28,000 मामले वापस या वोट बैंक की राजनीति? असम के सीएम द्वारा कोच राजबोंगशी के खिलाफ 'विदेशी' मामलों को वापस लेने के बयान पर सवाल

Written by sabrang india | Published on: April 11, 2025
असम के सीएम हिमंत बिस्वा सरमा द्वारा कोच राजबोंगशी के खिलाफ विदेशी न्यायाधिकरण के मामलों को वापस लेने की चुनाव पूर्व घोषणा समुदाय की पहचान, कार्यान्वयन और राजनीतिक मंशा के बारे में अहम सवाल उठाती है।



असम में पंचायत चुनावों से पहले एक बड़ी घोषणा में मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने हाल ही में कहा कि राज्य सरकार कोच राजबोंगशी समुदाय के सदस्यों के खिलाफ विदेशी न्यायाधिकरण में सभी लंबित मामलों को वापस लेगी। 4 अप्रैल को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बोलते हुए सरमा ने दावा किया, "राज्य में विभिन्न विदेशी न्यायाधिकरणों में समुदाय के लोगों के खिलाफ 28,000 मामले लंबित हैं। कैबिनेट ने तत्काल प्रभाव से मामलों को वापस लेने का ऐतिहासिक निर्णय लिया है।"

यह घोषणा राजनीतिक रूप से पंचायत चुनावों के लिए चल रही नामांकन प्रक्रिया के दौरान की गई है। इससे यह चिंता पैदा होती है कि क्या यह घोषणा एक वास्तविक नीतिगत कदम है या चुनाव से पहले कोच राजबोंगशी वोट बैंक को सुरक्षित करने के लिए महज एक "लॉलीपॉप" है। खास तौर पर इसलिए क्योंकि कोच राजबोंगशी जनजातियों के लिए कोई जातीय या अन्य विशिष्ट "चिन्ह" नहीं हैं जो उन्हें जनसांख्यिकीय रूप से चिन्हित कर सकें जैसा कि दावा किया जा रहा है।



ट्रिब्यूनल मामलों में राज्य कोच राजबोंगशी लोगों की पहचान कैसे कर सकता है?

इस घोषणा से उठने वाला एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह पहचानने की व्यवहार्यता है कि विदेशी न्यायाधिकरणों में मामलों का सामना करने वालों में से कोच राजबोंगशी समुदाय से कौन है। असम के विदेशी न्यायाधिकरणों (एफटी) के समक्ष नागरिकता के मुद्दे पर काम करने वाले कई कानूनी सहायता कार्यकर्ताओं के अनुसार, केस रिकॉर्ड में आमतौर पर समुदाय की पहचान का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया जाता है। वास्तव में, अधिकांश कार्यवाही में अभियुक्त की मातृभाषा बंगाली बताई गई है। इसके अलावा, रॉय, बर्मन और सरकार जैसे सामान्य उपनाम जो कोच राजबोंगशी और बंगाली हिंदुओं दोनों द्वारा बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किए जाते हैं - समुदाय की सीमाओं को और धुंधला कर देते हैं।

केस रिकॉर्ड में समुदाय-विशिष्ट डेटा की कमी को देखते हुए यह साफ नहीं है कि राज्य ने मुकदमों का सामना कर रहे 28,000 कोच राजबोंगशी लोगों का आंकड़ा कैसे निकाला। विदेशी न्यायाधिकरण प्रणाली में कोई कानूनी या प्रशासनिक वर्गीकरण नहीं है जो किसी व्यक्ति की जातीयता, जनजाति या जाति की पहचान करता हो, जिससे इस आंकड़े की प्रामाणिकता पर गंभीर संदेह पैदा होता है।

चल रहे मामले क्रियान्वयन पर संदेह पैदा करते हैं

मुख्यमंत्री के इस आश्वासन के बावजूद कि मामले तुरंत वापस लिए जाएंगे, जमीनी स्तर पर घटनाक्रम इसके विपरीत संकेत देते हैं। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि घोषणा के मात्र दो दिन बाद, कोच राजबोंगशी समुदाय से संबंधित किशोर बर्मन नामक व्यक्ति की काजलगांव विदेशी न्यायाधिकरण में एक मामले में सुनवाई हुई। यह मामला वर्तमान में सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) की असम कानूनी टीम द्वारा लड़ा जा रहा है, और उनकी अगली सुनवाई 11 अप्रैल, 2025 को निर्धारित है।

यदि राज्य वास्तव में कोच राजबोंगशियों के खिलाफ सभी मामलों को वापस लेने का इरादा रखता है, तो बर्मन जैसे समुदाय के सदस्यों के लिए न्यायाधिकरण की कार्यवाही अभी भी क्यों चल रही है? यह विसंगति मुख्यमंत्री के बयान की विश्वसनीयता को और कम करती है।

पिछली घोषणाएं और विसंगतियां

स्थानीय विशेषज्ञों द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार यह पहली बार नहीं है जब इस तरह की घोषणा की गई है। 4 अगस्त, 2021 को, सीएम सरमा ने इसी तरह घोषणा की थी कि गोरखा समुदाय के सदस्यों के खिलाफ कोई नया मामला दर्ज नहीं किया जाएगा।


हालांकि, यह प्रतिबद्धता भी व्यवहार में खोखली नजर आई। साल 2023 में, गोरखा लोगों को कथित तौर पर 'डी-वोटर' टैग के कारण निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी (ईआरओ) को जुर्माना देना पड़ा, जो कि 2021 के निर्णय को पूरी तरह से लागू किए जाने पर उन पर लागू नहीं होना चाहिए था। ऐसा ही एक मामला गुवाहाटी उच्च न्यायालय में पहुंचा जहां एक सेवानिवृत्त भारतीय सेनाकर्मी को भी अपनी नागरिकता का बचाव करना पड़ा।

“स्वदेशी” नैरेटिव में विरोधाभास

एक और विरोधाभास सरकार द्वारा मामलों को वापस लेने के औचित्य के रूप में 'स्वदेशी' (indigenous) शब्द के इस्तेमाल में नजर आता है। जबकि कैबिनेट का दावा है कि कोच राजबोंगशी असम के मूल निवासी हैं, कई अन्य समुदाय- जैसे गोरिया, मोरिया, देशी, जोला (चाय जनजाति) और सईद मुस्लिम- को भी सरकार द्वारा स्वदेशी के रूप में वर्गीकृत किया गया है। फिर भी, इन समुदायों के हजारों लोग विदेशी न्यायाधिकरणों में कार्यवाही का सामना कर रहे हैं। यदि स्वदेशी होना मामलों को रद्द करने का मानदंड है तो इन समुदायों को बाहर क्यों रखा गया है?

भ्रम को और बढ़ाने वाला तथ्य यह है कि असम विधानसभा ने अभी तक “मूल निवासी” या “खिलोंजिया” शब्द को परिभाषित नहीं किया है। स्पष्ट कानूनी ढांचे या आधिकारिक वर्गीकरण के बिना, मुख्यमंत्री एकतरफा निर्णय कैसे ले सकते हैं कि कौन स्वदेशी के रूप में योग्य है और कौन नहीं?

पृष्ठभूमि और राजनीतिक संदर्भ

कोच राजबोंगशी अपनी जड़ें ऐतिहासिक कामता साम्राज्य से जोड़ते हैं जो आधुनिक असम, पश्चिम बंगाल, नेपाल और बांग्लादेश के कुछ हिस्सों में फैला हुआ था। समुदाय के कई सदस्य समय के साथ, खास तौर पर बांग्लादेश के निर्माण के दौरान, रंगपुर और मैमनसिंह जैसे क्षेत्रों से पलायन कर गए। असम से अपने पैतृक संबंधों के बावजूद, उन्हें राजनीतिक और कानूनी उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है, अक्सर उन्हें 'विदेशी' करार दिया जाता है।

उनके खिलाफ विदेशी न्यायाधिकरण के मामलों को वापस लेने की मांग लंबे समय से चली आ रही है, जो समुदाय की अनुसूचित जनजाति (एसटी) की स्थिति की मांग से जुड़ी हुई है। यह एक वादा है जो पहली बार 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले भाजपा ने किया था।

11 दिसंबर, 2023 को सुप्रीम कोर्ट में पेश किए गए केंद्र सरकार के हलफनामे के अनुसार असम में कार्यरत 100 विदेशी न्यायाधिकरणों द्वारा कुल 3,34,966 मामलों का निपटारा किया गया था और 31 अक्टूबर, 2023 तक 97,714 मामले लंबित थे। सीएम सरमा का दावा है कि इन लंबित मामलों में से 28,000 कोच राजबोंगशी समुदाय के हैं। ऐसे में खासकर न्यायाधिकरणों के भीतर समुदाय की संबद्धता की पहचान करने के लिए किसी जनसांख्यिकीय तंत्र की अनुपस्थिति में गंभीर सवाल उठते हैं।

निष्कर्ष: एक ऐसी घोषणा जिसमें ढेरों अनसुलझे सवाल छिपे हैं

हालांकि पहली नजर में यह घोषणा ऐतिहासिक और प्रगतिशील लग सकती है लेकिन यह विसंगतियों, व्यावहारिक कठिनाइयों और चुनावी निहितार्थों से भरी हुई है। विदेशी न्यायाधिकरण के रिकॉर्ड में कोच राजबोंगशी लोगों की पहचान करने के लिए स्पष्ट तंत्र के बिना और चल रहे मामलों के साथ पूर्ण वापसी के वादे का खंडन करते हुए सरकार के निर्णय की विश्वसनीयता पर भारी संदेह कायम है।

जब तक राज्य पारदर्शी, सत्यापन योग्य कार्यप्रणाली जारी नहीं करता है जिसमें यह बताया गया हो कि उसने 28,000 मामलों की पहचान कैसे की तथा न्यायाधिकरणों को ठोस निर्देश जारी नहीं करता है, तब तक यह घोषणा नीति सुधार के नाम पर एक और राजनीतिक स्टंट बनकर रह जाएगी जो बिना किसी आधार के उम्मीद बढ़ाती है।

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