एक ऐसा राज्य जहां सांप्रदायिक बयानबाजी और कॉर्पोरेट के जमीन हथियाने का खेल जारी है, ऐसे में असम सरकार की “विस्फोटक” नीतियां ध्रुवीकरण, बेदखली और दमन को बढ़ावा दे रही हैं और इस राजनीतिक परियोजना की कीमत, जिसे शासन का नाम दिया जा रहा है, सबसे ज्यादा गरीबों को चुकानी पड़ रही है।

असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने 25 जुलाई 2025 को एक चौंकाने वाला राजनीतिक बयान देते हुए पत्रकारों से कहा, “मैं चाहता हूं कि असम की स्थिति विस्फोटक हो जाए।” यह टिप्पणी किसी चुनावी रैली के जोश या किसी उकसावे की स्थिति में नहीं की गई थी। द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, यह बयान उन्होंने शांत भाव से गोरुखुटी में एक सरकारी कार्यक्रम के दौरान दिया जहां 2021 में एक विवादास्पद और हिंसक बेदखली अभियान के बाद कृषि परियोजना चलाई जा रही है। उस अभियान में एक प्रदर्शनकारी की मौत हुई थी और उसकी लाश पर एक राज्य द्वारा नियुक्त कैमरापर्सन द्वारा पैर रखकर कूदने का वीडियो सामने आ चुका है।
मुख्यमंत्री की यह टिप्पणी इस सवाल के जवाब में आई कि क्या अगर उनकी सरकार सिर्फ असम के "मूल निवासियों" को ही बंदूक के लाइसेंस जारी करने की अपनी योजना पर आगे बढ़ती है, तो राज्य में अस्थिरता पैदा हो सकती है। उनका जवाब था, न सिर्फ एक विस्फोटक स्थिति की आशंका है, बल्कि यह स्वागत योग्य भी है।
यह राजनीतिक नाटक नहीं है। यह उकसावे की नीति है। शर्मा का बयान और उससे जुड़ी नीतियां, एक सुनियोजित अभियान की ओर इशारा करती हैं जिसमें जातीय ध्रुवीकरण, राज्य-समर्थित बेदखली और इस्लामोफोबिक बलि का बकरा बनाने की रणनीति शामिल है जिसे कॉर्पोरेट हितों के साथ जोड़ा गया है और वैधता व सुरक्षा की भाषा में अंजाम दिया जा रहा है। यह रिपोर्ट उस अभियान की सोची-समझी परतों को उजागर करती है।
पहचान का हथियार बनाना: हथियार लाइसेंस नीति
28 मई 2025 को शर्मा ने पहली बार घोषणा की कि 1 अगस्त से सरकार हथियारों के लाइसेंस के लिए ऑनलाइन आवेदन की अनुमति देगी, लेकिन केवल “मूल निवासी” यानी खिलोंजिया लोगों को, जो पांच ज़िलों-धुबरी, बारपेटा, मोरीगाँव, नागांव और साउथ सालमारा-मनकाचर के “संवेदनशील दूरदराज़ इलाकों” में रहते हैं।
ध्यान देने वाली बात यह है कि इन ज़िलों का चयन मनमाने ढंग से नहीं किया गया है। इन क्षेत्रों में भारी संख्या में बांग्ला-भाषी मुस्लिम आबादी रहती है, जिन्हें बीजेपी-आरएसएस तंत्र लगातार “घुसपैठिए” या “अवैध प्रवासी” बताता रहा है। इन जिलों में से दो जिले धुबरी और साउथ सालमारा-मनकाचर की सीमा बांग्लादेश से लगती है। शर्मा ने “मूल निवासियों” के बीच एक अस्पष्ट प्रकार की “असुरक्षा” की भावना को इस नीति का आधार बताया, लेकिन क़ानून-व्यवस्था में किसी तरह की गड़बड़ी का कोई प्रमाण नहीं दिया गया। इसके बजाय, इस कदम की वजह जनसांख्यिकी और डर में नजर आती है।
असम ट्रिब्यून के अनुसार, शर्मा ने मीडिया से कहा, “किसी दिन हालात विस्फोटक हो जाएंगे। अगर विस्फोट होता है तो हमारे लोग कैसे बचेंगे?”
उन्होंने इस बयान के साथ यह भी आश्वासन दिया कि “हथियार लाइसेंसों के लिए अंतिम मंजूरी” जिला आयुक्तों के पास होगी, जो पुलिस सत्यापन के बाद दी जाएगी, जैसा कि भारतीय आर्म्स अधिनियम में दर्ज है। लेकिन इस नीति को भयावह बनाने वाली बात यह है कि जहां एक जातीय समूह को हथियारबंद किया जा रहा है, जबकि दूसरे की संख्या ज्यादा है। यह आत्मरक्षा के लिए नहीं है, बल्कि मुस्लिम-बहुल जिलों में असमिया हिंदुओं के अधिकृत अर्धसैनिककरण को बढ़ावा देना है।
असम जातीय परिषद (AJP) ने इस बयान की निंदा करते हुए इसे “बेपरवाह और खतरनाक” बताया, और कहा कि यह “मुख्यमंत्री की संवैधानिक जिम्मेदारी होती है कानून-व्यवस्था बनाए रखना, न कि अशांति भड़काना।”
असम जातीय परिषद (AJP) के नेता लुरिन्ज्योति गोगोई और जगदीश भूयान ने गुवाहाटीप्लस को बताया, “लोगों से हथियार उठाने को कहना सिर्फ गैर-जिम्मेदाराना नहीं है बल्कि यह इस बात को भी साबित करता है कि सरकार अब बुनियादी कानून-व्यवस्था भी बनाए रखने में असमर्थ है।” उन्होंने आगे कहा, “यही सरकार थी जो जाति, माटी और भेती की रक्षा का वादा करके सत्ता में आई थी, लेकिन अब सुरक्षा के बजाय डर फैलाने का काम कर रही है।”
बेदखली और जातीय निशाना: हथियारों के पीछे का असली मकसद
हथियार लाइसेंस नीति को एक और राज्य की योजना से अलग नहीं किया जा सकता जो साथ-साथ चल रही है। पूरे असम में बांग्ला बोलने वाले मुसलमानों और हाशिए पर पड़े जनजातीय समुदायों के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसक बेदखली अभियान की झलक है।
ये बेदखलियां जो जंगल संरक्षण या अतिक्रमण हटाने के नाम पर की जा रही हैं, फरवरी में हुए एडवांटेज असम 2.0 निवेशक सम्मेलन और मई 2025 में हुए राइजिंग नॉर्थईस्ट निवेशक सम्मेलन के बाद से काफी तेजी से बढ़ गई हैं।
सीपीआई(एमएल) के केंद्रीय संगठन लिबरेशन द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार, 16-17 जुलाई को सीपीआई(एमएल) की फैक्ट-फाइंडिंग टीम ने गोआलपारा के आशुदुबि गांव का दौरा किया, जहां इन कार्यवाहियों की भयावहता सामने आई:
● 1,100 से ज्यादा घर तोड़े गए और इसके लिए 60 बुलडोजर लगाए गए।
● 60 बुलडोजरों से 1,100 से ज्यादा घर ध्वस्त किए गए।
● मानवीय सहायता रोकने के लिए पूरे गांव को खाइयों से घेर दिया गया।
● कम से कम दो मौत हुई: मोनिरुल इस्लाम, जिन्होंने बेदखली का नोटिस मिलने के बाद आत्महत्या कर ली; अनारुद्दीन शेख, जिनका घर ढहाए जाने के दौरान दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई।
● उच्च न्यायालय के आदेशों के बावजूद कोई पुनर्वास या पुनर्स्थापन नहीं किया गया।
CPI(ML) ने इस बेदखली अभियान को “युद्ध जैसी कार्रवाई” कहा। उनके रिपोर्ट में बताया गया कि बेदखली वाले इलाके आशुदुबि का नाम बदलकर केवल इसे जंगल का इलाका साबित करने और मौजूदा बसावट के अधिकारों को दरकिनार करने के लिए “पाइकन” कर दिया गया।
रिपोर्ट में कहा गया, “पीड़ित गरीब किसान और मजदूर मुस्लिम परिवार हैं जो इस इलाके में 60-70 सालों से रहते आए हैं। वहां सरकारी इमारतें भी थीं, लेकिन इलाका नाम बदलकर साफ कर दिया गया।”
शर्मा कार्यकाल के पिछले चार वर्षों में, 1.19 लाख से ज्यादा बीघा (लगभग 160 वर्ग किलोमीटर) जमीन साफ की जा चुकी है, वह भी अक्सर हिंसक तरीके से। ये घटनाएं अकेली नहीं हैं, बल्कि बढ़ते हुए ट्रेंड का हिस्सा हैं।
परदे के पीछे कॉर्पोरेट उपनिवेशवाद
जहां बेदखली का सार्वजनिक औचित्य “अवैध बांग्लादेशी बसावट” के डर पर टिका है, वहीं असली फायदा उठाने वाले बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियां हैं:
● धुबरी और गोआलपारा: आडानी के 3,000 मेगावाट थर्मल प्लांट के लिए 4,000 बीघा जमीन साफ की गई।
● दिमा हासाओ: आडानी का सीमेंट फैक्ट्री निर्माणाधीन है।
● कोकराझार: आडानी पावर प्रोजेक्ट चल रहा है।
● कार्बी अंगलॉन्ग: रिलायंस कम्प्रेस्ड बायोगैस प्लांट बना रहा है।
बेदखली के मामलों में वृद्धि और निवेश सम्मेलनों का समय एक-दूसरे के इतने करीब होना कोई संयोग नहीं है। यह एक राज्य-समर्थित योजना का हिस्सा है, जिसमें जातीय सफाई के जरिए कॉर्पोरेट जमीन अधिग्रहण को अंजाम दिया जा रहा है। सांप्रदायिक भाषण इस गहरे आर्थिक बेदखली के लिए एक राजनीतिक मुखौटा है।
इसी विषय पर एक विस्तृत रिपोर्ट यहां पढ़ी जा सकती है।
टॉर्चलाइट रैली और बहिष्कार के आह्वान
25 जुलाई को धेमाजी जिले में हजारों असमिया और जनजातीय निवासियों ने टॉर्च रैली निकाली और “बांग्लादेशी वापस जाओ” और “बांग्लादेशी होशियार” जैसे नारे लगाए। उनकी मांग थी: जिले को 15 दिन में खाली करो वरना परिणाम भुगतने होंगे। राज्य सरकार ने न तो इन धमकियों की निंदा की और न ही संयम से जवाब दिया।



ये दृश्य 1980 के शुरुआती वर्षों की भयावह याद दिलाते हैं। 1983 में नेल्ली नरसंहार से ठीक पहले, जिसमें 2,000 से अधिक बांग्ला-मुसलमानों की बेरहमी से हत्या हुई थी, उस समय के बीजेपी नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने गुवाहाटी में एक भाषण दिया था जिसमें उन्होंने चेतावनी दी थी कि “चुनाव हुए तो खून की नदियां बहेंगी।” वाजपेयी के एक भाषण में कहा गया था, “विदेशी यहां आ गए हैं और सरकार कुछ नहीं कर रही। अगर वे पंजाब में आ जाते तो? लोग उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर फेंक देते।” उनके ये शब्द 1996 में लोकसभा रिकॉर्ड में पूर्व सीपीआईएम सांसद इंद्रजीत गुप्ता द्वारा पढ़े गए थे। आज, शर्मा की भाषणशैली भी इसी पैटर्न की तरह है लेकिन इस बार हथियारों और राज्य के समर्थन के साथ।
एनआरसी का हथियारबंद इस्तेमाल: बंगाली हिंदू भी सुरक्षित नहीं
यह बनाए गए ध्रुवीकरण केवल मुसलमानों तक सीमित नहीं है। बंगाली भाषी हिंदुओं को भी एनआरसी से जुड़े उत्पीड़न के जरिए निशाना बनाया जा रहा है।
28 जुलाई को सामने आए मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, पश्चिम बंगाल के कूच बिहार में 72 वर्षीय अंडा बेचने वाले निशिकांत दास को असम से विदेशी ट्रिब्यूनल का नोटिस मिला है, जिसमें उन पर 1966 से 1971 के बीच भारत में गैरकानूनी प्रवेश करने का आरोप लगाया गया है। उनका वोटर आईडी, आधार कार्ड और राशन कार्ड खारिज कर दिए गए हैं। हालांकि दास ने 2001 में पुलिस हिरासत के दौरान अपनी नागरिकता साबित की थी, लेकिन अब ट्रिब्यूनल उनके दिवंगत पिता के नाम के दस्तावेज मांग रहा है।
उन्होंने द टाइम्स ऑफ इंडिया से कहा, “मेरे पिता की मृत्यु 45 साल पहले हो गई थी। मैंने अब वह दस्तावेज ढूंढ लिया है लेकिन मैं ट्रिब्यूनल में वापस नहीं जाऊंगा। मैंने अब बहुत सहन कर लिया है।”
दास की कहानी यह बताती है कि कामकाजी हिंदू प्रवासी भी इससे सुरक्षित नहीं हैं। तृणमूल कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि बीजेपी एनआरसी से जुड़े उत्पीड़न का इस्तेमाल सभी सीमावर्ती बंगालियों -मुसलमानों और हिंदुओं दोनों - में डर पैदा करने के लिए कर रही है। राजबंशी और मातुआ, जो दोनों हाशिए पर रहने वाली समुदायें हैं, अब निशाने पर हैं।
निष्कर्ष: शासन नहीं, अराजकता की तैयारी
असम की मौजूदा राजनीतिक योजना का केंद्र प्रशासनिक सुधार या समावेशी विकास नहीं है, बल्कि डर, शक और सांस्कृतिक वर्चस्व पर आधारित बहुमतवादी एकजुटता की एक सतत रणनीति है। मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा ने एक सावधानी से तैयार किए गए अभियान की निगरानी की है: एक ऐसा अभियान जो सांप्रदायिक इशारों को संरचनात्मक हिंसा से जोड़ता है, लक्षित बहिष्कारों को नीति के रूप में छुपाता है और दमनात्मक कार्रवाई को कानून-व्यवस्था की आवश्यकता के रूप में पेश करता है।
“स्वदेशी-प्रथम” हथियार लाइसेंस नीति नागरिकों की सुरक्षा के लिए नहीं, बल्कि एक मनोवैज्ञानिक घेराबंदी की स्थिति तैयार करने के लिए है जिसमें “मूल निवासी” हिंदुओं को एक ऐसे समुदाय के रूप में पेश किया जाता है जो हमले की चपेट में है और हथियारबंद आत्मरक्षा न सिर्फ जायज, बल्कि राज्य-प्रायोजित बन जाती है। बेदखली अभियान, जो अक्सर सैन्य शैली में चलते हैं, ज्यादातर बांग्ला-भाषी मुसलमानों को निशाना बनाते हैं-उन्हें “अतिक्रमणकारी” कहकर बिना किसी कानूनी जांच या पुनर्वास के बाहर कर दिया जाता है। इसी दौरान जमीन चुपचाप औद्योगिक घरानों या ढांचागत परियोजनाओं को सौंप दी जाती हैं, जिनका स्थानीय समुदायों को क्या फायदा होगा, यह स्पष्ट नहीं किया जाता। जिसे जनता के सामने “विकास” के रूप में बेचा जा रहा है, वह असल में जमीन और अस्तित्व की एक नई व्यवस्था है-जो बुलडोजरों, पुलिस की गोलीबारी और जातीय श्रेष्ठता की भाषा के जरिए जबरदस्ती लागू की जा रही है।
राज्य की कार्रवाइयां अलग-थलग नहीं हैं। वे एक ऐसे वैचारिक माहौल में जड़ें जमाए हुए हैं और उसी से वैधता पाती हैं, जहां बांग्ला-भाषी मुसलमानों को लगातार “घुसपैठिए”, “अतिक्रमणकारी” और “बाहरी” कहकर निशाना बनाया जाता है - उनकी कानूनी स्थिति, दशकों से किया गया निवास, या समुदाय के लिए दिए गए योगदान की कोई परवाह नहीं की जाती। एनआरसी ने लाखों लोगों को अनिश्चितता की स्थिति में छोड़ दिया है। इसके कारण जो मानवीय संकट पैदा हुआ है, उसे हल करने की कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति अब तक सामने नहीं आई है। इसके उलट, शर्मा का प्रशासन इस अस्थिरता को एक औजार की तरह इस्तेमाल कर रहा है-दबाव बनाने और आज्ञाकारिता थोपने के लिए।
और भी भयावह बात यह है कि इस ध्रुवीकरण की आड़ में सबसे ज्यादा नुकसान गरीबों को होता है चाहे वे किसी भी समुदाय से हों। चाहे वह एक भूमिहीन मुस्लिम परिवार हो जिसे बंदूक की नोक पर घर से बेदखल कर दिया गया हो, या एक आदिवासी मजदूर जिसे कॉर्पोरेट जमीन हथियाने की प्रक्रिया में उजाड़ दिया गया हो, या फिर एक गरीब हिंदू ग्रामीण जिसे डर के माहौल में हथियार उठाने को मजबूर किया जा रहा हो -राज्य की इस विभाजनकारी राजनीति का सबसे बड़ा बोझ उन्हीं लोगों पर पड़ता है जिनके पास न तो सुरक्षा है और न ही आवाज। सार्वजनिक संसाधनों को कल्याण के बजाय सैन्यकरण, निगरानी और दिखावे की ओर मोड़ दिया जाता है। कल्याणकारी योजनाओं की जगह दमनकारी उपाय ले लेते हैं। शासन एक तमाशा बन जाता है। और गरीब लोग उस वैचारिक वर्चस्व की लड़ाई में सिर्फ “कोलैटरल डैमेज” बनकर रह जाते हैं।
यह सिर्फ एक मुख्यमंत्री की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की कहानी नहीं है। यह उस शासन प्रणाली की पूरी रूपरेखा है, जो राज्यसत्ता को एक हथियार की तरह इस्तेमाल कर नागरिकता, अस्तित्व और डर की परिभाषाएं दोबारा गढ़ रही है। असम आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां बहुलवाद घेरे में है, असहमति को अपराध बना दिया गया है और भारत के संविधानिक वादे की आत्मा को एक समुदाय को एक समय पर बुलडोजर के नीचे रखकर धीरे-धीरे खोखला किया जा रहा है।
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असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने 25 जुलाई 2025 को एक चौंकाने वाला राजनीतिक बयान देते हुए पत्रकारों से कहा, “मैं चाहता हूं कि असम की स्थिति विस्फोटक हो जाए।” यह टिप्पणी किसी चुनावी रैली के जोश या किसी उकसावे की स्थिति में नहीं की गई थी। द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, यह बयान उन्होंने शांत भाव से गोरुखुटी में एक सरकारी कार्यक्रम के दौरान दिया जहां 2021 में एक विवादास्पद और हिंसक बेदखली अभियान के बाद कृषि परियोजना चलाई जा रही है। उस अभियान में एक प्रदर्शनकारी की मौत हुई थी और उसकी लाश पर एक राज्य द्वारा नियुक्त कैमरापर्सन द्वारा पैर रखकर कूदने का वीडियो सामने आ चुका है।
मुख्यमंत्री की यह टिप्पणी इस सवाल के जवाब में आई कि क्या अगर उनकी सरकार सिर्फ असम के "मूल निवासियों" को ही बंदूक के लाइसेंस जारी करने की अपनी योजना पर आगे बढ़ती है, तो राज्य में अस्थिरता पैदा हो सकती है। उनका जवाब था, न सिर्फ एक विस्फोटक स्थिति की आशंका है, बल्कि यह स्वागत योग्य भी है।
यह राजनीतिक नाटक नहीं है। यह उकसावे की नीति है। शर्मा का बयान और उससे जुड़ी नीतियां, एक सुनियोजित अभियान की ओर इशारा करती हैं जिसमें जातीय ध्रुवीकरण, राज्य-समर्थित बेदखली और इस्लामोफोबिक बलि का बकरा बनाने की रणनीति शामिल है जिसे कॉर्पोरेट हितों के साथ जोड़ा गया है और वैधता व सुरक्षा की भाषा में अंजाम दिया जा रहा है। यह रिपोर्ट उस अभियान की सोची-समझी परतों को उजागर करती है।
पहचान का हथियार बनाना: हथियार लाइसेंस नीति
28 मई 2025 को शर्मा ने पहली बार घोषणा की कि 1 अगस्त से सरकार हथियारों के लाइसेंस के लिए ऑनलाइन आवेदन की अनुमति देगी, लेकिन केवल “मूल निवासी” यानी खिलोंजिया लोगों को, जो पांच ज़िलों-धुबरी, बारपेटा, मोरीगाँव, नागांव और साउथ सालमारा-मनकाचर के “संवेदनशील दूरदराज़ इलाकों” में रहते हैं।
ध्यान देने वाली बात यह है कि इन ज़िलों का चयन मनमाने ढंग से नहीं किया गया है। इन क्षेत्रों में भारी संख्या में बांग्ला-भाषी मुस्लिम आबादी रहती है, जिन्हें बीजेपी-आरएसएस तंत्र लगातार “घुसपैठिए” या “अवैध प्रवासी” बताता रहा है। इन जिलों में से दो जिले धुबरी और साउथ सालमारा-मनकाचर की सीमा बांग्लादेश से लगती है। शर्मा ने “मूल निवासियों” के बीच एक अस्पष्ट प्रकार की “असुरक्षा” की भावना को इस नीति का आधार बताया, लेकिन क़ानून-व्यवस्था में किसी तरह की गड़बड़ी का कोई प्रमाण नहीं दिया गया। इसके बजाय, इस कदम की वजह जनसांख्यिकी और डर में नजर आती है।
असम ट्रिब्यून के अनुसार, शर्मा ने मीडिया से कहा, “किसी दिन हालात विस्फोटक हो जाएंगे। अगर विस्फोट होता है तो हमारे लोग कैसे बचेंगे?”
उन्होंने इस बयान के साथ यह भी आश्वासन दिया कि “हथियार लाइसेंसों के लिए अंतिम मंजूरी” जिला आयुक्तों के पास होगी, जो पुलिस सत्यापन के बाद दी जाएगी, जैसा कि भारतीय आर्म्स अधिनियम में दर्ज है। लेकिन इस नीति को भयावह बनाने वाली बात यह है कि जहां एक जातीय समूह को हथियारबंद किया जा रहा है, जबकि दूसरे की संख्या ज्यादा है। यह आत्मरक्षा के लिए नहीं है, बल्कि मुस्लिम-बहुल जिलों में असमिया हिंदुओं के अधिकृत अर्धसैनिककरण को बढ़ावा देना है।
असम जातीय परिषद (AJP) ने इस बयान की निंदा करते हुए इसे “बेपरवाह और खतरनाक” बताया, और कहा कि यह “मुख्यमंत्री की संवैधानिक जिम्मेदारी होती है कानून-व्यवस्था बनाए रखना, न कि अशांति भड़काना।”
असम जातीय परिषद (AJP) के नेता लुरिन्ज्योति गोगोई और जगदीश भूयान ने गुवाहाटीप्लस को बताया, “लोगों से हथियार उठाने को कहना सिर्फ गैर-जिम्मेदाराना नहीं है बल्कि यह इस बात को भी साबित करता है कि सरकार अब बुनियादी कानून-व्यवस्था भी बनाए रखने में असमर्थ है।” उन्होंने आगे कहा, “यही सरकार थी जो जाति, माटी और भेती की रक्षा का वादा करके सत्ता में आई थी, लेकिन अब सुरक्षा के बजाय डर फैलाने का काम कर रही है।”
बेदखली और जातीय निशाना: हथियारों के पीछे का असली मकसद
हथियार लाइसेंस नीति को एक और राज्य की योजना से अलग नहीं किया जा सकता जो साथ-साथ चल रही है। पूरे असम में बांग्ला बोलने वाले मुसलमानों और हाशिए पर पड़े जनजातीय समुदायों के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसक बेदखली अभियान की झलक है।
ये बेदखलियां जो जंगल संरक्षण या अतिक्रमण हटाने के नाम पर की जा रही हैं, फरवरी में हुए एडवांटेज असम 2.0 निवेशक सम्मेलन और मई 2025 में हुए राइजिंग नॉर्थईस्ट निवेशक सम्मेलन के बाद से काफी तेजी से बढ़ गई हैं।
सीपीआई(एमएल) के केंद्रीय संगठन लिबरेशन द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार, 16-17 जुलाई को सीपीआई(एमएल) की फैक्ट-फाइंडिंग टीम ने गोआलपारा के आशुदुबि गांव का दौरा किया, जहां इन कार्यवाहियों की भयावहता सामने आई:
● 1,100 से ज्यादा घर तोड़े गए और इसके लिए 60 बुलडोजर लगाए गए।
● 60 बुलडोजरों से 1,100 से ज्यादा घर ध्वस्त किए गए।
● मानवीय सहायता रोकने के लिए पूरे गांव को खाइयों से घेर दिया गया।
● कम से कम दो मौत हुई: मोनिरुल इस्लाम, जिन्होंने बेदखली का नोटिस मिलने के बाद आत्महत्या कर ली; अनारुद्दीन शेख, जिनका घर ढहाए जाने के दौरान दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई।
● उच्च न्यायालय के आदेशों के बावजूद कोई पुनर्वास या पुनर्स्थापन नहीं किया गया।
CPI(ML) ने इस बेदखली अभियान को “युद्ध जैसी कार्रवाई” कहा। उनके रिपोर्ट में बताया गया कि बेदखली वाले इलाके आशुदुबि का नाम बदलकर केवल इसे जंगल का इलाका साबित करने और मौजूदा बसावट के अधिकारों को दरकिनार करने के लिए “पाइकन” कर दिया गया।
रिपोर्ट में कहा गया, “पीड़ित गरीब किसान और मजदूर मुस्लिम परिवार हैं जो इस इलाके में 60-70 सालों से रहते आए हैं। वहां सरकारी इमारतें भी थीं, लेकिन इलाका नाम बदलकर साफ कर दिया गया।”
शर्मा कार्यकाल के पिछले चार वर्षों में, 1.19 लाख से ज्यादा बीघा (लगभग 160 वर्ग किलोमीटर) जमीन साफ की जा चुकी है, वह भी अक्सर हिंसक तरीके से। ये घटनाएं अकेली नहीं हैं, बल्कि बढ़ते हुए ट्रेंड का हिस्सा हैं।
परदे के पीछे कॉर्पोरेट उपनिवेशवाद
जहां बेदखली का सार्वजनिक औचित्य “अवैध बांग्लादेशी बसावट” के डर पर टिका है, वहीं असली फायदा उठाने वाले बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियां हैं:
● धुबरी और गोआलपारा: आडानी के 3,000 मेगावाट थर्मल प्लांट के लिए 4,000 बीघा जमीन साफ की गई।
● दिमा हासाओ: आडानी का सीमेंट फैक्ट्री निर्माणाधीन है।
● कोकराझार: आडानी पावर प्रोजेक्ट चल रहा है।
● कार्बी अंगलॉन्ग: रिलायंस कम्प्रेस्ड बायोगैस प्लांट बना रहा है।
बेदखली के मामलों में वृद्धि और निवेश सम्मेलनों का समय एक-दूसरे के इतने करीब होना कोई संयोग नहीं है। यह एक राज्य-समर्थित योजना का हिस्सा है, जिसमें जातीय सफाई के जरिए कॉर्पोरेट जमीन अधिग्रहण को अंजाम दिया जा रहा है। सांप्रदायिक भाषण इस गहरे आर्थिक बेदखली के लिए एक राजनीतिक मुखौटा है।
इसी विषय पर एक विस्तृत रिपोर्ट यहां पढ़ी जा सकती है।
टॉर्चलाइट रैली और बहिष्कार के आह्वान
25 जुलाई को धेमाजी जिले में हजारों असमिया और जनजातीय निवासियों ने टॉर्च रैली निकाली और “बांग्लादेशी वापस जाओ” और “बांग्लादेशी होशियार” जैसे नारे लगाए। उनकी मांग थी: जिले को 15 दिन में खाली करो वरना परिणाम भुगतने होंगे। राज्य सरकार ने न तो इन धमकियों की निंदा की और न ही संयम से जवाब दिया।



ये दृश्य 1980 के शुरुआती वर्षों की भयावह याद दिलाते हैं। 1983 में नेल्ली नरसंहार से ठीक पहले, जिसमें 2,000 से अधिक बांग्ला-मुसलमानों की बेरहमी से हत्या हुई थी, उस समय के बीजेपी नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने गुवाहाटी में एक भाषण दिया था जिसमें उन्होंने चेतावनी दी थी कि “चुनाव हुए तो खून की नदियां बहेंगी।” वाजपेयी के एक भाषण में कहा गया था, “विदेशी यहां आ गए हैं और सरकार कुछ नहीं कर रही। अगर वे पंजाब में आ जाते तो? लोग उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर फेंक देते।” उनके ये शब्द 1996 में लोकसभा रिकॉर्ड में पूर्व सीपीआईएम सांसद इंद्रजीत गुप्ता द्वारा पढ़े गए थे। आज, शर्मा की भाषणशैली भी इसी पैटर्न की तरह है लेकिन इस बार हथियारों और राज्य के समर्थन के साथ।
एनआरसी का हथियारबंद इस्तेमाल: बंगाली हिंदू भी सुरक्षित नहीं
यह बनाए गए ध्रुवीकरण केवल मुसलमानों तक सीमित नहीं है। बंगाली भाषी हिंदुओं को भी एनआरसी से जुड़े उत्पीड़न के जरिए निशाना बनाया जा रहा है।
28 जुलाई को सामने आए मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, पश्चिम बंगाल के कूच बिहार में 72 वर्षीय अंडा बेचने वाले निशिकांत दास को असम से विदेशी ट्रिब्यूनल का नोटिस मिला है, जिसमें उन पर 1966 से 1971 के बीच भारत में गैरकानूनी प्रवेश करने का आरोप लगाया गया है। उनका वोटर आईडी, आधार कार्ड और राशन कार्ड खारिज कर दिए गए हैं। हालांकि दास ने 2001 में पुलिस हिरासत के दौरान अपनी नागरिकता साबित की थी, लेकिन अब ट्रिब्यूनल उनके दिवंगत पिता के नाम के दस्तावेज मांग रहा है।
उन्होंने द टाइम्स ऑफ इंडिया से कहा, “मेरे पिता की मृत्यु 45 साल पहले हो गई थी। मैंने अब वह दस्तावेज ढूंढ लिया है लेकिन मैं ट्रिब्यूनल में वापस नहीं जाऊंगा। मैंने अब बहुत सहन कर लिया है।”
दास की कहानी यह बताती है कि कामकाजी हिंदू प्रवासी भी इससे सुरक्षित नहीं हैं। तृणमूल कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि बीजेपी एनआरसी से जुड़े उत्पीड़न का इस्तेमाल सभी सीमावर्ती बंगालियों -मुसलमानों और हिंदुओं दोनों - में डर पैदा करने के लिए कर रही है। राजबंशी और मातुआ, जो दोनों हाशिए पर रहने वाली समुदायें हैं, अब निशाने पर हैं।
निष्कर्ष: शासन नहीं, अराजकता की तैयारी
असम की मौजूदा राजनीतिक योजना का केंद्र प्रशासनिक सुधार या समावेशी विकास नहीं है, बल्कि डर, शक और सांस्कृतिक वर्चस्व पर आधारित बहुमतवादी एकजुटता की एक सतत रणनीति है। मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा ने एक सावधानी से तैयार किए गए अभियान की निगरानी की है: एक ऐसा अभियान जो सांप्रदायिक इशारों को संरचनात्मक हिंसा से जोड़ता है, लक्षित बहिष्कारों को नीति के रूप में छुपाता है और दमनात्मक कार्रवाई को कानून-व्यवस्था की आवश्यकता के रूप में पेश करता है।
“स्वदेशी-प्रथम” हथियार लाइसेंस नीति नागरिकों की सुरक्षा के लिए नहीं, बल्कि एक मनोवैज्ञानिक घेराबंदी की स्थिति तैयार करने के लिए है जिसमें “मूल निवासी” हिंदुओं को एक ऐसे समुदाय के रूप में पेश किया जाता है जो हमले की चपेट में है और हथियारबंद आत्मरक्षा न सिर्फ जायज, बल्कि राज्य-प्रायोजित बन जाती है। बेदखली अभियान, जो अक्सर सैन्य शैली में चलते हैं, ज्यादातर बांग्ला-भाषी मुसलमानों को निशाना बनाते हैं-उन्हें “अतिक्रमणकारी” कहकर बिना किसी कानूनी जांच या पुनर्वास के बाहर कर दिया जाता है। इसी दौरान जमीन चुपचाप औद्योगिक घरानों या ढांचागत परियोजनाओं को सौंप दी जाती हैं, जिनका स्थानीय समुदायों को क्या फायदा होगा, यह स्पष्ट नहीं किया जाता। जिसे जनता के सामने “विकास” के रूप में बेचा जा रहा है, वह असल में जमीन और अस्तित्व की एक नई व्यवस्था है-जो बुलडोजरों, पुलिस की गोलीबारी और जातीय श्रेष्ठता की भाषा के जरिए जबरदस्ती लागू की जा रही है।
राज्य की कार्रवाइयां अलग-थलग नहीं हैं। वे एक ऐसे वैचारिक माहौल में जड़ें जमाए हुए हैं और उसी से वैधता पाती हैं, जहां बांग्ला-भाषी मुसलमानों को लगातार “घुसपैठिए”, “अतिक्रमणकारी” और “बाहरी” कहकर निशाना बनाया जाता है - उनकी कानूनी स्थिति, दशकों से किया गया निवास, या समुदाय के लिए दिए गए योगदान की कोई परवाह नहीं की जाती। एनआरसी ने लाखों लोगों को अनिश्चितता की स्थिति में छोड़ दिया है। इसके कारण जो मानवीय संकट पैदा हुआ है, उसे हल करने की कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति अब तक सामने नहीं आई है। इसके उलट, शर्मा का प्रशासन इस अस्थिरता को एक औजार की तरह इस्तेमाल कर रहा है-दबाव बनाने और आज्ञाकारिता थोपने के लिए।
और भी भयावह बात यह है कि इस ध्रुवीकरण की आड़ में सबसे ज्यादा नुकसान गरीबों को होता है चाहे वे किसी भी समुदाय से हों। चाहे वह एक भूमिहीन मुस्लिम परिवार हो जिसे बंदूक की नोक पर घर से बेदखल कर दिया गया हो, या एक आदिवासी मजदूर जिसे कॉर्पोरेट जमीन हथियाने की प्रक्रिया में उजाड़ दिया गया हो, या फिर एक गरीब हिंदू ग्रामीण जिसे डर के माहौल में हथियार उठाने को मजबूर किया जा रहा हो -राज्य की इस विभाजनकारी राजनीति का सबसे बड़ा बोझ उन्हीं लोगों पर पड़ता है जिनके पास न तो सुरक्षा है और न ही आवाज। सार्वजनिक संसाधनों को कल्याण के बजाय सैन्यकरण, निगरानी और दिखावे की ओर मोड़ दिया जाता है। कल्याणकारी योजनाओं की जगह दमनकारी उपाय ले लेते हैं। शासन एक तमाशा बन जाता है। और गरीब लोग उस वैचारिक वर्चस्व की लड़ाई में सिर्फ “कोलैटरल डैमेज” बनकर रह जाते हैं।
यह सिर्फ एक मुख्यमंत्री की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की कहानी नहीं है। यह उस शासन प्रणाली की पूरी रूपरेखा है, जो राज्यसत्ता को एक हथियार की तरह इस्तेमाल कर नागरिकता, अस्तित्व और डर की परिभाषाएं दोबारा गढ़ रही है। असम आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां बहुलवाद घेरे में है, असहमति को अपराध बना दिया गया है और भारत के संविधानिक वादे की आत्मा को एक समुदाय को एक समय पर बुलडोजर के नीचे रखकर धीरे-धीरे खोखला किया जा रहा है।
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