्रवृत्ति है कि वे इस देश के तथाकथित मुख्यधारा के या अल्पसंख्यकों की संस्कृति और धर्मों को संरक्षित करने प्रचारित करने के अधिकार को समर्थन देते हैं. साथ ही वे यह भी बताते जाते हैं कि भाषा संस्कृति, सांस्कृतिक चिन्ह, रीती रिवाज और जीवन व्यवहार को बचाए-बनाये रखना क्यों जरुरी है.
लेकिन जब बात आती है दलितों-बहुजनों की अपनी संस्कृति और धर्म को उजागर करने और प्रचारित करने की तो अधिकाँश साहित्यकार विचारक मित्र असहज होने लगते हैं. तब बहुत अधिकांश मौकों पर वे यह भूल जाते हैं कि संस्कृति और धर्म जिस तरह तथाकथित मुख्यधारा के और अल्पसंख्यकों के लिए जरुरी हैं उसी तरह ये बहुजन बहुसंख्यकों के लिए भी आवश्यक हैं.
यह एक भयानक विरोधाभास है जिसे उजागर करके चुनौती दी जानी चाहिए.
कोई भी समाज सिर्फ विलाप करके सहानुभूति इकट्ठी करके बाहरी समर्थन से अपनी आजादी नहीं हासिल कर सकता. जो समाज स्वयं समर्थ, आजाद और आत्मनिर्भर होना चाहता है उसे अपनी संस्कृति और धर्म को मजबूत बनाकर ही ऐसा करना होता है.
संस्कृति और धर्म के मुद्दे पर भारत के अधिकांश साहित्यिक मित्र एक नकारात्मक मुद्रा में आ जाते हैं और नास्तिकता को एकमात्र शुभ की तरह प्रचारित करते हुए संस्कृति और धर्म की विराट शक्ति को शोषक सवर्ण तबके को सौंप देते हैं. वह शोषक वर्ग नास्तिकता के प्रचार से बिलकुल भी चिंतित नहीं होता. इसे बोलीवुड फिल्मों में भी देखा जा सकता है. जो फिल्मे मजदूर मालिक संघर्ष पर बनी हैं वे बड़ी आसानी से चलती हैं किसी को कोई दिक्कत नहीं होती. लेकिन जो फ़िल्में जातीय हिंसा और दमन पर बनती हैं उन्हें दबाया जाता है. इससे साफ़ होता है कि सवर्ण शोषक वर्ग को क्या पसंद है और क्या नहीं.
अगर दलित-बहुजन तबका विलाप में ही उलझा रहेगा तो वह पर-निर्भर ही रहेगा. जो भी तबका अपनी संस्कृति और अपने धर्म की घोषणा नहीं कर पाता वह कमजोर और शोषित होगा. साहित्यिक मित्रों के लिए यह बात अधिक आकर्षक नहीं होगी क्योंकि साहित्य को यथास्थिति के चित्रण का टूल माना जाता है. साहित्य से समाधान देने की अपेक्षा नहीं की जा सकती, या ठीक से कहें तो सवर्ण साहित्य से समाधान की उम्मीद नहीं की जा सकती. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बहुजन खेमे से आने वाले साहित्यकार भी समाधान के अनुमान से स्वयं भी उदासीन हो जाएँ.
भारतीय दलित-बहुजन साहित्यिक मित्रों को समाजशास्त्र और मानवशास्त्र का थोड़ा अध्ययन करना चाहिए. साहित्यिक उड़ान में बहुत सी कल्पनाएँ करने की जो सुविधा उन्हें मिलती है वह उन्हें अक्सर एक परीलोक में ले जाती है जहां विश्व के अन्य देशों में हुई क्रांतियों की जय-जयकार गूंज रही है. इस परीलोक से गुजरते हुए वे जिस संघर्ष की सफलता की धुन सुनते हैं वह उन्हें सिखाती है कि किस तरह गरीब और अमीर तबके के बीच युद्ध हुआ और गरीबों ने अमीरों की दासता से आजादी पा ली.
भारत में लौटकर ये मित्र अधिकांश मौकों पर इसी धुन को बजाना जारी रखते हैं. ये मित्र यह भूल जाते हैं कि गरीबी अमीरी का संघर्ष जो कि गरीब और अमीर दोनों के एक ही धर्म और एक ही संस्कृति के वारिस होने की प्रष्ठभूमि में हुआ था उस संघर्ष को भारत में अनेक धर्मों सम्प्रदायों और संस्कृतियों के बड़े घमासान में सीधे सीधे लागू करना मुश्किल है. पश्चिम में बहुत हद तक अमीर गरीब एक ही धर्म और सम्प्रदाय के थे, उनकी साझा संस्कृति और देवालय थे जहां वे एक से नैतिक आग्रहों और प्रस्तावनाओं से संचालित होते थे. इसीलिये वहां क्रांति या सुधार की प्रस्तावनाएँ एक ही समय में समाज के अनेकों स्तरों पर एकसाथ फ़ैल सकीं. वहां भारत की तरह सामाजिक स्तरों के एयर-टाईट कम्पार्टमेंट नहीं थे. इसीलिये सांस्कृतिक अंतर और धार्मिक अंतर की बात किये बिना सीधे सीधे गरीब अमीर की बात उठानी आसान थी.
लेकिन हमारे मित्र यही फार्मूला भारत में भी आजमाना चाहते हैं. हालाँकि उसकी असफलता बहुत हद तक उजागर हो चुकी है लेकिन फिर भी उस फार्मूले का सम्मोहन कम नहीं होता. यह सम्मोहन पुनः उसी सुरक्षा के साथ जुडा हुआ है जिसका अनुष्ठान सवर्ण साहित्यकार स्वयं अपने घर परिवार और समाज में सुरक्षित होने के लिए करते आये हैं. वे विलाप का चित्रण बहुत गंभीरता से करेंगे लेकिन इस विलाप के खात्मे के लिए विदेशी इलाज बतायेंगे जो कि यहाँ संभव ही नहीं है.
इसी परिपाटी को कई दलित-बहुजन मित्र भी अपनाए हुए हैं. वे बहुत गहराई में अभी भी बहुजन-गैर बहुजन संघर्ष को अमीर-गरीब का संघर्ष मानकर चलते हैं. वे इसे भिन्न संस्कृतियों और धर्मों के संघर्ष की तरह नहीं देख पाते. उनकी मान्यता में यह बात भी शामिल है कि ये बहुजन और गैर-बहुजन दोनों एक ही संस्कृति और एक ही धर्म के अनिवार्य वारिस हैं. बस इन दोनों मान्यताओं के कारण ही वे स्वय दलित-बहुजन होते हुए भी फुले-अम्बेडकरी विचारधारा से दूर निकलकर स्वयं अपने समाज से मुंह मोड़ लेते हैं और समाधान की बजाय विलाप के चित्रण में ही लगे रहते हैं.
इसीलिये ऐसा विलाप प्रधान साहित्य अब आम जनता द्वारा पसंद नहीं किया जाता. दलितों-बहुजनों के जीवन में भी विलाप है और उन्हें साहित्य में भी वही परोसा जाता है. ये एक अन्य तरह का अन्याय है. इसी कारण दलित-बहुजन खेमे के बीच से फुले-अंबेडकरवादी क्रान्तिदृष्टि उभरने लगी है जो विलाप के चित्रण वाले साहित्य से नहीं बल्कि ठोस राजनीति, संविधानिक और समाजशास्त्रीय समझ से आकार ले रही है. बहुजन संस्कृति, बहुजनों के अपने धर्म. अपने स्वयं के कृषि और उर्वरता से जुड़े कर्मकांड, गीत नृत्य उत्सव, सांस्कृतिक प्रतीक और स्पिरिचुआलिटी भी अब पूरी ताकत के साथ उभर रही है. इस उभार के बारे में प्रति “गरीब अमीर” फ्रेमवर्क वाले साहित्यिक मित्र क्या सोचते हैं यह वे ही जानें लेकिन स्वयं बहुजन तबका अपनी संस्कृति और धर्मों को लेकर अब आगे बढ़ने लगा है.
दलितों ओबीसी में बौद्ध धर्म का आन्दोलन चल निकला है अन्य अनेक राज्यों में जनजातीय समाज के अपने धर्मों और संस्कृति के बारे में बड़े पैमाने पर आन्दोलन चल निकले हैं और वे सभी अपनी अलग संस्कृति और धर्म की घोषणा की तैयारी कर रहे हैं. अब तक भारत के एकीकरण के जो प्रयास हुए हैं वे कमजोरों और शोषितों के एकीकरण के प्रयास थे जिसमे सभी शोषित जन शोषकों की मर्जी से इकट्ठे होने को बाध्य थे. अब निकट भविष्य में जो एकीकरण होगा वह समर्थ समुदायों का स्वैच्छिक एकीकरण और संवाद होगा जिससे न सिर्फ वे समुदाय स्वयं सबल होंगे बल्कि भारत में एक वास्तविक लोकतंत्र निर्मित होगा.
मेरी नजर में यह एक बहुत बड़ी क्रान्ति है जिसकी जड़ें भारत की अपनी जमीन में है. यह क्रांति जरुर सफल होगी और इससे न सिर्फ भारत के शोषण सवर्ण वर्ग के शोषण का निर्णायक रूप से खात्मा होगा बल्कि यही वर्ग भविष्य में बहुजनों में अवशोषित होकर पहले से अधिक सभ्य भी बन सकेगा.