कॉर्पोरेट खेमे के प्रखर पब्लिक इंटेलेक्चुअल प्रताप भानु मेहता की अशोका यूनिवर्सिटी से मोदी के इशारे पर हुयी छुट्टी को मशहूर स्तंभकार तवलीन सिंह के अपमानित होकर मोदी कैंप से बाहर किये जाने के प्रसंग से भी समझा जा सकता है। तवलीन सिंह की कॉर्पोरेट लेखनी मोदी के समर्थन में उसी तरह तर्क उगलती थी जैसे मेहता की मोदी विरोध में। जिस दिन उनके बेटे का मोदी पर लेख, ‘डिवाइडर इन चीफ’ न्यूयॉर्क टाइम्स में छपा, तवलीन सिंह को मोदी दरबार का गेट दिखा दिया गया। एक धुर विरोधी और एक अंध समर्थक, इन दोनों अंग्रेजीदां बुद्धिजीवियों ने मोदी से एक जैसी दुत्कार पायी है। क्यों?
मोदी शासन में उच्चतम प्रशासनिक एवं संवैधानिक पदों पर रहे एक बेहद कुशल आईएएस नौकरशाह, जिन्हें भी अंत में इसी तरह के राजनीतिक कोपभाजन का शिकार होना पड़ा था, ने मुझसे बातचीत में मोदी खेमे की गुड बुक में होने के लिए 6 अनिवार्य पैरामीटर क्रमवार गिनाये। अनुसेवी (subservient), वफादार (loyal), अनुमोदक कौन यानी किस हवाले से, पूर्व-संबद्धता, कार्यकलाप, पात्रता (merit)। ध्यान दीजिये इन तमाम पैरामीटर में सर्वप्रथम कौन सा है। वही सर्वप्रमुख भी है। अपनी बेहिचक कॉर्पोरेट वफ़ादारी और निर्विवाद बौद्धिक प्रखरता के बावजूद प्रताप भानु मेहता इस पैरामीटर पर खरे नहीं उतर सकते थे, और अपनी तमाम वफादारी और पात्रता के बावजूद अनुसेवा से फिसलते ही तवलीन सिंह का हश्र भी सामने है।
प्रधानमंत्री ने 9 फरवरी को संसद में निजी क्षेत्र की प्रशंसा के गीत गाते हुए आईएएस नौकरशाही को बाबू संस्कृति कहते हुए लताड़ा था कि उस पर हर क्षेत्र के कुशल संचालन के लिए निर्भर नहीं रहा जा सकता। मोदी की यह टिप्पणी कुछ हद तक सटीक भी मानी जा सकती है। लेकिन, शासनिक/प्रशासनिक नियुक्तियों में, मोदी कैंप उपरोक्त 6 परतों वाला पैरामीटर ही लागू करता जा रहा है। पहले भी इसी रवैये से अफसर निर्णायक पदों पर लगाए जा रहे थे, अब भी वही सिलसिला जारी है। मोदी की टिप्पणी के तुरंत बाद ट्राई के बेहद नाकारा सिद्ध हुए पूर्व चेयरमैन आरएस शर्मा (पूर्व आईएएस) को आयुष्मान भारत का सीईओ लगा दिया गया। जाहिर है, मोदी राज में जिन 6 फिल्टर्स से होकर किसी को गुजरना होता है उनमें ‘पात्रता’ सबसे अंत में आती है।
मीडिया के क्षेत्र में स्थिति अलग नहीं हो सकती थी। रजत शर्मा और अर्नब गोस्वामी जैसों की मीडिया प्रतिभा पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता लेकिन वे मोदी-अनुसेवा यानी दास-भक्ति की दौड़ में शामिल होकर ही तरक्की कर पा रहे हैं। जबकि मीडिया के नामी-गिरामी होने के बावजूद, पुण्यप्रसून वाजपेयी, अनुराग शर्मा, अजीत अंजुम, वायर, न्यूज़क्लिक जैसों को इस कमी का भरपूर खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। देश के शहर-शहर में प्रिंट और टीवी मीडिया पर यही समीकरण हावी है।
इन्डियन एक्सप्रेस में नियमित लिखने वाले प्रताप भानु मेहता की अशोका यूनिवर्सिटी से विदाई का मामला क्या अलग है? बेशक, ठीक ही कहा जा रहा है कि वे मोदी की फासिस्ट नीतियों और हिन्दुत्ववादी एजेंडे के विरोध में सतत मीडिया स्वर बने रहे हैं। अंग्रेजी में लिखने के कारण मोदी के खांटी वोटर पर उनका असर न भी पड़े लेकिन देश में ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय फलक पर भी बौद्धिक वर्ग में उनके लिखे का दखल रहा है। इस तरह, सामान्य वर्ग में न सही, प्रभुत्वशाली एलीट वर्ग में वे मोदी की छवि को निश्चित ही तिलमिलाने वाली खरोंच पहुंचा रहे थे।
हालांकि, मेहता की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अभी बदस्तूर कायम है। उनकी इंडियन एक्सप्रेस से छुट्टी नहीं हुयी है और इस शक्तिशाली अखबार द्वारा उन्हें समर्थन जारी रहने के चलते वे अपना कॉलम लिखते रहने के लिए स्वतंत्र हैं। यह भी नहीं भुलाना चाहिए कि नव-उदारवादी मेहता का एक महत्वपूर्ण सतत एजेंडा जातिगत आरक्षणों के विरोध का भी रहा है, जो अपने आप में एक फासीवादी एजेंडा ही हुआ। (धन आधारित आरक्षण पर वे खामोश रहते हैं; अशोका यूनिवर्सिटी में 15-25 लाख वार्षिक फीस है।) स्वाभाविक रूप से आज यही मोदी के नेतृत्व में देश की फासिस्ट-हिन्दुत्ववादी शक्तियों का भी प्रमुख एजेंडा बना हुआ है।
इस सवाल की भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि क्या हिंदुत्व विरोध की अभिव्यक्ति का झंडा उठाने के नाम पर भारत के लेफ्ट बुद्धिजीवियों के लिए एक कार्पोरेट एजेंडा चलाने का बेतरह बचाव ठीक है? एलीट अशोका यूनिवर्सिटी जिसके मेहता दो वर्ष कुलपति और बाद में प्रोफ़ेसर रहे, से सिर्फ एक किलोमीटर दूर सिंघु बॉर्डर पर किसानों के धरने का चौथा महीना चल रहा है। मेहता के ‘सजग’ छात्रों को इनके मुद्दे पर क्या कभी देखा या सुना गया?
जैसे ‘हिंदुत्व’ भाजपा विचारकों का माध्यम है, वैसे ही ‘नव-उदारवाद’ मेहता जैसे बुद्धिजीवियों का। दोनों के रास्ते अलग दिखते हैं लेकिन उनका अंतिम लक्ष्य एक ही है- देश का निर्बाध कार्पोरेटीकरण! कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा मोदी विरोध और मोदी समर्थन की एक जैसी कीमत देना इस समीकरण को बदलता नहीं।
मोदी शासन में उच्चतम प्रशासनिक एवं संवैधानिक पदों पर रहे एक बेहद कुशल आईएएस नौकरशाह, जिन्हें भी अंत में इसी तरह के राजनीतिक कोपभाजन का शिकार होना पड़ा था, ने मुझसे बातचीत में मोदी खेमे की गुड बुक में होने के लिए 6 अनिवार्य पैरामीटर क्रमवार गिनाये। अनुसेवी (subservient), वफादार (loyal), अनुमोदक कौन यानी किस हवाले से, पूर्व-संबद्धता, कार्यकलाप, पात्रता (merit)। ध्यान दीजिये इन तमाम पैरामीटर में सर्वप्रथम कौन सा है। वही सर्वप्रमुख भी है। अपनी बेहिचक कॉर्पोरेट वफ़ादारी और निर्विवाद बौद्धिक प्रखरता के बावजूद प्रताप भानु मेहता इस पैरामीटर पर खरे नहीं उतर सकते थे, और अपनी तमाम वफादारी और पात्रता के बावजूद अनुसेवा से फिसलते ही तवलीन सिंह का हश्र भी सामने है।
प्रधानमंत्री ने 9 फरवरी को संसद में निजी क्षेत्र की प्रशंसा के गीत गाते हुए आईएएस नौकरशाही को बाबू संस्कृति कहते हुए लताड़ा था कि उस पर हर क्षेत्र के कुशल संचालन के लिए निर्भर नहीं रहा जा सकता। मोदी की यह टिप्पणी कुछ हद तक सटीक भी मानी जा सकती है। लेकिन, शासनिक/प्रशासनिक नियुक्तियों में, मोदी कैंप उपरोक्त 6 परतों वाला पैरामीटर ही लागू करता जा रहा है। पहले भी इसी रवैये से अफसर निर्णायक पदों पर लगाए जा रहे थे, अब भी वही सिलसिला जारी है। मोदी की टिप्पणी के तुरंत बाद ट्राई के बेहद नाकारा सिद्ध हुए पूर्व चेयरमैन आरएस शर्मा (पूर्व आईएएस) को आयुष्मान भारत का सीईओ लगा दिया गया। जाहिर है, मोदी राज में जिन 6 फिल्टर्स से होकर किसी को गुजरना होता है उनमें ‘पात्रता’ सबसे अंत में आती है।
मीडिया के क्षेत्र में स्थिति अलग नहीं हो सकती थी। रजत शर्मा और अर्नब गोस्वामी जैसों की मीडिया प्रतिभा पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता लेकिन वे मोदी-अनुसेवा यानी दास-भक्ति की दौड़ में शामिल होकर ही तरक्की कर पा रहे हैं। जबकि मीडिया के नामी-गिरामी होने के बावजूद, पुण्यप्रसून वाजपेयी, अनुराग शर्मा, अजीत अंजुम, वायर, न्यूज़क्लिक जैसों को इस कमी का भरपूर खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। देश के शहर-शहर में प्रिंट और टीवी मीडिया पर यही समीकरण हावी है।
इन्डियन एक्सप्रेस में नियमित लिखने वाले प्रताप भानु मेहता की अशोका यूनिवर्सिटी से विदाई का मामला क्या अलग है? बेशक, ठीक ही कहा जा रहा है कि वे मोदी की फासिस्ट नीतियों और हिन्दुत्ववादी एजेंडे के विरोध में सतत मीडिया स्वर बने रहे हैं। अंग्रेजी में लिखने के कारण मोदी के खांटी वोटर पर उनका असर न भी पड़े लेकिन देश में ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय फलक पर भी बौद्धिक वर्ग में उनके लिखे का दखल रहा है। इस तरह, सामान्य वर्ग में न सही, प्रभुत्वशाली एलीट वर्ग में वे मोदी की छवि को निश्चित ही तिलमिलाने वाली खरोंच पहुंचा रहे थे।
हालांकि, मेहता की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अभी बदस्तूर कायम है। उनकी इंडियन एक्सप्रेस से छुट्टी नहीं हुयी है और इस शक्तिशाली अखबार द्वारा उन्हें समर्थन जारी रहने के चलते वे अपना कॉलम लिखते रहने के लिए स्वतंत्र हैं। यह भी नहीं भुलाना चाहिए कि नव-उदारवादी मेहता का एक महत्वपूर्ण सतत एजेंडा जातिगत आरक्षणों के विरोध का भी रहा है, जो अपने आप में एक फासीवादी एजेंडा ही हुआ। (धन आधारित आरक्षण पर वे खामोश रहते हैं; अशोका यूनिवर्सिटी में 15-25 लाख वार्षिक फीस है।) स्वाभाविक रूप से आज यही मोदी के नेतृत्व में देश की फासिस्ट-हिन्दुत्ववादी शक्तियों का भी प्रमुख एजेंडा बना हुआ है।
इस सवाल की भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि क्या हिंदुत्व विरोध की अभिव्यक्ति का झंडा उठाने के नाम पर भारत के लेफ्ट बुद्धिजीवियों के लिए एक कार्पोरेट एजेंडा चलाने का बेतरह बचाव ठीक है? एलीट अशोका यूनिवर्सिटी जिसके मेहता दो वर्ष कुलपति और बाद में प्रोफ़ेसर रहे, से सिर्फ एक किलोमीटर दूर सिंघु बॉर्डर पर किसानों के धरने का चौथा महीना चल रहा है। मेहता के ‘सजग’ छात्रों को इनके मुद्दे पर क्या कभी देखा या सुना गया?
जैसे ‘हिंदुत्व’ भाजपा विचारकों का माध्यम है, वैसे ही ‘नव-उदारवाद’ मेहता जैसे बुद्धिजीवियों का। दोनों के रास्ते अलग दिखते हैं लेकिन उनका अंतिम लक्ष्य एक ही है- देश का निर्बाध कार्पोरेटीकरण! कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा मोदी विरोध और मोदी समर्थन की एक जैसी कीमत देना इस समीकरण को बदलता नहीं।