ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी के बनारस में नौकरी के लिए तरसते युवाओं के लिए ‘टिक-टिक टाइम बम’ है बेरोजगारी, आखिर कितना ग़हरा है देश का रोजगार संकट?

Written by विजय विनीत | Published on: August 1, 2024



बनारस के चौकाघाट स्थित क्षेत्रीय सेवायोजन कार्यालय के हाल में नौकरी के लिए आए युवा अभ्यर्थियों के पीछे एक अकेली महिला छिपी थी। नाम था-साधना पटेल। वह इकलौती महिला अभ्यर्थी थीं, जो अपने पिता कृष्ण कुमार पटेल के साथ आई थीं। वह पारंपरिक साड़ी में भीड़ से अलग-थलग बाहर खड़ी थी। मीरापुर बसही की साधना की शादी बनारस के मोहनपुर वीरापट्टी में हुई है। साल 2020 में ग्रेजुएशन करने के बाद वह इसलिए नौकरी के लिए दौड़ रही हैं, क्योंकि उनके पति अजय सिंह भी बेरोजगार हैं। इनके घर का खर्च मुश्किल से चल पा रहा है। पति-पत्नी को दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ रही है।

उत्तर प्रदेश के बनारस, जिसे वाराणसी के नाम से भी जाना जाता है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है। सरकार का जोर बनारस के ज्यादा से ज्यादा युवाओं को नौकरी देने पर है, ताकि देश भर में बनारस के लुभावने आंकड़ें परोशे जा सकें। जिस हाल में रोजगार मेला लगा था, उसी से सटे एक कमरे में मेला अधिकारी दीप सिंह भी मौजूद थे। इनके दफ्तर में ही कुछ कंपनियों के प्रतिनिधि युवाओं का इंटरव्यू ले रहे थे। दीप सिंह ने ‘सबरंग इंडिया’ से बातचीत में बताया, "वित्तीय 2024-25 में हमने आठ मेले लगाए, जिसमें विभिन्न पदों पर 433 अभ्यर्थियों का चयन किया गया। 8 से 22 हजार मासिक वेतन पर सभी नियुक्तियां दी गई हैं।"

रोजगार मेले में रोहनिया के बसंत पट्टी निवासी मनोज कुमार सिंह भी पहुंचे थे। साल 2010 में ही उन्होंने ग्रेजुएशन किया। बाद में प्लंबर ग्रेड से आईटीआई पास किया। 24 सालों से उनके पास नौकरी नहीं है। तभी से वह दौड़ रहे हैं। मनोज कहते हैं, "हम तीन भाई हैं। मजूरी करते हैं, तब पेट भर पाता है। पहले हमारा घर था, जो दो महीने पहले अगलगी में जल गया। अब हम झोपड़ी में रह रहे हैं। ग्राम प्रधान श्यामलाल हमारी नहीं सुनते। कोशिश के बावजूद हमें अंत्योदय कार्ड नहीं मिला। सरकार की ओर से मिलने वाले पांच किलो राशन वाली सूची से मेरी पत्नी संगीता का नाम कटवा दिया गया। सरकार हमें न नौकरी दे पा रही हैं, न कोई काम।"


पिता के साथ रोजगार की उम्मीद में रोजगार दफ्तर के बाहर बैठी साधना पटेल

मनोज यह भी कहते हैं, "सरकारी तंत्र की खामी कहें या न्याय व्यवस्था में इंसाफ़ मिलने में देरी। उनकी जवानी के महत्वपूर्ण 24 साल ज़ाया हो गए। ग़रीबी और भुखमरी के बीच जीवन गुज़ारते हुए मां-पिता का साथ भी छूट गया।" रोजगार मेले में बनारस के कज्जाकपुरा के आकाश कुमार ने "सबरंग इंडिया" से कहा, "साल 2017 में हमने ग्रेजुएट किया। आईटीआई भी पास की, लेकिन काम नहीं मिला। माता-पिता नहीं हैं। सिर्फ दो बहने कंचन और चंचल हैं, जिनकी शादी की चिंता हमें साल रही है। इकलौता भाई हूं। जब खाने के लिए पैसे नहीं हैं  तो बहनों की शादी के बारे में कैसे सोचेंगे?" बनारस के दनियालपुर के वीरेंद्र गौतम ने साल 2016 में फिटर ग्रेड से आईटीआई पास किया था। तब से लगातार नौकरी के लिए प्रयास कर रहे हैं। दौड़ते-दौड़ते थक गए, पर कहीं कोई काम नहीं मिला। पांच भाई हैं। मजूरी करते हैं तब पेट भरता है। वह कहते हैं, "पढ़ाई-लिखाई का कोई मतलब नहीं है।"

सरकारी परिभाषा के मुताबिक़, अगर सात दिनों में एक घंटा भी कोई नौकरी या दिहाड़ी मजदूरी करता है, तो माना जाता है कि वो बेरोज़गार नहीं है। रोज़गार की ये परिभाषा अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की है, जिसे दुनिया के बाक़ी देश भी मानते हैं ताकि बेरोज़गारी के आंकड़ों की तुलना की जा सके। लेकिन सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) एक ऐसी संस्था है जो मनोज कुमार सिंह जैसे लोगों को कभी बेरोज़गार और कभी रोज़गार वालों की श्रेणी में गिनती है। यह संस्था है जो अर्थव्यवस्था से जुड़े आंकड़े जुटाती है और हर महीने बेरोज़गारी के राज्यवार आंकड़े जारी करती है। संस्था मुताबिक़, जिस दिन वो सर्वे करते हैं, अगर उस दिन कोई व्यक्ति नौकरी ढूंढ रहा है तो वो बेरोज़गार है।

बनारस में मनोज, आकाश, वीरेंद्र और साधना जैसी तमाम मिसालें मिल जाएंगी जहां पढ़ाई-लिखाई और हुनर और काबिलियत के बाद भी क्वालिटी जॉब्स युवाओं के पास नहीं है। कई युवा ऐसा हैं जो महीने में कुछ रोज बगैर भोजन के सोने को मजबूर हैं। बनारस के इन युवाओं को इस बात की चिंता है कि सरकारी नौकरियों में वेकैंसी निकलने, परीक्षा पास करने और जॉइन करने में इतना वक्त गुजर जाता है कि उम्र ही निकल जाती है। बेरोज़गारी की कई ऐसी कहानियां हैं जहां वैकेंसी के इंतजार में स्टूडेंट्स सालों से खड़े हैं। कहीं ज़मीन बेचकर पिता बेटे की नौकरी लगने के इंतजार में ख़ुद भूखे सो रहे हैं और बेटे को पैसा भेज रहे हैं तो कहीं मां अपनी बीमारी के इलाज का पैसा बेटी को दे कर, उसकी नौकरी लगने का इंतजार कर रही है। कई छात्र ऐसे हैं जो दो गिलास पानी पी कर सो रहे हैं और अपने बचे पैसे का इस्तेमाल किताब खरीदने के लिए कर रहे हैं।

रोजगार मेले का हाल
 
बनारस के क्षेत्रीय सेवायोजन कार्यालय में लगे मेले में गुड़गांव स्थित आईसीआईसीआई बैंक से आए असिस्टेंट मैनेजर प्रवीन सिंह ने अपना परिचय देते हुए बताया कि हम नीट के माध्यम से डिप्टी मैनेजर (रिलेशनशिप) के पद पर अभ्यर्थियों के भर्ती करेंगे। बनारस में अब तक हम 30 युवाओं को नौकरियां दे चुके हैं। हम जुनूनी ग्रेजुएट युवाओं की तलाश कर रहे हैं। हमारे बैंक में रुचि रखने वाला कोई भी अभ्यर्थी अपना पंजीकरण करा सकता है। शुरुआती  दिनों में प्रशिक्षण देंगे। हम आपको बातचीत, भाषा और ड्रेस सेंस के बारे में सिखाएंगे। प्रशिक्षण के बाद करीब 25,000 रुपये प्रतिमाह वेतन दिए जाएंगे।

रोजगार कार्यालय में मौजूद युवाओं रुझान बहुत ज्यादा सकारात्मक नहीं था। उत्तर भारत के छोटे शहरों में ये रोजगार मेले इसलिए लगाए जा रहे हैं ताकि बेरोजगार युवाओं को सैद्धांतिक रूप से काम के अवसर दिए जाएं। रोजगार मेले में एक टेबल मनोज सोनी की थी, जहां वो एलआईसी में बीमा एजेंटों की नियुक्ति के लिए आए थे। उनकी कोशिश यह थी कि अधिक से अधिक युवा उनके साथ एजेंट के तौर पर जुड़ जाए, जिससे वो अपनी ग्रोथ को बढ़ा सकें। मनीष कुमार एलआईसी के सारनाथ ब्रांच में विकास अधिकारी हैं। वह कहते हैं, "एलआईसी में हमें 17 एजेंटों की जरूरत है। योग्यता मैट्रिक पास होनी चाहिए। लाइसेंस कोड के लिए अभ्यर्थियों को परीक्षा देनी होगी। बाद में अभ्यर्थी फुल और पार्ट टाइम जाब कर सकता है।"

इसी बीच कुछ युवा मेला अधिकारी दीप कुमार के कमरे में कुछ युवा पूछने के लिए आते हैं तो वह कहते हैं, "देखिए, मैं आप सभी को बार-बार बताता रहता हूं। बनारस छोड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए। आप जीवन भर यहां नहीं रह सकते। जिस तरह के मौके आपको बाहर मिलेंगे, वह आपको यहां नहीं मिलेंगे। ऐसा नहीं है कि वे आपको देश छोड़ने के लिए कह रहे हैं। आप कभी भी घर आ सकते हैं।"  

रोजगार का दावा और हकीकत
 
मेला अधिकारी दीप सिंह अपनी उपलब्धियों का बखान करते हुए कहते हैं, "पिछले साल 01 अप्रैल 2023-24 में कुल 37 मेले लगाए गए। इन मेलों में 1195 नियोजकों ने भाग लिया, जिन्होंने 17 हजार 035 अभ्यर्थियों को नौकरी दी। साल 2022-23 में 38 मेले लगाए गए, जिसमें कुल 6 हजार 003 अभ्यर्थी चयनित किए गए। साल 2021-22 में 20 मेले लगाए गए थे और 4 हजार 056 अभ्यर्थियों की नियुक्तियां हुई। रोजगार मेलों में भाग लेने वाले करीब 1,000 नौकरी चाहने वालों में से लगभग 10 फीसदी सफल होते हैं, क्योंकि ज्यादातर युवाओं के पास कौशल विकास का अभाव होता है।"

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दावा करते हैं कि, "यूपी में बेरोजगारी दर 2017-18 में जहां 6.2 फीसदी थी, आज 2.4 फीसदी रह गई है। महिला श्रम बल में अभूतपूर्व सुधार हुआ है। सच यह कि सूबे में साल 2017-18 में बेरोजगारी 13.5 फीसदी थी और आज 2022-23 में 31.2 फीसदी पर पहुंच गई है।" मुख्यमंत्री दावा करते हैं कि साल 2023 में आई पर्यटन मंत्रालय की ओर से आई रिपोर्ट के अनुसार 2022 में उत्तर प्रदेश सर्वाधिक पर्यटक आगमन वाला प्रदेश हो गया है। साल 2022-23 में प्रदेश में 31.8 करोड़ पर्यटकों का आगमन हुआ। वाराणसी, मथुरा और अयोध्या इसके प्रमुख केंद्र बनकर उभरे हैं। लेकिन इससे रोजगार पर कितना असर पड़ा, इसका कोई ठोस आंकड़ा सरकार के पास नहीं है।

उत्तर प्रदेश की विधान सभा और विधान परिषद में समाजवादी पार्टी योगी सरकार को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ रही है। 31 जुलाई 2024 को बनारस खंड के स्नातक एमएलसी (सपा) आशुतोष सिन्हा ने विधान परिषद में नौकरियों पर सवाल उठाते हुए विभिन्न विभागों में कई साल से खाली पड़े पदों के लिए सेवायोजन मंत्री से जवाब मांगा। सदन में आशुतोष ने कहा, " इलाहाबाद, सरकारी नौकरियों की तैयारी के लिए एक प्रमुख केंद्र माना जाता है, लेकिन अब वहां वह रौनक नहीं रह गई। नौकरी के अभाव में युवा अब तैयारी करने में भी पीछे हट रहे हैं। प्रदेश में शिक्षकों के 50 हजार से अधिक पद खाली हैं, यह जानकारी यूपी सरकार ने 12 जून 2020 को सुप्रीम कोर्ट को दी थी। सरकार ने तब बताया था कि प्राथमिक स्कूलों में 51 हजार 112 शिक्षकों के पद खाली थे, और इसके बाद हर साल हजारों की संख्या में शिक्षकों की सेवानिवृत्ति हुई, जिससे खाली पदों की संख्या बढ़ चुकी है। साल 2018 के बाद से इन पदों पर नियुक्ति प्रक्रिया ही शुरू नहीं हो सकी है।"



महिला रोजगार की स्थिति पर भी चिंता जताते हुए एमएलसी आशुतोष सिन्हा ने सदन में यह भी कहा कि, "उत्तर प्रदेश में महिलाओं की बेरोजगारी दर 22.6 फीसदी है, जबकि 2017 में यह 16.9 फीसदी थी। साल दर साल के आंकड़ों के अनुसार, महिलाओं की बेरोजगारी दर में कमी की बजाय वृद्धि हुई है। साल 2017 से अब तक इस दर में 5.7 फीसदी की बढ़ोतरी हो चुकी है।"

सेवायोजन मंत्री अनिल राजभर पर आरोप लगाते हुए आशुतोष ने कहा कि वह सदन को लगातार गुमराह कर रहे हैं। उन्होंने कहा, "श्रम और सेवायोजन विभाग की ओर से कहा जाता कि सरकारी नौकरियों के विषय में कोई कार्रवाई नहीं की जाती, जबकि सेवायोजन की वेबसाइट पर सरकारी नौकरियों के आवेदन के लिंक और फार्म उपलब्ध हैं। इससे स्पष्ट होता है कि मंत्री को आंकड़े न देने के लिए सदन को गलत जानकारी दी जा रही है। सरकार केवल सदन ही नहीं, बल्कि प्रदेश के युवाओं और बेरोजगारों को भी गुमराह कर रही है।"

इससे पहले बजट सत्र के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ का बयान आते ही सपा एमएलसी आशुतोष सिन्हा ने विधान परिषद में बेरोजगारी के मुद्दे पर सरकार को घेरते हुए कहा था कि, "रोजगार के सभी आंकड़े झूठे हैं।" श्रम एवं सेवायोजन की वेबसाइट का हवाला देते हुए बताया था कि 46 लाख, 53 हज़ार 753 पंजीकृत युवाओं के सापेक्ष सिर्फ 09 हज़ार 837 लोगों को ही यूपी सरकार रोजगार उपलब्ध करा पाई है, जो कि कुल संख्या का सिर्फ 0.2 फीसदी है। उत्तर प्रदेश में आज एक पद के लिए 473 दावेदार खड़े हैं। बेरोज़गारी की विभीषिका चरम पर है और सरकार के आंकड़े ऊंट के मुंह में जीरा के समान हैं। देश के सभी राज्यों से यूपी में बेरोजगारी की दर सर्वाधिक है। यहां नौकरी की तलाश करते हुए थक चुके नौजवानों की संख्या 2017 में 9.93 लाख थी, जो अब बढ़कर 29.72 लाख तक पहुंच गई है।

एमएलसी आशुतोष सिन्हा ने उत्तर प्रदेश में लगने वाले रोजगार मेलों का हवाला देते हुए यह भी कहा, "मेले में कंपनियां टारगेट बेस पर अभ्यर्थियों का चयन करती हैं और टारगेट पूरा न होने पर उन्हें नौकरी से निकाल देती हैं। इस तरह से इन रोजगार मेलों से चयनित कुल अभ्यर्थियों में से केवल दस फीसदी अभ्यर्थी ही अपनी नौकरी को कांटीन्यू कर पाते हैं। इससे साफ पता चलता है कि योगी सरकार के युवाओं को रोजगार देने के आंकड़े झूठे और भ्रामक हैं। साल 2018 से अब तक दर्जन भर भर्तियां आईं, लेकिन नियुक्तियां नहीं हुई। हजारों युवक नौकरी पाने के लिए इंतजार में बैठे हैं।"

उत्तर प्रदेश की विधानसभा में 01 अगस्त 2024 को नेता प्रतिपक्ष माता प्रसाद पांडेय भी बेरोजगारी के मुद्दे पर सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की। उन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से सवाल करते हुए कहा, "सूबे में बेरोजगारों की बड़ी फौज खड़ी हो रही है। यूपी दुनिया का सबसे बड़ा राज्य है, जहां सर्वाधिक बेरोजगार हैं। युवाओं को बेरोजगारी भत्ता देने के लिए हमने बहुत लड़ाइयां लड़ीं। लाठियां खाईं और जेल भी गए। बेरोजगारी दूर करने के मामले में सरकार गंभीर नजर नहीं आ रही है। राज्य में काम करने वाली उन कंपनियों पर नजर रखने की जरूरत है जो संविदा कर्मचारी रखते हैं और उनके पैसा भी काट लिया करते हैं।" सदन में सपा विधायक रागिनी सोनकर ने बेरोजगारी का मुद्दा उठाते हुए कहा, सैमसंग जैसी कंपनी यूपी छोड़कर जा रही है। सरकार ने 35 लाख करोड़ के निवेश प्रस्ताव में सिर्फ एक करोड़ का ही निवेश हुआ।
 
आंकड़े बताते हैं कि यूपी में युवाओं को रोजगार देने के मामले में सरकार सही मायने में फिसड्डी साबित हो रही है। CMIE के आंकड़ों पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि पिछले सूबे में एक दशक में बेरोजगारी दर आश्चर्यजनक रूप से बढ़ी है। इनमें शिक्षित युवा सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं, विशेष रूप से बड़े शहरों के बाहर के कॉलेज स्नातक, जिन्होंने कृषि, इतिहास, अंग्रेजी, दर्शन और संचार जैसे विषयों का अध्ययन किया है। उनकी योग्यताओं को पूरा करने वाली नौकरियां मिलना कठिन और लगातार असंभव होता जा रहा है। महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ में पीएचडी की स्टूडेंट प्रज्ञा सिंह कहती हैं, "एक ओर, यूपी के ज्यादातर युवा खुद को शारीरिक श्रम वाली नौकरियों के लिए अयोग्य पाते हैं, दूसरी ओर, उनके पास आईटी और पेशेवर सेवाओं में उच्च वेतन वाली नौकरियों के लिए जरूरी तकनीकी कौशल का अभाव है। सामाजिक विज्ञान के छात्र आमतौर पर पत्रकारिता, शिक्षा, परामर्श के क्षेत्र में जिन नौकरियों की ओर आकर्षित होते हैं, वे दिल्ली, मुंबई और बैंगलोर जैसे शहरों में  है और महानगरों में यूपी के युवाओं की पहुंच बहुत कम हैं।"

प्रज्ञा यह भी कहती हैं, "आज के युवा ऐसी नौकरी चाहते हैं जिसमें पीएफ कटे, जहां छुट्टियां मिले, जो पेड हों, जहां मैटरनिटी लीव मिले। बढ़ती बेरोज़गारी का सबसे बड़ा असर महिलाओं पर पड़ रहा है, जो पीछे छूटती जा रहीं हैं। गौर करने की बात है कि देश की आधी आबादी अगर पुरुषों के मुकाबले उतना ही कमाएगी, तो हर घर कितना खुशहाल होगा। पूर्वांचल में काम में लगे कुल लोगों के दो फीसदी के क़रीब ही ऐसे हैं जिनके पास औपचारिक नौकरी और रिटायरमेंट योजना, स्वास्थ्य बीमा, मातृत्व बीमा या तीन से अधिक की नौकरी की सुरक्षा वाले कांट्रेक्ट जैसी सामाजिक सुरक्षा है। इसके अलावा नौ फ़ीसदी लोगों के पास ही ऐसी नौकरी है जो उन्हें कम से कम सामाजिक सुरक्षा का फ़ायदा देती है।"



सपने दिखाए, पूरे नहीं किए
 
उत्तर भारत में बनारस शहर देश के सबसे पुराने शहरों में से एक है और हिंदू धर्म का धड़कता हुआ दिल माना जाता है। इस शहर पर बीजेपी ने तब से ज्यादा ध्यान दिया है जब से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने यहां से चुनाव लड़ने का फैसला किया। बनारस कई मायने में दूसरे शहरों से अलग है। इस शहर में जनसंख्या का घनत्व बहुत ज्यादा है, लेकिन प्रमुख महानगरों जितना विकसित नहीं हुआ है। मोदी ने पीएम पद की कुर्सी संभाली तो उन्होंने पर्यटन को बढ़ाने, युवाओं को रोजगार व नौकरी और राजस्व को बढ़ाने पर विशेष जोर दिया।

बनारस में ज्यादतर लोग पीढ़ियों से चले आ रहे पारंपरिक व्यवसाय जैसे नाविक, मंदिर के पुजारी, बुनकर, दाह संस्कार करने वाले, उभरते पर्यटन उद्योग में नौकरियां, जिनमें होटल व्यवसायी, रेस्तरां मालिक, दुकानदार और रिक्शा चालक शामिल हैं। प्रशासन, स्कूलों, कॉलेजों और रेलवे में सरकारी नौकरियां हैं। यह शहर अग्रणी विश्वविद्यालयों के साथ एक शैक्षिक केंद्र भी रहा है, जो राज्य के आसपास के क्षेत्रों के साथ-साथ देश भर से छात्रों को आकर्षित करता है। यह सब इसे भारत में युवा बेरोजगारी के संकट का अध्ययन करने के लिए एक सूक्ष्म जगत बनाता है।

बनारस जैसे शहरों में सरकार ही सबसे बड़ी नियोक्ता है। युवा, सिविल सेवा, रेलवे और शिक्षण में नौकरी के के लिए आवेदन करने में अपना कई साल बिता देते हैं। लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र की रिक्तियों में धीरे-धीरे कमी के परिणामस्वरूप सरकारी कार्यालयों में सबसे कनिष्ठ पदों के लिए भी कड़ी प्रतिस्पर्धा खड़ी हो गई है। सरकारी नौकरियों में सफलता की दर सिर्फ 0.2 फीसदी है। डॉक्टरेट डिग्री, इंजीनियरिंग और एमबीए स्नातक वाले व्यक्ति उन हजारों लोगों में से हैं जो सड़क-सफाई कर्मचारी, होमगार्ड अथवा अर्दली के रूप में नौकरियों के लिए आवेदन करते हैं, जिसके लिए सिर्फ पांचवीं कक्षा की शिक्षा की जरूरत होती है।

आकांक्षा आजाद ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में पहले राजनीति विज्ञान में पोस्ट ग्रेजुएट किया और बाद में एमफिल की पढ़ाई पूरी की। बीएचयू बनारस का एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय है और यूपी के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है। इस  विश्वविद्यालय की बाहरी चमक से हर कोई प्रभावित हो जाता है, लेकिन यहां पढ़ने वाले स्टूडेंट्स सच को जानते हैं। आकांक्षा कहती हैं,  "किसी विश्वविद्यालय में शिक्षा की गुणवत्ता भाग्य पर निर्भर करती है। यदि आपको एक अच्छा प्रोफेसर मिलता है, तो वे नियमित कक्षाएं लेगा, लेकिन अगर आपको एक लापरवाह प्रोफेसर मिलता है पढ़ाई चौपट हो जाती है। बीएचयू में बहुत सारे प्रोफेसर मानक के अनुरूप स्टूडेंट्स को तैयार नहीं करते हैं। वो एक व्हाट्सएप संदेश भेजेंगे जिसमें कहा जाएगा कि इस कारण या उस कारण से आज कक्षा रद्द कर दी गई है। नतीजतन, छात्रों को पाठ्यक्रम के बड़े हिस्से की पढ़ाई खुद करने के लिए छोड़ दिया जाता है।"

आकांक्षा के मुताबिक, "सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में छात्रों के बीच गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को लेकर चिंता आम है। यही वजह है कि सौ स्टूडेंट्स में सिर्फ दो के पास नौकरियां ही आ पाती हैं। मौजूदा दौर में हर कोई किसी न किसी तरह से स्थिरता खोजने की कोशिश कर रहा है। ज्यादातर स्टूडेंट्स पहले सरकारी नौकरी के लिए प्रयास करते हैं, लेकिन जब वह नहीं मिलती तो प्राइवेट जाब की तलाश करते हैं। कुछ स्टूडेंट्स बीएचयू में अच्छे वजीफे के चलते पीएचडी करने का प्रयास करते हैं, लेकिन उन्हें वह भी नहीं मिल रहा है।"



नौकरी के लिए भटकता मनोज


पत्रकारिता की डिग्री बेकार
 
संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग के शिक्षक रुद्रानंद तिवारी बेबाकी से कहते हैं, "दुनिया में भारत ऐसा देश है जहां सबसे ज्यादा पत्रकार बेरोजगार हैं। यूपी के लखनऊ और बनारस में स्थिति बहुत ज्यादा गंभीर है। बनारस के सभी विश्वविद्यालय युवाओं को सिर्फ पत्रकारिता की डिग्री बांटते हैं। पूर्वांचल के किसी भी विश्वविद्यालय अथवा कालेज में पत्रकारिता पढ़ने वाले युवाओँ को कौशल विकास की ट्रेनिंग देने का कोई इंतजाम नहीं है। इनके पास न ट्रेनर हैं और न ही योग्य शिक्षक। जिन युवाओं ने फौलादी इरादों के साथ पत्रकारिता की डिग्री ली है, उनमें नौकरी ढूंढने के लिए मारा-मारी है…होड़ है…छटपटाहट और उतावलापन है। ढेरों ख्वाब और सारी रुमानियत भरभराकर गिरने लगी है…। इरादे टूटने लगे हैं…। यथार्थ की कठोरता हौसला डिगाने लगी है…। नौकरी की कौन कहे? अखबारों के मालिक युवा जर्नलिस्टों को इंटर्न तक कराने के लिए तैयार नहीं हैं। स्टूडेंट्स जब पत्रकारिता की डिग्री लेकर निकलते हैं तो रोजगार के एक बड़े संकट से उनका साबका पड़ता है। नौकरियां नहीं मिलती तो वो हताशा और निराशा के शिकार हो जाते हैं।"

जर्नलिस्ट गुरु रुद्रानंद यह भी कहते हैं, "अभिव्यक्ति की आजादी और नैतिकता जैसी सीख लेकर युवा जब पत्रकारिता डिग्री लेने आते हैं तो मन में ढेरों सपने होते हैं। सुनहरे ख्वाह होते हैं। पढ़कर निकलते हैं तो सामने दिखती हैं खुरदुरी चट्टानें। ऐसी चट्टानें जिसे लांघ पाना हर किसी के बूते में नहीं होता। पत्रकारिता में अब दिखता और है, सच कुछ और होता है। पत्रकारिता पढ़ाने वाले अधिकांश प्रोफेसरों को पत्रकारिता की दुनिया का कोई व्यावहारिक अनुभव नहीं होता है। ऐसे में उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है कि वो स्टूडेंट्स को मीडिया के नए जमाने का तौर-तरीका सिखा पाएंगे। बनारस में कोई ऐसा विश्वविद्यालय नहीं है जो पत्रकारिता की बढ़ाई करने वाले स्टूडेंट्स को प्लेसमेंट के लिए तैयार करता हो। पत्रकारिता पढ़ने वाले यदि किसी छात्र को नौकरी मिलती है, तो यह उनकी अपनी पहल पर मिलती है। स्टूडेंट्स को रोजगार दिलाने की सबसे बुनियादी जिम्मेदारी विश्वविद्यालयों की है, लेकिन वो इस दिशा में सार्थक पहल नहीं कर पा रहे हैं।"

काशी विद्यापीठ में सांख्यिकी के एसोसिएट प्रोफेसर रमन पंत, जो कैंपस प्लेसमेंट सुनिश्चित करने के लिए रोजगार ब्यूरो का प्रबंधन करते हैं। वह प्रचलित बेरोजगारी के लिए बड़े पैमाने पर छात्रों को ही दोषी मानते हैं। रमन कहते हैं, "ज्यादातर स्टूडेंट्स निजी क्षेत्र के प्रति पक्षपाती होते हैं। उनका जोर सरकारी नौकरियों पर होता है। जब हम निजी कंपनियों को कैंपस में बुलाते हैं, तब भी कोई नहीं आता है। दूसरी बात, ज्यादातर स्टूडेंट्स के पास कौशल की कमी है। उनके पास विचार हैं, लेकिन वे नहीं जानते कि उन्हें खुद को नौकरियों के लिए कैसे तैयार करना है। अब रोजगार ब्यूरो ने संचार कार्यशालाओं का आयोजन शुरू कर दिया है, जो बुनियादी लग सकता है, लेकिन कौशल विकास के लिए ऐसा करना जरूरी है। बनारस में ज्यादातर स्टूडेंट्स गांवों से पलायन करके आते हैं और वो गुणवत्तायुक्त शिक्षण व प्रशिक्षण पर शुरू से ही ध्यान नहीं देते।"

बढ़ रहीं सुसाइड की घटनाएं
 
बनारस में परिवारों से अपेक्षाओं का बोझ और नौकरी पाने का दबाव छात्रों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालता है। बीएचयू में इतिहास के स्नातक स्टूडेंट रहे आदर्श कुमार कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में स्टूडेंट्स के सुसाइड करने की खबरों की तादाद बढ़ने लगी हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, 2017 से 2021 तक भारत में छात्रों की आत्महत्या में 30 फीसदी से अधिक की वृद्धि हुई। बनारस से प्रकाशित होने वाले अखबार दैनिक “अमर उजाला” ने हाल में एक रिपोर्ट प्रकाशित की है, जिसमें कहा गया है कि राजघाट स्थित मालवीय पुल शहर में एक नया सुसाइड प्वाइंट बन गया है। अखबार लिखता है कि, "एक हफ्ते में दो महिलाओं ने पुल से गंगा में कूदकर जान देने की कोशिश की। संयोग अच्छा था कि मछली पकड़ने वाले मल्लाहों ने उन्हें बचा लिया। इस साल जनवरी से अब तक 19 लोगों ने मालवीय पुल से गंगा में छलांग लगाई, जिनमें कई बेरोजगार थे। इनमें सिर्फ सात लोग ही बचाए जा सके।"



"साल 1887 में तैयार हुए 1048.5 मीटर लंबे डबल डेकर मालवीय पुल के नीचे ट्रेन गुजरती है और ऊपर सड़क बनी है। सुसाइड करने वालों के लिए यह पुल हाट स्पाट सरीखा हो गया है। जल पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक साल 2023 में मालवीय पुल से 28 लोगों ने छलांग लगाई थी। इसमें नौ लोग बचा लिए गए थे और अन्य गंगा की जलधारा में समा गए थे। इसके बावजूद प्रसासन ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया। जल पुलिस के मुताबिक, मालवीय पुल से छलांग लगाने वालों में 70 फीसदी महिलाएं होती हैं, जो बेरोजगारी, घरेलू कलह, प्यार-मुहब्बत में धोखा अथवा माता-पिता की डाट-फटकार के चलते जान देने की कोशिश करती हैं।"

एक्टिविस्ट मुनीजा खान कहती हैं, "साल 1990 के दशक में उदारीकरण की लहर में फंसे भारत ने निजी और विदेशी निवेश के लिए रास्ता बनाने के लिए राज्य सब्सिडी और संरक्षणवादी नीतियों को हटा दिया। उदारीकरण से आर्थिक विकास तो हुआ, लेकिन भारत में विनिर्माण क्षेत्र का विस्तार नहीं हुआ। इसके बजाय, भारतीय शहरों में नए तरह की नौकरियों का प्रसार देखा गया, विशेष रूप से आईटी और आईटी-सक्षम सेवा उद्योगों में उच्च-कुशल नौकरियां, जिसके कारण भारत में सॉफ्टवेयर में उछाल आया। इस क्षेत्र में पेशेवरों का केवल एक छोटा, विशिष्ट समूह कार्यरत था। सेवा क्षेत्र में अन्य नौकरियां, मनोरंजन, खुदरा, परिवहन, हाउस कीपिंग और चिकित्सा सेवाओं में कम कुशल थीं, जिनमें कम वेतन और कम सुरक्षा थी।"

मुनीजा कहती हैं, "साल 1950 में, यूपी में छह विश्वविद्यालय और 40 कॉलेज थे जिनमें लगभग 50 हजार स्टूडेंट्स पढ़ते थे। सहस्राब्दी की शुरुआत में, यह संख्या राज्य में 27 विश्वविद्यालयों और 763 कॉलेजों तक पहुंच गई। उदारीकरण के दौर में युवा बेरोजगारों को एक ऐसे मुद्दे में बदल दिया जो सतह के नीचे उबल रहा था। बाद में वह एक बड़े संकट के रूप में तब्दील हो गया। भारतीय अर्थव्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन आने की एक बड़ी वजह सालाना परीक्षाओं के समय रटने को प्राथमिकता देना रहा। ऐन वक्त पर शिक्षक और छात्र दोनों परीक्षा की तैयारी और सफलता पर ध्यान देते हैं और बाकी समय स्टूडेंट्स के कौशल विकास पर तनिक भी जोर नहीं देते। मौजूदा समय में युवा उन नौकरियों के लिए प्रशिक्षण से गुजरने के लिए अनिच्छुक हैं जो पहले स्थान पर सुरक्षित रोजगार की उनकी अपेक्षाओं को पूरा नहीं करते हैं। इसलिए, वो सरकारी नौकरियों की ओर रुख करते हैं। नौकरशाही, लालफीताशाही और अक्षमता के संयोजन के कारण प्रमुख सरकारी क्षेत्रों में रिक्तियां वर्षों तक अधूरी रह जाती हैं।"

पेपर लीक होने से युवा हताश
 
यूपी में नौकरियों के लिए भर्ती कार्यक्रम नियमित तौर पर नहीं चलाए जाते हैं। सरकारी नौकरियों के लिए ज्यादातर परीक्षाएं हर तीन से पांच साल में एक बार आयोजित होती हैं। परीक्षाओं के पेपर हर बार लीक हो जाते हैं, जिससे परिणाम शून्य हो जाता है और आवेदक निराश हो जाते हैं। रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार, भर्ती प्रक्रिया के हर स्तर पर व्याप्त है, जिससे सभी चयन संदिग्ध हो जाते हैं। नतीजतन, युवा अधर में लटके हुए हैं और उन अवसरों की प्रतीक्षा में अपने सर्वोत्तम साल यूं ही गुजार देने के लिए अभिशप्त हैं। इनके सपने इसलिए टूट जाया करते हैं कि पिछले एक दशक में रिक्तियां लगातार सिकुड़ती जा रही हैं।

 वाराणसी के वरिष्ठ पत्रकार राजीव मौर्य कहते हैं, "लोगों को अब चुनावी वादों के आधार पर नौकरियां मिल रही हैं। देश के किसी राज्य में नियुक्तियां तभी आती हैं जब चुनाव नजदीक होते है। सरकार बेरोजगारी को विकासात्मक मुद्दे के बजाय चुनावी मुद्दे के रूप में देखती है, और रणनीतिक रूप से चुनावी लाभ के लिए भर्ती अभियान और नौकरी आरक्षण की लुभावनी घोषणाएं करती हैं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पूर्वांचल के युवाओं में एक भरोसा जगा था कि उनकी दुनिया बदलने वाली है। सरकार ने युवाओं को दो करोड़ नौकिरयां बांटने का दावा भी किया था। अखबारों में इस आशय के इस्तेहार तक छपवाए गए थे कि जहां रोशनी नहीं पहुंची है, वहां रोजगार पहुंचेगा, लेकिन सारे वादे छलावा साबित हुए।"

राजीव कहते हैं, "सरकार ने पिछले साल अग्निवीर योजना शुरू किया तो उसका जमकर विरोध हुआ। सेना में पदों को पूर्णकालिक नौकरियों से चार साल के संविदात्मक पदों में बदल दिया गया। विश्व बैंक के आंकड़ों पर गौर करें तो पाएंगे कि भारत में युवाओं की बेरोजगारी एक टिक-टिक टाइम बम है, जो हर वक्त सिहरन पैदा कर रही है। देश का लगभग एक तिहाई युवा काम नहीं कर रहा है, अध्ययन नहीं कर रहा है अथवा ट्रेनिंग नहीं ले रहा है। सवाल यह है कि वे क्या कर रहे हैं? दुनिया में भारत युवाओं का सबसे बड़ा देश है। सरकार बेरोजगारी दूर करने का दावा तभी करती है जब चुनाव नजदीक होता है। बाकी समय सरकार युवाओं को धार्मिक झमेलों में उलझाकर उनके लक्ष्य से कोसों दूर कर देती है।"




झूठी है मोदी की गारंटी
 
रोजगार के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में कामगारों के सामने जबर्दस्त संकट है। बनारस, यूपी का इकलौता ऐसा शहर है जहां दर्जन भर स्थानों पर रोजाना मजदूरों की मंडियां लगती है। इस मंडी में हर रोज हजारों मजदूरों के अरमान बेचे और खरीदे जाते हैं। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले ये मजूदर अब अपने सांसद नरेंद्र मोदी से यह सवाल पूछ रहे हैं कि चुनाव के समय उन्होंने जिस गारंटी की बात कही थी, वह कहां हैं और रोजगार की गारंटी कब देंगे? बनारस की लेबर मंडियों में पूर्वांचल के अलावा बिहार राज्य के भी कामगार रोजगार की तलाश में आते हैं। खासतौर पर वो लोग जिनके न बच्चे पढ़ पा रहे हैं और न ही बेटियों की शादी हो पा रही है...!

कमालपुर के 45 वर्षीय अमृतलाल हुकुलगंज स्थित मजदूरों की मंडी में आकर रोज खड़े हो जाते हैं, लेकिन काम कभी-कभार ही मिल पाता है। इनके चार बच्चे हैं। महीने भर तक जद्दोजहद करने के बाद वो सिर्फ आठ-दस हजार ही कमा पाते हैं। वह कहते हैं, "हम ईंटों की चिनाई का काम करते हैं, लेकिन दो वक्त की रोटी जुटा पाना मुश्किल हो गया है। हमारी बेटी सुनैना जवान हो गई हैं। हमें उसकी शादी की चिंता खाए जा रही है। पास में फूटी कौड़ी नहीं है। बेटियों के हाथ कैसे पीले होंगे, इस बात को लेकर हम परेशान हैं। यह समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर मोदी की गारंटी क्या है? "

बनारस में हुकुलगंज, मैदागिन, गोदौलिया, चेतगंज, सारनाथ, गुरुधाम, पांडेयपुर, सोनारपुरा, चंदुआ सट्टी, अर्दलीबाजार समेत दर्जन भर स्थानों पर मजदूरों की मंडियां लगती हैं और ज्यादातर दिहाड़ी मजदूरों की शिकायत यह है कि अधिक तनाव और ज्यादा काम के चलते उन्हें आंखों में जलन, उल्टी और सिर दर्द जैसी समस्या है। काम न करें तो ठीक भी हो जाते हैं। लेकिन काम कैसे छोड़ सकते हैं। मजबूरी है। हमारे न इलाज का कोई इंतजाम है और न ही मोदी सरकार काम की गारंटी दे रही है।

काम ढूंढने के लिए बिलबिला रहे चोलापुर के 26 वर्षीय गुड्डू राजभर और 35 वर्षीय राजन के पैरों में फटा हुआ जूता था, जिसमें से फटी हुई बिवाइयां साफ-साफ दिख रही थीं। राजन कहते हैं, "हम निचले सामाजिक-आर्थिक तबक़े से आते हैं और जानकारी के अभाव में सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं से भी वंचित रह जाते हैं। मोदी-योगी सरकार से मदद की उम्मीद लिए हर दिन बोझा उठाने निकलना पड़ता है। कभी-कभी हमें अपने हक के पैसों के लिए भी लड़ना पड़ता है।

लेबर मंडी में खड़े 50 वर्षीय रामलखन उदास नजर आए। उनकी सूनी आंखों की चमक धीमी पड़ने लगी है। दोपहर तक उन्हें कोई काम नहीं मिल पाया था। वो घर लौटने की तैयारी में थे। जिंदगी कैसे कट रही है? यह सवाल पूछने पर वो अपने सिर के बालों को खुजलाने लगते हैं। बाद में एक लंबी सांस खींचते हैं और कहते हैं, "हुजूर, हम हजार-दो हजार कमाकर इसी में गुजारा कर लेते हैं।"
 
एक्टिविस्ट चौधरी राजेंद्र सिंह कहते हैं, "असंगठित क्षेत्र के दिहाड़ी मजदूरों की हालत बद से बदतर है। यूपी में सरकार अब खुद ही लोगों को बंधुआ मजदूरों की तरह काम कराने लगी है। आंगनवाड़ी, आशा और मिड-डे मील कार्यकर्ता सरकारी विभागों में बंधुआ मज़दूर की तरह काम कर रहे हैं। आंगनवाड़ी में काम करने वालों को (जिनमें अधिकतर महिलाएं होती हैं) आज तक कर्मचारी ही नहीं माना गया, बल्कि उन्हें स्वेच्छासेवी माना जाता है। पहले मज़दूरों के हक़ों के लिए त्रिपक्षीय परामर्श बैठकें होती थीं, जिनमें सरकार, मज़दूरों के प्रतिनिधि और कंपनी के नुमाइंदे रहते थे, लेकिन मोदी सरकार के आने के बाद इस व्यवस्था को ख़त्म कर दिया गया है।"

संकट में मुस्लिम युवा
 
बनारस में मुस्लिम तबके के शिक्षित युवाओं की स्थिति सबसे ज्यादा चिंताजनक है। बजरडीहा की छात्रा सना महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ में ग्रेजुएट के फाइनल ईयर की स्टूडेंट हैं। वह कहती हैं, "पहले मैं सोचती थी कि सिर्फ मैं ही बेरोजगार हूं, लेकिन बेरोजगारी के ताजातरीन आंकड़ों से को पढ़ती हूं तो पता चलता है कि मुस्लिम समुदाय में दो तिहाई से ज्यादा लोग किसी आर्थिक गतिविधि के हिस्सा ही नहीं हैं। मुस्लिम समुदाय के लोग कौशल और कारीगरी के क्षेत्र से जुड़े रहे हैं और वह आधुनिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा नहीं बन पा रहे हैं। देश के किसी भी क्षेत्र में मुसलमानों को शामिल नहीं किया जा रहा है। चाहे नौकरशाही हो, न्यायपालिका हो या फिर राजनीति।"

"दूसरी बात, आधुनिक शिक्षा के बिना मदरसे से पढ़कर आने वाले लड़के-लड़कियां मॉडर्न कॉन्वेंट स्कूल से आधुनिक शिक्षा हासिल किए हुए छात्रों से विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कैसे प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं और फिर वे नौकरी की दौड़ में कहीं पीछे रह जाते हैं। कॉरपोरेट कंपनियों में यदि आपके पास क्षमता है तो काम मिल जाता है, लेकिन वहां भी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है। मुसलमानों में बेरोजगारी एक ऐसा जानलेवा चक्कर है, जिसका कोई समाधान नहीं। इस समुदाय में बेरोजगारी इसलिए है, क्योंकि उनमें शिक्षा की कमी है और शिक्षा इसलिए नहीं है, क्योंकि वे गरीबी के शिकार हैं और इस गरीबी का कारण बेरोजगारी है।"

पीएम मोदी के खिलाफ बसपा के टिकट से चुनाव लड़ चुके मुस्लिम तबके के कद्दावर नेता अतहर जमाल लारी कहते हैं, "मुस्लिम युवाओं में क्षमता की कमी नहीं है। वह अपनी क्षमता, अपने कौशल, अपनी शिक्षा, अपनी देशभक्ति हथेली पर लिए खड़ा है और कहता है कि मुझसे काम लो, लेकिन कोई हाथ पकड़ने वाला नहीं, कोई हाल पूछने वाला नहीं है। इन युवाओं ने हिम्मत नहीं हारी है और उनके इंतज़ार का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला जारी है। बनारस में सरकार युवाओं के रोजगार की कब्र पर ज्ञानवापी मस्जिद और मंदिर के झमेले में उलझाने में लगी है। लोगों को धर्म और जाति की आग में धकेल कर, बिना पता लगे उनके रोजगार ख़त्म करने की कोशिश कर रही है। मौजूदा हुक्मरां यह भूल गए हैं कि बनारस, मिर्जापुर, भदोही समेत कई जिलों में कला कौशल मुसलमानों के दम पर ही जिंदा था, जिसने भारत को अरबों डालर का मुनाफा पहुंचा है। चाहे वो साड़ी उद्योग रहा हो या कारपेट-दरी।"

बेरोजगारी के आंकड़े और समाधान
 
राष्ट्रीय फलक पर बेरोजगारी के आंकड़ों को देखते हैं तो तब भी स्थितियां बेहद निराशाजनक दिखती हैं। सीएमआईई के ताज़ा आंकड़ों के अनुसार, फरवरी 2023 में बेरोज़गारी दर 7.5 फीसदी थी, जो मार्च 2024 में बढ़कर 7.8 फीसदी हो गई। साल 2016 में हुई नोटबंदी के पहले भारत में काम करने की उम्र (15 से 64 साल) वाली संख्या 100 करोड़ से कुछ कम थी। इसमें श्रम भागीदारी दर (रोज़गाररत व बेरोज़गार दोनों इसमें शामिल हैं) लगभग 45 फीसदी थी, या कहें 45 करोड़ वास्तविक श्रम बल था अर्थात इतनी संख्या या तो किसी रोज़गार में थी या रोज़गार ढूंढ रही थी। साल 2021 में श्रम बल घटकर 42 करोड़ (लगभग 37 फीसदी) ही रह गया और करीब तीन फीसदी कामगार श्रम बल से बाहर हो गए।

आंकड़े बताते हैं कि मार्च 2023 में सीएमआईई के मुताबिक़ श्रम भागीदारी दर 39.8 फीसदी और रोज़गार दर 36.7 फीदसी हो गई। श्रम बल 44.43 करोड़ है जिसमें 41.01 करोड़ कार्यरत हैं और बेरोज़गार 3.69 करोड़ हैं। इस हिसाब से देखें तो अभी काम करने लायक उम्र की लगभग 111 करोड़ संख्या है। मगर इसमें से लगभग 40 फीसदी अर्थात 45 करोड़ से भी कम ही श्रम बल में हैं। इनमें से भी 41 करोड़ को ही जैसा-तैसा, नियमित या अनियमित, रोज़गार मिल पाया है। बीजेपी सरकार का सारा जोर स्टार्टअप पर है। इसके जरिये वह युवाओं को रोजगार देने का ढोल खूब पीट रही है, लेकिन देश भर में फैले कुटीर उद्योगों की आधुनिकीकरण पर जोर नहीं दे रही है। नतीजा, बनारस जैसे शहर में खिलौना उद्योग, पंखा उद्योग, काष्ट कारीगरी, स्टोन कार्विंग, जरदोजी, गुलाबी मीनाकारी समेत तमाम कुटीर उद्योग समय के गर्त में समाते चले गए।

बनारस के वरिष्ठ पत्रकार कुमार विजय कहते हैं, "प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासन में ध्रुवीकरण और नफ़रत की राजनीति बढ़ी है, जिसने विश्वास पर चोट पहुंचाई है, जो आर्थिक विकास के लिए सबसे ज़रूरी होता है। साल 2014 में पहली बार सत्ता में आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने युवाओं को बड़े पैमाने पर रोज़गार देने का वादा किया था, जिसे उन्होंने आज तक पूरा नहीं किया। इस बार के चुनाव में भी बीजेपी युवाओं की झूठी गारंटी देती रही, जिसे उन्होंने उम्मीदों के अंधकूप में तब्दील कर दिया है। सरकार की सारी वित्तीय सहायता कारपोरेट घरानों की झोली में जा रही है। देश में उत्पादन बढ़ाने की मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना 'मेक इन इंडिया'  एक दशक बीत जाने के बावजूद परवान नहीं चढ़ पाई। नौकरी के लिए संघर्ष कर रहे युवाओं को बेरोजगारी भत्ता दिया जाना चाहिए, तभी वो अपने परिवार का ख़र्च चला पाएंगे और क़र्ज़ चुका पाएंगे। श्रमिकों को न्यूनतम वेतन और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित किया जाना जरूरी है। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक रोज़गार के मामले में कोई ठोस सुधार की उम्मीद बेमानी होगी।"

बेरोजगारी के समाधान की चर्चा करते हुए कुमार विजय कहते हैं, "बेरोजगारी दूर करने के लिए सबसे जरूरी है कि व्यापारियों की जीएसटी में कमी लाई जाए, ई-कामर्स के बिज़नेस का सही नियमन हो और डीजल-पेट्रोल को जीएसटी के दायरे में लाया जाए। ठेका मजदूरों व मानदेय कर्मियों को तय वेतनमान दिया जाए। पुरानी पेंशन व्यवस्था बहाल की जाए। स्वास्थ्य, शिक्षा पर खर्च बढ़ाया जाए तभी ठहरी हुई अर्थव्यवस्था में गति आ सकती है। सामाजिक, राजनीतिक गतिविधियों पर प्रतिबंध न लगाया जाए और काले कानून उत्तर प्रदेश लोक तथा निजी सम्पत्ति क्षति वसूली अधिनियम 2020 को रद्द किया जाए। आईपीसी की धारा 120 बी, रासुका, गैंगस्टर व गुण्ड़ा एक्ट का दुरूपयोग रोका जाए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा जैसी पार्टियां सांप्रदायिकता के आधार पर समाज का विभाजन बंद करें और सदियों से लोगों में बने मैत्री भाव को नष्ट होने से बचाएं। लोकतांत्रिक वातावरण में ही उत्तर प्रदेश अपने अंतर्निहित क्षमताओं को विकसित कर सकता है और हर क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभा सकता है।"
 
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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