नरेन्द्र मोदी सरकार अपने बचे दिनों में तीन तलाक़ को अपराध नहीं बना पाएगी। अब सरकार के पास न तो पर्याप्त वक़्त है और न ही ऐसा सियासी ज़ोर कि वो राज्यसभा की बाधा पार कर ले। तीसरा रास्ता सहमति से इसे पारित कराने का है, लेकिन अपने अहंकार के कारण सरकार ने वो रास्ता नहीं अपनाया। राज्यसभा में तो अब बीजेपी से उसके दो दोस्तों, अन्नाद्रमुक और जनता दल यूनाइटेड ने भी किनारा कर लिया है।
अब ये दोनों भी उस विपक्षी ख़ेमे के साथ आ गये हैं, जिन्होंने ठान रखा है कि वो तीन तलाक़ को अपराध बनाने वाले उस बिल को किसी भी हालत में राज्यसभा में पारित नहीं होने देंगे, जिसे लोकसभा ने 27 दिसम्बर 2018 को दूसरी बार भी पारित किया था। राज्यसभा में अन्नाद्रमुक के 13 और जनता दल यूनाइटेड के 6 सदस्य हैं।
अब आलम ये है कि 8 जनवरी 2019 यानी संसद के मौजूदा सत्र के दौरान इसका राज्यसभा से पारित होना असंभव है। 8 जनवरी को संसद के सत्रावसान के साथ ही मोदी सरकार का वो अध्यादेश भी अपने आप ही ख़त्म हो जाएगा, जो 19 सितम्बर 2018 से लागू है। 8 जनवरी के बाद तीन तलाक़ को लेकर सिर्फ़ सुप्रीम कोर्ट का 22 अगस्त 2017 वाला वो फ़ैसला ही क़ायम रहेगा, जिसमें तीन तलाक़ को गैरकानूनी और असंवैधानिक ठहराया गया है।
तलाक को लेकर क्यों आया सदन में गतिरोध
तीन तलाक़ कानून को लेकर मोदी सरकार को ये दिन उसकी ‘संसदीय समिति को ठेंगे पर रखने और विपक्ष की अनदेखी करने’ की नीति की वजह से देखना पड़ा है। राज्यसभा में अभी कुल 244 सदस्य हैं। एक जगह खाली है। इसमें से एनडीए के सदस्यों की संख्या 89 है। जनता दल यूनाइटेड के 6 सदस्यों के विरोध के बाद एनडीए की प्रभावी संख्या घटकर 83 हो जाती है। ये बहुमत (123) से 40 कम हैं। सरकार को नये दोस्त मिलते नहीं दिख रहे।
राज्यसभा में विपक्ष के विरोध को देखते हुए 2017 वाले पुराने विधेयक की तुलना में 2018 वाले नये विधेयक में तीन सुधार किये गये।
एक, अब सिर्फ़ पीड़ित महिला या उसका सगा रिश्तेदार ही पुलिस से शिकायत कर सकता है। पहले पुलिस के पास अपने आप भी केस दर्ज़ करने का अधिकार था।
दो, पहले तीन तलाक़ को संज्ञेय और ग़ैर-ज़मानती अपराध माना गया था। इसलिए पुलिस को वारंट के बग़ैर शौहर की गिरफ़्तारी का हक़ था, लेकिन अब मजिस्ट्रेट को ज़मानत देने का हक़ दिया गया है।
तीन, पहले मियां-बीवी के बीच सुलह-समझौते का प्रावधान नहीं था, लेकिन अब मजिस्ट्रेट के सामने सुलह का विकल्प दिया गया है।
राज्यसभा के पास मौजूदा विधेयक को पारित करने के लिए 22 जनवरी 2019 का वक़्त तक है। लेकिन मौजूदा सत्र 8 जनवरी तक ही है। दरअसल, संविधान जहां सरकार को किसी भी अध्यादेश को जारी करने हक़ देता है, वहीं इसकी तीन शर्तें भी हैं।
अध्यादेश की वैधता छह महीने से अधिक नहीं होगी।
अध्यादेश को संसद के आगामी सत्र में क़ानून बन जाना चाहिए।
संसद सत्र शुरू होने के 6 हफ़्ते यानी 42 दिनों के भीतर विधेयक को क़ानून बन जाना चाहिए। अन्यथा, अध्यादेश अमान्य हो जाएगा।
संसद के मौजूदा सत्र की मियाद 8 जनवरी 2019 तक है। इस तरह, 42 दिन वाली शर्त की मियाद 21 जनवरी 2019 तक भले ही हो, लेकिन 8 जनवरी तक राज्यसभा की बाधा से नहीं उबरने पर मोदी सरकार को फिर से अध्यादेश लाना होगा और उसे अपने आख़िरी संसद सत्र यानी ‘बजट सत्र 2019’ में संसद के दोनों सदनों से पारित कराना होगा। आम चुनाव का साल होने की वजह से बजट सत्र में सरकार पर संवैधानिक कामकाज का भारी दबाव होगा।
अनुमान है कि बजट सत्र 29 जनवरी से शुरू होगा और इसका पहला भाग 8 फरवरी 2019 तक चलेगा। इसका दूसरा हिस्सा भी 8 मार्च 2019 से आगे शायद ही जाए, क्योंकि तब तक चुनाव कार्यक्रम की घोषणा हो सकती है। बजट सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण, बजट भाषण, धन्यवाद प्रस्ताव को पारित करने और अनुदान मांगों (आंशिक बजट) को पारित करने जैसे अजेंडा के बाद सरकार के पास इतना मौक़ा ही नहीं होगा कि वो तीन तलाक़ का क़ानून बना सके।
2014 में चुनाव आयोग ने 5 मार्च को चुनाव कार्यक्रम का ऐलान किया था। उसी दिन से आदर्श चुनाव संहिता प्रभावी हो गयी थी। लिहाज़ा, ये माना जा सकता है कि 2019 का बजट सत्र का पहला हिस्सा 5 मार्च के आसपास ही समाप्त हो जाएगा। इसका दूसरा हिस्सा नयी सरकार के हवाले होगा।
तीन तलाक़ क़ानून से जुड़ी सबसे बड़ी बाधा सैद्धान्तिक है। दुनिया के कई देश में तलाक़ का विधान है, लेकिन तलाक़ को लेकर सज़ा का क़ानून कहीं नहीं है! इसीलिए यदि क़ानून बनाने से पहले मोदी सरकार को विपक्ष की कुछ दमदार दलीलों का समाधान निकालना होगा।
चूंकि मुस्लिम विवाह एक क़रार या कॉन्ट्रैक्ट है, इसलिए किसी भी क़रार की तरह ये दीवानी मामला है। इसे फ़ौजदारी कैसे बनाया जा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट ने ये कभी नहीं कहा कि तीन तलाक़ एक ‘आपराधिक करतूत’ है और इसकी सज़ा तय होनी चाहिए। इसीलिए तीन तलाक़ को ग़ैरकानूनी ठहराया जाना ही पर्याप्त है।
प्रस्तावित तीन तलाक़ विधेयक से मुस्लिम महिलाओं को इंसाफ़ नहीं मिलेगा। इससे पीड़ित की तकलीफ़ और बढ़ेगी। क्योंकि तीन तलाक़ अवैध होने की वजह से पत्नी ख़ुद अपने पति को सज़ा दिलवा रही होगी और विवाह के क़ायम रहने की वजह से पति की ओर से होने वाले भरण-पोषण की ज़िम्मेदारियों से वंचित रहेगी।
इन समस्याओं का समाधान करने के लिए लोकसभा से पारित मौजूदा विधेयक में संशोधन करना होगा। विपक्ष इन्हीं संशोधनों को अमलीजामा पहनाने के लिए विधेयक को संसदीय समिति के पास भेजने पर अड़ा है। अब यदि सरकार मौजूदा विधेयक को ही पारित कराने पर अड़ी रही तो उसे राज्यसभा में मुंह की खानी पड़ेगी। और यदि, राज्यसभा ने विधेयक को संशोधनों के साथ पारित किया तो लोकसभा को उन संशोधनों को नये सिरे से पारित करना पड़ेगा। इतनी क़वायद के लिए अब मोदी सरकार के पास मुनासिब वक़्त ही नहीं बचा।
लिहाज़ा, 2019 का आम चुनाव तो बीजेपी को तीन तलाक़ क़ानून के बग़ैर ही लड़ना होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक प्रेक्षक हैं। यह आर्टिकल द् प्रिंट से साभार लिया गया है।)
अब ये दोनों भी उस विपक्षी ख़ेमे के साथ आ गये हैं, जिन्होंने ठान रखा है कि वो तीन तलाक़ को अपराध बनाने वाले उस बिल को किसी भी हालत में राज्यसभा में पारित नहीं होने देंगे, जिसे लोकसभा ने 27 दिसम्बर 2018 को दूसरी बार भी पारित किया था। राज्यसभा में अन्नाद्रमुक के 13 और जनता दल यूनाइटेड के 6 सदस्य हैं।
अब आलम ये है कि 8 जनवरी 2019 यानी संसद के मौजूदा सत्र के दौरान इसका राज्यसभा से पारित होना असंभव है। 8 जनवरी को संसद के सत्रावसान के साथ ही मोदी सरकार का वो अध्यादेश भी अपने आप ही ख़त्म हो जाएगा, जो 19 सितम्बर 2018 से लागू है। 8 जनवरी के बाद तीन तलाक़ को लेकर सिर्फ़ सुप्रीम कोर्ट का 22 अगस्त 2017 वाला वो फ़ैसला ही क़ायम रहेगा, जिसमें तीन तलाक़ को गैरकानूनी और असंवैधानिक ठहराया गया है।
तलाक को लेकर क्यों आया सदन में गतिरोध
तीन तलाक़ कानून को लेकर मोदी सरकार को ये दिन उसकी ‘संसदीय समिति को ठेंगे पर रखने और विपक्ष की अनदेखी करने’ की नीति की वजह से देखना पड़ा है। राज्यसभा में अभी कुल 244 सदस्य हैं। एक जगह खाली है। इसमें से एनडीए के सदस्यों की संख्या 89 है। जनता दल यूनाइटेड के 6 सदस्यों के विरोध के बाद एनडीए की प्रभावी संख्या घटकर 83 हो जाती है। ये बहुमत (123) से 40 कम हैं। सरकार को नये दोस्त मिलते नहीं दिख रहे।
राज्यसभा में विपक्ष के विरोध को देखते हुए 2017 वाले पुराने विधेयक की तुलना में 2018 वाले नये विधेयक में तीन सुधार किये गये।
एक, अब सिर्फ़ पीड़ित महिला या उसका सगा रिश्तेदार ही पुलिस से शिकायत कर सकता है। पहले पुलिस के पास अपने आप भी केस दर्ज़ करने का अधिकार था।
दो, पहले तीन तलाक़ को संज्ञेय और ग़ैर-ज़मानती अपराध माना गया था। इसलिए पुलिस को वारंट के बग़ैर शौहर की गिरफ़्तारी का हक़ था, लेकिन अब मजिस्ट्रेट को ज़मानत देने का हक़ दिया गया है।
तीन, पहले मियां-बीवी के बीच सुलह-समझौते का प्रावधान नहीं था, लेकिन अब मजिस्ट्रेट के सामने सुलह का विकल्प दिया गया है।
राज्यसभा के पास मौजूदा विधेयक को पारित करने के लिए 22 जनवरी 2019 का वक़्त तक है। लेकिन मौजूदा सत्र 8 जनवरी तक ही है। दरअसल, संविधान जहां सरकार को किसी भी अध्यादेश को जारी करने हक़ देता है, वहीं इसकी तीन शर्तें भी हैं।
अध्यादेश की वैधता छह महीने से अधिक नहीं होगी।
अध्यादेश को संसद के आगामी सत्र में क़ानून बन जाना चाहिए।
संसद सत्र शुरू होने के 6 हफ़्ते यानी 42 दिनों के भीतर विधेयक को क़ानून बन जाना चाहिए। अन्यथा, अध्यादेश अमान्य हो जाएगा।
संसद के मौजूदा सत्र की मियाद 8 जनवरी 2019 तक है। इस तरह, 42 दिन वाली शर्त की मियाद 21 जनवरी 2019 तक भले ही हो, लेकिन 8 जनवरी तक राज्यसभा की बाधा से नहीं उबरने पर मोदी सरकार को फिर से अध्यादेश लाना होगा और उसे अपने आख़िरी संसद सत्र यानी ‘बजट सत्र 2019’ में संसद के दोनों सदनों से पारित कराना होगा। आम चुनाव का साल होने की वजह से बजट सत्र में सरकार पर संवैधानिक कामकाज का भारी दबाव होगा।
अनुमान है कि बजट सत्र 29 जनवरी से शुरू होगा और इसका पहला भाग 8 फरवरी 2019 तक चलेगा। इसका दूसरा हिस्सा भी 8 मार्च 2019 से आगे शायद ही जाए, क्योंकि तब तक चुनाव कार्यक्रम की घोषणा हो सकती है। बजट सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण, बजट भाषण, धन्यवाद प्रस्ताव को पारित करने और अनुदान मांगों (आंशिक बजट) को पारित करने जैसे अजेंडा के बाद सरकार के पास इतना मौक़ा ही नहीं होगा कि वो तीन तलाक़ का क़ानून बना सके।
2014 में चुनाव आयोग ने 5 मार्च को चुनाव कार्यक्रम का ऐलान किया था। उसी दिन से आदर्श चुनाव संहिता प्रभावी हो गयी थी। लिहाज़ा, ये माना जा सकता है कि 2019 का बजट सत्र का पहला हिस्सा 5 मार्च के आसपास ही समाप्त हो जाएगा। इसका दूसरा हिस्सा नयी सरकार के हवाले होगा।
तीन तलाक़ क़ानून से जुड़ी सबसे बड़ी बाधा सैद्धान्तिक है। दुनिया के कई देश में तलाक़ का विधान है, लेकिन तलाक़ को लेकर सज़ा का क़ानून कहीं नहीं है! इसीलिए यदि क़ानून बनाने से पहले मोदी सरकार को विपक्ष की कुछ दमदार दलीलों का समाधान निकालना होगा।
चूंकि मुस्लिम विवाह एक क़रार या कॉन्ट्रैक्ट है, इसलिए किसी भी क़रार की तरह ये दीवानी मामला है। इसे फ़ौजदारी कैसे बनाया जा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट ने ये कभी नहीं कहा कि तीन तलाक़ एक ‘आपराधिक करतूत’ है और इसकी सज़ा तय होनी चाहिए। इसीलिए तीन तलाक़ को ग़ैरकानूनी ठहराया जाना ही पर्याप्त है।
प्रस्तावित तीन तलाक़ विधेयक से मुस्लिम महिलाओं को इंसाफ़ नहीं मिलेगा। इससे पीड़ित की तकलीफ़ और बढ़ेगी। क्योंकि तीन तलाक़ अवैध होने की वजह से पत्नी ख़ुद अपने पति को सज़ा दिलवा रही होगी और विवाह के क़ायम रहने की वजह से पति की ओर से होने वाले भरण-पोषण की ज़िम्मेदारियों से वंचित रहेगी।
इन समस्याओं का समाधान करने के लिए लोकसभा से पारित मौजूदा विधेयक में संशोधन करना होगा। विपक्ष इन्हीं संशोधनों को अमलीजामा पहनाने के लिए विधेयक को संसदीय समिति के पास भेजने पर अड़ा है। अब यदि सरकार मौजूदा विधेयक को ही पारित कराने पर अड़ी रही तो उसे राज्यसभा में मुंह की खानी पड़ेगी। और यदि, राज्यसभा ने विधेयक को संशोधनों के साथ पारित किया तो लोकसभा को उन संशोधनों को नये सिरे से पारित करना पड़ेगा। इतनी क़वायद के लिए अब मोदी सरकार के पास मुनासिब वक़्त ही नहीं बचा।
लिहाज़ा, 2019 का आम चुनाव तो बीजेपी को तीन तलाक़ क़ानून के बग़ैर ही लड़ना होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक प्रेक्षक हैं। यह आर्टिकल द् प्रिंट से साभार लिया गया है।)