यूपी चुनाव का संदेश: किसानों, युवाओं की लामबंदी के लिए नया राजनीतिक विमर्श जरूरी

Written by एस पी शुक्ला | Published on: March 17, 2017
पिछड़ों में अति पिछड़ों की आबादी में से ज्यादातर सीमांत और छोटे किसान हैं और बीजेपी, बीएसपी और एसपी समेत सभी राजनीतिक पार्टियों की ओर से आजमाए जाने वाले विकास के मौजूदा मॉडल से वे सबसे ज्यादा नकारात्मक तौर पर प्रभावित हुए हैं। ऐसी परिस्थिति में इन जातियों की लामबंदी से मतदाताओं में अब तक सत्ता में बैठी पार्टियों के खिलाफ एक बड़ी अपील गई। इन्हें राज्य की ताकत में हिस्सेदारी और फौरी तौर पर फायदा देने का भरोसा दिया गया। इसके अलावा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर आधारित पहचान के व्यापक दायरे ने उन लोगों को भी आकर्षित किया जो सामाजिक न्याय की प्रमुख पार्टियों की ओर से नजरअंदाज कर दिए गए थे या हाशिये पर डाल दिए गए थे।

BJP UP Rally


यूपी चुनाव के नतीजों पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। इसने आलोचकों और बीजेपी की जीत पर बहस के तलबगारों, दोनों को एक ही तरह से भ्रम में डाला है।
 
यूपी चुनाव के बारे में अब तक जो कहा गया है उनमें से ज्यादातर ब्योरे हैं विश्लेषण नहीं। मसलन, यूपी चुनाव के बारे में बात करने वालों में से ज्यादातर को बाद में इसमें मोदी लहर या मोदी मार्च दिखा। यहां तक कि विपक्ष के एक कद्दावर नेता ने कहा कि मोदी आज की राजनीति में सबसे प्रभावशाली शख्स हैं। 
 
यूपी चुनाव के बाद इस तरह की टिप्पणी के लिए प्रेरित करने वाले तर्क को सामने रखने के बजाय नतीजों का ब्योरा रखा जा रहा है। हालांकि इन ब्योरों पर भी सवाल उठाए जा सकते हैं। अगर मोदी लहर ही चल रही थी तो इसने पंजाब, गोवा और मणिपुर को क्यों नहीं छुआ। जबकि इन राज्यों में एक ही साथ चुनाव हुए। आखिर सबसे प्रभावशाली राजनेता इन राज्यों को नतीजों को प्रभावित होने में कैसे नाकाम रहे।
 
सही तरीके से देखा जाए तो इस तरह के विश्लेषण विधानसभा चुनाव जैसे विषय को सतही तौर पर भी नहीं छूते। उदाहरण के तौर पर यह कहा गया कि भाजपा, आरएसएस के पास चाक-चौबंद कैडर हैं। जबकि कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों के पास ऐसे कैडर नहीं हैं। यह स्थिति भाजपा के पाले में चली जाती है।
 
यह भी कहा गया और सही ही कहा गया कि बीजेपी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और सोशल इंजीनियरिंग में कामयाब रही। यूपी और उत्तराखंड में चुनाव जीतने में उसकी इस रणनीति ने अहम भूमिका निभाई। लेकिन ये तर्क नए नहीं हैं। और न ही अलग-अलग पार्टियों में कैडरों की मौजूदगी और गैर मौजूदगी के तर्क में कुछ नया है।
 
यह हिंदुत्व की ताकतों की बनाई दीर्घकालिक रणनीति है, जिसका वो चुनावों में लगातार इस्तेमाल करते आए हैं।
 
 
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के ही दूसरे रूप सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के तहत एक ऐसी गोलबंदी की जाती है, जिसमें समाज का समृद्ध तबका, ऊंची जाति और कथित महत्वाकांक्षी युवाओं के साथ ही हिंदुत्व के कट्टर सैनिक शामिल रहते हैं। धर्मनिरपेक्षता का नारा बुलंद करने वालों के पास बहुसंख्यक आबादी के सामने पेश करने लायक कोई लोकप्रिय अपील नहीं है। एक वक्त था जब उसके पास ऐसी लोकप्रिय अपील थी।
 
 
अगर यूपी में बीजेपी की जीत को दूसरे नजरिये से देखा जाए तो इस सवाल की पड़ताल की जानी चाहिए कि पार्टी ने यूपी में 2014 और विधानसभा का 2017 का चुनाव जीता। फिर यही पार्टी बिहार में 2015 का चुनाव जीतने में क्यों नाकाम रही।

लेकिन इस सवाल का जवाब देने में उसे उस बंधे-बंधाए तर्क से आगे जाना होगा कि यूपी में बिहार की तरह किसी महागठबंधन के अभाव में बीजेपी के विरोधी दल चुनाव जीतने में नाकाम रहे। इस परिघटना को दीर्घकालिक अवधि और दीर्घकालिक नजरिये से देखना होगा। इन संदर्भों में यह विचार करना होगा कि आखिर देश की राजनीति में यह क्या हो रहा है।
 
दरअसल, भारत में राष्ट्र निर्माण की परियोजना 1857 में छेड़ी गई आजादी की पहली लड़ाई के साथ शुरू हो गई थी। आजादी के आंदोलन को आगे ले जाने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में यह परियोजना आगे बढ़ी। राष्ट्र निर्माण की परियोजना उपनिवेश विरोध के आधार पर आगे बढ़ी। राष्ट्र निर्माण की इस परियोजना में पूरे भारतीय महाद्वीप में पारंपरिक तौर पर बंटे और अन्याय पर आधारित भारतीय समाज और राजनीति को एक साथ मिलाने की आकांक्षा थी। इसके तहत विभाजनकारी राजनीतिक, क्षेत्रीय और सामाजिक पहचान को अगर दबाने की नहीं तो उदार बनाने की कोशिश की जानी थी। यह काम एक व्यापक, आधुनिक, अखिल भारतीय भारत के विचार की अपील को सामने रख कर करना था।
 
इस परियोजना के विरोध में कई चीजें थीं। औपनिवेशिक ताकतों के दमन के अलावा उस स्वदेशी ताकतों का भी विरोध झेलना पड़ा जो भारतीय राष्ट्रवाद को यूरोपीय राष्ट्रवाद के ढर्रे में ढालना चाहते थे। यह राष्ट्रवाद धार्मिक, सांस्कृतिक पहचान और देश के अंदर मौजूद दुश्मनों के खिलाफ नफरत के आधार पर खड़ा था। औपनिवेशिक शासकों को यह रास आ रहा था और उन्होंने इसे प्रोत्साहित किया। इसे समर्थन दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि राष्ट्रवाद की आधुनिक अखिल भारतीय परियोजना बंटवारे के वक्त एक करारा झटका लगा। वह बंटवारा जो देश की आजादी के साथ ही आया था।

फिर भी परियोजना की आतंरिक ताकत और क्षमता ने इन विभाजनकारी ताकतों के खिलाफ पलट कर वार किया और भारत के विचार के बुनियादी सार तत्वों का समर्थन कर एक संविधान को स्वीकार किया।
 
हालांकि भारतीय राजनीति खुद  को एक समतावादी और न्याय आधारित और सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तित करने में नाकाम रही। इसने भारतीय राष्ट्रवाद की परियोजना की सीमा और कमजोरियों को धरातल पर ला दिया।
 
इस परियोजना के तहत परिवर्तन का जो एजेंडा तय किया गया था उसकी सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि यह भारतीय किसानों के सवाल सुलझाने में नाकाम रही। जाहिर है इसने ग्रोथ को तेज करने के लिए नवउदारवादी नीतियों को अपना लिया। जिसके पास बढ़ती बेरोजगारी की समस्या को सुलझाने का कोई रास्ता नहीं था। इन दोनों मामलों में सभी व्यवस्थित राजनीतिक पार्टियां दोषी हैं। ये सारे हालात पहचान की राजनीति पर जोर देने के बिल्कुल मुफीद बैठते हैं।
 
जाति की राजनीति पर आधारित सामाजिक न्याय की राजनीति का उभार इसका एक उदाहरण है। लेकिन जल्द ही इसकी एक सीमा बंध जाती है। विकास रोजगारविहीन हो जाता है। इसका लाभ सभी को बराबर नहीं मिल पाता है। इस तरह के विकास  को बढ़ावा देने वाले इसका लाभ लेने वाले स्वार्थी तत्व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का कार्ड खेलने में सहज महसूस करते हैं। एक तरफ वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का कार्ड खेलते हैं तो दूसरी ओर दूसरी तरफ सोशल इंजीनयिरंग का। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आड़ में मौजूदा सामाजिक और आर्थिक अन्याय और गैर बराबरी छिप जाती है। यह बहुसंख्यक पहचान को आगे बढ़ाती और छोटी पहचानों को ढक लेती है। जहां तक सोशल इंजीनियर का सवाल है तो यह सामाजिक न्याय की पहचान की राजनीति खुलासे की हद तक ले जाता है।
 
दरअसल  मोदी-शाह की जोड़ी ने यूपी चुनाव में इसी रणनीति को आजमाया। वे सफल रहे क्योंकि उनके विरोधी को कोई विश्वसनीय विमर्श खड़ा नहीं कर पाए।

पिछड़ों में अति पिछड़ों की आबादी में से ज्यादातर सीमांत और छोटे किसान हैं और बीजेपी, बीएसपी और एसपी समेत सभी राजनीतिक पार्टियों की ओर से आजमाए जाने वाले विकास के मौजूदा मॉडल से वे सबसे ज्यादा नकारात्मक तौर पर प्रभावित हुए हैं।
 
ऐसी परिस्थिति में इन जातियों की लामबंदी ने मतदाताओं में अब तक सत्ता में बैठी पार्टियों के खिलाफ एक बड़ी अपील गई। इन्हें राज्य  की ताकत  में हिस्सेदारी और फौरी तौर पर फायदा देने का भरोसा दिया गया। इसके अलावा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर आधारित पहचान के व्यापक दायरे ने उन लोगों को भी आकर्षित किया जो सामाजिक न्याय की प्रमुख पार्टियों की ओर से नजरअंदाज कर दिए गए थे या हाशिये पर डाल दिए गए थे।
 
सेक्लूयरवाद का नारा लगाने वाले सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का जवाब नहीं दे सके। यह स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान का नारा था, जब औपनिवेशिक सत्ता से संघर्ष के लिए एक आधुनिक, और संगठित राजनीतिक मोर्चे की जरूरत थी।
 
इसके अलावा यूपी में सेक्यूलर राजनीति करने वाली पार्टियों सांप्रदायिक दंगों और छिपे हुए भेदभाव के मामलों अपना बचाव नहीं कर सकी। ये पार्टियां सांप्रदायिक ताकतों के साथ अपने मौकापरस्त गठजोड़ों का भी बचाव करने में नाकाम रहीं। इस तरह सेक्यूलरिज्म की पॉपुलर अपील उन धार्मिक अल्पसंख्यकों को आकर्षित नहीं कर पाई जो सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों के राज में अपनी सुरक्षा और बेहतरी लिए चिंतित थे। यही वजह है कि बीजेपी को सेक्यूलर राजनीति को बदनाम करने और इसे धार्मिक अल्पसंख्यकों की तुष्टिकरण की राजनीति कहने का मौका मिल गया। बहुसंख्यक समुदाय अब स्वतंत्रता संग्राम के दिनों की सेक्यूलर राजनीति के प्रभाव में नहीं रह गया था। और उसे यह तुष्टिकरण शब्द भड़काने लगा।
 
देखा जाए तो इन परिस्थितियों में यूपी में कोई वैकल्पिक राजनीतिक विमर्श नहीं था।  बगैर परिवरर्तन के एजेंडे वाला कोई फौरी राजनीतिक विमर्श का विकल्प भी नहीं, जैसा कि 2015 में बिहार में दिखा था। वहां हमें इस फौरी विकल्प का नतीजा दिख गया था।
 
यूपी विधानसभा का चुनाव सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि यह राज्य ‘भारत का दिल’ है। या फिर इसने मोदी के लिए 2019 का रास्ता साफ कर दिया है। जैसा कि विपक्ष के कुछ नेताओं का कहना है। वे इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इसने भारतीय राजनीतिक की कुछ त्रासदियों को खुले तौर पर सामने रख दिया है- एक ओर राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष की ओर से पेश किया जाने वाले कोई वैकल्पिक राजनीतिक विमर्श मौजूद नहीं है। दूसरी ओर, बगैर परिवर्तनकारी एजेंडे के भी कोई कोई विश्वसनीय राजनीतिक विकल्प नहीं दिखता।
 
चिंताजनक बात यह नहीं है कि मोदी के लिए 2019 का रास्ता साफ हो गया है। चिंताजनक बात मौजूदा परिस्थिति में इस तरह की राजनीति और नीतियों का गैर टिकाऊपन है।

मौजूदा दौर में जो कृषि संकट है उसके बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता। साथ ही बुर्जुआ युवाओं की नौकरी और गरिमा की चाह को भी कम करके नहीं आंका जा सकता है। आज की तारीख में ऐसे युवाओं को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नारों और चतुराईपूर्ण सोशल इंजीनयिरंग से अपने पाले में किया जा सकता है।
 
कोई भी ऐसा राष्ट्र-राज्य समृद्धि की तो बात छोड़ दीजिये ज्यादा समय तक इसलिए भी टिका नहीं रह सकता है कि इसकी 18 करोड़ आबादी खुद को दूसरी श्रेणी की नागिरक समझ कर कर इससे दूर छिटकती जा रही है और खुद को असुरक्षित महसूस कर रही है। कोई भी राष्ट्रवादी नारेबाजी इस तथ्य को मिटा नहीं सकती। कोई भी ताकत इसे तथ्य को उलट नहीं सकती।

भारत में उसी राजनीति का भविष्य है जो समावेशी हो और जो समानता, आजादी, भाईचारे और न्याय जैसे आधुनिक मूल्यों पर टिका हो। हमें अपने संविधान के इन मूलभूत तत्वों की फिर से तलाश करनी होगी और राष्ट्र निर्माण के विमर्श को दोबारा खड़ा करना होगा।
 
शुरुआत 1857 में आजादी की पहली लड़ाई के दौरान के प्रस्थान बिंदु से ही करनी होगी। उस महौल में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में किसानों का एक बड़ा समूह था। आज के दौरान के किसान भी गरीबी में जी रहा है और युवाओं के पास काम नहीं है। यह वर्ग नवउदारवादी नीतियों और उसके विकास मॉडल के खिलाफ लड़ाई का नया सिपाही  बन सकता है।
 
किसानों की दशा सुधारने की शुरुआती जनांदोलन के तौर पर सहकारी खेती के विकास से की जा सकती है। पैदावार खरीदने, अनाजों की प्रोसेसिंग, बड़े पैमाने पर सिंचाई और जल-संरक्षण, मिट्टी संरक्षण, सामाजिक वानिकी और गांवों में इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास के साथ ही सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा का मॉडल किसानों और कृषि सेक्टर की दशा सुधार सकता है। कृषि सेक्टर में सुधार से हमारे युवाओं के सामने रोजगार के काफी अवसर पैदा होंगे।
 
लेकिन इसे राष्ट्रीय स्तर पर उपयुक्त औदयोगिक और व्यापार नीतियों का भी समर्थन चाहिए होगा। इस तरह की नीतियों से मौजूदा विकास नीतियों की नकारात्मक चीजों की काट पैदा होगी। औद्योगिक देशों में ग्लोबलाइजेशन और बहुलता घट रही है।ऐसे में नव-उदारवादी नीतियों का ज्यादा टिकना मुश्किल होगा। इससे एक ऐसी नीति आएगी जो नव-उदारवादी नीतियों से दूर ले जाएगी।
 
दूसरे शब्दों में कहें तो यूपी इलेक्शन के नतीजों से पैदा राजनीतिक संकट राजनीति और राजनीतिक अर्थव्यवस्था में एक वैकल्पिक विमर्श की मांग कर रहा है। अगर भरोसेमंद विकल्पों की लामबंदी की जाए तो इस संकट को शायद थोड़े समय के लिए टाला जा सकता है। राजनीति में लगे लोगों का यह मुख्य चिंता का विषय है। लेकिन इस तरह की राजनीति ज्यादा दिन तक नहीं टिकने वाली है। अगर इस तरह की राजनीति चलाई जाती रही तो इसके अंदर की विस्फोटक तत्व कभी भी सामने आ कर संकट पैदा कर सकते हैं।
 
इस संकट का हल वैकल्पिक राजनीतिक विमर्श स्थापित करने और इसके गिर्द किसानों और युवाओं की लामबंदी में है।
 
(एस पी शुक्ला भारतीय प्रशासनिक सेवा के सेवानिवृत अधिकारी रहे हैं। वह पूर्व वित्त सचिव हैं।)

बाकी ख़बरें