“अहिंसा की प्रयोगस्थली, हिंसा की प्रयोगशाला बनती जा रही है और गांधी की संतानें खामोश है.”
स्वामी अग्निवेश पर दो बार हमला. महात्मा गांधी सेंट्रल यूनिवर्सिटी मोतीहारी के प्रोफेसर पर घर में घुस कर हमला. ऐसी घटनाओं को अगर आप “मॉब लिंचिंग” बताते है, तो आप बहुत बडी गलती कर रहे है. ये मॉब लिंचिंग नहीं है. ये बकायदा षडयंत्र कर, संगठित तरीके से एक खास समूह के द्वारा किया जाने वाला अपराध है. इसलिए, इसे “संगठित आपराधिक गिरोह कहिए”. आपराधिक इसलिए कि भारत के संविधान में, कानून में कहीं भी नहीं लिखा है कि अगर आपकी भावना आहत होती है तो आप किसी की जान ले लेंगे. वैसे भी यहां मामला भावनाओं के आहत होने का भी नहीं है. ऐसे संगठित आपाराधिक गिरोह भावना आहत होने की आड में अपनी दुश्मनी और खुन्नस निकाल रहे है.
मोतीहारी सेंट्रल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर संजय के साथ जो हुआ, उसे आपने मॉब लिंचिंग बता कर असल मुद्दे को ही गायब कर दिया. पिछले 1 साल से इस यूनिवर्सिटी में जो हो रहा था, उसका एक बहुत ही छोटा सा नकारात्मक नतीजा प्रोफेसर पर अपराधियों द्वारा किए गए हमले के रूप में सामने आया है. इस यूनिवर्सिटी में जो चल रहा है, उसका एक बहुत ही छोटा नमूना है यह घटना. आज से ही यूनिवर्सिटी में साइन डाए लागू कर दिया गया है. अभी तक जिस यूनिवर्सिटी के पास अपना भवन तक नहीं है, वहां अभी से ही क्या-क्या गुल खिल और खिलाए जा रहे है, उसका पता कीजिए.
आर्थिक अनियमितताएं, फर्जी डिग्री, जातिवाद, मनमानी के आरोपों से ग्रस्त इस यूनिवर्सिटी का सपना तो मोतीहारी के लोगों ने नहीं देखा था. प्रोफेसर प्रकरण पर भी चंपारण का वह सिविल सोसायटी बंटा हुआ है, जो मोतीहारी में यूनिवर्सिटी की स्थापना के लिए कन्धे से कन्धा मिला कर मोतीहारी से दिल्ली तक आन्दोलनरत था. चंपारणवासी भूल गए कि किसी भी वीसी, किसी भी प्रोफेसर से अधिक महत्वपूर्ण यह यूनिवर्सिटी है. किसी एक वीसी, किसी एक प्रोफेसर, किसी छोटे-मोटे लालच से अधिक महत्वपूर्ण है, इस यूनिवर्सिटी की गरिमा का बचे रहना.
प्रोफेसर प्रकरण के बाद, चंपारण के लोगों को इस बात के लिए शर्मिन्दा होना चाहिए कि वे गांधी की कर्मभूमि पर ऐसे “संगठित आपराधिक गिरोहों” की हिंसा का समर्थन कर रहे हैं. जो समर्थन नहीं कर रहे हैं, वे खामोश है. गांधी ने चंपारण को जगाया था. आज चंपारण सो गया है. अहिंसा की प्रयोगस्थली हिंसा की प्रयोगशाला बनती जा रही है और गान्धी की संतानें अपने छिटपुट स्वार्थों या निष्क्रियता की वजह से खामोश है. मान लिया कि उस प्रोफेसर के कुछ लिखने से आपकी भावनाएं आहत हो भी गई तो क्या वह प्रोफेसर कोई ब्रिटिश नागरिक था? अगर वो ब्रिटिश भी होता तो गांधी उस पर हमला करने से मना करते. आज, चंपारणवसियों को तय करना चाहिए कि वो आने वाली पीढी के लिए कौन सा रास्ता तैयार करना चाहेंगे? हिंसा का या अहिंसा का?
भारत में मॉब लिंचिंग हमेशा से होता रहा है. लेकिन, कैसे? आप हाईवे पर जा रहे है. आपकी कार से किसी की बकरी-मुर्गी टकरा कर मर गई. कोई व्यक्ति दुर्घटनाग्रस्त हो गया, अचानक स्थानीय लोग आपको घेर लेंगे. लेकिन, किसी विचार से असहमत लोगों के साथ हिंसा करने को भी अगर आप मॉब लिंचिंग मानते है, तो आप दरअसल ऐसे लोगों के दुस्साहस को और अधिक बढा ही रहे है. आप सीधे-सीधे ऐसे लोगों को संगठित आपराधिक गिरोह का सदस्य बोलना शुरू कीजिए.
वर्ना ये शेर याद कर लीजिए. दिन में कम से कम 2 बार जरूर दुहराइए...
लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में
यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है.
स्वामी अग्निवेश पर दो बार हमला. महात्मा गांधी सेंट्रल यूनिवर्सिटी मोतीहारी के प्रोफेसर पर घर में घुस कर हमला. ऐसी घटनाओं को अगर आप “मॉब लिंचिंग” बताते है, तो आप बहुत बडी गलती कर रहे है. ये मॉब लिंचिंग नहीं है. ये बकायदा षडयंत्र कर, संगठित तरीके से एक खास समूह के द्वारा किया जाने वाला अपराध है. इसलिए, इसे “संगठित आपराधिक गिरोह कहिए”. आपराधिक इसलिए कि भारत के संविधान में, कानून में कहीं भी नहीं लिखा है कि अगर आपकी भावना आहत होती है तो आप किसी की जान ले लेंगे. वैसे भी यहां मामला भावनाओं के आहत होने का भी नहीं है. ऐसे संगठित आपाराधिक गिरोह भावना आहत होने की आड में अपनी दुश्मनी और खुन्नस निकाल रहे है.
मोतीहारी सेंट्रल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर संजय के साथ जो हुआ, उसे आपने मॉब लिंचिंग बता कर असल मुद्दे को ही गायब कर दिया. पिछले 1 साल से इस यूनिवर्सिटी में जो हो रहा था, उसका एक बहुत ही छोटा सा नकारात्मक नतीजा प्रोफेसर पर अपराधियों द्वारा किए गए हमले के रूप में सामने आया है. इस यूनिवर्सिटी में जो चल रहा है, उसका एक बहुत ही छोटा नमूना है यह घटना. आज से ही यूनिवर्सिटी में साइन डाए लागू कर दिया गया है. अभी तक जिस यूनिवर्सिटी के पास अपना भवन तक नहीं है, वहां अभी से ही क्या-क्या गुल खिल और खिलाए जा रहे है, उसका पता कीजिए.
आर्थिक अनियमितताएं, फर्जी डिग्री, जातिवाद, मनमानी के आरोपों से ग्रस्त इस यूनिवर्सिटी का सपना तो मोतीहारी के लोगों ने नहीं देखा था. प्रोफेसर प्रकरण पर भी चंपारण का वह सिविल सोसायटी बंटा हुआ है, जो मोतीहारी में यूनिवर्सिटी की स्थापना के लिए कन्धे से कन्धा मिला कर मोतीहारी से दिल्ली तक आन्दोलनरत था. चंपारणवासी भूल गए कि किसी भी वीसी, किसी भी प्रोफेसर से अधिक महत्वपूर्ण यह यूनिवर्सिटी है. किसी एक वीसी, किसी एक प्रोफेसर, किसी छोटे-मोटे लालच से अधिक महत्वपूर्ण है, इस यूनिवर्सिटी की गरिमा का बचे रहना.
प्रोफेसर प्रकरण के बाद, चंपारण के लोगों को इस बात के लिए शर्मिन्दा होना चाहिए कि वे गांधी की कर्मभूमि पर ऐसे “संगठित आपराधिक गिरोहों” की हिंसा का समर्थन कर रहे हैं. जो समर्थन नहीं कर रहे हैं, वे खामोश है. गांधी ने चंपारण को जगाया था. आज चंपारण सो गया है. अहिंसा की प्रयोगस्थली हिंसा की प्रयोगशाला बनती जा रही है और गान्धी की संतानें अपने छिटपुट स्वार्थों या निष्क्रियता की वजह से खामोश है. मान लिया कि उस प्रोफेसर के कुछ लिखने से आपकी भावनाएं आहत हो भी गई तो क्या वह प्रोफेसर कोई ब्रिटिश नागरिक था? अगर वो ब्रिटिश भी होता तो गांधी उस पर हमला करने से मना करते. आज, चंपारणवसियों को तय करना चाहिए कि वो आने वाली पीढी के लिए कौन सा रास्ता तैयार करना चाहेंगे? हिंसा का या अहिंसा का?
भारत में मॉब लिंचिंग हमेशा से होता रहा है. लेकिन, कैसे? आप हाईवे पर जा रहे है. आपकी कार से किसी की बकरी-मुर्गी टकरा कर मर गई. कोई व्यक्ति दुर्घटनाग्रस्त हो गया, अचानक स्थानीय लोग आपको घेर लेंगे. लेकिन, किसी विचार से असहमत लोगों के साथ हिंसा करने को भी अगर आप मॉब लिंचिंग मानते है, तो आप दरअसल ऐसे लोगों के दुस्साहस को और अधिक बढा ही रहे है. आप सीधे-सीधे ऐसे लोगों को संगठित आपराधिक गिरोह का सदस्य बोलना शुरू कीजिए.
वर्ना ये शेर याद कर लीजिए. दिन में कम से कम 2 बार जरूर दुहराइए...
लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में
यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है.