CNAPA ने कहा, "जलीलुद्दीन और समीरुद्दीन की मौत असम वन अधिकारियों द्वारा की गई 'फर्जी मुठभेड़ों' को उजागर करती है। दोनों युवकों की मौत की स्वतंत्र जांच कराने के साथ, CNAPA ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से मामले में हस्तक्षेप करने और लाओखोवा में वन कर्मचारियों के निरस्त्रीकरण की मांग की है।
मृतक जलीलुद्दीन और समीरुद्दीन| फोटो- मकतूब मीडिया
कम्युनिटी नेटवर्क अगेंस्ट प्रोटेक्टेड एरियाज (CNAPA) ने 25 जून को सार्वजनिक बयान जारी कर, असम वन विभाग पर 'फर्जी मुठभेड़' का आरोप लगाया। कहा- 22 जून को लाओखोवा वन्यजीव अभयारण्य के भीतर असम के नागांव जिले के ढिंगबारी चापारी गांव के दो युवकों जलीलुद्दीन और समीरुद्दीन की मौत हो गई। घटना के कई घंटे बाद, वन विभाग पीड़ितों को नागांव सिविल अस्पताल ले गया, जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया।
CNAPA के अनुसार, जलीलुद्दीन और समीरुद्दीन नामक दो पीड़ित अन्य ग्रामीणों के साथ रोमारी बील वेटलैंड में मछली पकड़ रहे थे- जो कि आजीविका के लिए एक पारंपरिक काम है। ग्रामीणों का दावा है कि वन रक्षकों ने उन पर गोली चलाई। गोलीबारी में दोनों युवक घायल हो गए, जबकि वन विभाग पीड़ितों को शिकारी बता रहा है।
सीएनएपीए ने इस घटना को वनों पर निर्भर समुदायों के खिलाफ, संरक्षण के नाम पर, हिंसा का स्पष्ट उदाहरण बताया है। कहा कि ढिंगबारी चापरी जैसे समुदाय पीढ़ियों से जंगलों में रह रहे हैं और वन्यजीवों के साथ सह-अस्तित्व में हैं तथा आजीविका तथा सांस्कृतिक प्रथाओं के लिए जंगल पर निर्भर हैं।
"जलीलुद्दीन और समीरुद्दीन की मौतें भारत में संरक्षित क्षेत्रों में वन विभाग द्वारा की गई फर्जी मुठभेड़ों के मुद्दे को रेखांकित करती हैं। इस तरह की कार्रवाइयां न केवल मानवाधिकारों का उल्लंघन करती हैं, बल्कि संरक्षण प्रयासों में विश्वास को भी कम करती हैं, जिससे स्थानीय समुदायों में भय और प्रतिरोध का चक्र चलता रहता है।"
CNAPA ने अपने बयान में लाओखोवा में हाल ही में हुए बेदखली (निष्कासन) अभियान का भी उल्लेख किया, जिसमें कई निवासी विस्थापित हो गए।
समूह ने वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) 2006 को लागू करने में पारदर्शिता की कमी के लिए भी असम सरकार की निंदा की है। यह अधिनियम आदिवासियों और वन निवासियों के अधिकारों को सुनिश्चित (मान्यता प्रदान) करने के लिए बनाया गया है।
समूह ने कहा कि कैसे इन समुदायों की मछली पकड़ने जैसी आजीविका के लिए आवश्यकीय गतिविधियों को अब “अवैध शिकार” के रूप में लेबल किया जा रहा है और कैसे यह कदम उनकी आय के स्रोत को आपराधिक बनाने का काम कर दे रहा है और उनके वित्तीय मुश्किलों को बढ़ाने वाला है। CNAPA का तर्क है कि इन मौतों ने वन विभाग के द्वारा फर्जी मुठभेड़ों के पैटर्न को भी उजागर किया है।
CNAPA की चिंता असम से आगे बढ़कर ओडिशा, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे राज्यों की ओर भी इशारा करती है, जिन्होंने अपने कानूनों में संशोधन करके वन अधिकारियों को वन समुदायों के खिलाफ हिंसा के लिए एक तरह से "अनुमति" दे दी है।
"वनों पर निर्भर समुदायों को गलत तरीके से अतिक्रमणकारी और शिकारी करार दे दिया जाता है, जो इतिहास में उनके अस्तित्व और वनों के आसपास उनके जैव-सांस्कृतिक जीवन-शैली की अनदेखी और खंडन करते हैं। ये आख्यान हिंसा और कानूनी उत्पीड़न को बढ़ावा देते हैं, जिससे ये समुदाय और अधिक गरीबी और अभाव की ओर बढ़ते हैं। CNAPA इन समुदायों के अपराधीकरण का दृढ़ता से विरोध करता है और राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत उनके अधिकारों का सम्मान और संरक्षण करने का आह्वान करता है।"
यही नहीं, सीएनएपीए ने जलीलुद्दीन और समीरुद्दीन नामक दोनों पीड़ित युवकों की मौत की स्वतंत्र जांच की मांग की है। उन्होंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से इस मामले में हस्तक्षेप करने का आग्रह किया है और लाओखोवा में वन कर्मचारियों के निरस्त्रीकरण की भी मांग की है।
सवाल वनाधिकार का है: रोमा
अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन (AIUFWP) ने लाओखोवा की घटना की निंदा करते हुए असम की बीजेपी सरकार को इसके लिए जिम्मेवार बताया है। यूनियन की राष्ट्रीय महासचिव रोमा ने कहा कि असम में बीजेपी सरकार होने से एंटी मुस्लिम फीलिंग हावी है। वो एक तरह से बहाना ढूंढते हैं कि किस तरह मुस्लिमों पर हमला किया जाए। रोमा ने कहा कि लाओखोवा में जिस तरह बिना जांच पड़ताल दो युवकों को मारा गया वो एक तरह की हत्या है। उन्होंने सवाल उठाया कि वन विभाग को इतनी ताकत देना कहां तक उचित है? वन एरिया में मुस्लिम जनजातियों के उत्पीड़न की कई घटनाएं हो चुकी हैं। कांजीरंगा में भी मुस्लिम परिवारों को उनकी खतौनी की जमीनों से उजाडकर, बिना मुआवजा बेदखल कर दिया गया।
दरअसल, सारा सवाल वनाधिकार का है। केंद्र का कानून होने के बावजूद असम की बीजेपी सरकार इसे लागू करने से बच रही है। क्योंकि वहां खुद मुख्यमंत्री का नाम, कांजीरंगा आदि वन विभाग की जमीनों पर कब्जे कर, आलीशान होटल खड़े करने आदि प्रकरणों से जुड़ रहा है। इसलिए पूरा मामला वनाधिकार कानून पर अमल का है। जिस तरह CNAPA ने स्टैंड लिया है, उसी तरह AIUFWP भी घटना पर गहरा दुःख प्रकट करती है और घटना की उच्च स्तरीय जांच की मांग करती है। रोमा ने कहा कि देश में राजनीतिक माहौल बदला है, इसलिए यूनियन, मामले को विपक्षी पार्टियों तक पहुंचाने का भी काम करेगी। असम में सारा मसला वनाधिकार कानून को लागू न करने का है। असम सरकार सेंटर के इस कानून को लागू करने से बच रही है। अगर वनाधिकार कानून लागू होगा तो सरकार मुस्लिम व अन्य जनजातियों का उत्पीड़न नहीं कर सकेंगी। इसलिए सवाल वनाधिकारों का है।
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कम्युनिटी नेटवर्क अगेंस्ट प्रोटेक्टेड एरियाज (CNAPA) ने 25 जून को सार्वजनिक बयान जारी कर, असम वन विभाग पर 'फर्जी मुठभेड़' का आरोप लगाया। कहा- 22 जून को लाओखोवा वन्यजीव अभयारण्य के भीतर असम के नागांव जिले के ढिंगबारी चापारी गांव के दो युवकों जलीलुद्दीन और समीरुद्दीन की मौत हो गई। घटना के कई घंटे बाद, वन विभाग पीड़ितों को नागांव सिविल अस्पताल ले गया, जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया।
CNAPA के अनुसार, जलीलुद्दीन और समीरुद्दीन नामक दो पीड़ित अन्य ग्रामीणों के साथ रोमारी बील वेटलैंड में मछली पकड़ रहे थे- जो कि आजीविका के लिए एक पारंपरिक काम है। ग्रामीणों का दावा है कि वन रक्षकों ने उन पर गोली चलाई। गोलीबारी में दोनों युवक घायल हो गए, जबकि वन विभाग पीड़ितों को शिकारी बता रहा है।
सीएनएपीए ने इस घटना को वनों पर निर्भर समुदायों के खिलाफ, संरक्षण के नाम पर, हिंसा का स्पष्ट उदाहरण बताया है। कहा कि ढिंगबारी चापरी जैसे समुदाय पीढ़ियों से जंगलों में रह रहे हैं और वन्यजीवों के साथ सह-अस्तित्व में हैं तथा आजीविका तथा सांस्कृतिक प्रथाओं के लिए जंगल पर निर्भर हैं।
"जलीलुद्दीन और समीरुद्दीन की मौतें भारत में संरक्षित क्षेत्रों में वन विभाग द्वारा की गई फर्जी मुठभेड़ों के मुद्दे को रेखांकित करती हैं। इस तरह की कार्रवाइयां न केवल मानवाधिकारों का उल्लंघन करती हैं, बल्कि संरक्षण प्रयासों में विश्वास को भी कम करती हैं, जिससे स्थानीय समुदायों में भय और प्रतिरोध का चक्र चलता रहता है।"
CNAPA ने अपने बयान में लाओखोवा में हाल ही में हुए बेदखली (निष्कासन) अभियान का भी उल्लेख किया, जिसमें कई निवासी विस्थापित हो गए।
समूह ने वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) 2006 को लागू करने में पारदर्शिता की कमी के लिए भी असम सरकार की निंदा की है। यह अधिनियम आदिवासियों और वन निवासियों के अधिकारों को सुनिश्चित (मान्यता प्रदान) करने के लिए बनाया गया है।
समूह ने कहा कि कैसे इन समुदायों की मछली पकड़ने जैसी आजीविका के लिए आवश्यकीय गतिविधियों को अब “अवैध शिकार” के रूप में लेबल किया जा रहा है और कैसे यह कदम उनकी आय के स्रोत को आपराधिक बनाने का काम कर दे रहा है और उनके वित्तीय मुश्किलों को बढ़ाने वाला है। CNAPA का तर्क है कि इन मौतों ने वन विभाग के द्वारा फर्जी मुठभेड़ों के पैटर्न को भी उजागर किया है।
CNAPA की चिंता असम से आगे बढ़कर ओडिशा, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे राज्यों की ओर भी इशारा करती है, जिन्होंने अपने कानूनों में संशोधन करके वन अधिकारियों को वन समुदायों के खिलाफ हिंसा के लिए एक तरह से "अनुमति" दे दी है।
"वनों पर निर्भर समुदायों को गलत तरीके से अतिक्रमणकारी और शिकारी करार दे दिया जाता है, जो इतिहास में उनके अस्तित्व और वनों के आसपास उनके जैव-सांस्कृतिक जीवन-शैली की अनदेखी और खंडन करते हैं। ये आख्यान हिंसा और कानूनी उत्पीड़न को बढ़ावा देते हैं, जिससे ये समुदाय और अधिक गरीबी और अभाव की ओर बढ़ते हैं। CNAPA इन समुदायों के अपराधीकरण का दृढ़ता से विरोध करता है और राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत उनके अधिकारों का सम्मान और संरक्षण करने का आह्वान करता है।"
यही नहीं, सीएनएपीए ने जलीलुद्दीन और समीरुद्दीन नामक दोनों पीड़ित युवकों की मौत की स्वतंत्र जांच की मांग की है। उन्होंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से इस मामले में हस्तक्षेप करने का आग्रह किया है और लाओखोवा में वन कर्मचारियों के निरस्त्रीकरण की भी मांग की है।
सवाल वनाधिकार का है: रोमा
अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन (AIUFWP) ने लाओखोवा की घटना की निंदा करते हुए असम की बीजेपी सरकार को इसके लिए जिम्मेवार बताया है। यूनियन की राष्ट्रीय महासचिव रोमा ने कहा कि असम में बीजेपी सरकार होने से एंटी मुस्लिम फीलिंग हावी है। वो एक तरह से बहाना ढूंढते हैं कि किस तरह मुस्लिमों पर हमला किया जाए। रोमा ने कहा कि लाओखोवा में जिस तरह बिना जांच पड़ताल दो युवकों को मारा गया वो एक तरह की हत्या है। उन्होंने सवाल उठाया कि वन विभाग को इतनी ताकत देना कहां तक उचित है? वन एरिया में मुस्लिम जनजातियों के उत्पीड़न की कई घटनाएं हो चुकी हैं। कांजीरंगा में भी मुस्लिम परिवारों को उनकी खतौनी की जमीनों से उजाडकर, बिना मुआवजा बेदखल कर दिया गया।
दरअसल, सारा सवाल वनाधिकार का है। केंद्र का कानून होने के बावजूद असम की बीजेपी सरकार इसे लागू करने से बच रही है। क्योंकि वहां खुद मुख्यमंत्री का नाम, कांजीरंगा आदि वन विभाग की जमीनों पर कब्जे कर, आलीशान होटल खड़े करने आदि प्रकरणों से जुड़ रहा है। इसलिए पूरा मामला वनाधिकार कानून पर अमल का है। जिस तरह CNAPA ने स्टैंड लिया है, उसी तरह AIUFWP भी घटना पर गहरा दुःख प्रकट करती है और घटना की उच्च स्तरीय जांच की मांग करती है। रोमा ने कहा कि देश में राजनीतिक माहौल बदला है, इसलिए यूनियन, मामले को विपक्षी पार्टियों तक पहुंचाने का भी काम करेगी। असम में सारा मसला वनाधिकार कानून को लागू न करने का है। असम सरकार सेंटर के इस कानून को लागू करने से बच रही है। अगर वनाधिकार कानून लागू होगा तो सरकार मुस्लिम व अन्य जनजातियों का उत्पीड़न नहीं कर सकेंगी। इसलिए सवाल वनाधिकारों का है।
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