कहां गई वन गुर्जर समाज के हिस्से की आजादी?

Written by Navnish Kumar | Published on: March 29, 2021
वनाधिकार कानून के 15 साल बाद भी वन गुर्जरों के हिस्से में सिवाय अफसोस के क्यों कुछ नहीं आया है?


 
मशहूर शायर दुष्यंत कुमार का शेर 'कहां तो तय था चरागां हर घर के लिए, कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए' वन गुर्जर समुदाय की स्थिति बयां करने को सटीक है। आजादी के 74 साल बाद भी वन गुर्जर समुदाय अपने हिस्से की आजादी से महरूम हैं। वनाधिकार कानून से टोंगिया, आदिवासियों व अन्य वन निवासियों की तरह, इस घुमंतू पशुपालक समुदाय के लोगों के जीवन में भी आजादी की किरण आने की उम्मीद जगी थी लेकिन हालात बद से बदतर के ही बने हैं? वन गुर्जर समाज आज भी मुख्य धारा से कोसों दूर है। सवाल है कि कहां गई इनके हिस्से की आजादी? वनाधिकार कानून के 15 साल बाद भी इनके जीवन में सिवाय अफसोस के क्यों-कर कुछ नहीं आ पाया हैं?

अरसे से वनों में रहते आ रहे घुमंतू पशुपालक (वन गुर्जर) समुदाय की यह पीड़ा यूं ही अनायास और बेसबब नहीं है। बल्कि इसके पीछे पीढ़ियों का दर्द, अपमान और उत्पीड़न छिपा है जो आज भी निरंतर जारी हैं। देश, समाज और काल के हिसाब से देंखे तो इसके गहरे निहितार्थ हैं।

रामनगर नैनीताल की किसान पंचायत में वन गुर्जर मो. शफी का यह दर्द कुछ यूं कर फूटा कि हर कोई उनके साथ बह गया। मो. शफी ने कुछ पंक्तियां सुनाकर आजादी के हक की अपनी पीड़ा को लोगों के सामने रखा। मसलन... ''हंस को भी हक़ है समुद्र में जाने की, जल मुर्गी को हक़ है दरिया में नहाने की लेकिन हमें परमिशन चाहिए अपने ही घर में आने की''। ''मछलियां नाच रही हैं पानी की झाल पर, कोयल गीत गा रही हैं पेड़ की अपनी डाल पर, हमें अपने घर में कोई कार्यक्रम करना हो तो इजाजत लेनी पड़ती है हाईकमान (वन विभाग के उच्चाधिकारी) से"।

दरअसल आजादी के 74 साल बीतने और वनाधिकार कानून के 15 साल गुजर जाने के बाद भी वन गुर्जर समुदाय वन विभाग के उत्पीड़न का शिकार है। वनाधिकार कानून बनाते वक्त देश की संसद ने भी ऐतिहासिक अन्याय करार देते हुए, इस उत्पीड़न को माना है लेकिन इतना सब के बावजूद हक़ नहीं मिल सके हैं। उल्टे, उनसे खेती की जमीनें छीन ली गई हैं और उनके झोंपड़ीनुमा घरों को तोड़ देने जैसी घटनाएं उनकी रोजमर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन गई हैं। यही नहीं, वन क्षेत्र में झोपड़ियां बनाकर रह रहे वन गुर्जरों पर जंगल से विस्थापन की भी तलवार लटकी हुई है। सुप्रीम कोर्ट स्टे आदेश से मामला लंबित है। ऐसे में वन गुर्जरों की पीड़ा को आसानी से महसूस किया जा सकता है।

उत्तराखंड में जिम कॉर्बेट पार्क से लगते रामनगर के तुमरिया खत्ता निवासी मो. शफी बताते हैं कि हक (वनाधिकार) तो नहीं मिल सके हैं, उल्टे उन्हें जंगल में अपने घर पर जाने के लिए भी वन विभाग से परमिशन लेनी पड़ रही है। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड में उन्होंने 2015 में वनाधिकार कानून के तहत दावे फार्म जमा कराए थे जो भी यूं ही पड़े हुए हैं। उन पर सरकार ने कोई कार्यवाही नहीं की है। कई वनाधिकार संगठनों ने भी आवाज उठाई लेकिन सरकार कानून पर मौन ताने हैं। कुछ लोगों ने सामुदायिक दावे भरे हैं लेकिन वह सब भी रद्दी की ही टोकरी में पड़े हैं। इस बीच वन विभाग का उत्पीड़न जारी है। 
 
यह हाल भी तब है जब आदिवासी और वन गुर्जर समाज, जंगलों के संरक्षण और संवर्धन में अहम भूमिका निभाने का काम करते हैं। तमाम अध्ययन इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। जानकारों के अनुसार, वन गुर्जर आदिवासी ही हैं। जम्मू कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में इन्हें आदिवासी का ही दर्जा है लेकिन उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में इन्हें आदिवासी होने का जनजातीय लाभ नहीं मिलता है। इन वन गुर्जरों की संख्या लाखों में है। वन्य जीवों के साथ इनका समन्वय और परस्पर सह-अस्तित्व का रिश्ता है जो वन विभाग को फूटी आंख नहीं सुहाता है। जैव विविधता की संरक्षण व वनों के संवर्धन में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका को कोई नकार नहीं सकता है। आदिवासियों की ही तरह वन गुर्जरों की भी अपनी अलग संस्कृति है। शादी-ब्याह, खान-पान सब कुछ अलग है। मुद्रा का चलन यहां बहुत कम है। दूध के बदले अनाज व दूसरी जरूरत की चीज़ें लेते हैं।

यह समुदाय आज भी प्राकृतिक संसाधनों और पुराने तौर-तरीकों पर ही निर्भर है और शिक्षा से कोसों दूर है। परंपरागत रुप से हर साल मार्च अप्रैल में वन गुर्जर अपने पशुओं को लेकर उच्च हिमालयी क्षेत्रों में जाते हैं, लेकिन उत्तराखंड हाईकोर्ट के एक आदेश के बाद, इनका ऊपर जाना प्रतिबंधित कर दिया गया है, जिससे अब यह नजदीकी इलाकों का ही रुख करते हैं, जहां उनके पशुओं को पर्याप्त मात्रा में चारा, पानी और ठंडा वातावरण मिल सके। इसी से इन्हें घुमंतू समुदाय का भी दर्जा मिला है। लेकिन बुनियादी सवाल वही बना हुआ है कि आखिर आजाद भारत में वन गुर्जरों के जीवन में आजादी की रोशनी कब तलक आ पाएगी और इनके साथ जारी 'ऐतिहासिक अन्याय' से इन्हें निजात मिल सकेगी।

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