हिंसा के छह महीने बाद जारी की गई एपीसीआर (APCR) की यह फ़ैक्ट-फाइंडिंग रिपोर्ट उजागर करती है कि किस तरह राज्य की एजेंसियों, संस्थानों और सांप्रदायिक ताकतों ने मिलकर संभल में अवैध मस्जिद सर्वेक्षणों, पुलिस फायरिंग, सामूहिक हिरासतों और मिथकों पर आधारित मंदिर के दावों के ज़रिए एक संकट खड़ा किया। धर्म का इस्तेमाल हथियार की तरह किया गया और न्याय को बस दिखावे की चीज़ बना दिया गया।

एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स द्वारा जारी संभल रिपोर्ट बुनियादी बात से शुरू होती है। यह सिर्फ एक दस्तावेज़ नहीं, बल्कि एक प्रकार का विरोध है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस मुस्लिम-बहुल शहर में हुई जानलेवा हिंसा के छह महीने बाद यह रिपोर्ट केवल एक रिकॉर्ड के तौर पर नहीं, बल्कि प्रतिरोध के रूप में सामने आई है। "संभल: एक सुनियोजित संकट की रूपरेखा" नामक यह दस्तावेज़ सरकारी लीपापोती, मीडिया की तोड़-मरोड़ और राज्य द्वारा संभल के सांप्रदायिक ताने-बाने को फिर से गढ़ने के प्रयासों का प्रतिरोध करता है। यह बताता है कि किस तरह एक ऐतिहासिक मस्जिद को एक गढ़े गए टकराव का मंच बनाया गया और किस तरह राज्य की एजेंसियों — स्थानीय अदालत से लेकर पुलिस तक — ने मिलकर एक सांप्रदायिक संकट को खड़ा किया।
राज्य-समर्थित हिंसा, सांप्रदायिक नैरेटिव गढ़ने और लगातार दमन का सटीक ब्यौरा देकर, यह रिपोर्ट यह सुनिश्चित करना चाहती है कि संभल में जो हुआ, उसे सरकार के प्रोपेगेंडा के माध्यम से नहीं, बल्कि पीड़ितों की गवाही के ज़रिए याद रखा जाए। एक ऐसे माहौल में जहां सच्चाई स्वयं खतरे में है, लेखक कहते हैं: इंसाफ की लड़ाई याद से, गवाही से और इंकार से शुरू होती है।
ऐतिहासिक संदर्भ: पवित्र स्थल पर दावा
संभल, पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक मुस्लिम-बहुल (लगभग 77.6% आबादी) शहर है जो अपने ऐतिहासिक और वास्तु महत्व के लिए जाना जाता है। यहां शाही जामा मस्जिद स्थित है, जो बाबर के शासनकाल में बनी दो मस्जिदों में से एक है, जो अब भी अस्तित्व में है। दूसरी मस्जिद पानीपत में है। यह मस्जिद शुरुआती मुगल काल की एक दुर्लभ संरचना मानी जाती है।
संभल को हिंदू मान्यताओं में भी विशेष स्थान प्राप्त है क्योंकि इसे भगवान विष्णु के दसवें अवतार, भगवान कल्कि की जन्मस्थली माना जाता है। जहां मस्जिद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के तहत एक संरक्षित स्मारक है, वहीं दक्षिणपंथी समूह यह दावा करते हैं कि यह मस्जिद "हरिहर मंदिर" के खंडहरों पर बनाई गई थी, जिसे कथित रूप से मुगल काल में गिरा दिया गया था।
इन दावों का आधार 19वीं सदी की औपनिवेशिक रिपोर्टें हैं, विशेषकर ए.सी.एल. कार्लाइल की रिपोर्ट, जिसे तत्कालीन एएसआई महानिदेशक सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने खारिज कर दिया था।
इतिहास और मिथक के इस जटिल मेल ने संघर्ष के लिए माहौल तैयार किया — विशेषकर ऐसे शहर में, जो कभी CAA के खिलाफ प्रदर्शनों का केंद्र रहा है और जहां अब भी सांसद ज़िया उर रहमान बर्क जैसे मुस्लिम नेता चुने जाते हैं, जिनका परिवार लंबे समय से सत्ताधारी दल की बहुसंख्यकवादी राजनीति का विरोध करता रहा है।
पिछले कुछ वर्षों में इस मिथक को फिर से उभारने का प्रयास किया गया है। मौजूदा विवाद के एक याचिकाकर्ता, महंत ऋषिराज गिरी ने कहा है कि वे बाबरी मस्जिद विवाद से भी पहले यह केस दर्ज करना चाहते थे। इस शहर को भाजपा नेताओं द्वारा पहले ही "कल्कि धाम" घोषित किया जा चुका है, और प्रधानमंत्री मोदी ने 2024 में यहां एक कल्कि मंदिर की नींव भी रखी।
नवंबर 2024: तनाव की टाइमलाइन
19 नवंबर: आठ याचिकाकर्ताओं द्वारा एक सिविल मुकदमा दायर किया गया, जिसमें यह आरोप लगाया गया कि मस्जिद कभी मंदिर थी। कुछ ही घंटों में, यानी दोपहर 3:30 बजे तक, संभल सिविल कोर्ट ने सर्वेक्षण की अनुमति दे दी — नोटिस देने की आवश्यकता को नजरअंदाज़ करते हुए एक एडवोकेट कमिश्नर की नियुक्ति की। शाम 7:00 बजे तक सर्वे शुरू हो चुका था। मस्जिद समिति को न तो सूचित किया गया और न ही सुनवाई का अवसर दिया गया।
22 नवंबर: जुमे की नमाज़ भारी पुलिस सुरक्षा के बीच अदा की गई।
23 नवंबर: प्रशासन ने सीआरपीसी की धारा 107/116 के तहत रोकथाम हिरासत की कार्रवाई शुरू की; सांसद ज़िया उर रहमान बर्क के पिता समेत 34 लोगों से 10 लाख रुपये तक के शांति बांड का मुचलका भरवाया गया।
24 नवंबर: बिना किसी नए कोर्ट आदेश के दूसरी बार मस्जिद में सर्वे किया गया। पुलिस के साथ PAC, RAF और कई जिलों के अधिकारी मौजूद थे। इस दौरान एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें सर्वे टीम के सदस्य “जय श्री राम” के नारे लगाते दिखाई दिए और अफवाह फैल गई कि मस्जिद की खुदाई हो रही है।
अब्ल्यूशन टैंक को खाली किया गया और मस्जिद की संरचना से पानी रिसता दिखा, जिससे दहशत फैल गई। इसके बाद विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ, जिस पर पुलिस ने आंसू गैस, लाठीचार्ज और फायरिंग की। पांच मुस्लिम नागरिकों की जान चली गई।
पुलिस फायरिंग: जानलेवा बल प्रयोग, इनकार और चश्मदीदों की गवाही
मस्जिद कमेटी के अध्यक्ष ज़फर अली के अनुसार, 24 नवंबर को विरोध प्रदर्शन पूरी तरह शांतिपूर्ण था, जब तक कि सीओ अनुज चौधरी ने लोगों की बात सुनने के बजाय अपशब्द कहना और बिना वजह लाठीचार्ज करवाना शुरू नहीं कर दिया। उनके नेतृत्व में पुलिस ने पहले बदसलूकी की, फिर लाठीचार्ज किया और उसके बाद आंसू गैस के गोले छोड़े। जैसे ही लोग इधर-उधर भागने लगे, पुलिस ने पीछा करते हुए गोलियां चलाईं। भीड़ तितर-बितर हो गई, लेकिन पुलिस ने लोगों का पीछा कर गलियों और घरों तक जाकर कार्रवाई की।
चश्मदीदों ने बताया कि पुलिसकर्मी भद्दी गालियां दे रहे थे, संपत्ति को नुकसान पहुंचा रहे थे और अंधाधुंध गोलीबारी कर रहे थे।
पांच मुस्लिम नागरिक मारे गए, जिनमें एक नाबालिग भी शामिल था:
● कामरान (17) – सीने में गोली लगी।
● नासिर, अब्बास, बासिम और नबील – सभी को जानलेवा चोटें आईं। परिजनों के अनुसार, ये सभी चोटें पुलिस की गोलीबारी से हुईं।
कुछ वीडियो में पुलिसकर्मी “गोली चलाओ” चिल्लाते हुए, पत्थर फेंकते और नाबालिगों को घसीटते दिखाई दिए। शुरुआत में अधिकारियों ने गोली चलाने से इनकार किया, लेकिन बाद में स्वीकार किया कि उन्होंने “चेतावनी के लिए फायरिंग” की थी।
ज़फर अली, जिन्होंने खुलकर पुलिस पर आरोप लगाए थे, पहले हिरासत में लिए गए और बाद में गंभीर धाराओं में गिरफ्तार कर लिया गया।
प्रशासन का दावा है कि प्रदर्शनकारी हथियारों से लैस थे और पुलिस ने केवल जवाबी कार्रवाई में गोली चलाई। लेकिन न तो किसी पुलिसकर्मी को कोई चोट आई, और न ही किसी "देसी कट्टे" से चली गोली का कोई सबूत मिला। पीड़ित परिवारों ने क्रॉसफायर के दावे को खारिज करते हुए कहा कि उनके रिश्तेदार निहत्थे थे और उन्हें सामने से गोली मारी गई थी। (विस्तृत रिपोर्ट यहाँ पढ़ी जा सकती है।)
पीड़ित परिवारों और गवाहों पर दबाव
मृतकों के परिजनों ने बताया:
● उन्हें पोस्टमार्टम रिपोर्ट देने से इनकार कर दिया गया।
● ब्लैंक पेपर पर जबरन हस्ताक्षर कराए गए या फिर शिकायतों से "पुलिस" का जिक्र हटाने के लिए दबाव डाला गया।
● पुलिस दबाव में जल्दबाज़ी में शवों को दफन करवाया गया।
● घरों पर भारी निगरानी रखी गई, जिससे बाहर के लोगों से बात करना या कानूनी मदद लेना बेहद कठिन हो गया।
कामरान के परिवार को उसके शव की शिनाख्त के लिए बुलाया गया। दस्तावेज़ों पर जबरन अंगूठा लगवाया गया और पुलिस की मौजूदगी में जल्दबाज़ी में दफन कराया गया।
नासिर की मां ने बताया कि उन्होंने उसके शरीर पर दो गोलियों के निशान देखे, लेकिन उन्हें कोई दस्तावेज़ नहीं दिया गया।
बासिम ने मरने से पहले अपने परिवार को बताया कि उसे पुलिस ने गोली मारी थी। परिजनों का आरोप है कि पुलिस ने उन्हें शिकायत दोबारा लिखवाने के लिए मजबूर किया, जिसमें “पुलिस” शब्द हटवा दिया गया।
कानूनी उल्लंघन: प्रक्रिया और कानून की अनदेखी
रिपोर्ट के अनुसार, निचली अदालत का आदेश निम्नलिखित कानूनों का उल्लंघन करता है:
● धारा 80(2), सीपीसी: किसी वास्तविक आपात स्थिति के बिना मस्जिद समिति को नोटिस दिए बिना कार्यवाही करना उचित नहीं है।
● प्लेस ऑफ वर्शिप (स्पेशल प्रोविज़न्स) एक्ट, 1991: यह कानून पूजा स्थलों के धार्मिक स्वरूप को 15 अगस्त 1947 की स्थिति के अनुसार बनाए रखने की गारंटी देता है और उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन निषिद्ध करता है।
● संविधान का अनुच्छेद 26: धार्मिक संप्रदायों को उनके पूजा स्थलों पर प्रबंधन और स्वायत्तता का अधिकार प्रदान करता है।
इन स्पष्ट उल्लंघनों के बावजूद, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बाद में सर्वेक्षण को सही ठहराया और यहां तक कि रंगाई-पुताई की याचिका में मस्जिद को "कथित मस्जिद" कहकर संबोधित किया। सर्वोच्च न्यायालय ने भले ही कार्यवाही पर रोक लगा दी है, लेकिन सर्वेक्षण के कारण बनी सांप्रदायिक परिस्थितियों को समाप्त करने में यह कदम नाकाम रहा। (विस्तृत रिपोर्ट यहां पढ़ी जा सकती है।)
मिथक निर्माण: मंदिर की “खोज” और राज्य द्वारा अनुष्ठान
हिंसा के तुरंत बाद, स्थानीय अधिकारियों ने शाही जामा मस्जिद के पास एक “छिपा हुआ मंदिर” खोजने का दावा किया। उस संरचना की सफाई कर उसे पवित्र घोषित कर दिया गया। जिला अधिकारियों ने पूजा अनुष्ठान किए, और एक पुजारी ने यहां तक कहा कि मूर्ति ने “मुस्कुराया” भी है।
इसके बाद मंदिर की “खोजों” की लहर शुरू हो गई। कुछ ही हफ्तों में एएसआई ने 24 स्थलों का सर्वेक्षण किया। कार्बन डेटिंग की घोषणा की गई और दावा किया गया कि 56 मंदिर और 19 पवित्र कुएं मुसलमानों द्वारा छिपा दिए गए थे।
सरकार ने “कल्कि नगरी” नाम से एक आध्यात्मिक पर्यटन परियोजना की घोषणा की। इसमें 87 धार्मिक स्थलों और 24 कोसी परिक्रमा मार्ग के विकास की योजना शामिल थी। अधिकारियों, पुजारियों और राष्ट्रवादी नेताओं ने कुओं और नालियों से मंदिरों की मूर्तियों के “खोजे जाने” की सार्वजनिक घोषणाएं कीं। कुछ मामलों में मूर्तियां तुरंत स्थापित कर पूजा शुरू कर दी गई।
राज्य ने यह नैरेटिव चलाया कि संभल एक हिंदू पवित्र स्थल है जिसकी पहचान को दबाया गया है। मुस्लिम समुदाय ने इन दावों को खारिज करते हुए कहा कि ये सभी स्थल पहले से मौजूद और जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, एक स्थानीय वकील ने कहा:
“वे रोज नए मंदिरों की खुदाई कर रहे हैं। हमें डर है कि वे हमारे घरों में भी घुसकर वहां कोई मंदिर खुदवाने लगेंगे।”
शाही जामा मस्जिद के बाहर “सत्यव्रत चौकी” नामक एक नई पुलिस चौकी स्थापित की गई, जिसमें विरोध स्थल से एकत्र पत्थरों का उपयोग किया गया। इस चौकी का उद्घाटन हवन और हिंदू धार्मिक अनुष्ठानों के साथ किया गया, और उसकी दीवारों पर श्लोक उत्कीर्ण किए गए।
प्रशासनिक दमन: छापे, तोड़फोड़ और निगरानी
गोलीबारी के बाद के दिनों में:
● भारी संख्या में लोगों को हिरासत में लिया गया। नाबालिगों समेत 83 व्यक्तियों को और मस्जिद समिति के अध्यक्ष ज़फर अली को जेल भेजा गया। 160 से अधिक जमानत याचिकाएं खारिज कर दी गईं। (विस्तृत रिपोर्ट यहां पढ़ी जा सकती है।)
● ज़फर अली, जिन्होंने सार्वजनिक रूप से पुलिस गोलीबारी की पुष्टि की थी, को 23 मार्च को उस वक्त गिरफ्तार किया गया जब वे न्यायिक आयोग के समक्ष गवाही देने वाले थे। इससे पहले उन्हें किसी एफआईआर में नामित नहीं किया गया था। गिरफ्तारी में असामान्य रूप से कठोर बीएनएस (भड़काऊ गतिविधि) की धाराएं लगाई गईं, जिनमें आजीवन कारावास या मृत्युदंड तक की सजा संभव है।
● वर्ष 2018 और 2021 के बंद मामले अचानक उनके खिलाफ फिर से खोल दिए गए।
● पुलिस ने बिजली चोरी के खिलाफ अभियान चलाया: 1440 मामले दर्ज किए गए, जिनमें अधिकांश आरोपी मुस्लिम समुदाय के थे। इस कार्रवाई में 16 मस्जिदें और दो मदरसे भी शामिल थे। कुल 11 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया गया, जिसमें अकेले सांसद बर्क पर 1.91 करोड़ रुपये का दंड शामिल है।
● मुस्लिम बहुल इलाकों में अतिक्रमण हटाने की कार्रवाइयां शुरू कर दी गईं। कई लोगों ने डर के कारण अपने घर स्वयं तोड़ दिए।
● जनैता शरीफ दरगाह, जो अंतरधार्मिक पूजा का स्थल रही है, को जांच के घेरे में लिया गया। उसका क्लिनिक बंद कर दिया गया और मेला रद्द कर दिया गया।
● मस्जिदों से लाउडस्पीकर हटा दिए गए।
● पुलिस ने 24 नवंबर को कथित तौर पर “मुसलमानों द्वारा फेंके गए” पत्थरों से एक नया चौकी बनवाई, जिसमें हिंदू श्लोक अंकित किए गए।
● प्रशासन ने दरगाह की वक्फ स्थिति पर प्रश्न उठाए और उसकी भूमि को बुलडोजर से ध्वस्त कर दिया गया। यह 2024 के वक्फ अधिनियम संशोधन के बाद वक्फ संपत्ति पर पहली बड़ी कार्रवाई मानी जा रही है।
(विस्तृत रिपोर्ट यहां पढ़ी जा सकती है।)
पीड़ितों की निगरानी और चुप कराने की कार्रवाई भी की गई
पीड़ितों के परिवारों ने लगातार पुलिस निगरानी की शिकायत की। रिपोर्ट में एक मां ने कहा, “वे हमारे घर के बाहर चौबीसों घंटे बैठे रहते हैं। आप खुशकिस्मत हैं कि हमसे उस वक्त मिले जब वे यहाँ नहीं थे।”
नासिर, अब्बास और नादिया के परिवारों ने बताया कि उन्हें पीटा गया, उनकी संपत्ति तोड़ी गई और मीडिया से बात करने या शिकायत दर्ज कराने पर धमकाया गया। सीसीटीवी फुटेज के डीवीआर जब्त कर लिए गए। पुलिस ने घरों में घुसकर महिलाओं को थप्पड़ मारे, बच्चों को घसीटा और शिकायतें दर्ज करने से इनकार कर दिया।
नया नैरेटिव तैयार किया गया: पीड़ितों से अपराधी तक
राज्य और मीडिया ने एक ऐसी नैरेटिव गढ़ी जिसमें मुसलमानों को हमलावर के रूप में पेश किया गया:
● उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने दावा किया कि मुसलमानों ने मस्जिदों को “मिनी पावर स्टेशन” बना दिया है।
● उन्होंने 1978 के संभल दंगों में 168 हिंदुओं की मौत का एक मनगढ़ंत आंकड़ा पेश करते हुए कार्रवाई को उचित ठहराया।
● शहर भर में मुसलमानों को “पत्थरबाज़” बताने वाले पोस्टर चिपकाए गए।
● “धार्मिक पर्यटन” को बढ़ावा देने के लिए कल्कि देव तीर्थ समिति की स्थापना की गई, जिसके तहत 87 स्थलों को हिंदू तीर्थयात्रा के लिए तैयार किया जा रहा है।
नतीजतन संभल को एक मुस्लिम-बहुल शहर से एक विवादित हिंदू धार्मिक केंद्र में बदलने की एक सुनियोजित प्रक्रिया सामने आई - वह भी बिना किसी सार्वजनिक बहस, प्रमाण या जन-सहमति के।
कानूनी सिफारिशें और नागरिक समाज की अपीलें
रिपोर्ट में निम्नलिखित मांगें की गई हैं:
● पुलिस द्वारा की गई हत्याओं और यातना की स्वतंत्र जांच कराई जाए।
● बिना उचित प्राथमिकी के हिरासत में लिए गए सभी लोगों को तुरंत रिहा किया जाए।
● प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट को उसके मूलभाव और अक्षरश: लागू किया जाए।
● मुआवजे के जरिए भरोसे को फिर से बहाल किया जाए और बुलडोज़र की कार्यवाही पर तत्काल रोक लगाई जाए।
● न्यायिक आयोगों को पक्षपात के लिए जवाबदेह ठहराया जाए।
● सांप्रदायिक मिथक गढ़ने की प्रक्रिया का विरोध और संभल के लोगों के समर्थन में एक राष्ट्रव्यापी नागरिक समाज अभियान चलाया जाए।
निष्कर्ष: संभल एक “टेंपलेट” के रूप में
ये रिपोर्ट एक चिंताजनक निष्कर्ष के साथ समाप्त होती है:
"आखिरकार, संभल की स्थिति कोई अलग-थलग घटना नहीं है, बल्कि एक व्यापक प्रवृत्ति का हिस्सा है — एक ऐसी नैरेटिव निर्माण की प्रक्रिया, जो मुस्लिम समुदाय को एक ऐसे 'समस्या वाले समूह' के रूप में पेश करती है जिसे नियंत्रित किया जाना चाहिए, न कि एक ऐसे नागरिक समाज के हिस्से के रूप में जिसे अधिकार और संरक्षण मिलना चाहिए। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि हम यह फिर से विचार करें कि नैरेटिव कैसे गढ़ी जाती हैं, उनका प्रसार कैसे होता है और न्याय तथा सांप्रदायिक सौहार्द की दिशा में उन्हें कैसे चुनौती दी जा सकती है। साथ ही, उन ताकतों का संगठित प्रतिरोध भी जरूरी है जो भारतीय समाज को सांप्रदायिकता और ध्रुवीकरण की ओर धकेल रही हैं।”
रिपोर्ट के लेखकों की चेतावनी है कि संभल कोई अपवाद नहीं है, बल्कि एक झलक है। अगर इसे चुनौती नहीं दी गई, तो “संभल मॉडल” भविष्य में सांप्रदायिक राजनीति की रूपरेखा बन सकता है। यह रिपोर्ट एक सीधी अपील है: दस्तावेज बनाइए, आवाज उठाइए, और इंकार करिए ताकि हमारा गणराज्य खुद अपने लोगों के खिलाफ न खड़ा हो जाए।
पूरी रिपोर्ट यहां पढ़ी जा सकती है।
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संभल के पीड़ित परिवारों का कहना है कि पुलिस ने उन्हें शिकायत बदलने की चेतावनी दी थी
संभल मस्जिद, अजमेर दरगाह - आखिर हम कितने पीछे जाएंगे

एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स द्वारा जारी संभल रिपोर्ट बुनियादी बात से शुरू होती है। यह सिर्फ एक दस्तावेज़ नहीं, बल्कि एक प्रकार का विरोध है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस मुस्लिम-बहुल शहर में हुई जानलेवा हिंसा के छह महीने बाद यह रिपोर्ट केवल एक रिकॉर्ड के तौर पर नहीं, बल्कि प्रतिरोध के रूप में सामने आई है। "संभल: एक सुनियोजित संकट की रूपरेखा" नामक यह दस्तावेज़ सरकारी लीपापोती, मीडिया की तोड़-मरोड़ और राज्य द्वारा संभल के सांप्रदायिक ताने-बाने को फिर से गढ़ने के प्रयासों का प्रतिरोध करता है। यह बताता है कि किस तरह एक ऐतिहासिक मस्जिद को एक गढ़े गए टकराव का मंच बनाया गया और किस तरह राज्य की एजेंसियों — स्थानीय अदालत से लेकर पुलिस तक — ने मिलकर एक सांप्रदायिक संकट को खड़ा किया।
राज्य-समर्थित हिंसा, सांप्रदायिक नैरेटिव गढ़ने और लगातार दमन का सटीक ब्यौरा देकर, यह रिपोर्ट यह सुनिश्चित करना चाहती है कि संभल में जो हुआ, उसे सरकार के प्रोपेगेंडा के माध्यम से नहीं, बल्कि पीड़ितों की गवाही के ज़रिए याद रखा जाए। एक ऐसे माहौल में जहां सच्चाई स्वयं खतरे में है, लेखक कहते हैं: इंसाफ की लड़ाई याद से, गवाही से और इंकार से शुरू होती है।
ऐतिहासिक संदर्भ: पवित्र स्थल पर दावा
संभल, पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक मुस्लिम-बहुल (लगभग 77.6% आबादी) शहर है जो अपने ऐतिहासिक और वास्तु महत्व के लिए जाना जाता है। यहां शाही जामा मस्जिद स्थित है, जो बाबर के शासनकाल में बनी दो मस्जिदों में से एक है, जो अब भी अस्तित्व में है। दूसरी मस्जिद पानीपत में है। यह मस्जिद शुरुआती मुगल काल की एक दुर्लभ संरचना मानी जाती है।
संभल को हिंदू मान्यताओं में भी विशेष स्थान प्राप्त है क्योंकि इसे भगवान विष्णु के दसवें अवतार, भगवान कल्कि की जन्मस्थली माना जाता है। जहां मस्जिद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के तहत एक संरक्षित स्मारक है, वहीं दक्षिणपंथी समूह यह दावा करते हैं कि यह मस्जिद "हरिहर मंदिर" के खंडहरों पर बनाई गई थी, जिसे कथित रूप से मुगल काल में गिरा दिया गया था।
इन दावों का आधार 19वीं सदी की औपनिवेशिक रिपोर्टें हैं, विशेषकर ए.सी.एल. कार्लाइल की रिपोर्ट, जिसे तत्कालीन एएसआई महानिदेशक सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने खारिज कर दिया था।
इतिहास और मिथक के इस जटिल मेल ने संघर्ष के लिए माहौल तैयार किया — विशेषकर ऐसे शहर में, जो कभी CAA के खिलाफ प्रदर्शनों का केंद्र रहा है और जहां अब भी सांसद ज़िया उर रहमान बर्क जैसे मुस्लिम नेता चुने जाते हैं, जिनका परिवार लंबे समय से सत्ताधारी दल की बहुसंख्यकवादी राजनीति का विरोध करता रहा है।
पिछले कुछ वर्षों में इस मिथक को फिर से उभारने का प्रयास किया गया है। मौजूदा विवाद के एक याचिकाकर्ता, महंत ऋषिराज गिरी ने कहा है कि वे बाबरी मस्जिद विवाद से भी पहले यह केस दर्ज करना चाहते थे। इस शहर को भाजपा नेताओं द्वारा पहले ही "कल्कि धाम" घोषित किया जा चुका है, और प्रधानमंत्री मोदी ने 2024 में यहां एक कल्कि मंदिर की नींव भी रखी।
नवंबर 2024: तनाव की टाइमलाइन
19 नवंबर: आठ याचिकाकर्ताओं द्वारा एक सिविल मुकदमा दायर किया गया, जिसमें यह आरोप लगाया गया कि मस्जिद कभी मंदिर थी। कुछ ही घंटों में, यानी दोपहर 3:30 बजे तक, संभल सिविल कोर्ट ने सर्वेक्षण की अनुमति दे दी — नोटिस देने की आवश्यकता को नजरअंदाज़ करते हुए एक एडवोकेट कमिश्नर की नियुक्ति की। शाम 7:00 बजे तक सर्वे शुरू हो चुका था। मस्जिद समिति को न तो सूचित किया गया और न ही सुनवाई का अवसर दिया गया।
22 नवंबर: जुमे की नमाज़ भारी पुलिस सुरक्षा के बीच अदा की गई।
23 नवंबर: प्रशासन ने सीआरपीसी की धारा 107/116 के तहत रोकथाम हिरासत की कार्रवाई शुरू की; सांसद ज़िया उर रहमान बर्क के पिता समेत 34 लोगों से 10 लाख रुपये तक के शांति बांड का मुचलका भरवाया गया।
24 नवंबर: बिना किसी नए कोर्ट आदेश के दूसरी बार मस्जिद में सर्वे किया गया। पुलिस के साथ PAC, RAF और कई जिलों के अधिकारी मौजूद थे। इस दौरान एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें सर्वे टीम के सदस्य “जय श्री राम” के नारे लगाते दिखाई दिए और अफवाह फैल गई कि मस्जिद की खुदाई हो रही है।
अब्ल्यूशन टैंक को खाली किया गया और मस्जिद की संरचना से पानी रिसता दिखा, जिससे दहशत फैल गई। इसके बाद विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ, जिस पर पुलिस ने आंसू गैस, लाठीचार्ज और फायरिंग की। पांच मुस्लिम नागरिकों की जान चली गई।
पुलिस फायरिंग: जानलेवा बल प्रयोग, इनकार और चश्मदीदों की गवाही
मस्जिद कमेटी के अध्यक्ष ज़फर अली के अनुसार, 24 नवंबर को विरोध प्रदर्शन पूरी तरह शांतिपूर्ण था, जब तक कि सीओ अनुज चौधरी ने लोगों की बात सुनने के बजाय अपशब्द कहना और बिना वजह लाठीचार्ज करवाना शुरू नहीं कर दिया। उनके नेतृत्व में पुलिस ने पहले बदसलूकी की, फिर लाठीचार्ज किया और उसके बाद आंसू गैस के गोले छोड़े। जैसे ही लोग इधर-उधर भागने लगे, पुलिस ने पीछा करते हुए गोलियां चलाईं। भीड़ तितर-बितर हो गई, लेकिन पुलिस ने लोगों का पीछा कर गलियों और घरों तक जाकर कार्रवाई की।
चश्मदीदों ने बताया कि पुलिसकर्मी भद्दी गालियां दे रहे थे, संपत्ति को नुकसान पहुंचा रहे थे और अंधाधुंध गोलीबारी कर रहे थे।
पांच मुस्लिम नागरिक मारे गए, जिनमें एक नाबालिग भी शामिल था:
● कामरान (17) – सीने में गोली लगी।
● नासिर, अब्बास, बासिम और नबील – सभी को जानलेवा चोटें आईं। परिजनों के अनुसार, ये सभी चोटें पुलिस की गोलीबारी से हुईं।
कुछ वीडियो में पुलिसकर्मी “गोली चलाओ” चिल्लाते हुए, पत्थर फेंकते और नाबालिगों को घसीटते दिखाई दिए। शुरुआत में अधिकारियों ने गोली चलाने से इनकार किया, लेकिन बाद में स्वीकार किया कि उन्होंने “चेतावनी के लिए फायरिंग” की थी।
ज़फर अली, जिन्होंने खुलकर पुलिस पर आरोप लगाए थे, पहले हिरासत में लिए गए और बाद में गंभीर धाराओं में गिरफ्तार कर लिया गया।
प्रशासन का दावा है कि प्रदर्शनकारी हथियारों से लैस थे और पुलिस ने केवल जवाबी कार्रवाई में गोली चलाई। लेकिन न तो किसी पुलिसकर्मी को कोई चोट आई, और न ही किसी "देसी कट्टे" से चली गोली का कोई सबूत मिला। पीड़ित परिवारों ने क्रॉसफायर के दावे को खारिज करते हुए कहा कि उनके रिश्तेदार निहत्थे थे और उन्हें सामने से गोली मारी गई थी। (विस्तृत रिपोर्ट यहाँ पढ़ी जा सकती है।)
पीड़ित परिवारों और गवाहों पर दबाव
मृतकों के परिजनों ने बताया:
● उन्हें पोस्टमार्टम रिपोर्ट देने से इनकार कर दिया गया।
● ब्लैंक पेपर पर जबरन हस्ताक्षर कराए गए या फिर शिकायतों से "पुलिस" का जिक्र हटाने के लिए दबाव डाला गया।
● पुलिस दबाव में जल्दबाज़ी में शवों को दफन करवाया गया।
● घरों पर भारी निगरानी रखी गई, जिससे बाहर के लोगों से बात करना या कानूनी मदद लेना बेहद कठिन हो गया।
कामरान के परिवार को उसके शव की शिनाख्त के लिए बुलाया गया। दस्तावेज़ों पर जबरन अंगूठा लगवाया गया और पुलिस की मौजूदगी में जल्दबाज़ी में दफन कराया गया।
नासिर की मां ने बताया कि उन्होंने उसके शरीर पर दो गोलियों के निशान देखे, लेकिन उन्हें कोई दस्तावेज़ नहीं दिया गया।
बासिम ने मरने से पहले अपने परिवार को बताया कि उसे पुलिस ने गोली मारी थी। परिजनों का आरोप है कि पुलिस ने उन्हें शिकायत दोबारा लिखवाने के लिए मजबूर किया, जिसमें “पुलिस” शब्द हटवा दिया गया।
कानूनी उल्लंघन: प्रक्रिया और कानून की अनदेखी
रिपोर्ट के अनुसार, निचली अदालत का आदेश निम्नलिखित कानूनों का उल्लंघन करता है:
● धारा 80(2), सीपीसी: किसी वास्तविक आपात स्थिति के बिना मस्जिद समिति को नोटिस दिए बिना कार्यवाही करना उचित नहीं है।
● प्लेस ऑफ वर्शिप (स्पेशल प्रोविज़न्स) एक्ट, 1991: यह कानून पूजा स्थलों के धार्मिक स्वरूप को 15 अगस्त 1947 की स्थिति के अनुसार बनाए रखने की गारंटी देता है और उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन निषिद्ध करता है।
● संविधान का अनुच्छेद 26: धार्मिक संप्रदायों को उनके पूजा स्थलों पर प्रबंधन और स्वायत्तता का अधिकार प्रदान करता है।
इन स्पष्ट उल्लंघनों के बावजूद, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बाद में सर्वेक्षण को सही ठहराया और यहां तक कि रंगाई-पुताई की याचिका में मस्जिद को "कथित मस्जिद" कहकर संबोधित किया। सर्वोच्च न्यायालय ने भले ही कार्यवाही पर रोक लगा दी है, लेकिन सर्वेक्षण के कारण बनी सांप्रदायिक परिस्थितियों को समाप्त करने में यह कदम नाकाम रहा। (विस्तृत रिपोर्ट यहां पढ़ी जा सकती है।)
मिथक निर्माण: मंदिर की “खोज” और राज्य द्वारा अनुष्ठान
हिंसा के तुरंत बाद, स्थानीय अधिकारियों ने शाही जामा मस्जिद के पास एक “छिपा हुआ मंदिर” खोजने का दावा किया। उस संरचना की सफाई कर उसे पवित्र घोषित कर दिया गया। जिला अधिकारियों ने पूजा अनुष्ठान किए, और एक पुजारी ने यहां तक कहा कि मूर्ति ने “मुस्कुराया” भी है।
इसके बाद मंदिर की “खोजों” की लहर शुरू हो गई। कुछ ही हफ्तों में एएसआई ने 24 स्थलों का सर्वेक्षण किया। कार्बन डेटिंग की घोषणा की गई और दावा किया गया कि 56 मंदिर और 19 पवित्र कुएं मुसलमानों द्वारा छिपा दिए गए थे।
सरकार ने “कल्कि नगरी” नाम से एक आध्यात्मिक पर्यटन परियोजना की घोषणा की। इसमें 87 धार्मिक स्थलों और 24 कोसी परिक्रमा मार्ग के विकास की योजना शामिल थी। अधिकारियों, पुजारियों और राष्ट्रवादी नेताओं ने कुओं और नालियों से मंदिरों की मूर्तियों के “खोजे जाने” की सार्वजनिक घोषणाएं कीं। कुछ मामलों में मूर्तियां तुरंत स्थापित कर पूजा शुरू कर दी गई।
राज्य ने यह नैरेटिव चलाया कि संभल एक हिंदू पवित्र स्थल है जिसकी पहचान को दबाया गया है। मुस्लिम समुदाय ने इन दावों को खारिज करते हुए कहा कि ये सभी स्थल पहले से मौजूद और जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, एक स्थानीय वकील ने कहा:
“वे रोज नए मंदिरों की खुदाई कर रहे हैं। हमें डर है कि वे हमारे घरों में भी घुसकर वहां कोई मंदिर खुदवाने लगेंगे।”
शाही जामा मस्जिद के बाहर “सत्यव्रत चौकी” नामक एक नई पुलिस चौकी स्थापित की गई, जिसमें विरोध स्थल से एकत्र पत्थरों का उपयोग किया गया। इस चौकी का उद्घाटन हवन और हिंदू धार्मिक अनुष्ठानों के साथ किया गया, और उसकी दीवारों पर श्लोक उत्कीर्ण किए गए।
प्रशासनिक दमन: छापे, तोड़फोड़ और निगरानी
गोलीबारी के बाद के दिनों में:
● भारी संख्या में लोगों को हिरासत में लिया गया। नाबालिगों समेत 83 व्यक्तियों को और मस्जिद समिति के अध्यक्ष ज़फर अली को जेल भेजा गया। 160 से अधिक जमानत याचिकाएं खारिज कर दी गईं। (विस्तृत रिपोर्ट यहां पढ़ी जा सकती है।)
● ज़फर अली, जिन्होंने सार्वजनिक रूप से पुलिस गोलीबारी की पुष्टि की थी, को 23 मार्च को उस वक्त गिरफ्तार किया गया जब वे न्यायिक आयोग के समक्ष गवाही देने वाले थे। इससे पहले उन्हें किसी एफआईआर में नामित नहीं किया गया था। गिरफ्तारी में असामान्य रूप से कठोर बीएनएस (भड़काऊ गतिविधि) की धाराएं लगाई गईं, जिनमें आजीवन कारावास या मृत्युदंड तक की सजा संभव है।
● वर्ष 2018 और 2021 के बंद मामले अचानक उनके खिलाफ फिर से खोल दिए गए।
● पुलिस ने बिजली चोरी के खिलाफ अभियान चलाया: 1440 मामले दर्ज किए गए, जिनमें अधिकांश आरोपी मुस्लिम समुदाय के थे। इस कार्रवाई में 16 मस्जिदें और दो मदरसे भी शामिल थे। कुल 11 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया गया, जिसमें अकेले सांसद बर्क पर 1.91 करोड़ रुपये का दंड शामिल है।
● मुस्लिम बहुल इलाकों में अतिक्रमण हटाने की कार्रवाइयां शुरू कर दी गईं। कई लोगों ने डर के कारण अपने घर स्वयं तोड़ दिए।
● जनैता शरीफ दरगाह, जो अंतरधार्मिक पूजा का स्थल रही है, को जांच के घेरे में लिया गया। उसका क्लिनिक बंद कर दिया गया और मेला रद्द कर दिया गया।
● मस्जिदों से लाउडस्पीकर हटा दिए गए।
● पुलिस ने 24 नवंबर को कथित तौर पर “मुसलमानों द्वारा फेंके गए” पत्थरों से एक नया चौकी बनवाई, जिसमें हिंदू श्लोक अंकित किए गए।
● प्रशासन ने दरगाह की वक्फ स्थिति पर प्रश्न उठाए और उसकी भूमि को बुलडोजर से ध्वस्त कर दिया गया। यह 2024 के वक्फ अधिनियम संशोधन के बाद वक्फ संपत्ति पर पहली बड़ी कार्रवाई मानी जा रही है।
(विस्तृत रिपोर्ट यहां पढ़ी जा सकती है।)
पीड़ितों की निगरानी और चुप कराने की कार्रवाई भी की गई
पीड़ितों के परिवारों ने लगातार पुलिस निगरानी की शिकायत की। रिपोर्ट में एक मां ने कहा, “वे हमारे घर के बाहर चौबीसों घंटे बैठे रहते हैं। आप खुशकिस्मत हैं कि हमसे उस वक्त मिले जब वे यहाँ नहीं थे।”
नासिर, अब्बास और नादिया के परिवारों ने बताया कि उन्हें पीटा गया, उनकी संपत्ति तोड़ी गई और मीडिया से बात करने या शिकायत दर्ज कराने पर धमकाया गया। सीसीटीवी फुटेज के डीवीआर जब्त कर लिए गए। पुलिस ने घरों में घुसकर महिलाओं को थप्पड़ मारे, बच्चों को घसीटा और शिकायतें दर्ज करने से इनकार कर दिया।
नया नैरेटिव तैयार किया गया: पीड़ितों से अपराधी तक
राज्य और मीडिया ने एक ऐसी नैरेटिव गढ़ी जिसमें मुसलमानों को हमलावर के रूप में पेश किया गया:
● उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने दावा किया कि मुसलमानों ने मस्जिदों को “मिनी पावर स्टेशन” बना दिया है।
● उन्होंने 1978 के संभल दंगों में 168 हिंदुओं की मौत का एक मनगढ़ंत आंकड़ा पेश करते हुए कार्रवाई को उचित ठहराया।
● शहर भर में मुसलमानों को “पत्थरबाज़” बताने वाले पोस्टर चिपकाए गए।
● “धार्मिक पर्यटन” को बढ़ावा देने के लिए कल्कि देव तीर्थ समिति की स्थापना की गई, जिसके तहत 87 स्थलों को हिंदू तीर्थयात्रा के लिए तैयार किया जा रहा है।
नतीजतन संभल को एक मुस्लिम-बहुल शहर से एक विवादित हिंदू धार्मिक केंद्र में बदलने की एक सुनियोजित प्रक्रिया सामने आई - वह भी बिना किसी सार्वजनिक बहस, प्रमाण या जन-सहमति के।
कानूनी सिफारिशें और नागरिक समाज की अपीलें
रिपोर्ट में निम्नलिखित मांगें की गई हैं:
● पुलिस द्वारा की गई हत्याओं और यातना की स्वतंत्र जांच कराई जाए।
● बिना उचित प्राथमिकी के हिरासत में लिए गए सभी लोगों को तुरंत रिहा किया जाए।
● प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट को उसके मूलभाव और अक्षरश: लागू किया जाए।
● मुआवजे के जरिए भरोसे को फिर से बहाल किया जाए और बुलडोज़र की कार्यवाही पर तत्काल रोक लगाई जाए।
● न्यायिक आयोगों को पक्षपात के लिए जवाबदेह ठहराया जाए।
● सांप्रदायिक मिथक गढ़ने की प्रक्रिया का विरोध और संभल के लोगों के समर्थन में एक राष्ट्रव्यापी नागरिक समाज अभियान चलाया जाए।
निष्कर्ष: संभल एक “टेंपलेट” के रूप में
ये रिपोर्ट एक चिंताजनक निष्कर्ष के साथ समाप्त होती है:
"आखिरकार, संभल की स्थिति कोई अलग-थलग घटना नहीं है, बल्कि एक व्यापक प्रवृत्ति का हिस्सा है — एक ऐसी नैरेटिव निर्माण की प्रक्रिया, जो मुस्लिम समुदाय को एक ऐसे 'समस्या वाले समूह' के रूप में पेश करती है जिसे नियंत्रित किया जाना चाहिए, न कि एक ऐसे नागरिक समाज के हिस्से के रूप में जिसे अधिकार और संरक्षण मिलना चाहिए। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि हम यह फिर से विचार करें कि नैरेटिव कैसे गढ़ी जाती हैं, उनका प्रसार कैसे होता है और न्याय तथा सांप्रदायिक सौहार्द की दिशा में उन्हें कैसे चुनौती दी जा सकती है। साथ ही, उन ताकतों का संगठित प्रतिरोध भी जरूरी है जो भारतीय समाज को सांप्रदायिकता और ध्रुवीकरण की ओर धकेल रही हैं।”
रिपोर्ट के लेखकों की चेतावनी है कि संभल कोई अपवाद नहीं है, बल्कि एक झलक है। अगर इसे चुनौती नहीं दी गई, तो “संभल मॉडल” भविष्य में सांप्रदायिक राजनीति की रूपरेखा बन सकता है। यह रिपोर्ट एक सीधी अपील है: दस्तावेज बनाइए, आवाज उठाइए, और इंकार करिए ताकि हमारा गणराज्य खुद अपने लोगों के खिलाफ न खड़ा हो जाए।
पूरी रिपोर्ट यहां पढ़ी जा सकती है।
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