पंजाब विश्वविद्यालय के पूर्व डीन ने मुख्य न्यायाधीश को लिखा पत्र: बिहार के SIR से लोकतंत्र को खतरा, निर्वाचन आयोग पर अधिकारों के अतिक्रमण और मतदाताओं के मताधिकार छिनने के आरोप

Written by sabrang india | Published on: July 29, 2025
77 वर्षीय डॉ. प्यारे लाल गर्ग ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर बिहार के “स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR)” की खामियों को उजागर किया, जिसमें उन्होंने निर्वाचन आयोग पर लाखों मतदाताओं के मताधिकार छिनने का जोखिम पैदा करने के आरोप लगाए। उन्होंने लिखा, “सबकुछ आपके पास है कि आप संविधान की रक्षा करें, लोकतंत्र को बचाएं और मताधिकार की सुरक्षा करें…।” 


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बिहार की मतदाता सूची से जुड़ा “विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR)” विवाद अब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है, जहां इसे लेकर एक असाधारण और व्यक्तिगत अपील दायर की गई है। इस पूरे मामले के केंद्र में डॉ. प्यारा लाल गर्ग द्वारा भारत निर्वाचन आयोग (ECI) पर लगाए गए गंभीर आरोप हैं, जिनमें उन्होंने इस विशेष पुनरीक्षण को किए जाने के तरीके पर सवाल उठाए हैं। 

24 जुलाई को पंजाब विश्वविद्यालय के पूर्व डीन और प्रसिद्ध चुनाव विशेषज्ञ, 77 वर्षीय डॉ. गर्ग ने भारत के प्रधान न्यायाधीश को सीधे पत्र लिखा है। उन्होंने यह पत्र किसी कानूनी पेशेवर के रूप में नहीं, बल्कि एक चिंतित नागरिक के रूप में लिखा है, जो भारतीय लोकतंत्र के भविष्य को लेकर गहरी पीड़ा और चिंता महसूस कर रहे हैं। 

उनके द्वारा बेहद सोच-समझकर लिखा गया ये पत्र उनकी गहरी चिंताओं को उजागर करता है। डॉ. गर्ग का तर्क है कि यह मुद्दा सिर्फ प्रशासनिक प्रक्रियाओं तक सीमित नहीं है। बल्कि, यह उनके लिए एक बुनियादी अधिकार- मतदान के अधिकार - की रक्षा की एक महत्वपूर्ण लड़ाई है। उनका मानना है कि यह अधिकार खासतौर पर गरीबों और हाशिए पर रहने वाले लोगों के लिए योजनाबद्ध तरीके से कमजोर किया जा रहा है। 

उनका आवेदन निर्वाचन आयोग (ECI) की कार्यप्रणाली पर सीधा आरोप है, जिसमें कई गंभीर विसंगतियों और चुनावी कानूनों के कथित उल्लंघनों को उजागर किया गया है। डॉ. गर्ग का उद्देश्य इन खामियों को सामने लाकर उन संभावित परिस्थितियों को टालना है, जिनमें लाखों लोगों को मताधिकार से वंचित किया जा सकता है और जो देश के लोकतांत्रिक आदर्शों पर एक बड़ा हमला हो सकता है। 

इस पूरे मामले का मूल विरोधाभास है: निर्वाचन आयोग (ECI) का बदलता रुख

डॉ. गर्ग ने अपने पत्र की शुरुआत निर्वाचन आयोग के निर्देशों में पाई गई एक गंभीर असंगति को उजागर करते हुए की। उन्होंने बताया कि 1 मई, 2025 को ECI ने एक निर्देश जारी किया, जिसमें यह स्वीकार किया गया कि निर्वाचक रजिस्ट्रीकरण नियम, 1960 के नियम 9 के तहत, मृत्यु पंजीकरण संबंधी आंकड़ों को भारत के रजिस्ट्रार जनरल से इलेक्ट्रॉनिक रूप से प्राप्त करना और सत्यापित करना उसकी जिम्मेदारी है। यह स्पष्ट संकेत था कि सत्यापन का जिम्मा खुद आयोग पर है। लेकिन इस स्पष्ट स्थिति के बावजूद, सिर्फ दो महीने से भी कम समय बाद, 24 जून, 2025 को ECI ने बिहार में "विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision)" का आदेश जारी कर दिया। 

डॉ. गर्ग का तर्क था कि यह नया निर्देश आयोग की पहले की स्थिति से पूरी तरह विपरीत है। पहले जहां ECI खुद डेटा को सत्यापित करने की जिम्मेदारी स्वीकार कर चुका था, वहीं अब इस नई प्रक्रिया में यह जिम्मा अचानक मतदाताओं पर डाल दिया गया है, भले ही वे पहले से पंजीकृत क्यों न हों। उन्होंने इस बदलाव को न केवल मनमाना और गैर-जिम्मेदाराना बताया, बल्कि यह भी स्पष्ट रूप से कहा कि यह निर्वाचन आयोग द्वारा पहले स्वीकार की गई कानूनी जिम्मेदारियों और स्थापित प्रक्रियाओं का उल्लंघन है। 

मुख्य चुनावी कानूनों का कथित उल्लंघन: अवैध मांगें और प्रक्रियाएं 

डॉ. गर्ग ने अपने पत्र में विस्तार से यह दर्शाया कि निर्वाचन आयोग (ECI) द्वारा शुरू की गई “विशेष गहन पुनरीक्षण” प्रक्रिया, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 (RPA, 1950) और निर्वाचक रजिस्ट्रीकरण नियम, 1960 के मौलिक प्रावधानों का सीधा उल्लंघन लगता है। उन्होंने खास तौर से इस बात पर जोर दिया कि आयोग की कथित अधिकारों का दुरूपयोग का केंद्र एक मनमाने ढंग से तैयार किए गए “एन्यूमरेशन फॉर्म” (Enumeration Form) का निर्माण और प्रयोग है। यह फॉर्म पूरी तरह से उस विधिसम्मत Form 4 से अलग है, जिसे नियम 8 के तहत वैध रूप से इस्तेमाल में लाया जाना चाहिए। 

यह नया फॉर्म न केवल प्रारूप में अलग था, बल्कि इसके सामग्री में भी अंतर था, जिसमें पहचान और नागरिकता साबित करने के लिए 11 विशेष दस्तावेजों की अवैध मांग शामिल की गई थी। 

डॉ. गर्ग ने तर्क दिया कि यह भारत के जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 (RPA, 1950) की धारा 23(4), (5), और (6) का स्पष्ट उल्लंघन है। इन धाराओं के अनुसार, पहचान के लिए आधार मांगा जा सकता है, लेकिन इसे नामों के शामिल करने या हटाने के लिए अनिवार्य शर्त नहीं बनाया जा सकता और वैकल्पिक दस्तावेजों की भी अनुमति होनी चाहिए। निर्वाचन आयोग (ECI) द्वारा बिना किसी कानूनी संशोधन के इतने व्यापक दस्तावेजों की एकतरफा मांग पूरी प्रक्रिया को अवैध बना देती है। 

स्थापित कानूनी ढांचे की अनदेखी

डॉ. गर्ग ने उल्लेख किया कि निर्वाचन आयोग को मतदाता सूची तैयार करने और उसका पुनरीक्षण करने का दायित्व “निर्धारित तरीके” से और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 (RPA, 1950) के तहत बनाए गए नियमों के अनुसार ही करना होता है, जैसा कि अधिनियम की धारा 21 में स्पष्ट किया गया है। उन्होंने यह भी जोर दिया कि धारा 19 में पंजीकरण की शर्तें स्पष्ट रूप से निर्धारित की गई हैं- मतदाता की आयु कम से कम 18 वर्ष होनी चाहिए और वह सामान्यतः संबंधित निर्वाचन क्षेत्र में निवास करता हो। 

इसके अलावा, उन्होंने धारा 20(1A) का हवाला दिया, जो स्पष्ट करता है कि निवास स्थान से अस्थायी अनुपस्थिति व्यक्ति की सामान्य आवासीय स्थिति को समाप्त नहीं करती। ECI की वर्तमान पुनरीक्षण प्रक्रिया, जिसमें व्यापक दस्तावेजों की मांग की जा रही है और सत्यापन की जिम्मेदारी मतदाताओं पर डाली जा रही है, इन मौलिक सिद्धांतों का उल्लंघन लगती है। 

नागरिकता का विवाद : अधिकार का प्रश्न

शायद डॉ. गर्ग द्वारा उठाया गया सबसे विवादास्पद मुद्दा यह था कि निर्वाचन आयोग नागरिकता के मामलों में प्रवेश करने का प्रयास कर रहा है, एक ऐसा अधिकार जो, डॉ. गर्ग के अनुसार, उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है। ECI का यह निर्देश, जिसमें जन्म और माता-पिता की ओरिजिन को विशेष तारीख के आधार पर साबित करने की मांग की गई है (1 जुलाई 1987 से पहले; 1 जुलाई 1987 और 2 दिसंबर 2004 के बीच; और 2 दिसंबर 2004 के बाद), नागरिकता अधिनियम, 1955 (संशोधित) के साथ संदिग्ध रूप से मेल खाता है।

इससे, डॉ. गर्ग ने तर्क दिया, यह संकेत मिलता है कि भारत निर्वाचन आयोग अप्रत्यक्ष रूप से सीएए-एनआरसी (CAA-NRC) से जुड़े पहलुओं को लागू करने का प्रयास कर रहा है-जबकि यह कार्य संसद और अन्य सक्षम प्राधिकरणों का है। उन्होंने एक बेहद अहम सवाल उठाया:

"क्या निर्वाचन आयोग को नागरिकता अधिकारों की व्याख्या और निर्णय करने के लिए नियुक्त किया गया है?" 

पूर्ववर्ती चुनावों को अमान्य घोषित करना और संवैधानिक संकट पैदा करना 

डॉ. गर्ग ने तर्क दिया कि निर्वाचन आयोग द्वारा 1 जनवरी 2003 को वर्तमान पुनरीक्षण के लिए "योग्यता तिथि" के रूप में संदर्भित करना अर्थात् 23 वर्ष पुरानी मतदाता सूचियों की समीक्षा करना- आयोग के संवैधानिक दायित्व से बाहर है। संविधान के अनुच्छेद 324, 326 और 328 केवल हाल ही की पिछली मतदाता सूची के आधार पर पुनरीक्षण की अनुमति देते हैं, न कि दशकों पुरानी सूचियों के आधार पर। डॉ. गर्ग का तर्क था कि यदि निर्वाचन आयोग की इन कार्यवाहियों को मान्यता दी गई, तो यह अप्रत्यक्ष रूप से सभी केंद्रीय और राज्य विधानसभाओं, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति की नियुक्तियों, और 2003 से अब तक बनाए गए सभी कानूनों और निर्णयों की वैधता पर प्रश्नचिह्न लगाएगा। उन्होंने चेतावनी दी कि इससे देश एक अभूतपूर्व संवैधानिक संकट में चला जाएगा।

जमीनी हकीकत: नौकरशाही के अदृश्य शिकार

कानूनी पेचिदगियों से परे डॉ. गर्ग ने पुरजोर तरीके से उन वास्तविक “जमीनी सच्चाइयों” को उजागर किया, जिनके चलते लाखों वास्तविक मतदाता अनिवार्य रूप से इस प्रक्रिया के शिकार बन जाएंगे।

1987 से पहले जन्मे लोगों के लिए जन्म प्रमाणपत्र की मांग को डॉ. गर्ग ने “अव्यवहार्य और पूर्णतः गैरकानूनी” बताया। उन्होंने यह भी जिक्र किया कि जन्म और मृत्यु पंजीकरण अधिनियम केवल 1969 में लागू हुआ था, जिसका मतलब है कि इससे पहले के जन्म के रिकॉर्ड अधिकांश लोगों के लिए उपलब्ध ही नहीं होंगे। 

उन्होंने आंकड़े प्रस्तुत करते हुए दिखाया कि बिहार में जन्म पंजीकरण की दर 2005-06 में केवल 6.3% थी, जबकि राष्ट्रीय औसत महज 41.4% था और सिर्फ 27.1% मामलों में ही जन्म प्रमाणपत्र उपलब्ध पाए गए।

“जो लोग दशकों पहले जन्मे हैं, वे ऐसे दस्तावेज कैसे पेश करें जो या तो कभी बने ही नहीं या बहुत ही कम जारी किए गए?”

डिजिटल डिवाइड और निरक्षरता की बाधा

डॉ. गर्ग ने भारत में व्याप्त गहरी साक्षरता गैप पर जोर दिया, विशेष रूप से बिहार जैसे राज्यों में जहां 2001 में महिला साक्षरता दर केवल 22.89% थी। उन्होंने कहा कि ऐसी आबादी से मैट्रिकुलेशन प्रमाणपत्र या पासपोर्ट की मांग करना, जहां 2001 में केवल 10.55% लोग मैट्रिक या उससे ऊपर शिक्षित थे और 2023 तक मात्र 6.5% लोगों के पास वैध पासपोर्ट था, यह बड़े पैमाने पर लोगों को बाहर करने की स्थिति बना देता है। दूर-दराज रहने वाले और गरीब नागरिकों के पास डिजिटल रिकॉर्ड तक पहुंच नहीं है और न ही ऐसे दस्तावेज हासिल करने के साधन उपलब्ध हैं।

संदिग्ध मतदाताओं का खतरा और अधिकारों का छीनना 

डॉ. गर्ग के अनुसार, सबसे गंभीर परिणाम यह हो सकता है कि लाखों लोग अपनी नागरिकता खो दें और मनमानी तरीके से मतदाता सूची से नाम हटाए जाने के आधार पर राज्यविहीन (stateless) हो जाएं। ऐसी स्थिति में, उनसे राशन और अन्य जरूरी सरकारी लाभ, यहां तक कि मौलिक अधिकार भी छिन सकते हैं। उन्होंने चेतावनी दी कि यह सब “राजनीतिक उद्देश्यों के लिए जनसांख्यिकीय बदलाव” करने की एक प्रक्रिया हो सकती है और यह भी कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में लगभग 25,000 वोट… संदेहास्पद तरीकों से चुरा लिए जा सकते हैं।

निर्वाचन आयोग की प्रक्रियात्मक विफलताएं और विसंगतियां

डॉ. गर्ग के पत्र में निर्वाचन आयोग द्वारा पुनरीक्षण प्रक्रिया के क्रियान्वयन में हुई स्पष्ट संचालनात्मक विफलताओं और विसंगतियों की ओर भी ध्यान खींचा गया। उन्होंने विशेष रूप से निम्नलिखित बिंदुओं को उजागर किया:

● प्रपत्रों और नियमों का पालन न करना: निर्वाचन आयोग ने कथित रूप से नाम जोड़ने, आपत्ति दर्ज कराने और संशोधन की प्रक्रिया में विधिक रूप से निर्धारित प्रपत्रों (जैसे प्रपत्र 6, 7, 8 आदि) और नियमों (नियम 13, 15, 16, 19, 26 - निर्वाचक रजिस्ट्रीकरण नियम, 1960) को नजरअंदाज कर दिया।
● मुद्रण और वितरण में भारी कमी: निर्वाचन आयोग की अपनी प्रेस विज्ञप्तियों के अनुसार, 10 जुलाई 2025 तक आवश्यक 158 मिलियन मतदाता प्रपत्रों में से केवल 79 मिलियन ही छापे गए थे। इसके अलावा, प्रत्येक मतदाता को अनिवार्य रूप से दो प्रपत्र देने और रसीद देने की प्रक्रिया में भी भारी कमी पाई गई। 
● संदिग्ध आंकड़े और जाली हस्ताक्षर: डॉ. गर्ग ने ऐसे मामलों का आरोप लगाया जिनमें जाली हस्ताक्षर, क्षेत्र में गए बिना ही फॉर्म अपलोड करना और एक “दोधारी तलवार” जैसी चेतावनी प्रणाली शामिल थी, जो मतदाताओं को दस्तावेज जमा करने के लिए मजबूर करती थी भले ही उनके फॉर्म उनकी जानकारी या सहमति के बिना अपलोड किए गए हों। 
● आंकड़ों की विसंगतियां: डॉ. गर्ग ने निर्वाचन आयोग द्वारा जारी किए गए आंकड़ों में विसंगतियों का हवाला दिया, जहां प्रेस विज्ञप्तियों में कुल संख्याएं मेल नहीं खाती थीं, जो “शीर्ष स्तर पर भी लापरवाही की एक स्पष्ट तस्वीर” दर्शाती हैं। 
● असत्यापित नाम हटाना: निर्वाचन आयोग ने दावा किया कि 4.1 मिलियन से ज्यादा मतदाता “अपने स्थान पर नहीं पाए गए” और 3.4 मिलियन “मृतक या स्थायी रूप से स्थानांतरित” हैं, ये सब बिना निर्णायक सत्यापन के किए गए। डॉ. गर्ग ने कहा कि ये नाम हटाना शक के दायरे में है और ये सब “राजनीतिक मनमानी” के लिए किया जा रहा है। 

डॉ. प्यारे लाल गर्ग ने अपनी इस सशक्त याचिका का समापन सर्वोच्च न्यायालय से दिल से की गई प्रार्थना के साथ किया। उन्होंने भारत के लोकतांत्रिक ढांचे के मूल में दबी कानूनी महत्वपूर्ण प्रश्नों के जवाब मांगें: 

● क्या यह पुनरीक्षण निर्वाचर कानून का खुला उल्लंघन है?
● क्या यह सार्वभौमिक मताधिकार को कमजोर करने की एक शातिर चाल है? 
● क्या यह जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 (RPA) की बुनियादी धाराओं का उल्लंघन है, खासकर गरीबों और वंचितों के खिलाफ?
● क्या निर्वाचन आयोग के पास CAA-NRC लागू करने या नागरिकता अधिकारों को परिभाषित करने का अधिकार है? 
● क्या यह पुनरीक्षण पिछले चुनावों और विधानसभाओं को पीछे जाकर अमान्य कर देगा?
● क्या निर्वाचन आयोग, समावेशन के सिद्धांत को छोड़कर, सार्वभौमिक मताधिकार के सिद्धांत को नजरअंदाज कर रहा है, जिसे संविधान सभा ने गहन चर्चा के बाद स्थापित किया था? 

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