अदालत ने अपने 10 से अधिक आदेशों में, गवाहों के बयानों की विश्वसनीयता पर गंभीर संदेह जताया है। अधिकतर मामलों में यह गवाह पुलिसकर्मी थे।
2020 के दंगों के दौरान पूर्वोत्तर दिल्ली में एक पड़ोस में तोड़फोड़ की गई। Image Courtesy: PTI
नई दिल्ली: 2020 में पूर्वोत्तर दिल्ली में सांप्रदायिक हिंसा से संबंधित कई मुक़दमे अदालतों में ताश के पत्तों की तरह ढह रह हैं और न्यायाधीशों ने सबूत गढ़ने के लिए जांच एजेंसी की खिंचाई तो की है, लेकिन परिणाम भुगतने की बात तो दूर, कानून लागू करने वालों (दिल्ली पुलिस) की जवाबदेही पर भी कोई सवाल नहीं उठाया है।
उत्तरपूर्वी दिल्ली के यमुना पार इलाके में नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के खिलाफ देशव्यापी विरोध के बाद खूनी सांप्रदायिक हिंसा हुई थी, जिसमें 53 लोगों की जान चली गई और सैकड़ों घायल हो गए थे। मारे गए लोगों में अधिकतर मुसलमान थे।
राष्ट्रीय राजधानी में, विभाजन के बाद यह सबसे खराब सांप्रदायिक हिंसा थी, लेकिन तीन साल की मुकदमेबाजी के बाद, शहर की अदालतों ने जर्जर जांच पर तीखी टिप्पणियां की हैं और पुलिस की कड़ी आलोचना की है - और माना कि फरवरी 2020 में हुई हिंसा के लिए पुलिस ने मनगढ़ंत सबूतों का आधार पर ज्यादातर मुक़दमें मुसलमानों के खिलाफ दर्ज किए हैं।
मनगढ़ंत कहानियां, झूठे आरोप
16 अगस्त को, कड़कड़डूमा कोर्ट में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (एएसजे) पुलस्त्य प्रमाचला ने हिंसा से संबंधित एक मामले में तीन लोगों - अकील अहमद उर्फ पापड़, रईस खान और इरशाद को आरोपमुक्त कर दिया क्योंकि न्यायाधीश को संदेह था कि जांच अधिकारी ने "गलत तरीके से काम किया और सबूतों के साथ हेरफेर किया था, तथा अभियुक्तों पर “पूर्व निर्धारित, यांत्रिक और गलत तरीके से आरोप पत्र दायर किया गया था, जिसके बाद की कार्रवाइयों से केवल प्रारंभिक गलत कार्यों को कवर किया गया”।
अदालत ने आदेश दिया कि, “...कथित घटनाओं में शामिल होने के लिए आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ गंभीर संदेह होने के बजाय, मुझे आईओ (जांच अधिकारी) पर संदेह है कि उसने सबूतों के साथ हेरफेर किया है, वास्तव में रिपोर्ट की गई घटनाओं की ठीक से जांच नहीं की गई थी।”
24 अगस्त को, एएसजे प्रमाचला ने उस मुस्लिम व्यक्ति को बरी कर दिया, जो हिंसा से संबंधित एक मामले में आरोपी था, और उसके खिलाफ पुलिस के बयान को "कृत्रिम" बताया गया। साथ ही इस आदेश में, अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि पुलिस ने "घटनाओं की ठीक से जांच किए बिना" यांत्रिक तरीके से अपना आरोप पत्र दायर किया था।
28 अगस्त को, उन्ही न्यायाधीश ने दिल्ली पुलिस पर सबूत के लिए एक वीडियो पर भरोसा करके अदालत को "मूर्ख" बनाने का आरोप लगाया, जबकि ऐसा कोई वीडियो मौजूद ही नहीं था, अदालत ने दो मुकदमों को "रोकने" और "दोहरे मानदंड" अपनाने का आरोप लगाया।
30 मई को सोनिया विहार निवासी नूर मोहम्मद को बरी करते हुए, मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट शिरीष अग्रवाल ने कहा था कि ऐसा लगता है कि अभियोजन पक्ष के गवाह (एक हेड कांस्टेबल) का बयान "इस मामले को सुलझाने के लिए गलत तरीके से और देर से तैयार किया गया था।" पुलिस को पहले से ही पता था कि उसका मामला मनगढ़ंत है...''
उपर्युक्त आदेश हिंसा से संबंधित मामलों में दिए गए निर्णयों की एक श्रृंखला के कुछ नमूने हैं, जिनमें दिल्ली पुलिस पर झूठे सबूत गढ़ने और घटिया जांच करने का आरोप लगाया गया है।
आइए कुछ और मामलों पर फिर से गौर करें जिनमें अदालत ने हिंसा के आरोपियों को बरी कर दिया या फिर जमानत दे दी।
20 सितंबर, 2022 को, एएसजे प्रमाचला ने नूर को एक अन्य मामले में बरी कर दिया, यह देखते हुए कि आरोपी के रूप में उसकी पहचान पुलिस ने "संभवतः एक सोचे-समझे षड्यंत्र के तहत आरोप दर्ज़ कर की थी"।
बरी करना भी जांच अधिकारी के विरोधाभासी बयानों पर आधारित था।
इसी महीने कोर्ट ने मोहम्मद शोएब, शाहरुख, राशिद और मोहम्मद शाहनवाज को भी एक मामले में बरी कर दिया था। अदालत ने उक्त आरोपियों को बरी करते हुए पाया कि कांस्टेबल (अभियोजन गवाह) की एकमात्र गवाही, जिसने कहा था कि उसने आरोपियों को भीड़ में देखा था, जिसे अदालत ने भीड़ में उनकी उपस्थिति को स्वीकार करना को पर्याप्त सबूत नहीं मान है।
एक सहायक सब-इंस्पेक्टर और एक हेड कांस्टेबल के एक और विरोधाभासी बयान ने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनोद यादव को अक्टूबर 2021 में यह देखने के लिए प्रेरित किया कि "पुलिस शपथ के तहत होने बावजूद झूठ बोल रही हैं"।
हेड कांस्टेबल ने न्यायाधीश के सामने दावा किया था कि उसने चार दंगाइयों में से तीन की पहचान रिंकू सब्जीवाला, गोलू कश्यप और विकास कश्यप के रूप में की है। उन्होंने कहा था कि वे तीन लोगों को इसलिए जानते हैं क्योंकि वे 2019 से बीट कांस्टेबल के रूप में इलाके में तैनात थे।
हालाँकि, अभियोजन पक्ष के एक अन्य गवाह, सहायक सब-इंस्पेक्टर ने, इसके विपरीत, अदालत को बताया कि तीन आरोपियों की - हेड कांस्टेबल द्वारा नामित किए जाने के बावजूद - जांच के दौरान पहचान नहीं की जा सकी थी।
न्यायाधीश ने तब कहा, “...रिकॉर्ड पर ऐसी कोई सामग्री नहीं है कि आईओ द्वारा उक्त आरोपी व्यक्तियों को पकड़ने के लिए प्रयास किए गए थे। प्रथम दृष्टया, पुलिस गवाहों में से एक शपथ के बावजूद झूठ बोल रहा है (अर्थात) आईपीसी की धारा 193 के तहत दंडनीय है।
यादव ने पुलिस उपायुक्त (उत्तरपूर्वी दिल्ली) से इस संबंध में रिपोर्ट मांगते हुए कहा था, ''यह बहुत ही खेदजनक स्थिति है।''
सितंबर 2021 में, एएसजे यादव ने दंगों, आगजनी और विभिन्न अपराधों के आरोपी आम आदमी पार्टी के पूर्व पार्षद ताहिर हुसैन के भाई शाह आलम सहित तीन लोगों को बरी करते हुए, उचित जांच करने में विफल रहने के लिए दिल्ली पुलिस की खिंचाई की थी। .
न्यायाधीश ने अपने आदेश में कहा कि पुलिस ने मामले की जांच के लिए "कोई प्रयास नहीं किया" और "चश्मदीद गवाहों, वास्तविक आरोपी व्यक्तियों और तकनीकी सबूतों का पता लगाने के लिए कोई वास्तविक प्रयास किए बिना केवल आरोपपत्र दाखिल कर रही थी"।
यह देखते हुए कि "जांच एजेंसी ने केवल अदालत की आंखों पर पर्दा डालने की कोशिश की है" और संदेह व्यक्त करते हुए कि एक कांस्टेबल को गवाह के रोप में प्लांट करने की कोशिश ली गई थी, तो इस पर अदालत ने कहा कि, "मैं खुद को यह देखने से रोक नहीं पा रही हूं कि जब दिल्ली विभाजन के बाद के इतिहास में सबसे भयानक सांप्रदायिक दंगों का अनुभव कर रही थी, तो पुलिस ने नए वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल करके उचित जांच क्यों नहीं की और इसे जांच एजेंसी की विफलता माना, जो निश्चित रूप से लोकतंत्र के प्रहरियों को पीड़ा देगी।
हालाँकि, महीनों बाद, न्यायाधीश, जिन्होंने त्रुटिपूर्ण जांच के खिलाफ कई आदेश पारित किए थे, का तबादला कर दिया गया।
न्यूज़क्लिक ने 2020 से अब तक के दंगों से संबंधित मामलों पर दिल्ली की अदालतों द्वारा पारित निर्णयों का विश्लेषण किया है। 10 से अधिक आदेशों में अदालतों ने गवाहों के बयानों की विश्वसनीयता पर गंभीर संदेह जताया है। अधिकांश मामलों में अभियोजन पक्ष के गवाह पुलिस कर्मी थे।
कुछ मामलों में, अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयान एक जैसे थे - जिससे उनकी सत्यता पर संदेह पैदा हो गया। आदेशों के विश्लेषण से पता चला कि कुछ गवाहों ने आरोप लगाया था कि पुलिस ने उन्हें झूठे बयान देने के लिए मजबूर किया था।
निचली अदालतों के अलावा, उच्च न्यायपालिका ने भी दंगों के मामलों की जांच में ढुलमुल रवैये के लिए दिल्ली पुलिस की आलोचना की है।
अक्टूबर 2020 में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने इरशाद अहमद नाम के एक व्यक्ति को इस आधार पर जमानत दे दी थी क्योंकि ऐसा लगता था दोनों पुलिस वालों ने "गवाहों को फंसाया था"।
पिछले तीन वर्षों में उच्च न्यायालय द्वारा कई अन्य आदेश (उदाहरण के लिए यह और यह) पारित किए गए हैं जिनमें जांचकर्ताओं के खिलाफ सख्त टिप्पणी की है।
मामलों में पुलिस की कार्यप्रणाली और अभियोजन के खिलाफ तीखी टिप्पणी करते हुए, ट्रायल कोर्ट ने व्यक्तिगत मामलों को वरिष्ठ अधिकारियों यानी संबंधित डीसीपी और कुछ मामलों में पुलिस आयुक्त को संदर्भित करके स्थिति को सुधारने का प्रयास किया।
हालाँकि, ये रेफरल दोषी अधिकारी के खिलाफ कोई कार्रवाई या उनकी जवाबदेही सुनिश्चित करने के उपायों के बिना अत्यधिक आलोचनात्मक टिप्पणियों के साथ किए गए थे।
अदालतें जिसे "दुखद और चौंकाने वाली स्थिति" कह रही हैं, न्यायिक आदेशों में लगातार वही स्वर झलक रहा है। लेकिन दिशा-निर्देश अनसुने हो रहे हैं।
क्या झूठे सबूत पेश करना अपराध है?
भारतीय दंड संहिता के अध्याय XI के प्रावधानों के अनुसार, झूठे साक्ष्य गढ़ना और उनका इस्तेमाल करना, किसी पर झूठा आरोप लगाना और अदालतों में झूठे दावे करना सार्वजनिक न्याय के खिलाफ आपराधिक अपराध है।
और अपराध की सज़ा, उसकी गंभीरता के आधार पर, तीन साल की जेल से लेकर आजीवन कारावास और यहाँ तक कि मृत्युदंड तक भिन्न-भिन्न हो सकती है।
हालाँकि, विभिन्न अदालतों द्वारा दिल्ली पुलिस को सबूत गढ़ने में लिप्त पाए जाने के बावजूद, इसके अधिकारियों की कोई जवाबदेही नहीं पाई गई है।
ऐसा क्यों हो रहा है?
जांचकर्ताओं की ओर से झूठी गवाही को स्वीकार करने के बावजूद, न्यायपालिका उन दोषी पुलिस अधिकारियों पर मुकदमा चलाने में खुद को असहाय पा रही है जो अक्सर शपथ में होते हुए झूठ बोलते हैं। आईपीसी के अध्याय XI के तहत अपराधों के अभियोजन के लिए आपराधिक प्रक्रिया संहिता बेहद जटिल है।
ऐसे अपराध की शिकायत के मामले में, यह सुनिश्चित करने के लिए कि शिकायत उचित है या नहीं, अदालत द्वारा प्रारंभिक जांच शुरू की जानी चाहिए। इसके अलावा, ऐसे अपराधों की सुनवाई मुख्य सुनवाई से अलग की जानी चाहिए जिसमें कथित झूठे सबूत पेश किए गए थे।
अदालतों के लिए कथित झूठे आरोप लगाने और मनगढ़ंत कहानी के हर मामले पर मुकदमा चलाना आसान नहीं है क्योंकि उसके पास अन्य मामलों के लिए समय नहीं होगा क्योंकि भारतीय न्यायिक प्रणाली ऐसे मामलों से भरी हुई है।
भले ही अदालतों ने निर्दोष व्यक्तियों को बरी कर दिया है, लेकिन जांच में अनुचित और गंभीर चूक करने, असली दोषियों को पकड़ने और सजा दिलाने में विफलता और फर्जी सबूतों का इस्तेमाल करके निर्दोषों को फंसाने के लिए दोषी पुलिस के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जरूरत है।
Courtesy: Newsclick
2020 के दंगों के दौरान पूर्वोत्तर दिल्ली में एक पड़ोस में तोड़फोड़ की गई। Image Courtesy: PTI
नई दिल्ली: 2020 में पूर्वोत्तर दिल्ली में सांप्रदायिक हिंसा से संबंधित कई मुक़दमे अदालतों में ताश के पत्तों की तरह ढह रह हैं और न्यायाधीशों ने सबूत गढ़ने के लिए जांच एजेंसी की खिंचाई तो की है, लेकिन परिणाम भुगतने की बात तो दूर, कानून लागू करने वालों (दिल्ली पुलिस) की जवाबदेही पर भी कोई सवाल नहीं उठाया है।
उत्तरपूर्वी दिल्ली के यमुना पार इलाके में नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के खिलाफ देशव्यापी विरोध के बाद खूनी सांप्रदायिक हिंसा हुई थी, जिसमें 53 लोगों की जान चली गई और सैकड़ों घायल हो गए थे। मारे गए लोगों में अधिकतर मुसलमान थे।
राष्ट्रीय राजधानी में, विभाजन के बाद यह सबसे खराब सांप्रदायिक हिंसा थी, लेकिन तीन साल की मुकदमेबाजी के बाद, शहर की अदालतों ने जर्जर जांच पर तीखी टिप्पणियां की हैं और पुलिस की कड़ी आलोचना की है - और माना कि फरवरी 2020 में हुई हिंसा के लिए पुलिस ने मनगढ़ंत सबूतों का आधार पर ज्यादातर मुक़दमें मुसलमानों के खिलाफ दर्ज किए हैं।
मनगढ़ंत कहानियां, झूठे आरोप
16 अगस्त को, कड़कड़डूमा कोर्ट में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (एएसजे) पुलस्त्य प्रमाचला ने हिंसा से संबंधित एक मामले में तीन लोगों - अकील अहमद उर्फ पापड़, रईस खान और इरशाद को आरोपमुक्त कर दिया क्योंकि न्यायाधीश को संदेह था कि जांच अधिकारी ने "गलत तरीके से काम किया और सबूतों के साथ हेरफेर किया था, तथा अभियुक्तों पर “पूर्व निर्धारित, यांत्रिक और गलत तरीके से आरोप पत्र दायर किया गया था, जिसके बाद की कार्रवाइयों से केवल प्रारंभिक गलत कार्यों को कवर किया गया”।
अदालत ने आदेश दिया कि, “...कथित घटनाओं में शामिल होने के लिए आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ गंभीर संदेह होने के बजाय, मुझे आईओ (जांच अधिकारी) पर संदेह है कि उसने सबूतों के साथ हेरफेर किया है, वास्तव में रिपोर्ट की गई घटनाओं की ठीक से जांच नहीं की गई थी।”
24 अगस्त को, एएसजे प्रमाचला ने उस मुस्लिम व्यक्ति को बरी कर दिया, जो हिंसा से संबंधित एक मामले में आरोपी था, और उसके खिलाफ पुलिस के बयान को "कृत्रिम" बताया गया। साथ ही इस आदेश में, अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि पुलिस ने "घटनाओं की ठीक से जांच किए बिना" यांत्रिक तरीके से अपना आरोप पत्र दायर किया था।
28 अगस्त को, उन्ही न्यायाधीश ने दिल्ली पुलिस पर सबूत के लिए एक वीडियो पर भरोसा करके अदालत को "मूर्ख" बनाने का आरोप लगाया, जबकि ऐसा कोई वीडियो मौजूद ही नहीं था, अदालत ने दो मुकदमों को "रोकने" और "दोहरे मानदंड" अपनाने का आरोप लगाया।
30 मई को सोनिया विहार निवासी नूर मोहम्मद को बरी करते हुए, मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट शिरीष अग्रवाल ने कहा था कि ऐसा लगता है कि अभियोजन पक्ष के गवाह (एक हेड कांस्टेबल) का बयान "इस मामले को सुलझाने के लिए गलत तरीके से और देर से तैयार किया गया था।" पुलिस को पहले से ही पता था कि उसका मामला मनगढ़ंत है...''
उपर्युक्त आदेश हिंसा से संबंधित मामलों में दिए गए निर्णयों की एक श्रृंखला के कुछ नमूने हैं, जिनमें दिल्ली पुलिस पर झूठे सबूत गढ़ने और घटिया जांच करने का आरोप लगाया गया है।
आइए कुछ और मामलों पर फिर से गौर करें जिनमें अदालत ने हिंसा के आरोपियों को बरी कर दिया या फिर जमानत दे दी।
20 सितंबर, 2022 को, एएसजे प्रमाचला ने नूर को एक अन्य मामले में बरी कर दिया, यह देखते हुए कि आरोपी के रूप में उसकी पहचान पुलिस ने "संभवतः एक सोचे-समझे षड्यंत्र के तहत आरोप दर्ज़ कर की थी"।
बरी करना भी जांच अधिकारी के विरोधाभासी बयानों पर आधारित था।
इसी महीने कोर्ट ने मोहम्मद शोएब, शाहरुख, राशिद और मोहम्मद शाहनवाज को भी एक मामले में बरी कर दिया था। अदालत ने उक्त आरोपियों को बरी करते हुए पाया कि कांस्टेबल (अभियोजन गवाह) की एकमात्र गवाही, जिसने कहा था कि उसने आरोपियों को भीड़ में देखा था, जिसे अदालत ने भीड़ में उनकी उपस्थिति को स्वीकार करना को पर्याप्त सबूत नहीं मान है।
एक सहायक सब-इंस्पेक्टर और एक हेड कांस्टेबल के एक और विरोधाभासी बयान ने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनोद यादव को अक्टूबर 2021 में यह देखने के लिए प्रेरित किया कि "पुलिस शपथ के तहत होने बावजूद झूठ बोल रही हैं"।
हेड कांस्टेबल ने न्यायाधीश के सामने दावा किया था कि उसने चार दंगाइयों में से तीन की पहचान रिंकू सब्जीवाला, गोलू कश्यप और विकास कश्यप के रूप में की है। उन्होंने कहा था कि वे तीन लोगों को इसलिए जानते हैं क्योंकि वे 2019 से बीट कांस्टेबल के रूप में इलाके में तैनात थे।
हालाँकि, अभियोजन पक्ष के एक अन्य गवाह, सहायक सब-इंस्पेक्टर ने, इसके विपरीत, अदालत को बताया कि तीन आरोपियों की - हेड कांस्टेबल द्वारा नामित किए जाने के बावजूद - जांच के दौरान पहचान नहीं की जा सकी थी।
न्यायाधीश ने तब कहा, “...रिकॉर्ड पर ऐसी कोई सामग्री नहीं है कि आईओ द्वारा उक्त आरोपी व्यक्तियों को पकड़ने के लिए प्रयास किए गए थे। प्रथम दृष्टया, पुलिस गवाहों में से एक शपथ के बावजूद झूठ बोल रहा है (अर्थात) आईपीसी की धारा 193 के तहत दंडनीय है।
यादव ने पुलिस उपायुक्त (उत्तरपूर्वी दिल्ली) से इस संबंध में रिपोर्ट मांगते हुए कहा था, ''यह बहुत ही खेदजनक स्थिति है।''
सितंबर 2021 में, एएसजे यादव ने दंगों, आगजनी और विभिन्न अपराधों के आरोपी आम आदमी पार्टी के पूर्व पार्षद ताहिर हुसैन के भाई शाह आलम सहित तीन लोगों को बरी करते हुए, उचित जांच करने में विफल रहने के लिए दिल्ली पुलिस की खिंचाई की थी। .
न्यायाधीश ने अपने आदेश में कहा कि पुलिस ने मामले की जांच के लिए "कोई प्रयास नहीं किया" और "चश्मदीद गवाहों, वास्तविक आरोपी व्यक्तियों और तकनीकी सबूतों का पता लगाने के लिए कोई वास्तविक प्रयास किए बिना केवल आरोपपत्र दाखिल कर रही थी"।
यह देखते हुए कि "जांच एजेंसी ने केवल अदालत की आंखों पर पर्दा डालने की कोशिश की है" और संदेह व्यक्त करते हुए कि एक कांस्टेबल को गवाह के रोप में प्लांट करने की कोशिश ली गई थी, तो इस पर अदालत ने कहा कि, "मैं खुद को यह देखने से रोक नहीं पा रही हूं कि जब दिल्ली विभाजन के बाद के इतिहास में सबसे भयानक सांप्रदायिक दंगों का अनुभव कर रही थी, तो पुलिस ने नए वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल करके उचित जांच क्यों नहीं की और इसे जांच एजेंसी की विफलता माना, जो निश्चित रूप से लोकतंत्र के प्रहरियों को पीड़ा देगी।
हालाँकि, महीनों बाद, न्यायाधीश, जिन्होंने त्रुटिपूर्ण जांच के खिलाफ कई आदेश पारित किए थे, का तबादला कर दिया गया।
न्यूज़क्लिक ने 2020 से अब तक के दंगों से संबंधित मामलों पर दिल्ली की अदालतों द्वारा पारित निर्णयों का विश्लेषण किया है। 10 से अधिक आदेशों में अदालतों ने गवाहों के बयानों की विश्वसनीयता पर गंभीर संदेह जताया है। अधिकांश मामलों में अभियोजन पक्ष के गवाह पुलिस कर्मी थे।
कुछ मामलों में, अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयान एक जैसे थे - जिससे उनकी सत्यता पर संदेह पैदा हो गया। आदेशों के विश्लेषण से पता चला कि कुछ गवाहों ने आरोप लगाया था कि पुलिस ने उन्हें झूठे बयान देने के लिए मजबूर किया था।
निचली अदालतों के अलावा, उच्च न्यायपालिका ने भी दंगों के मामलों की जांच में ढुलमुल रवैये के लिए दिल्ली पुलिस की आलोचना की है।
अक्टूबर 2020 में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने इरशाद अहमद नाम के एक व्यक्ति को इस आधार पर जमानत दे दी थी क्योंकि ऐसा लगता था दोनों पुलिस वालों ने "गवाहों को फंसाया था"।
पिछले तीन वर्षों में उच्च न्यायालय द्वारा कई अन्य आदेश (उदाहरण के लिए यह और यह) पारित किए गए हैं जिनमें जांचकर्ताओं के खिलाफ सख्त टिप्पणी की है।
मामलों में पुलिस की कार्यप्रणाली और अभियोजन के खिलाफ तीखी टिप्पणी करते हुए, ट्रायल कोर्ट ने व्यक्तिगत मामलों को वरिष्ठ अधिकारियों यानी संबंधित डीसीपी और कुछ मामलों में पुलिस आयुक्त को संदर्भित करके स्थिति को सुधारने का प्रयास किया।
हालाँकि, ये रेफरल दोषी अधिकारी के खिलाफ कोई कार्रवाई या उनकी जवाबदेही सुनिश्चित करने के उपायों के बिना अत्यधिक आलोचनात्मक टिप्पणियों के साथ किए गए थे।
अदालतें जिसे "दुखद और चौंकाने वाली स्थिति" कह रही हैं, न्यायिक आदेशों में लगातार वही स्वर झलक रहा है। लेकिन दिशा-निर्देश अनसुने हो रहे हैं।
क्या झूठे सबूत पेश करना अपराध है?
भारतीय दंड संहिता के अध्याय XI के प्रावधानों के अनुसार, झूठे साक्ष्य गढ़ना और उनका इस्तेमाल करना, किसी पर झूठा आरोप लगाना और अदालतों में झूठे दावे करना सार्वजनिक न्याय के खिलाफ आपराधिक अपराध है।
और अपराध की सज़ा, उसकी गंभीरता के आधार पर, तीन साल की जेल से लेकर आजीवन कारावास और यहाँ तक कि मृत्युदंड तक भिन्न-भिन्न हो सकती है।
हालाँकि, विभिन्न अदालतों द्वारा दिल्ली पुलिस को सबूत गढ़ने में लिप्त पाए जाने के बावजूद, इसके अधिकारियों की कोई जवाबदेही नहीं पाई गई है।
ऐसा क्यों हो रहा है?
जांचकर्ताओं की ओर से झूठी गवाही को स्वीकार करने के बावजूद, न्यायपालिका उन दोषी पुलिस अधिकारियों पर मुकदमा चलाने में खुद को असहाय पा रही है जो अक्सर शपथ में होते हुए झूठ बोलते हैं। आईपीसी के अध्याय XI के तहत अपराधों के अभियोजन के लिए आपराधिक प्रक्रिया संहिता बेहद जटिल है।
ऐसे अपराध की शिकायत के मामले में, यह सुनिश्चित करने के लिए कि शिकायत उचित है या नहीं, अदालत द्वारा प्रारंभिक जांच शुरू की जानी चाहिए। इसके अलावा, ऐसे अपराधों की सुनवाई मुख्य सुनवाई से अलग की जानी चाहिए जिसमें कथित झूठे सबूत पेश किए गए थे।
अदालतों के लिए कथित झूठे आरोप लगाने और मनगढ़ंत कहानी के हर मामले पर मुकदमा चलाना आसान नहीं है क्योंकि उसके पास अन्य मामलों के लिए समय नहीं होगा क्योंकि भारतीय न्यायिक प्रणाली ऐसे मामलों से भरी हुई है।
भले ही अदालतों ने निर्दोष व्यक्तियों को बरी कर दिया है, लेकिन जांच में अनुचित और गंभीर चूक करने, असली दोषियों को पकड़ने और सजा दिलाने में विफलता और फर्जी सबूतों का इस्तेमाल करके निर्दोषों को फंसाने के लिए दोषी पुलिस के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जरूरत है।
Courtesy: Newsclick