बिहार SIR: 65 लाख मतदाताओं को हटाने के लिए चिन्हित किया गया, सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “अगर बड़ी संख्या में मतदाताओं को बाहर किया गया तो हम तुरंत दखल देंगे”

Written by sabrang india | Published on: July 30, 2025
बिहार के मतदाता सूची का विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण (SIR) 26 जुलाई को समाप्त हो गया, जिसमें 7.89 करोड़ मतदाताओं में से 7.24 करोड़ (91.69%) एन्यूमरेशन फॉर्म जमा किए गए। इनमें से करीब 65 लाख मतदाताओं को हटाए जाने के लिए चिन्हित किया गया है। इसी बीच, 28 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने 1 अगस्त को ड्राफ्ट रोल के प्रकाशन को रोकने से इनकार कर दिया। 29 जुलाई की सुनवाई में कोर्ट ने “बड़ी संख्या में मतदाताओं के बाहर किए जाने” की आशंका के खिलाफ कड़ा रुख दिखाया। याचिकाकर्ताओं ने कहा कि ECI को पता है कि ये 65 लाख लोग कौन हैं, और अगर ECI ड्राफ्ट सूची में इनके नाम शामिल करता है तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं है।


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29 जुलाई 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर वोटरों को बड़ी संख्या में वोटर लिस्ट से बाहर किया गया, तो कोर्ट खुद दखल देगा। यह आश्वासन अधिवक्ता प्रशांत भूषण द्वारा उठाई गई गंभीर चिंता के जवाब में आया। भूषण एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की ओर से पेश हुए थे। उन्होंने बताया कि एसआईआर (SIR) प्रक्रिया के दौरान 65 लाख लोगों ने अपनी गणना फॉर्म जमा नहीं किए हैं।

चुनाव आयोग की 27 जुलाई की प्रेस नोट के अनुसार, ये 65 लाख लोग तीन श्रेणियों में बांटे गए हैं। इनमें मृत मतदाता (22 लाख या 2.83%), स्थायी रूप से स्थानांतरित/नहीं मिले मतदाता (36 लाख या 4.59%) और ऐसे मतदाता (7 लाख या 0.89%) जो एक से ज्यादा जगहों पर दर्ज हैं। प्रशांत भूषण ने चिंता जताई कि इन लोगों को अब दोबारा मतदाता सूची में नाम जोड़ने के लिए मुश्किल प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा, जिससे बड़ी संख्या में लोग अपने वोटिंग अधिकार से वंचित हो सकते हैं।

लाइव लॉ के अनुसार, सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने चुनाव आयोग की संवैधानिक भूमिका को रेखांकित करते हुए भरोसा जताया कि आयोग कानून के मुताबिक काम करेगा। फिर भी उन्होंने याचिकाकर्ताओं को आश्वस्त किया और कहा, "हम यहां हैं, आपकी बात सुनी जाएगी।"

जस्टिस जॉयमाल्य बागची ने भी कहा कि अगर SIR नहीं हुई होती तो जनवरी 2025 की मतदाता सूची ही "शुरुआती आधार" मानी जाती। लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने कोर्ट की प्रतिबद्धता दोहराते हुए कहा, “अगर चुनाव आयोग ड्राफ्ट लिस्ट प्रकाशित करता है और आपकी चिंता है कि करीब 65 लाख मतदाता उसमें शामिल नहीं होंगे… अगर हटाने की प्रक्रिया इस तरह बड़ी संख्या में होती है तो हम तुरंत दखल देंगे। आप सिर्फ 15 लोगों को लेकर आइए जो कहें कि वे जिंदा हैं।”

आरजेडी सांसद मनोज झा की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने सुनवाई के दौरान जोर देकर कहा कि "चुनाव आयोग जानता है कि ये 65 लाख लोग कौन हैं" और अगर उनके नाम ड्राफ्ट लिस्ट में शामिल होते हैं, तो "हमें कोई आपत्ति नहीं है।" इस पर न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने सहमति जताई और कहा कि अगर “ड्राफ्ट लिस्ट में यह साफ तौर पर नजर आता है कि इन लोगों का जिक्र नहीं है,” तो याचिकाकर्ता इसे कोर्ट के संज्ञान में लाएं। अब इस मामले की आगे की सुनवाई 12 और 13 अगस्त 2025 को निर्धारित की गई है। लाइव लॉ ने अपनी रिपोर्ट में यह जानकारी दी।

SIR की आखिरी तारीख तक 65 लाख मतदाताओं को हटाने के लिए चिन्हित किया गया

27 जुलाई को चुनाव आयोग ने एसआईआर की पहली चरण की प्रक्रिया के सफल तरीके से समाप्त होने की घोषणा की। इसमें कुल 7.89 करोड़ मतदाताओं में से 7.24 करोड़ के एन्यूमरेशन फॉर्म जमा हुए। सबसे अहम बात यह रही कि आयोग ने कहा, “65 लाख मतदाताओं को आगामी मसौदा मतदाता सूची से बाहर किया जाएगा, जिसे 1 अगस्त को प्रकाशित किया जाना है।” इन 65 लाख नामों में शामिल हैं: 22 लाख मृत घोषित मतदाता, 36 लाख ऐसे मतदाता जो स्थायी रूप से स्थानांतरित हो गए हैं या जिनका कोई पता नहीं है, और 7 लाख ऐसे मतदाता जिनके नाम एक से ज्यादा जगहों पर दर्ज हैं।

ECI की 26.07.2025 की प्रेस नोट यहां पढ़ी जा सकती है



सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग द्वारा 1 अगस्त 2025 को बिहार की मसौदा मतदाता सूची (Draft Electoral Rolls) प्रकाशित करने के फैसले पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है।

सोमवार, 28 जुलाई 2025 को सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग के 1 अगस्त 2025 को बिहार की मसौदा मतदाता सूची प्रकाशित करने के निर्णय पर रोक लगाने से इनकार कर दिया, जो SIR की पूर्व घोषित अनुसूची के तहत था। ADR की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल संकरनारायणन ने अदालत से निवेदन किया था कि इस नोटिफिकेशन को रोका जाए, क्योंकि इससे लगभग 4.5 करोड़ मतदाताओं को असुविधा हो सकती है।

उन्होंने दलील दी कि एक बार जब मसौदा मतदाता सूची प्रकाशित हो जाएगी तो जिन लोगों को सूची से बाहर किया गया है उन्हें आपत्ति दर्ज कराने और अपना नाम दोबारा शामिल कराने की जटिल प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा। हालांकि, चुनाव आयोग की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने इसका विरोध करते हुए कहा कि यह "सिर्फ एक ड्राफ्ट लिस्ट" है।

न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने भी इसी बात को दोहराते हुए स्पष्ट किया कि अगर इस प्रक्रिया में कोई गैरकानूनी तत्व पाया गया, तो "अदालत पूरी प्रक्रिया को रद्द कर सकती है।” इसके बाद अधिवक्ता गोपाल संकरनारायणन ने यह अनुरोध किया कि कोर्ट यह स्पष्ट टिप्पणी करे कि पूरी प्रक्रिया लंबित याचिकाओं के नतीजों पर निर्भर होगी, लेकिन न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने इसे "अनावश्यक" बताया और कहा कि यह बात "स्वाभाविक रूप से समझी जाती है।”

विवाद का मूल मुद्दा: दस्तावेज और समावेशी दृष्टिकोण

इस पूरे विवाद का मुख्य बिंदु चुनाव आयोग द्वारा SIR प्रक्रिया के दौरान पहचान पत्रों की चयनात्मक स्वीकार्यता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपनी 10 जुलाई 2025 की प्रारंभिक आदेश में ECI से आग्रह किया था कि वह आधार कार्ड, मतदाता फोटो पहचान पत्र (EPIC), और राशन कार्ड को वैध पहचान दस्तावेज के रूप में स्वीकार करे, ताकि ज्यादा से ज़्यादा लोगों को प्रक्रिया में शामिल किया जा सके। हालांकि, चुनाव आयोग ने 21 जुलाई 2025 को दाखिल अपने जवाबी हलफनामे में इन सुझावों को लेकर आपत्तियां बरकरार रखीं।

21 जुलाई को, चुनाव आयोग द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल जवाबी हलफनामे में उप चुनाव आयुक्त संजय कुमार ने तर्क दिया कि आधार केवल पहचान का प्रमाण है, न कि नागरिकता या जन्म तिथि का दस्तावेज। उन्होंने स्पष्ट किया कि हालांकि पहचान के लिए आधार संख्या ऐच्छिक रूप से इकट्ठा की जाती है, लेकिन इसे अनुच्छेद 326 के तहत मतदाता पात्रता के एकमात्र प्रमाण के रूप में स्वीकार किए गए 11 दस्तावेजों की सूची में शामिल नहीं किया गया है।

चुनाव आयोग ने राशन कार्डों के व्यापक रूप से नकली होने की बात को एक कारण बताया कि क्यों उन्हें 11 प्राथमिक पात्रता दस्तावेजों की सूची में शामिल नहीं किया गया। हालांकि, आयोग ने यह भी स्पष्ट किया कि इलेक्टोरल रजिस्ट्री ऑफिसर्स (EROs) को यह दायित्व है कि वे प्रत्येक मामले के आधार पर प्रस्तुत किए गए सभी दस्तावेजों की जांच करें।

जहां तक EPIC (मतदाता फोटो पहचान पत्र) कार्ड का सवाल है, चुनाव आयोग ने अपने हलफनामे में कहा कि भले ही इन कार्डों के नंबर एन्यूमरेशन फॉर्म्स में पहले से भरे होते हैं और ये मतदाता पहचान के एक सहायक संकेत (derivative indicator) के रूप में काम करते हैं, लेकिन SIR के तहत मतदाता सूची की 'नई रूप से तैयारी' (de novo preparation) के दौरान इन्हें प्राथमिक पात्रता प्रमाण नहीं माना जा सकता। ECI ने यह भी स्पष्ट किया कि आधार, EPIC और राशन कार्डों को मानने का उसका आदेश केवल “पहचान के सीमित उद्देश्य” के लिए था, न कि इन्हें अनुच्छेद 326 के तहत निर्धारित पात्रता की जांच के लिए पर्याप्त या स्वतंत्र दस्तावेज माना गया है।

चुनाव आयोग की ऐसी स्थिति के बावजूद, सुप्रीम कोर्ट ने मौखिक रूप से चुनाव आयोग से आग्रह किया कि वह कम से कम “आधार और EPIC जैसे वैधानिक दस्तावेजों” को जरूर ध्यान में रखे।

29 जुलाई की सुनवाई में न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने “आधिकारिक दस्तावेजों की सत्यता की धारणा” (presumption of correctness) पर जोर दिया और चुनाव आयोग से आग्रह किया कि वह इन दो दस्तावेजों (आधार और EPIC) के साथ आगे बढ़े। उन्होंने माना कि “इस धरती पर कोई भी दस्तावेज नकली हो सकता है,” लेकिन फर्जीवाड़े को “मामले-दर-मामला” (case-to-case basis) संभाला जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने चुनाव आयोग को यह भी कहा कि “ज्यादातर मतदाताओं को बाहर निकालने (en masse exclusion) के बजाय, उन्हें अधिक से अधिक शामिल करने (en masse inclusion) की नीति अपनानी चाहिए।” लाइव लॉ ने इस रिपोर्ट को प्रकाशित किया।

याचिकाकर्ताओं की ओर से पलटवार: “गंभीर धोखाधड़ी” के आरोप

ADR द्वारा 25 जुलाई 2025 को दाखिल जवाबी हलफनामे (rejoinder) में चुनाव आयोग की दलीलों को पूरी तरह खारिज किया गया और यह कहा गया कि पूरी प्रक्रिया में गंभीर अनियमित्ताएं हैं जो मतदाता अधिकारों के लिए गंभीर खतरा पैदा करती हैं। याचिकाकर्ताओं की दलील है कि SIR आदेश में एन्यूमरेशन फॉर्म की जांच या दस्तावेज सत्यापन की कोई स्पष्ट प्रक्रिया निर्धारित नहीं की गई है। इसका नतीजा यह है कि EROs को मनमानी और अत्यधिक विवेकाधीन शक्तियां मिल गई हैं।

याचिकाकर्ताओं ने यह भी उजागर किया कि एक-एक ERO को काफी ज्यादा कार्यभार सौंपा गया है, जिसमें उन्हें 3 लाख से ज्यादा नागरिकों के एन्यूमरेशन फॉर्म निपटाने की जिम्मेदारी दी गई है। उनका तर्क है कि यह कार्यभार इतना ज्यादा है कि किसी भी ERO के लिए यह "मानवीय रूप से संभव" नहीं है कि वह सावधानीपूर्वक जांच कर सके या प्रक्रिया को उचित और न्यायसंगत ढंग से पूरा कर सके।

ADR ने चुनाव आयोग द्वारा SIR शुरू करने के दलीलों को भी चुनौती दी। आयोग ने अपनी ओर से यह कहा था कि राजनीतिक दलों की चिंताओं और 2003 के बाद किसी गहन पुनरीक्षण के न होने के कारण यह प्रक्रिया जरूरी थी। लेकिन याचिकाकर्ताओं ने इसका जवाब देते हुए कहा कि मतदाता सूची का अपडेशन एक सतत प्रक्रिया है, जो नियमित रूप से चलती रहती है। उन्होंने इसके समर्थन में बिहार के मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी की 7 जनवरी 2025 की प्रेस विज्ञप्ति का हवाला दिया, जिसमें यह कहा गया था कि SSR 2025 सफलतापूर्वक पूरा किया गया और इसके नतीजे में 7,94,466 नए मतदाताओं की वृद्धि दर्ज की गई।

उन्होंने निर्वाचन आयोग के इलेक्टोरल रोल मैनुअल (मार्च 2023) का भी हवाला दिया, जिसमें यह जिक्र है कि मतदाता सूची को निरंतर अपडेट किया जाता है और “किसी भी राज्य में विधानसभा या लोकसभा के चुनाव की अवधि समाप्त होने की तारीख से छह महीने की अवधि के भीतर यदि चुनाव होने वाले हैं, तो उस चुनावी वर्ष में स्वतः संज्ञान (suo motu) लेते हुए कोई भी नाम हटाया नहीं जाएगा।” ये अंश जवाबी हलफनामे में दर्ज किए गए।

याचिकाकर्ताओं के लिए एक बड़े विवाद का बिंदु वर्तमान विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण (SIR) की कम समयसीमा है। 

यह प्रक्रिया 24 जून 2025 को शुरू हुई थी और इसका अंतिम प्रकाशन 30 सितंबर 2025 तक निर्धारित है, यानी पूरी प्रक्रिया केवल 97 दिनों में पूरी की जानी है। याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि यह समयसीमा उत्तर-पूर्व भारत और जम्मू-कश्मीर में 2004 में हुए गहन पुनरीक्षण के लिए लिए गए छह महीनों की तुलना में काफी कम है और इससे “बहुत से पात्र मतदाता मतदान से वंचित होने के गंभीर जोखिम में पड़ जाते हैं।”

सबसे गंभीर बात जो याचिकाकर्ताओं ने उठाई है, वो है “बिहार से मिली जमीनी रिपोर्टें।”उनका  कहना है कि ये रिपोर्टें SIR की असली हकीकत दिखाती हैं जो कि पूरी तरह से मनमानी, गैरकानूनी हैं और ECI के 24 जून 2025 के अपने ही आदेश और नियमों का उल्लंघन करती हैं। इन रिपोर्टों में दावा किया गया है कि “बूथ लेवल ऑफिसर (BLO) बिना वोटरों की जानकारी या मंजूरी के बड़ी तादाद में फॉर्म अपलोड कर रहे हैं,” ताकि ECI द्वारा तय किए गए “अवास्तविक लक्ष्य” पूरे किए जा सकें।

खास तौर पर कुछ मामले सामने आए हैं, जैसे कि BLOs (बूथ लेवल ऑफिसर) वोटरों के वहां मौजूद रहे बिना उनके फॉर्म खुद साइन कर रहे हैं, वोटरों को ऐसे मैसेज आ रहे हैं कि उनका फॉर्म जमा हो गया है जबकि उन्होंने कभी फॉर्म भरा ही नहीं, और मृतकों के नाम पर भी फॉर्म भरे जा रहे हैं। याचिकाकर्ता कहते हैं कि BLOs अक्सर जमा किए गए फॉर्मों की प्राप्ति रसीद (acknowledgment receipt) नहीं दे रहे, जो ECI के नियमों के खिलाफ है। उनका दावा है कि बिहार में चल रही SIR प्रक्रिया “बिहार के वोटरों के साथ एक बड़ा धोखा है और इसे रद्द किया जाना चाहिए।”

ADR ने चुनाव आयोग के फॉर्म कलेक्शन के आंकड़ों को भी चुनौती दी है और उन्हें “बेअसर” बताया क्योंकि बिना जरूरी दस्तावेज जमा किए ड्राफ्ट मतदाता सूची में नाम शामिल करना कोई मायने नहीं रखता। ECI ने 24 जून 2025 तक 7.89 करोड़ मतदाताओं में से 7.24 करोड़ (91.69%) एन्यूमरेशन फॉर्म जमा होने की रिपोर्ट दी है, लेकिन याचिकाकर्ता कहते हैं कि “इनमें से ज्यादातर फॉर्म बिना दस्तावेजों के जमा किए गए हैं (इसलिए वे सही तरीके से भरे हुए नहीं हैं)।” वे यह भी बताते हैं कि 11 खास दस्तावेजों की मांग और आम दस्तावेज जैसे आधार, EPIC और राशन कार्ड को न स्वीकारना “स्पष्ट रूप से लोगों को बाहर रखने वाली नीति है।”

नागरिकता और प्रमाण के बोझ का सवाल

एक बुनियादी कानूनी विवाद चुनाव आयोग की नागरिकता निर्धारित करने की अधिकारिता को लेकर जारी है। ECI ने अपने जवाबी हलफनामे में कहा है कि उसके पास “अनुच्छेद 324 के तहत पूर्ण अधिकार” हैं, जिनमें पात्रता जांच, यानी नागरिकता की पड़ताल भी शामिल है। लेकिन ADR ने इस दावे को पिछले गहन पुनरीक्षणों के खिलाफ बताया है और 2004 के असम पुनरीक्षण आदेश का हवाला दिया है, जिसमें साफ कहा गया था कि “यह चुनाव पंजीकरण अधिकारियों का काम नहीं है कि वे यह तय करें कि कोई व्यक्ति भारत का नागरिक है या नहीं।”

चुनाव आयोग का यह दावा कि “नागरिकता साबित करने की जिम्मेदारी उस व्यक्ति की होती है जो मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने का दावा करता है”—इसका याचिकाकर्ताओं ने कड़ा विरोध किया है। उनका कहना है कि यह स्थिति “माननीय अदालत के लाल बाबू हुसैन (1995) 3 SCC 100 के फैसले के खिलाफ है।” उस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जिन लोगों के नाम पहले से मतदाता सूची में हैं, उनके लिए यह माना जाएगा कि उनकी प्रक्रिया पूरी हो चुकी है और उन्हें हटाने के लिए “सुनवाई का उचित अवसर” देना जरूरी है, साथ ही संदेह का आधार भी स्पष्ट किया जाना चाहिए।

ADR ने संविधान पीठ के फैसले इंदरजीत बरुआ बनाम भारत निर्वाचन आयोग (1985) 1 SCC 21 का भी हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि मौजूदा मतदाता सूची में नाम होना नागरिकता का प्राथमिक सबूत (prima facie proof) माना जाता है और “यह दिखाने की जिम्मेदारी कि वह व्यक्ति नागरिक नहीं है, आपत्ति करने वाले (objector) पर होती है।” याचिकाकर्ताओं ने ECI के लाल बाबू हुसैन मामले को अलग बताने के प्रयास को कड़ाई से खारिज किया और जोर देकर कहा कि यह फैसला “स्पष्ट रूप से कहता है कि मौजूदा सूची में नाम होना विशेष गहन पुनरीक्षण (special intensive revision) के मामलों में भी महत्व रखता है।”

याचिकाकर्ताओं का अहम दलील यह है कि SIR प्रक्रिया “राज्य के उन सभी मौजूदा मतदाताओं पर नागरिकता साबित करने का बोझ डालती है, जिनके नाम ECI ने सही प्रक्रिया के तहत पंजीकृत किए हैं।” वे सवाल उठाते हैं कि क्यों 1950 के जनप्रतिनिधि अधिनियम के तहत गैर-नागरिकों को विशिष्ट शिकायतों और सबूतों के आधार पर हटाने की स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर अतिरिक्त दस्तावेज और एन्यूमरेशन फॉर्म जमा करने की आवश्यकता को जगह दी गई है। ध्यान देने वाली बात है कि ADR ने यह भी बताया कि ECI ने “बिहार की मतदाता सूचियों में विदेशी नागरिकों या गैरकानूनी प्रवासियों के शामिल होने के खिलाफ प्राप्त शिकायतों की संख्या पर कोई डेटा प्रदान नहीं किया है।”

बिहार के मतदाता सूची संशोधन: एक अहम मोड़

चूंकि बिहार नवंबर 2025 में विधानसभा चुनाव की तैयारी में है, सुप्रीम कोर्ट में चल रही कानूनी कार्रवाई का बहुत महत्व है। याचिकाकर्ता इस बात पर जोर देते हैं कि यदि SIR को जरूरी सुरक्षा उपायों और अधिक समावेशी तरीके से ठीक नहीं किया गया, तो यह बिना किसी ठोस कारण के बड़ी संख्या में योग्य मतदाताओं को मतदान के अधिकार से वंचित कर सकता है। इसके विपरीत, चुनाव आयोग का कहना है कि SIR मतदाता सूचियों की सटीकता और शुद्धता सुनिश्चित करने के लिए बेहद जरूरी है, खासकर जब बिहार में 2003 के बाद से ऐसा कोई गहन पुनरीक्षण नहीं हुआ है।

सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि अगर बड़ी संख्या में मतदाताओं को बाहर रखा गया तो वह “हस्तक्षेप” करेगा और उसने बार-बार “सभी को शामिल करने” (en masse inclusion) पर जोर दिया है, न कि “बड़ी संख्या में बाहर करने” (en masse exclusion) पर। 12 और 13 अगस्त 2025 को होने वाली आगामी सुनवाई बिहार में मतदाता पंजीकरण के भविष्य और उसके लोकतांत्रिक प्रक्रिया की विश्वसनीयता को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।

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