जैसे-तैसे पेट भरते 90 करोड़ लोगों और बेरोजगारों के लिए आम बजट में खास क्या?

Written by Navnish Kumar | Published on: February 3, 2021
अगर बजट आते ही शेयर मार्केट ऊंची छलांग लगाए तो मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी समझ सकता है कि बजट किसके हित के लिए है! सवाल है कि जैसे-तैसे पेट भरते 90 करोड़ लोगों यानि गांव, गरीब, किसान और बेरोजगारों के लिए बजट में खास क्या है?



मसलन, किसान आंदोलन के मद्देनजर देखें तो कृषि क्षेत्र का बजट घटा दिया गया है। 2021-22 के बजट में कृषि के लिए आवंटन घटाकर 1,42,711 करोड़ से 1,31,474 करोड़ कर दिया। यही नहीं शॉर्ट टर्म कॉर्प लोन में भी किसानों के लिए 2020-21 की तुलना में 2021-22 में इंट्रेस्ट सब्सिडी को घटा दिया गया है।

किसान सभा के नेताओं व विशेषज्ञों के अनुसार, 2.5 लाख करोड़ रुपये के बजट से उतना भी खाद्यान्न भंडारण नहीं होगा, जितना पिछले साल हुआ है। कृषि बजट में वर्ष 2019-20 में किए गए वास्तविक खर्च की तुलना में 8% की भारी कटौती की गई है। इससे स्पष्ट है कि किसानों को किसान विरोधी कानूनों की मंशा के अनुरूप खुले बाजार में धकेलने की योजना लागू की जा रही है। इस से देश की गरीब की खाद्यान्न सुरक्षा और आत्मनिर्भरता तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली भी खतरे में पड़ती दिखती है।

दूसरा, कोरोना का सबसे अधिक प्रभाव देश के असंगठित क्षेत्र पर पड़ा है। उसे राहत पहुंचाने के लिए कोई उपाय नहीं किए गए। और तो और, कोरोना में अपनी आजीविका खोकर गांवों में पहुंचने वाले अप्रवासी मजदूरों के लिए भी कोई राहत नहीं है। बजट में मनरेगा के मद में वर्ष 2020-21 के संशोधित अनुमानों की तुलना में 34% की कटौती की गई है। उल्टे जिस प्रकार सरकारी उद्योगों की जमीन को बेचने की घोषणा की गई है, उससे, इन अप्रयुक्त जमीनों पर काबिज मजदूर-किसानों और आदिवासियों को बड़े पैमाने पर विस्थापन का भी सामना करना होगा।

वैसे भी देंखे तो महामारी के वक्त में भारत की यह सच्चाई जगजाहिर की है कि 81 करोड़ लोग पांच किलो अनाज और एक किलो दाल के राशन पर जीते हुए हैं। इसमें यदि छह हजार रुपए का सरकारी अनुग्रह लेने वाले नौ करोड़ गरीब किसानों की संख्या जोड़ लें तो 90 करोड़ आबादी उस अवस्था में है, जिसके लिए महामारी काल कंगाली में आटा गीले वाला था। इसी से फिर बेरोजगारों की वह भीड़ भी है, जिसे लॉकडाउन के बाद घर बैठना पड़ा हैं। यानि बरबाद आर्थिकी के बीच जैसे-तैसे पेट भरते 90 करोड़ लोगों और बेरोजगारों के सवाल का बजट में कोई हल नहीं दिखता है?।

यही नहीं, यह भी हास्यास्पद है कि जिस कृषि विकास के नाम पर पेट्रोल-डीजल पर सेस लगाया गया है, उसका अधिकांश भार खेती-किसानी करने वालों पर ही पड़ने जा रहा है। ग्रामीण जनता भुखमरी का शिकार हो रही है, लेकिन उन्हें रोजगार उपलब्ध कराने और देश के खाद्यान्न भंडार को उनकी भूख मिटाने के लिए खोलने की कोई योजना सरकार के पास नहीं है, जबकि अर्थव्यवस्था में मांग के अभाव और मंदी का मुकाबला बड़े पैमाने पर रोजगार के सृजन, मुफ्त खाद्यान्न वितरण और नकद राशि से मदद करने के जरिए आम जनता की क्रय-शक्ति बढ़ा कर ही किया जा सकता है।

डीजल और पेट्रोल पर सेस के बाबत कहा जा रहा है कि इसके लिए बेसिक एक्साइज ड्यूटी और स्पेशल एडिशनल एक्साइज ड्यूटी घटा दी गई हैं। यानी जहां आप आम आदमी को फायदा दे सकते थे, वहां भी चालबाजी कर दी गई, यहां राज्यों के साथ भी धोखा हुआ है। चौदहवें वित्त आयोग ने केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी का जो फार्मूला दिया है, उसके मुताबिक राज्यों को करीब 40 फीसदी राशि देनी पड़ती है, लेकिन जब कोई सेस लगाया जाता है तो उसमें राज्यों के साथ बंटवारा नहीं करना पड़ता है। यानी पूरी रकम केंद्र अपने पास ही रखेगा। 

कुल मिलाकर गांव, गरीब, किसान व बेरोजगारों के हिस्से में निराशा ही ज्यादा आई है। ऐसे में शेयर बाजार का उछलना लाज़िमी है।

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