छत्तीसगढ़ नारायणपुर स्थित रावघाट खदान में लौह अयस्क के खनन का ग्रामीणों ने विरोध किया। बारिश में भी महिलाएं 8 घंटे तक जेसीबी के सामने लेटी रहे और बैरंग वापस लौटने का मजबूर कर दिया। रावघाट संघर्ष समिति अपनी आजीविका को लेकर यहां लौह अयस्क के उत्खनन का विरोध कर रही है। समिति का कहना है कि जिला प्रशासन और बीएसपी प्रबंधन प्रभावित ग्रामीणों का मनोबल तोड़ने की कोशिश कर रहा है। लेकिन महिलाओं की हिम्मत व एकजुटता रंग लाई और लौह अयस्क उत्खनन के लिए लाई गई मशीनों को महिलाओं के विरोध के कारण 8 घंटे खड़ी रहने के बाद लौटना पड़ा।
बुधवार को 4 भारी खनन मशीनों और जेसीबी को पहाड़ पर चढ़ाने की कोशिश की गई। बीते 17 अगस्त को फुटबॉल प्रतियोगिता के नाम पर उस नाके को अधिकारियों ने हटा दिया, जिसे ग्रामीणो ने लगा रखे थे। नाके को वापस लगाने की कोशिश करने पर कांग्रेस नेता अमित भद्रा और केरलापाल के सरपंच ने उनको रोका और नाके को आग के हवाले कर दिया। आगजनी की घटना को मीडिया में दो गुटों का विवाद बताया गया। हालांकि आरोप है कि संघर्ष समिति की इसमें कोई भूमिका नहीं रही है बल्कि इसे अन्य 25-30 लोगों द्वारा अंजाम दिया गया था।
24 अगस्त को खोदगांव के रास्ते से रावघाट पहाड़ पर जाने के लिए चार भारी मशीन (जेसीबी) लाई गई। जिला प्रशासन के अधिकारियो के साथ बीएसपी के लोग भी उनके साथ थे। उन्हें रोकने खोदगांव की महिलाएं सड़क पर निकल आई और रास्ता रोक दिया। बारिश होने पर वे सड़क पर लेट गईं। पुलिस की भारी उपस्थिति के बावजूद उन्होंने हटने से मना कर दिया।
इनमें गांव की जवान और बूढ़ी महिलाएं, छात्राएं और गृहणियां सभी शामिल थीं। उन्होंने कहा कि इस खनन से उनकी पूरी जीवनशैली खत्म हो जाएगी और उनकी जिंदगी बदतर हो जाएगी। अंत में थक-हार कर शाम के 6 बजे भारी वाहनों और अधिकारियों को वापस लौटाना पड़ा। रावघाट संघर्ष समिति के लखन नूरेटी के अनुसार, उनके समाज के लिए रावघाट पहाड़ की धार्मिक मान्यता भी है। लोग उसे पूजते हैं। दूसरा यह वन अधिकार अधिनियम 2006 का भी खुला उल्लघंन है।
महिलाओं के विरोध के बाद वापस जाती जेसीबी
यहां महत्वपूर्ण है कि 17 अगस्त को बीएसपी द्वारा आयोजित फुटबॉल प्रतियोगिता की आड़ में ग्रामीणों द्वारा लगाए गए नाके को चोरी चुपके से अधिकारियों ने कटवा दिया था। 23 अगस्त को, जब रावघाट संघर्ष समिति ने नाके को वापस लगाने की कोशिश की, तो कांग्रेस के युवा नेता अमित भद्रा के साथ केरलापाल सरपंच ने उन्हें रोका, और उसे आग के हवाले कर दिया। स्थानीय लोगों के अनुसार, घटनास्थल पर विभिन्न प्रभावित गांवों से रावघाट संघर्ष समिति के समर्थन में, और खनन के विरोध में 200 से ज्यादा लोग मौजूद थे, तब भी 20-30 लोगों के आगजनी के कृत्य को मीडिया द्वारा गलत तरीके से "दो गुटों" की झड़प के तौर पर पेश किया गया जो सीधी बेइमानी है।
संघर्ष समिति के लखन नूरेटी कहते हैं कि इस कड़ी में जब 24 अगस्त को सुबह 10 बजे खोदगांव के रास्ते से रावघाट पहाड़ पर जाने के लिए जब जेसीबी लाई गई तो उन्हें रोकने खोडगांव की समस्त महिलाएं रोड पर निकल आई और रास्ते को रोक दिया। बारिश होने पर भी वे रोड पर लेट गई और पुलिस की भारी उपस्थिति के बावजूद उन्होंने वहां से हिलने से मना कर दिया। स्थानीय अधिकारियों ने उन्हें लाख हटाने की कोशिश की, पर गांव की महिलाएं, जवान और बूढ़ी, छात्राएं और गृहणियों ने हिलने से मना कर दिया। उन्होंने स्पष्ट रूप से अपनी बात रखी कि इस खनन से उनकी पूरी जीवनशैली खत्म हो जाएगी,और उनकी जिंदगी बदतर हो जाएगी। अंत में थककर शाम 6 बजे अधिकारियों को बैरंग वापस लौटना पड़ा।
खास है कि छत्तीसगढ़ में पेसा और केंद्र के वन संरक्षण नियमों में बदलाव के बाद से आदिवासियों के जल जंगल जमीन के अधिकारों पर हमले बढ़े हैं। कांकेर में गत माह आदिवासी इलाकों में स्वशासन के लिए ज़रूरी पेसा (अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत उपबंध का विस्तार) कानून के नियम लागू कर दिए गए। लम्बे समय से पेसा नियमों की मांग की जा रही थी और कांग्रेस पार्टी ने चुनावी जनघोषणापत्र में इसे बनाकर लागू करने का वादा किया था। हालांकि, यह नियम अब कागज़ी शेर साबित हो रहे हैं, बल्कि कांग्रेसनीत यूपीए शासन के समय लाए गए जनपक्षीय कानूनों, जैसे वनाधिकार मान्यता कानून की भावना के भी विरुद्ध खड़े दिखाई दे रहे हैं।
वनाधिकार और संसाधनों पर ग्राम सभा के अधिकारों पर हमले विषयक एक-दिवसीय परिचर्चा में छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन के संयोजक आलोक शुक्ला ने कहा कि यह दुखद है कि कांग्रेस की प्रदेश सरकार भी, केंद्र की सरकार के नक़्शे-कदम पर चलते हुए, मजबूत जनपक्षीय कानूनों को कमज़ोर करने में लगी हुई है। जैसे, केंद्र ने हाल ही में वन संरक्षण नियमों में संशोधन सुझाया है, जो किसी भी वनभूमि के डायवर्जन के पूर्व वन अधिकारों की मान्यता की अनिवार्यता और ग्राम सभा की सहमति को लगभग ख़त्म कर देगा। केंद्र और प्रदेश सरकार के यह कदम प्रदेश के जल जंगल जमीन बचाने वाले संघर्षों और जन आंदोलनों पर सीधा हमला ही हैं, ताकि, संसाधनों को हड़पने के कार्पोरेट प्रयास में कोई बाधा न रह जाये।
हालांकि मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार प्रदेश सरकार द्वारा संरक्षित क्षेत्रों उदंती-सीतानदी अभ्यारण्य में सामुदायिक संसाधन के अधिकार देना प्रशंसनीय कदम है, पर यह वहां के लोगों के लम्बे संघर्षों का नतीजा है, और अभी बहुत से गाँव इस अधिकार से वंचित हैं। उन्होंने बताया कि तीन वर्ष पूर्व दस हज़ार लोगों ने जाकर उदंती फील्ड डायरेक्टर की ऑफिस का घेराव किया था, तब उन्होंने साफ कहा था कि “अभ्यारण्य में लोगों का कोई अधिकार नहीं है, चूँकि शासन के पास व्यवस्थापन का इंतजाम नहीं है, इसलिए आप लोगों को अभ्यारण्य में रहने दिया जा रहा है”।
हसदेव अरण्य संघर्ष समिति के लोगों का कहना है कि वर्ष 2012 में ही 8 गांव को सामुदायिक वनाधिकार दिया गया था, लेकिन संसाधन के अधिकार आज तक नहीं दिए गए। और तो और, वर्ष 2018 में निरस्त किए गए वनाधिकारों की सूचना में लिख कर दिया गया कि खदान क्षेत्र होने की वजह से लोगों के व्यक्तिगत दावे अमान्य किए जा रहे हैं। मानपुर के ग्रामीणों ने अपने जंगल के तेंदू पत्ते स्वयं बेचने का फैसला किया। 13 गाँव ने इस सन्दर्भ में शासन, प्रशासन, मंत्रालय को पत्र लिखा, पर वन विभाग ने उनके माल का परिवहन नहीं होने दिया। पर हमारी लड़ाई को नए पेसा नियम ने धाराशायी कर दिया।
जहां, शासन वनाधिकार कानून के तहत गौण वनोपज पर मालिकी को मानने के लिए बाध्य है, वहीं पेसा नियम में तेंदू पत्ता को राष्ट्रीयकृत वनोपज बताकर वन विभाग के नियंत्रण में छोड़ दिया। उन्होंने कहा कि आज भी हमारा पत्ता सुरक्षित रखा है, जिसे हम ग्राम सभा के जरिये ही बेचेंगे। सिलगेर के लोगों ने बताया कि बिना ग्राम सभा की अनुमति के सुरक्षा कैंप बैठाने के विरोध में कई गाँवों से आये लोगों के ऊपर गोली चालन को एक साल से ज्यादा हो गया है, पर अभी तक न तो गाँव वालों को कोई न्याय मिला है और न ही मृतकों और घायलों के परिवारों को। मुख्यमंत्री से भी 3 बार मुलाक़ात हुई पर अभी तक हादसे की दंडाधिकारी जांच की भी रिपोर्ट नहीं आई है। लोग अभी भी डटे हुए हैं, और अभी भी अधिकारों के लिए धरने पर हैं। कोयलीबेडा के बेचाघाट आन्दोलन से जुड़ी महिलाओं ने कहा कि विगत 7 दिसंबर से बेचाघाट के ग्रामीण इसलिए आन्दोलनरत हैं क्योंकि बिना ग्राम सभा सहमति के BSF कैम्प खोला गया, जिससे वहां महिलाओं में असुरक्षा की भावना है। उन्होंने कहा कि यह आदिवासी संस्कृति पर हमला है। किसी भी विरोध का खामियाजा फर्जी मुकदमे और मुठभेड़ के रूप में चुकाना पड़ता है। पर, अब तक कोई सरकारी अधिकारी हमसे बात करने नहीं आया।
इसी तरह रावघाट क्षेत्र का मामला है। स्थानीय लोगों के अनुसार, शासन अपना पूरा बल लगा कर रावघाट खदान को चालू कर रहा है। लेकिन आज भी महिलाएं निडरता से डटी हुई हैं। आन्दोलन को बदनाम करने की साजिश की जा रही है, और चंद लोग निजी स्वार्थों के लिए कम्पनी और सरकारी चालों के मोहरे बने हुए हैं।कांकेर जिला पंचायत की पूर्व अध्यक्ष, ने कहा कि दुर्गकोंदल में मोनेट इस्पात अपनी खदान चला रहा है, लेकिन वह इलाका बदहाल है, और लोगों को कुछ नहीं मिल रहा। उनकी जमीन छीन ली गयी और रोजगार के साधन नहीं रहे। सिर्फ साधुमिच गाँव ही कम्पनी के खिलाफ संघर्ष कर रहा है।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार लोगों में भ्रम व्याप्त है कि पेसा कानून को आदिवासी क्षेत्रों में पंचायत कानून का विस्तार माना जाता है, जबकि, यह आदिवासी स्वशासन को संवैधानिक जरिये से लागू करने का कानून है। पेसा कानून की धारा 4(घ) ग्राम सभा को ग्राम सरकार के रूप में कार्य करने के लिए सक्षम बनाता है, जिसमें सूक्ष्म स्तर पर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्ति निहित है। उन्होंने कहा कि इस परिप्रेक्ष्य में क्या हम छत्तीसगढ़ में पेसा कानून को लागू होते देख सकते हैं? इसे लेकर सरजू नेताम और किसान नेता सुदेश टीकम ने आगे की रणनीति के लिए एक सम्मिलित आंदोलन के लिए आह्वान किया, और इस वर्ष गाँधी जयंती 2 अक्टूबर को ग्राम सभाओं का महा सम्मलेन का प्रस्ताव दिया। छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन व छत्तीसगढ़ वनाधिकार मंच के इस आयोजन में हसदेव अरण्य संघर्ष समिति सहित प्रदेश के अलग अलग संघर्षरत सगठनों और समूहों से 150 लोग उपस्थित थे।
पूर्व केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस व आदिवासी नेता अरविंद नेताम ने पेसा कानून को लेकर अपनी ही पार्टी की राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा करते हुए कहा पेसा कानून के बहुप्रतीक्षित नियमों में जानबूझकर ढिलाई बरतने की बात कही। अरविंद नेताम ने कहा कि 1996 में संविधान की पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में स्वशासन की स्थापना के लिए पेसा कानून पारित किया गया था। देश में ऐसे कुल 10 राज्य हैं जो पूर्ण या आंशिक रूप से संविधान के इस दायरे में आते हैं। इन राज्यों में से पांच ने पहले ही पेसा कानून को लागू करने की नियमावली बना ली थी।
नेताम ने कहा कि ” छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार ने पेसा कानून को लागू कराने के लिए नियमों को ज़रूर बना लिया है। लेकिन इस कानून की मूल भावना के साथ बनाए गए नियम इंसाफ नहीं कर रहे। ग्राम सभा की संवैधानिक शक्तियों को जिला प्रशासन के सामने बौना बना दिया गया है। भूमि अधिग्रहण से पहले ग्राम सभाओं की सहमति के प्रावधान को परामर्श तक सीमित किया गया है। जो कि ठीक नहीं है। इन नियमों पर पुनर्विचार करने की मांग नेताम ने राज्य सरकार से की है।
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24 अगस्त को खोदगांव के रास्ते से रावघाट पहाड़ पर जाने के लिए चार भारी मशीन (जेसीबी) लाई गई। जिला प्रशासन के अधिकारियो के साथ बीएसपी के लोग भी उनके साथ थे। उन्हें रोकने खोदगांव की महिलाएं सड़क पर निकल आई और रास्ता रोक दिया। बारिश होने पर वे सड़क पर लेट गईं। पुलिस की भारी उपस्थिति के बावजूद उन्होंने हटने से मना कर दिया।
इनमें गांव की जवान और बूढ़ी महिलाएं, छात्राएं और गृहणियां सभी शामिल थीं। उन्होंने कहा कि इस खनन से उनकी पूरी जीवनशैली खत्म हो जाएगी और उनकी जिंदगी बदतर हो जाएगी। अंत में थक-हार कर शाम के 6 बजे भारी वाहनों और अधिकारियों को वापस लौटाना पड़ा। रावघाट संघर्ष समिति के लखन नूरेटी के अनुसार, उनके समाज के लिए रावघाट पहाड़ की धार्मिक मान्यता भी है। लोग उसे पूजते हैं। दूसरा यह वन अधिकार अधिनियम 2006 का भी खुला उल्लघंन है।
महिलाओं के विरोध के बाद वापस जाती जेसीबी
यहां महत्वपूर्ण है कि 17 अगस्त को बीएसपी द्वारा आयोजित फुटबॉल प्रतियोगिता की आड़ में ग्रामीणों द्वारा लगाए गए नाके को चोरी चुपके से अधिकारियों ने कटवा दिया था। 23 अगस्त को, जब रावघाट संघर्ष समिति ने नाके को वापस लगाने की कोशिश की, तो कांग्रेस के युवा नेता अमित भद्रा के साथ केरलापाल सरपंच ने उन्हें रोका, और उसे आग के हवाले कर दिया। स्थानीय लोगों के अनुसार, घटनास्थल पर विभिन्न प्रभावित गांवों से रावघाट संघर्ष समिति के समर्थन में, और खनन के विरोध में 200 से ज्यादा लोग मौजूद थे, तब भी 20-30 लोगों के आगजनी के कृत्य को मीडिया द्वारा गलत तरीके से "दो गुटों" की झड़प के तौर पर पेश किया गया जो सीधी बेइमानी है।
संघर्ष समिति के लखन नूरेटी कहते हैं कि इस कड़ी में जब 24 अगस्त को सुबह 10 बजे खोदगांव के रास्ते से रावघाट पहाड़ पर जाने के लिए जब जेसीबी लाई गई तो उन्हें रोकने खोडगांव की समस्त महिलाएं रोड पर निकल आई और रास्ते को रोक दिया। बारिश होने पर भी वे रोड पर लेट गई और पुलिस की भारी उपस्थिति के बावजूद उन्होंने वहां से हिलने से मना कर दिया। स्थानीय अधिकारियों ने उन्हें लाख हटाने की कोशिश की, पर गांव की महिलाएं, जवान और बूढ़ी, छात्राएं और गृहणियों ने हिलने से मना कर दिया। उन्होंने स्पष्ट रूप से अपनी बात रखी कि इस खनन से उनकी पूरी जीवनशैली खत्म हो जाएगी,और उनकी जिंदगी बदतर हो जाएगी। अंत में थककर शाम 6 बजे अधिकारियों को बैरंग वापस लौटना पड़ा।
खास है कि छत्तीसगढ़ में पेसा और केंद्र के वन संरक्षण नियमों में बदलाव के बाद से आदिवासियों के जल जंगल जमीन के अधिकारों पर हमले बढ़े हैं। कांकेर में गत माह आदिवासी इलाकों में स्वशासन के लिए ज़रूरी पेसा (अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत उपबंध का विस्तार) कानून के नियम लागू कर दिए गए। लम्बे समय से पेसा नियमों की मांग की जा रही थी और कांग्रेस पार्टी ने चुनावी जनघोषणापत्र में इसे बनाकर लागू करने का वादा किया था। हालांकि, यह नियम अब कागज़ी शेर साबित हो रहे हैं, बल्कि कांग्रेसनीत यूपीए शासन के समय लाए गए जनपक्षीय कानूनों, जैसे वनाधिकार मान्यता कानून की भावना के भी विरुद्ध खड़े दिखाई दे रहे हैं।
वनाधिकार और संसाधनों पर ग्राम सभा के अधिकारों पर हमले विषयक एक-दिवसीय परिचर्चा में छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन के संयोजक आलोक शुक्ला ने कहा कि यह दुखद है कि कांग्रेस की प्रदेश सरकार भी, केंद्र की सरकार के नक़्शे-कदम पर चलते हुए, मजबूत जनपक्षीय कानूनों को कमज़ोर करने में लगी हुई है। जैसे, केंद्र ने हाल ही में वन संरक्षण नियमों में संशोधन सुझाया है, जो किसी भी वनभूमि के डायवर्जन के पूर्व वन अधिकारों की मान्यता की अनिवार्यता और ग्राम सभा की सहमति को लगभग ख़त्म कर देगा। केंद्र और प्रदेश सरकार के यह कदम प्रदेश के जल जंगल जमीन बचाने वाले संघर्षों और जन आंदोलनों पर सीधा हमला ही हैं, ताकि, संसाधनों को हड़पने के कार्पोरेट प्रयास में कोई बाधा न रह जाये।
हालांकि मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार प्रदेश सरकार द्वारा संरक्षित क्षेत्रों उदंती-सीतानदी अभ्यारण्य में सामुदायिक संसाधन के अधिकार देना प्रशंसनीय कदम है, पर यह वहां के लोगों के लम्बे संघर्षों का नतीजा है, और अभी बहुत से गाँव इस अधिकार से वंचित हैं। उन्होंने बताया कि तीन वर्ष पूर्व दस हज़ार लोगों ने जाकर उदंती फील्ड डायरेक्टर की ऑफिस का घेराव किया था, तब उन्होंने साफ कहा था कि “अभ्यारण्य में लोगों का कोई अधिकार नहीं है, चूँकि शासन के पास व्यवस्थापन का इंतजाम नहीं है, इसलिए आप लोगों को अभ्यारण्य में रहने दिया जा रहा है”।
हसदेव अरण्य संघर्ष समिति के लोगों का कहना है कि वर्ष 2012 में ही 8 गांव को सामुदायिक वनाधिकार दिया गया था, लेकिन संसाधन के अधिकार आज तक नहीं दिए गए। और तो और, वर्ष 2018 में निरस्त किए गए वनाधिकारों की सूचना में लिख कर दिया गया कि खदान क्षेत्र होने की वजह से लोगों के व्यक्तिगत दावे अमान्य किए जा रहे हैं। मानपुर के ग्रामीणों ने अपने जंगल के तेंदू पत्ते स्वयं बेचने का फैसला किया। 13 गाँव ने इस सन्दर्भ में शासन, प्रशासन, मंत्रालय को पत्र लिखा, पर वन विभाग ने उनके माल का परिवहन नहीं होने दिया। पर हमारी लड़ाई को नए पेसा नियम ने धाराशायी कर दिया।
जहां, शासन वनाधिकार कानून के तहत गौण वनोपज पर मालिकी को मानने के लिए बाध्य है, वहीं पेसा नियम में तेंदू पत्ता को राष्ट्रीयकृत वनोपज बताकर वन विभाग के नियंत्रण में छोड़ दिया। उन्होंने कहा कि आज भी हमारा पत्ता सुरक्षित रखा है, जिसे हम ग्राम सभा के जरिये ही बेचेंगे। सिलगेर के लोगों ने बताया कि बिना ग्राम सभा की अनुमति के सुरक्षा कैंप बैठाने के विरोध में कई गाँवों से आये लोगों के ऊपर गोली चालन को एक साल से ज्यादा हो गया है, पर अभी तक न तो गाँव वालों को कोई न्याय मिला है और न ही मृतकों और घायलों के परिवारों को। मुख्यमंत्री से भी 3 बार मुलाक़ात हुई पर अभी तक हादसे की दंडाधिकारी जांच की भी रिपोर्ट नहीं आई है। लोग अभी भी डटे हुए हैं, और अभी भी अधिकारों के लिए धरने पर हैं। कोयलीबेडा के बेचाघाट आन्दोलन से जुड़ी महिलाओं ने कहा कि विगत 7 दिसंबर से बेचाघाट के ग्रामीण इसलिए आन्दोलनरत हैं क्योंकि बिना ग्राम सभा सहमति के BSF कैम्प खोला गया, जिससे वहां महिलाओं में असुरक्षा की भावना है। उन्होंने कहा कि यह आदिवासी संस्कृति पर हमला है। किसी भी विरोध का खामियाजा फर्जी मुकदमे और मुठभेड़ के रूप में चुकाना पड़ता है। पर, अब तक कोई सरकारी अधिकारी हमसे बात करने नहीं आया।
इसी तरह रावघाट क्षेत्र का मामला है। स्थानीय लोगों के अनुसार, शासन अपना पूरा बल लगा कर रावघाट खदान को चालू कर रहा है। लेकिन आज भी महिलाएं निडरता से डटी हुई हैं। आन्दोलन को बदनाम करने की साजिश की जा रही है, और चंद लोग निजी स्वार्थों के लिए कम्पनी और सरकारी चालों के मोहरे बने हुए हैं।कांकेर जिला पंचायत की पूर्व अध्यक्ष, ने कहा कि दुर्गकोंदल में मोनेट इस्पात अपनी खदान चला रहा है, लेकिन वह इलाका बदहाल है, और लोगों को कुछ नहीं मिल रहा। उनकी जमीन छीन ली गयी और रोजगार के साधन नहीं रहे। सिर्फ साधुमिच गाँव ही कम्पनी के खिलाफ संघर्ष कर रहा है।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार लोगों में भ्रम व्याप्त है कि पेसा कानून को आदिवासी क्षेत्रों में पंचायत कानून का विस्तार माना जाता है, जबकि, यह आदिवासी स्वशासन को संवैधानिक जरिये से लागू करने का कानून है। पेसा कानून की धारा 4(घ) ग्राम सभा को ग्राम सरकार के रूप में कार्य करने के लिए सक्षम बनाता है, जिसमें सूक्ष्म स्तर पर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्ति निहित है। उन्होंने कहा कि इस परिप्रेक्ष्य में क्या हम छत्तीसगढ़ में पेसा कानून को लागू होते देख सकते हैं? इसे लेकर सरजू नेताम और किसान नेता सुदेश टीकम ने आगे की रणनीति के लिए एक सम्मिलित आंदोलन के लिए आह्वान किया, और इस वर्ष गाँधी जयंती 2 अक्टूबर को ग्राम सभाओं का महा सम्मलेन का प्रस्ताव दिया। छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन व छत्तीसगढ़ वनाधिकार मंच के इस आयोजन में हसदेव अरण्य संघर्ष समिति सहित प्रदेश के अलग अलग संघर्षरत सगठनों और समूहों से 150 लोग उपस्थित थे।
पूर्व केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस व आदिवासी नेता अरविंद नेताम ने पेसा कानून को लेकर अपनी ही पार्टी की राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा करते हुए कहा पेसा कानून के बहुप्रतीक्षित नियमों में जानबूझकर ढिलाई बरतने की बात कही। अरविंद नेताम ने कहा कि 1996 में संविधान की पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में स्वशासन की स्थापना के लिए पेसा कानून पारित किया गया था। देश में ऐसे कुल 10 राज्य हैं जो पूर्ण या आंशिक रूप से संविधान के इस दायरे में आते हैं। इन राज्यों में से पांच ने पहले ही पेसा कानून को लागू करने की नियमावली बना ली थी।
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