बजट: लोकलुभावन या सत्ता में बने रहने की मजबूरी?

Written by Navnish Kumar | Published on: February 3, 2025
2025-26 के बजट में केंद्र सरकार ने ऐलान किया है कि 12 लाख तक की सालाना आय कर मुक्त रहेगी यानी कोई आयकर नहीं देना होगा और वेतनभोगी लोगों के लिए ये सीमा 12 लाख 75 हज़ार रुपए हैं। सरकार ने करमुक्त आय की सीमा को सीधे 5 लाख रुपए बढ़ाया दिया है।


साभार : द फाइनेंशियल एक्सप्रेस

"पीएम मोदी के तीसरे कार्यकाल का पहला पूर्ण बजट लोकलुभावन है या किसी तरह सत्ता में बने रहने की मजबूरी, लोकसभा चुनावों में नुकसान उठा चुकी भाजपा ने, इसकी भरपाई को मध्यम वर्ग को लुभाने की कोशिश की है। साथ ही बजट पर दिल्ली व बिहार में होने वाले विस चुनावों का असर भी साफ दिखा। हाल में आठवें वेतन आयोग का गठन भी इसी दिशा में उठाया गया कदम माना जा रहा है। लेकिन देखें तो लंबे चौड़े दावे और बड़ी-बड़ी बातों के बावजूद बजट का आकार नहीं बढ़ा है। आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट की राष्ट्रीय कार्य समिति ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा है कि यदि मुद्रास्फीति को ध्यान में रखा जाए तो वास्तव में 50 लाख 65 हजार करोड़ के प्रस्तावित बजट में कोई वृद्धि नहीं हुई है।"

2025-26 के बजट में केंद्र सरकार ने ऐलान किया है कि 12 लाख तक की सालाना आय कर मुक्त रहेगी यानी कोई आयकर नहीं देना होगा और वेतनभोगी लोगों के लिए ये सीमा 12 लाख 75 हज़ार रुपए हैं। सरकार ने करमुक्त आय की सीमा को सीधे 5 लाख रुपए बढ़ाया दिया है। जो बहुत से लोगों की नजर में मोदी का मास्टर स्ट्रोक है। क्योंकि इससे देश का मध्यम वर्ग खुश हो सकता है। मध्यम वर्ग के दायरे में वो लोग शामिल होते हैं, जिनकी सालाना आय 5 से 30 लाख रुपये है। पीपुल्स रिसर्च ऑन इंडियाज़ कंज़्यूमर इकानॉमी के मुताबिक़ फ़िलहाल देश की आबादी का 40 प्रतिशत मध्यवर्ग के दायरे में आता है। इस लिहाज से देखें तो लगेगा कि देश के 40 प्रतिशत लोग इस फैसले से राहत पाएंगे। लेकिन यह गणित इतना सीधा नहीं है। 

भारत की लगभग एक अरब चालीस करोड़ की आबादी में सिफ़र् साढ़े नौ करोड़ लोग आयकर भरते हैं और उनमें से भी छह करोड़ लोग शून्य रिटर्न दाख़िल करते हैं, इसका मतलब केवल साढ़े तीन करोड़ लोगों को इस कर में छूट का लाभ मिलेगा। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, सरकार का दावा है कि यह कदम खपत और निवेश को बढ़ावा देने के लिए है। भारतीय अर्थव्यवस्था इस वक़्त मांग की कमी से जूझ रही है। भारत की आर्थिक विकास दर अभी 6.4 प्रतिशत है जो पिछले चार साल में सबसे सुस्त गति दिखा रही है। आर्थिक सर्वे में 6.3 से लेकर 6.8 प्रतिशत विकास का अनुमान लगाया जा रहा है, जबकि देश को पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के लिए आर्थिक विकास दर 8 प्रतिशत तक चाहिए। सरकार इस लक्ष्य को शायद आयकर में छूट देकर हासिल करना चाहती है। वस्तुओं और सेवाओं का सबसे बड़ा उपभोक्ता समूह मध्यवर्ग होता है, लगातार बढ़ रही महंगाई और बेरोजगारी के कारण उस के हाथ में पैसा नहीं बच रहा है इसलिए ख़रीद क्षमता प्रभावित हुई और अर्थव्यवस्था में मांग घट गई है। कंपनियों ने भी कम खपत के कारण उत्पादन कम किया है और नए निवेश में भी कमी आई है। इस छूट से सरकार उम्मीद बांध रही है कि मांग, खपत, निवेश और बचत सारे लक्ष्य एक साथ साध लेगी। हालांकि सरकार का ही कहना है कि मध्यम वर्ग को दी जा रही इस राहत से सरकारी खजाने पर करीब एक लाख करोड़ रु का बोझ पड़ेगा। वहीं, प्रकारांतर से ये छूट उसी रेवड़ी संस्कृति का हिस्सा दिख रही है, जिस की मुखालफत पीएम खुद करते हैं।

बहरहाल मध्यवर्ग को दी गई इस राहत से फौरी विकास तो शायद नजर आ जाए, लेकिन इसका दीर्घकालिक असर क्या पड़ेगा, ये विचारणीय है। राजकोषीय घाटे में एक लाख करोड़ का बोझ सरकार किस तरह उठाएगी या अप्रत्यक्ष तरीके से जनता से कैसे वसूली करेगी ये देखना होगा। खास है कि अप्रत्यक्ष करों के जरिए सरकार को अच्छी-खासी कमाई होती है और उसमें केवल मध्यवर्ग नहीं, गरीब से गरीब व्यक्ति को भी जेब हल्की करनी पड़ती है। ज़्यादातर वस्तुओं और सेवाओं पर ली जाने वाली जीएसटी की दरें 28 प्रतिशत तक हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ जीएसटी संग्रह लगातार बढ़ रहा है, साल 2023 की तुलना में साल 2024 में इसमें 7.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है और ये दिसंबर 2024 में 1.77 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया। यानी सरकार अप्रत्यक्ष कर के ज़रिये लोगों की जेब से ज़्यादा पैसा निकाल रही है।

बजट में ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए खास प्रावधान नहीं है। कृषि, मनरेगा, रोजगार कौशल, आंगनबाड़ी और पोषण कार्यक्रमों आदि के लिए बेहद मामूली बढ़त की गई है, जो ऊंट के मुंह में जीरा साबित होगी। लगभग 50 लाख करोड़ के आम बजट में अगर सभी तबकों के लिए यथोचित प्रावधान होते, तब तो इसे वाकई विकसित भारत का बजट कहा जा सकता था। प्रधानमंत्री मोदी ने इसे 140 करोड़ भारतीयों की आकांक्षाओं का बजट बताया और कहा कि ये हर भारतीय के सपनों को पूरा करने वाला बजट है। सवाल ये है कि क्या पांच किलो राशन के लिए कतार में खड़े 80 करोड़ लोगों के पास सपने देखने की गुंजाइश बची है। इस बजट में बिहार के लिए मखाना बोर्ड का गठन, पटना आईआईटी का विस्तार, ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट, रार्ष्ट्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी, उद्यमिता और प्रबंधन संस्थान की स्थापना, पश्चिमी कोसी नहर परियोजना जैसी अहम घोषणाएं की गई हैं। केन्द्रीय गृहमंत्री ने इसे बिहारवासियों के लिए उपहार बताया है, वहीं भाजपा, जदयू, लोजपा और हम जैसे दलों के नेताओं ने भी इन घोषणाओं का स्वागत किया है। निर्मला सीतारमण ने बजट पेश करने के लिए जो साड़ी पहनी, उसकी बार्डर पर मिथिला की चित्रकारी की गई है, यह साड़ी मिथिला की कलाकार दुलारी देवी द्वारा भेंट की गई है। यानी बिहार को साधने की कोशिश मोदी सरकार ने की और इसके कारण एकदम स्पष्ट हैं। इसी साल बिहार में चुनाव होने हैं, जिसमें नीतीश कुमार को साथ रखने की चुनौती भाजपा के सामने है। साथ ही सत्ता पर भी उसे काबिज होना है इसलिए उसने एक साथ दो निशाने साधे हैं। 

हालांकि चुनावी नतीजे ही बताएंगे कि निशाने कामयाब हुए या नहीं। लेकिन बजट जैसे महत्वपूर्ण विषय और अवसर को चुनावी राजनीति का मुद्दा बनाकर भाजपा ने बता दिया कि उसके लिए सत्ता से बढ़कर कुछ नहीं है। जहां तक बात विकसित भारत की है, तो 2014 के अच्छे दिनों से चलकर 2025 में विकसित भारत तक जुमले पहुंचे हैं, जनता वहीं की वहीं ठहरी है।

उधर, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट की राष्ट्रीय कार्य समिति ने इसे मोदी सरकार का मजबूरी का बजट बताया है। एआईपीएफ ने कहा है कि मजबूरी इन अर्थों में है कि लंबे चौड़े दावे और बड़ी-बड़ी बातों के बावजूद बजट का आकार नहीं बढ़ा है। यदि मुद्रा स्फीति को ध्यान में रखा जाए तो वास्तव में 50 लाख 65 हजार करोड़ के प्रस्तावित बजट में कोई वृद्धि नहीं हुई है। बजट में मिडिल क्लास को जरूर 12 लाख रु तक इनकम टैक्स में छूट देने की बात कही गई हो लेकिन इसके जरिए जो बाजार में मंदी को दूर करने की बात और लोगों की क्रय शक्ति बढ़ाने की बात की जा रही है वह वास्तविकता से परे है। इससे बाजार में छाई मंदी के संकट का हल नहीं होगा। पूरा बजट कॉरपोरेट घरानों के लिए परोसा गया है और सार्वजनिक क्षेत्र को कॉरपोरेट घरानों के मुनाफे के लिए उपयोग में लगाया गया है। बीमा और बिजली जैसे क्षेत्र के निजीकरण में सौ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत देने का प्रस्ताव किया गया है।

कारपोरेट घरानों को टैक्स में छूट जारी है। एआईपीएफ ने कहा कि मौजूदा संकट के हल और शिक्षा-स्वास्थ्य व रोजगार के लिए संसाधन जुटाने हेतु कॉरपोरेट घरानों की संपत्ति पर टैक्स और काली पूंजी की अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने की कोई योजना बजट में नहीं लाई गई। देश भर में सरकारी विभागों में खाली पड़े 1 करोड़ नौकरियों को भरने पर बजट मौन है। आम जनता के हितों के लिए खर्च होने वाले धन में एक लाख करोड़ रुपए के खर्च कम किए गए हैं। वास्तविकता यह है कि अभी तक जितना आवंटन खर्च के लिए बजट में किया जाता है उतना भी सरकार खर्च नहीं करती है। आम जनता की जीवन के लिए बेहद जरूरी खाद्य सब्सिडी, कृषि व सहायक गतिविधियों, शिक्षा,स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास, समाज कल्याण, शहरी विकास के बजट में कटौती की गई है।

इनमें प्रस्तावित आंकड़े करीब 2024-25 के बराबर ही है और अगर 5 फ़ीसदी मुद्रा स्फीति के हिसाब में लिया जाए तो आवंटन वास्तव में घट गए हैं। खास सब्सिडी में पिछले वर्ष आवंटित 2.05 लोग लाख करोड़ के सापेक्ष 2.03 लाख करोड रुपए आवंटित किए गए हैं। शिक्षा का बजट 1.26 लाख करोड़ 2024-25 में आवंटित किया गया था जिसमें महज 3012 करोड रुपए की वृद्धि की गई है। जो 2.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी है और मुद्रास्फीति की तुलना में वास्तव में घट गई है। स्वास्थ्य के बजट में भी कुल मिलाकर कमी की गई है।

मनरेगा का पिछले वर्ष आवंटित बजट 86000 करोड़ रुपए ही इस बार भी रखा गया है जो आवश्यक 100 दिन काम के आवंटन के लिहाज से बेहद कम है और महंगाई की तुलना में घटाया गया है। एआईपीएफ ने कहा है कि अनुसूचित जाति और जनजाति के बजट में भी कटौती की गई है। अनुसूचित जाति के लिए जहां 3.4 प्रतिशत वहीं अनुसूचित जनजाति के लिए 2.6 प्रतिशत सब प्लान का बजट आवंटित किया है। रोजगार के लिए जरूरी आईटी और कौशल विकास जैसे क्षेत्रों में भी आवश्यक बजट का आवंटन नहीं किया। जिससे मैन्युफैक्चरिंग समेत सर्विस सेक्टर में भी रोजगार में बड़े पैमाने पर वृद्धि हो सकती थी। कुल मिलाकर यह बजट जन विरोधी है और कॉर्पोरेट घरानों के मुनाफे के लिए है।

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