जी-23 vs जी-हुजूर 23: युवा, बुजुर्ग, भाजपा व मीडिया जैसे कई मोर्चों पर एक-साथ लड़ रही 'राहुल' की कांग्रेस

Written by Navnish Kumar | Published on: October 4, 2021
पंजाब व छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में चल रही उठापटक कांग्रेस की इकलौती चिंता नहीं है। पार्टी को, जी-23 बनाम जी-हुजूर 23 व युवा बनाम बुजुर्ग के रूप में वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी, राज्यों में संगठन स्तर पर संकट के साथ भाजपा व प्रतिरोधी मीडिया से भी एक-साथ लड़ना पड़ रहा है। पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिद्धू का इस्तीफा सुर्खियों में बना ही था कि 27 सितंबर को गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री लुईजिनो फलेरो ने कांग्रेस से इस्तीफा दे, तृणमूल का दामन थाम लिया। फलेरो ने सोनिया गांधी को भेजे इस्तीफे में लिखा कि अब यह वो पार्टी नहीं रही जिसके लिए हमने त्याग और संघर्ष किया था। कहा उन्हें "पार्टी बचाने की कोई उम्मीद भी नजर नहीं आती। उधर, यूपी में भी चुनाव से पहले कई नेता कांग्रेस छोड़ चुके हैं। 



पहले उत्तर प्रदेश की बात करें तो कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी 8 दिन बाद बरेली से एक बड़ी रैली के जरिए यूपी चुनाव का बिगुल फूंकने जा रही हैं। लेकिन यहां भी पार्टी ‘दल बदल’ संकट का सामना कर रही है। ज़मीनी पकड़ रखने वाले कई नेता पार्टी में भरोसा खो चुके हैं और सपा आदि दलों में शामिल हो रहे हैं। बुंदेलखंड के बड़े कांग्रेसी नेता पूर्व विधायक गयादीन अनुरागी व विनोद चौधरी ने दो दिन पहले ही समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिया। उनके साथ महोबा के मनोज तिवारी भी सपाई हो गए। यही नहीं, पूर्व विधायक व सहारनपुर के कद्दावर कांग्रेस नेता इमरान मसूद ने भी कह दिया कि राज्य में भाजपा को मात देने में केवल सपा ही सक्षम है। उन्होंने कहा सभी पार्टियों को सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ना चाहिए। मसूद ने यह भी कहा कि तमाम प्रयासों के बावजूद प्रियंका गांधी, वोट जोड़ने में सफल नहीं हो पाई हैं। बता दें कि इमरान मसूद को हाल ही में कांग्रेस ने राष्ट्रीय सचिव बनाया था। जितिन प्रसाद जैसे हाई प्रोफाइल ब्राह्मण नेता के भाजपा में जाने से कांग्रेस को पहले ही नुकसान हो चुका है। अब अनुरागी के दल बदलने से परेशानी बढ़ी है क्योंकि वह बुंदेलखंड क्षेत्र में बड़े दलित नेता माने जाते हैं। अनुरागी को कांग्रेस स्टेट यूनिट का उपाध्यक्ष भी बनाया गया था और प्रियंका गांधी ने उनसे चुनाव की तैयारियां करने को कहा था। हफ्ते भर पहले पूर्व विधायक व पार्टी उपाध्यक्ष ललितेश पति त्रिपाठी ने भी कांग्रेस का साथ छोड़ दिया था। वह कमलापति त्रिपाठी के पोते हैं। कांग्रेस की युवा नेता और महिला कांग्रेस की अध्यक्ष रही सुष्मिता देव ने भी पार्टी छोड़ दी है। 

इस्तीफों की इसी लंबी फेहरिस्त की ओर इशारा करते हुए पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल कह रहे हैं कि जिन नेताओं को पार्टी नेतृत्व के करीबी समझा जाता था वो इस्तीफा दे रहे हैं जबकि 'हम लोग' जिन्हें नेतृत्व के करीब नहीं जाना जाता अभी भी पार्टी के साथ खड़े हैं। सिब्बल उन कांग्रेस नेताओं में हैं जो पार्टी की दशा पर सवाल उठा रहे हैं। सिब्बल ने कहा कि 'हम जी-23 हैं, जी-हुजूर 23' नहीं हैं। जी-23 उन 23 कांग्रेस नेताओं को कहा जाता है जिन्होंने अगस्त 2020 में सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखकर पार्टी में आमूलचूल परिवर्तन की मांग की थी। गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, मनीष तिवारी, वीरप्पा मोइली, भूपेंद्र सिंह हूडा जैसे कई बड़े नेता इस समूह में शामिल हैं। 

ताजा इस्तीफों के मद्देनजर सिब्बल के साथ आजाद ने भी कांग्रेस कार्यकारी समिति की बैठक बुलाने की मांग की है। जी-23 के नेताओं को लेकर पार्टी के एक धड़े में शुरू से नाराजगी रही है लेकिन 29 सितंबर को पहली बार सिब्बल के बयान पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं द्वारा हिंसक प्रतिक्रिया हुई। युवा कांग्रेस के कुछ कार्यकर्ताओं ने नई दिल्ली में सिब्बल के घर के बाहर प्रदर्शन किया, टमाटर फेंके और गाड़ी को नुकसान पहुंचाया। कार्यकर्ताओं ने सिब्बल 'गेट वेल सुन, पार्टी छोड़ दो, होश में आओ' और राहुल गांधी जिंदाबाद के नारे भी लगाए। आनंद शर्मा ने कार्यकर्ताओं के आचरण की निंदा करते हुए कहा कि असहिष्णुता और हिंसा कांग्रेस की संस्कृति के खिलाफ हैं। उन्होंने सोनिया गांधी से भी ऐसे कार्यकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है। 

खैर सिब्बल लाख कहें कि उनके पत्र लेखक कांग्रेसी नेता जी-23 हैं, जी हुजूर-23 नहीं हैं, मगर इश्के-बुतां में जिंदगी गुजर गई मोमिन आखरी वक्त क्या खाक मुसलमां होंगे? शेर मौजूं स्थिति बखूबी बयां करता है। इंदिरा कांग्रेस में वहीं नेता अभी तक टिक सके और आगे बढ़ सके हैं, जो चापलूसी के महापंडित हैं। बाकी शरद पवार और ममता बनर्जी जैसे कितने नेता पहले ही जा चुके हैं? इंदिराजी ने नई कांग्रेस का जो बीज बोया था, वह वटवृक्ष बन गया था। लेकिन इस वटवृक्ष में अब घुन लग गया है। दो साल हो गए, पार्टी का कोई बाकायदा अध्यक्ष नहीं है और पार्टी चल रही है। अब कभी पंजाब तो कभी राजस्थान, छत्तीसगढ़ से कांग्रेसी जहाज के लड़खड़ाने की खबर आती है। जी हां, छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस की अंदरूनी कलह, उफान पर है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल व स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव के बीच सत्ता की लड़ाई को लेकर अटकलें तेज हैं। सिंहदेव समर्थकों का कहना है कि बघेल के कार्यकाल के ढाई साल पूरे हो गए हैं और पार्टी को अब वादे के मुताबिक सिंहदेव को मुख्यमंत्री बनाना चाहिए। छत्तीसगढ़ में यह संकट काफी समय से चल रहा है लेकिन हाईकमान ने अभी तक बघेल को मुख्यमंत्री पद से हटाने का कोई संकेत नहीं दिया है। पंजाब में नवजोत सिद्धू का मामला कुछ सुलटता दिख रहा है लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह दिक्कतें बढाते दिख रहे हैं। वह दिल्ली गृहमंत्री अमित शाह से मिले। क्यों मिले?, बताया किसान आंदोलन के बारे में बात की तो किस हैसियत में की? अब वे न मुख्यमंत्री हैं, न कांग्रेस अध्यक्ष। ऐसे में अमरिंदर के अगले कदम पर सबकी नजर है कि वे भाजपा में जाएंगे या अपनी नई पार्टी बनाएंगे या घर बैठे कांग्रेस की जड़ खोदेंगे? कुल मिलाकर देखना यही होगा कि कांग्रेस की मुश्किलों को वह किस हद तक व कितना बढ़ा पाते हैं।

अब देखा जाए तो कपिल सिब्बल भी गलत नहीं है, कांग्रेस में फैसले तो हो ही रहे हैं। लेकिन कौन ले रहा है, को एक बारी छोड़ दें तो आप पाएंगे कि कांग्रेस पार्टी में साहसी फैसले शुरू हो गए हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर को हटाना मामूली फैसला नहीं था। कांग्रेस के बाकी क्षत्रपों के मुकाबले कैप्टेन की स्थिति ज्यादा मजबूत थी क्योंकि वे दिवंगत राजीव गांधी और सोनिया गांधी के दोस्त हैं। इसके बावजूद कांग्रेस को जब पता चला कि उनकी कमान में पार्टी नहीं जीत पाएगी और उनके खिलाफ बहुत ज्यादा एंटी इन्कंबैंसी है तो उनको बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। इस बात पर चर्चा हो सकती है कि उनको हटाने का फैसला ठीक तरीके से हुआ या नहीं, लेकिन राहुल का नेतृत्व स्थापित करने और अगले चुनाव के लिहाज से यह सही और साहसिक फैसला है, इसमें शायद ही कोई इफ-बट वाली बात हो। 

अब जहां एक तरफ भारतीय जनता पार्टी राज्यों की मजबूत और राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण जातियों को तरजीह दे रही है तो दूसरी ओर कांग्रेस ने इसके उलट राजनीति शुरू की है। जैसे भाजपा ने गुजरात में पाटीदार समाज के भूपेंद्र पटेल को कमान दी वैसे कांग्रेस ने पंजाब में जाट सिख को कमान न देकर दलित को मुख्यमंत्री बनाया। चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला भी बहुत साहसिक है और काफी हद तक विपक्षी पार्टियों को बैकफुट पर लाने वाला है। कांग्रेस आलाकमान पर हमला कर रही कोई पार्टी चन्नी को निशाना नहीं बना रही है। कांग्रेस ने भी अपने ऊपर होने वाले हमलों को ट्विस्ट दे दिया है कि विरोधियों को दलित मुख्यमंत्री बरदाश्त नहीं हो रहा है। इसी तरह कांग्रेस ने सीपीआई के नेता कन्हैया कुमार और गुजरात के दलित विधायक जिग्नेश मेवानी को पार्टी में शामिल करके साहस का काम किया है। कांग्रेस को पता है कि कन्हैया कुमार के खिलाफ भाजपा ने टुकड़े टुकड़े गैंग का नैरेटिव बनाया था और आगे भी उनको इस मसले पर घेरा जा सकता है। इसके बावजूद उनको पार्टी में शामिल करके कांग्रेस ने मैसेज दिया है कि वह भाजपा के आईटी सेल के बनाए नैरेटिव ध्वस्त करना चाहती है। कांग्रेस का यह दांव सटीक बैठा तो इसका उसे बड़ा फायदा होगा। इसके जरिए वह आईटी सेल के बनवाए कई मिथक तोड़ सकती है, जिसमें से एक राहुल गांधी के पप्पू होने का मिथक है। भाजपा ने इस बात का ऐसा प्रचार किया है कि सचमुच लोग इस पर यकीन करने लगे हैं कि राहुल विपक्ष की कमान नहीं संभाल सकते हैं और न ही मोदी का मुकाबला कर सकते हैं।

यही नहीं, कन्हैया-जिग्नेश का पार्टी का दांव सही पड़ा, तो कांग्रेस में एक नई ऊर्जा आ सकती है और उन युवाओं के पार्टी में आने का रास्ता खुल सकता है, जो किसी का बेटा-बेटी होने के नाते नहीं, बल्कि अपने स्वाभाविक राजनीतिक स्वभाव के कारण सार्वजनिक जीवन में आए हैं या आना चाहते हैं। आज कांग्रेस एक बिखरती हुई पार्टी दिखती है। नेतृत्व का कोई केंद्रीय ढांचा ना उभर पाने का परिणाम है कि पार्टी में जितने लोग आते हैं, उससे ज्यादा उसे छोड़ कर जाते रहे हैं। ये समस्या सिर्फ तभी खत्म हो सकती है, जब राहुल गांधी फिर से अध्यक्ष बनें और पार्टी में उन्हें काम करने का फ्री हैंड मिले। कन्हैया और जिग्नेश का आना इस दिशा में प्रगति का संकेत है। 

मीडिया रिपोर्ट देखें तो कांग्रेस ने हाल में दो और बड़े फैसले किए हैं जिन पर कम ही चर्चा हुई। एक फैसला असम में हुआ, जहां कांग्रेस ने बदरूद्दीन अजमल की पार्टी एआईयूडीएफ से तालमेल खत्म कर लिया। यह भी खबर है कि कांग्रेस राज्य में होने वाले उपचुनाव ऑल असम स्टूडेंट यूनियन की बनाई असम जातीयता परिषद के लिए एक सीट छोड़ने वाली है। यह कांग्रेस यानी 'राहुल' कांग्रेस की नई राजनीति है। इससे पहले कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में भी फुरफुरा शरीफ के पीरजादा मौलाना अब्बास सिद्दीकी की पार्टी इंडियन सेकुलर फ्रंट से भी दूरी बना ली। इन दोनों पार्टियों से अलग होकर कांग्रेस ने बहुसंख्यक मतदाताओं को बड़ा मैसेज दिया है। यही नहीं, उत्तर प्रदेश को छोड़ दें तो बाकी राज्यों में कांग्रेस लड़ती दिख रही है। नतीजे क्या होंगे, यह नहीं कहा जा सकता। लेकिन कांग्रेस ने उत्तराखंड में हरीश रावत का चेहरा आगे कर मुकाबला कांटे का बना दिया है तो पंजाब में दलित मुख्यमंत्री की वजह से कांग्रेस शुरुआती बढ़त ले चुकी है। 

महत्वपूर्ण है कि अंदरूनी झगड़ों से इतर, कांग्रेस को प्रतिरोधी या कहें गोदी मीडिया के एक धड़े से भी दो-चार होना पड़ रहा है। हाल ही में टाइम्स नाउ टीवी चैनल पर बहस के दौरान मुख्य संपादक नविका कुमार ने राहुल गांधी के खिलाफ अपशब्द का इस्तेमाल कर दिया, जिसका पार्टी ने काफी आक्रामक तरीके से विरोध किया। भूपेश बघेल समेत कई नेताओं ने सोशल मीडिया पर चेतावनी दी। कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने चैनल के दफ्तर में घुस कर प्रदर्शन किया और चैनल के अधिकारियों से विरोध जताया। नतीजा नविका व टाइम्स नाउ ने माफी मांगी। कुल मिलाकर देखें तो एक पूर्णकालिक अध्यक्ष के अभाव से जूझ रही कांग्रेस इस समय कई मोर्चों पर एक-साथ लड़ना पड़ रहा है। 

नतीजा देखना होगा कि इन चुनौतियों से पार्टी कैसे व कब तक पार पा पाती है? या नहीं पा पाती है। दूसरे पहलू पर विचार करें तो देश व लोकतंत्र के लिए भी इससे बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात कोई हो नहीं सकती कि यदि कांग्रेस बेजान हो गई तो भाजपा को कांग्रेस बनने से कौन रोक सकता है? तब पूरा भारत ही जी-हुजरों का लोकतंत्र बन जाएगा। दरअसल फिलवक्त भाजपा और कांग्रेस का अंदरुनी हाल एक-जैसा होता जा रहा है। यानी अंदरुनी लोकतंत्र सभी पार्टियों में शून्य को छू रहा है लेकिन यही प्रवृत्ति बाहरी लोकतंत्र पर भी हावी हो गई तो हमारी पार्टियों की इस नेताशाही को तानाशाही में बदलते देर नहीं लगेगी। यदि हम संयुक्त राष्ट्र संघ में जाकर भारत को ‘लोकतंत्र की अम्मा’ घोषित कर रहे हैं तो हमें अपनी इस 'अम्मा' के जीवन और सम्मान की रक्षा के लिए सदा सावधान भी रहना होगा।

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