यूनिफॉर्म सिविल कोड पर विधि आयोग की अपील और प्रश्नावली वापस हो

Written by | Published on: October 29, 2016
विधि आयोग सरकार के फरवरी, 2014 के दिशा-निर्देशों का पालन करने में बुरी तरह नाकाम रहा है। वह जेंडर जस्टिस (लैंगिक न्याय) के मुद्दे पर भ्रम पैदा करता हुआ दिख रहा है। मौजूदा सांप्रदायिक उत्तेजना के दौर में सुप्रीम कोर्ट में लंबित इस मामले पर भ्रम की स्थिति पैदा की जा रही है।

मुंबई स्थित फोरम अगेंस्ट ऑप्रेशन ऑफ विमेन (एफएओडब्ल्यू) ने एक हस्ताक्षर अभियान शुरू किया है। फोरम ने विधि आयोग (लॉ कमीशन) से उसकी ‘अपील’ और ‘प्रश्नावली’ को वापस लेने की अपील की है। फोरम ने देश भर के महिला समूहों और नागरिकों से समर्थन मांगा है। फोरम ने वो वजहें गिनाई हैं, जिनके आधार पर विधि आयोग को इस ‘अपील’ और ‘प्रश्नावली’ को वापस ले लेना चाहिए।

‘अपील’ और ‘प्रश्नावली’ को वापस लेने की जो वजहें गिनाईं गई उनमें कहा गया है कि विधि आयोग ने कानून बनाने से पहले सलाह-मशविरे की निर्धारित प्रक्रिया का पालन नहीं किया है। फोरम ने कहा है कि भारत सरकार ने 5 फरवरी 2014 को 12 ऐसे दिशा-निर्देश जारी किए हैं, जिनका कानून बनाने से पहले होने वाले सलाह-मशविरे में पालन किया जाना चाहिए। इनमें सबसे अहम वो निर्देश है, जिसमें कहा गया गया है कि कानून का प्रस्ताव करने वाले सरकार के सभी विभाग या मंत्रालयों को कानून के मसौदे को सार्वजनिक या प्रकाशित करना चाहिए।

इन विभागों और मंत्रालयों को कम से कम प्रस्तावित कानून, इसके औचित्य और आवश्यक तत्वों को जरूर प्रस्तावित करना चाहिए। इसके साथ ही कम से कम 30 दिन तक इसके व्यापक वित्तीय प्रभाव के अलावा पर्यावरण, संबंधित लोगों की जीविका, मौलिक अधिकारों और जिंदगी पर पड़ने वाले इसके असर के बारे में सार्वजनिक सूचना प्रकाशित करना चाहिए। लेकिन मसौदे के बारे में सार्वजनिक सूचना देने के बजाय इसने एक प्रश्नावली पेश करने का फैसला किया। फोरम के मुताबिक कानून के मसौदे के बगैर इस तरह की प्रश्नावली का जवाब देना नामुमकिन है। इसके अलावा जब जेंडर जस्टिस के सवाल पर कई सारी याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में लंबित हों तो मौजूदा सामाजिक संदर्भ में बगैर कोई मसौदा सार्वजनिक किए प्रश्नावली प्रकाशित करना लैंगिक सवालों पर भ्रम पैदा करना है।

फोरम की ओर से भेजी गई चिट्ठी में कहा गया है कि मौजूदा सांप्रदायिक उत्तेजना के माहौल में इस मुद्दे पर बेहद संवेदनशीलता अपनाए जाने की जरूरत है। कुछ आदिवासी संगठनों ने तो समान नागरिक संहिता की धारणा को सुप्रीम कोर्ट को चुनौती दे भी डाली है।

फोरम ने विधि आयोग को भेजी अपनी चिट्ठी के लिए व्यापक समर्थन की अपील की है। जो लोग समर्थन करना चाहते हैं
वो faowindia@yahoo.co.in(link sends e-mail) sandhyagokhale@yahoo.com(link sends e-mail). पर मेल कर सकते हैं।

विधि आयोग को फोरम की ओर से भेजी गई चिट्ठी का पूरा पाठ  

  इस चिट्ठी के नीचे उल्लिखित संगठन 21वें विधि आयोग की ओर से जारी 7 अक्टूबर 2016 को जारी अपील का जवाब दे रहे हैं। ताकि समान नागरिक संहिता की संभावना पर एक स्वस्थ बहस शुरू हो सके। -
 
हम सब जानते हैं कि भारतीय संविधान के आधार पर कोई कानूनी प्रस्ताव तैयार करना श्रमसाध्य काम है। संविधान के सेक्यूलर, लोकतांत्रिक समाजवादी ढांचे को बनाए रखने के लिए काफी प्रयास और प्रतिबद्धता की जरूरत पड़ती है।  

संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए 29 अगस्त, 1947 को डॉ. बी आर अंबेडकर की अध्यक्षता में संविधान सभा का गठन किया गया। सभा ने 166 दिनों तक कई सत्रों में इसके लिए विचार –विमर्श किया। यह काम दो साल,

11 महीने और 18 दिनों तक चला। इसके बाद संविधान सभा के 308 सदस्यों ने 24 जनवरी 1950 को संविधान के मसौदे पर हस्ताक्षर किए।

वर्ष, 1930 से ही महिला संगठनों ने एक व्यापक नागरिक संहिता की मांग की है। इस अपील को मानते हुए कानून मंत्री डॉ. अंबेडकर की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई जिसने 1941 में बने हिंदू कोड बिल को संशोधित किया। लेकिन संविधान सभा में मौजूद कई हिंदू कट्टरवादियों ने इस बिल को पास नहीं होने दिया और विरोध में डॉ. अंबेडकर ने इस्तीफा दे दिया। इसके बाद 1952 से 1956 के बीच जवाहरलाल नेहरू ने चार अलग-अलग हिस्सों में हिंदू कोड बिल को पारित कराने में कामयाबी हासिल की। इतना कहने का हमारा मतलब है कि इतनी कोशिश के बाद ही कोई दूरगामी प्रभाव वाला कानून बनाया जा सकता है। हमें पता है कि कोई भी कानूनी सुधार तीन चरणों से गुजरता है- कानून बनाने से पहले की प्रक्रिया, कानून बनाने की प्रक्रिया और कानून बनने के बाद की प्रक्रिया।

​​​​​​​विधि आयोग का जो प्रयास है वह कानून बनने से पहले की प्रक्रिया के दायरे में आएगा। भारत सरकार के कानून और न्याय मंत्रालय ने 5 फरवरी 2014  को कानून बनाने से पहले सलाह-मशविरे की प्रक्रिया के तहत समान नागरिक संहिता पर अपने निर्देश प्रकाशित किए। इसमें कुल 12 निर्देशक सिद्धांत थे।
पहले दो अहम बिंदु इस तरह हैं-
  • हर विभाग या मंत्रालय इंटरनेट और अन्य माध्यमों पर प्रस्तावित कानूनों को प्रकाशित करेगा। इन प्रकाशनों को प्रकाशित करने का विस्तृत तरीका संबंधित मंत्रालय या विभाग ही तय करेगा।
  • संबंधित विभाग या मंत्रालय को कानून के मसौदे को सार्वजनिक या प्रकाशित करना चाहिए। इन विभागों और मंत्रालयों को कम से कम प्रस्तावित कानून, इसके औचित्य और आवश्यक तत्वों को जरूर प्रस्तावित करना चाहिए। इसके साथ ही कम से कम 30 दिन तक इसके व्यापक वित्तीय प्रभाव के अलावा पर्यावरण, संबंधित लोगों की जीविका, मौलिक अधिकारों और जिंदगी पर पड़ने वाले इसके असर के बारे में सार्वजनिक सूचना प्रकाशित करना चाहिए। कम से कम 30 दिनों तक यह सूचना लोगों तक प्रसारित होना चाहिए।
लेकिन 21वें विधि आयोग की ओर से प्रकाशित ‘अपील’ को देखें तो पता चलता है कि यह ऊपर के दो निर्धारित मानदंडों पर पूरी तरह नाकाम साबित हुआ है।

​​​​​​​लिहाजा समान नागरिक संहिता के संदर्भ में हम अपनी चिंताओं से आपको अवगत करा रहे हैं-
  1. सवाल, समान नागरिक संहिता के संदर्भ में पूछे जाने हैं। लेकिन अपील में इस संदर्भ में समान नागरिक संहिता का कोई मसौदा नहीं रखा गया है।
  2. अपील के साथ सिर्फ एक प्रश्नावली है। कथित तौर पर इसका उद्देश्य परिवार कानून में संशोधन और सुधार पर व्यापक-विमर्श के लिए व्यापक सुझाव और सलाह आमंत्रित करना है। लेकिन बगैर किसी मसौदे के इनमें से कुछ सवालों का जवाब देना मुश्किल है।
  3. ज्यादातर सवाल के बहुविकल्प या हां या नाम में जवाब सुझाए गए हैं। इस तरह की प्रश्नावली ज्यादातर आंकड़े संग्रह की संतुष्टि के लिए की जाती है। हमें लगता कि जिस तरह से सवाल किए गए हैं वे भ्रमित करते हैं। या फिर ये सवाल ऐसे जवाब की मांग करते हैं, जिनमें आंकड़े सहित विश्लेषण की जरूरत होती है। इससे ऐसा लगता है कि इस प्रक्रिया में आंकड़ों के आधार पर समाज के हाशिये पर रहने वाले वर्ग पर बहुसंख्यकों का मत थोप दिया जाएगा। इन सवालों में जो मुद्दे उठाए गए हैं वे हां और ना के दायरे में नहीं आ सकते या फिर एक लाइन में इनका जवाब नहीं दिया जा सकता। ये सवाल लंबी बहस की मांग करते हैं। इन पर विमर्श की जरूरत है।
  4. इस तरह की अपील कानून बनाने की पूर्व की प्रक्रिया का मजाक है।  ऐसा लगता है कि देश को आंकड़ो के आधार वाला चुनावी लोकतंत्र बनाने की कोशिश हो रही है।
  5. इस वक्त मुस्लिम समुदायों, प्रगतिशील महिलाओं और अन्य संगठनों और सक्रिय पुरुष संगठनों की ओर से सुप्रीम कोर्ट के सामने लैंगिक समानता के मुद्दे उठाए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के कानूनों के संदर्भ में अपीलों की सुनवाई कर रहा है। लिहाजा ऐसे समय में समान नागरिक संहिता पर कानून पूर्व मसौदे से संबंधित अपील कई शक और सवाल पैदा करता है। बगैर मसौदे के इस तरह की अपील और प्रश्नावली पेश करना लैंगिक न्याय पर भ्रम पैदा करता है।
  6. मौजूदा सांप्रदायिक उत्तेजना के माहौल में इस मुद्दे पर बेहद संवेदनशीलता अपनाए जाने की जरूरत है। कुछ आदिवासी संगठनों ने तो समान नागरिक संहिता की धारणा को सुप्रीम कोर्ट को चुनौती दे भी डाली है।
  7. कानून के मसौदे को सामने रखे बगैर इस तरह की अपील जारी करना निश्चित तौर पर देश के समुदायों के बीच ध्रुवीकरण और इसे जहरीला बनाने की कोशिश है। आने वाले कई राज्यों में होने वाले चुनावों के मद्देनजर इस तरह की अपील पर निश्चित तौर पर शक पैदा होता है।
  8. इन बिंदुओं पर विचार करते हुए विधि आयोग को अपनी अपील और प्रश्नावली को तुरंत प्रभाव से वापस ले लेना चाहिए। 
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भवदीय
फोरम अगेंस्ट ऑप्रेशन ऑफ विमेन, मुंबई   
 

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